बुधवार, 20 फ़रवरी 2008
भाषा का संस्कार (पानी देना)
आज कहीं भी यह वाक्य सुन ने को मिल जाता है।
बचपन में एक बार भोजन करते समय तेज मिर्च लगने पर मैं एकाएक कह बैठा -अम्माँ, पानी देना।
दादी वहीं थी। पानी मिलना तो दूर वह डाँटने लगी- ऐसा नहीं बोलते।
मैं ने पूछा -क्यों।
तो, वे बोलीं - पानी मरने वाले को दिया जाता है।
उस के बाद इस शब्द का प्रयोग हमने नहीं किया।
आज इस बात की याद फिर आयी। शाम को शोभा (पत्नी) ने भोजन तैयार होने की सूचना दी। तो हम ऑफिस से उठे और कहा- हम हाथ मुंहँ धोकर ( शौच से निवृत्त हो कर) आते हैं। तब तक आप भोजन लगा दो। नहीं तो फिर कोई आ मरेगा।
पत्नी ने टोक दिया - ऐसा क्या बोलते हो? जरा शुभ-शुभ बोला करो।
मैं ने सफाई दी - इस में क्या गलत है? यह तो मुहावरा है।
-हो, मुहावरा। इस से भाषा तो खराब होती है।
मैं ने उसे सही बताते हुए अपनी गलती स्वीकार की। आइंदा सही बोलने का वायदा किया, और हाथ मुहँ धोने चल दिया।
वास्तव में परिवार में मिली इन छोटी-छोटी बातों से भाषा को संस्कार मिला। जीवन सहयात्री ने इसे बनाए रखने में सहयोग किया। अनेक ब्लॉगर साथियों को इस तरह के संस्कार नहीं मिले। वे इस अवसर से वंचित रह गए। सोचता हूँ, मैं ही उन्हें टोकना प्रारंभ कर दूँ। पर भय लगता है वे इसे अन्यथा ले कर कतराने लगे तो कहीं साथियाना व्यवहार ही न टूट जाऐ।
रविवार, 17 फ़रवरी 2008
खेमाबन्दी नहीं चलेगी, खेमाबन्दी मुर्दाबाद
कोई रजाई में घुसे घुसे चिल्लाया
खेमाबन्दी मुर्दाबाद।
कोई क्या खेमे बनाए
खेमे तो बने हुए हैं,
पहले से
मेरे, तुम्हारे, उस के या इसके
पैदा होने के पहले से।
एक खेमे में मैं हूँ
और मेरे जैसे लोग
जो फिल्म देख कर निकले हैं
उसी खेमे में हैं , या कि दूसरे में?
बात करते हैं...
कि फिल्म कैसी है?
कोई कहता है- बिलकुल बोर
कोई कहता है- टाइम पास
और कोई कहता है
-नहीं, बड़ा संदेश छिपा है इस में।
अब छोड़ो भी यार देख ली ना
समझ में न आई हो तो टिकट लो
और दुबारा घुस लो,
पसंद आई हो तो टिकट लो
और दुबारा घुस लो।
मुझे भूख लगी है,
कोई खाने की जगह देखो
और वहां घुस लो।
कई जगह देखते हैं।
एक, एक को पसंद नहीं
दूसरी दूसरे को
आखिर वहाँ पहुँचते हैं
जिस के बाद कोई खाने की जगह नही.
सभी कहते हैं, सब से रद्दी
ये कोई जगह है?
न बैठने को ठीक, न खाने को
वापस चलें?
वापस पिछला, एक किलोमीटर पहले छूटा है?
मुझे भूख लगी है
वापस नहीं जा सकता
भूख सभी को लगी है।
अब कौन वापस लौटेगा।
चलो यहीं बैठते हैं।
सभी घुस जाते हैं
खाना खाते हैं
बाहर निकलते हुए कोई कहता है
-कुछ बुरा भी नहीं था खाना
बुरा नहीं था? तू यहीं महीना लगवा ले।
और तुम?
मैं भूखा रह लूंगा पर यहाँ नहीं आउंगा।
तो मैं कैसे यहाँ आउंगा।
चल कल नया ढूंढेंगे।
चल, चल कर सोते हैं
सब चल देते हैं
एक बोलता है
तू ने सही कहा, खाना वैसे बुरा नहीं था
साथ खाया, बुरा कैसे होता?
तो फिर तय रहा
बुरा हो या अच्छा
खाएंगे, साथ साथ
खेमाबन्दी नहीं चलेगी
कोई रजाई में घुसे घुसे चिल्लाया
खेमाबन्दी मुर्दाबाद।
गुड नाइट दोस्तों
अब सोता हूँ।
-दिनेशराय द्विवेदी,
17.02.2008, रात्रि 11:16 IST
गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008
सौ साल पहले ............ आज भी है, और कल भी रहेगा।
'शोभा' मेरी वेलेंटाइन (उत्तमार्ध) |
सोमवार, 11 फ़रवरी 2008
सावधान! हमले से बचें। परागकण आ रहे हैं।
शनिवार को भी ऐसा ही हुआ। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद की सुस्ती और सरदी लगने के भाव ने धूप सेंकने का मन बनाया और अपने राम चटाई ले छत पर जा लेटे। तेज धूप थी तो चुभती ठंडी हवा भी। रास्ता ये निकला कि पास में धुलाई के बाद सूख चुका पत्नी शोभा का शॉल औढ़ा और उस से छनती हुई धूप सेंकी एक घंटे और नीचे अपने कार्यालय में आकर काम पर लगे।
शाम होते होते नाक में जलन होने लगी। हम समझ गए कम से कम तीन दिन का कष्ट मोल ले चुके हैं। हम ने तुरंत शोभा को सूचना दी। उस ने भी तुरंत हमारी (जिस पर अब उस का एकाधिकार है) होमियोपैथी डिस्पेंसरी से जो अलमारी के दो खानों में अवस्थित है और जिसने हमें पिछले पच्चीस सालों से किसी अन्य चिकित्सक की शरण में जाने से बचाए रखा है, लाकर दवा दी। हम उसी को लेकर दो दिनों से अपने धर्मों को निबाह रहे हैं।
मैं सोच रहा था कि इस जुकाम के आगमन का कारण क्या रहा होगा। घर के सामने पार्क में बहुत से पेड़ हैं जिन में यूकेलिप्टस की बहुतायत है। उन से इन दिनों परागकण झर रहे हैं। वास्तव में वे ही इस अनचाहे मेहमान के कारण बने। खैर जुकाम तो काबू में है और एक दो दिन में विदा भी हो लेगा। पर इस मौसम में जो अभी मध्य अप्रेल तक चलेगा सभी को इन पराग कणों से बचने के प्रयत्न करते रहना चाहिए जो केवल जुकाम ही नहीं, नाक से लेकर फेपड़ों तक को असर कर सकते हैं। इन से हे-फीवर तक हो सकता है और कुछ अन्य प्रकार की ऐलर्जियाँ भी। बीमारी अनचाहे मेहमान बन कर आ जाए तो आप के कामों और आनंद सभी में खलल तो पैदा करेगी ही जेब पर हमला भी करेगी।
रविवार, 10 फ़रवरी 2008
“कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
किसी नए व्यक्ति से मिलने जाते हैं तो पहले उस का पता हासिल करना होता है। फिर किसी साधन से वहाँ तक पहुँचना पड़ता है। स्थान नया हो तो दस जगहों पर पूछते हुए जब गन्तव्य पर पहुंचते हैं तो बड़ी तसल्ली होती है, कि पहुँच गए। पर वहां घर के मुख्य द्वार पर लगी तख्ती फिर होश उड़ा देती है। जिस पर लिखा होता है “कुत्ते से सावधान" या “कुत्तों से सावधान”। अब आप बुलाने वाली घंटी को ढूंढते हैं, मिल जाने पर उसे दबाते हैं, कि कुत्ता या कुत्ते स्वागत गान कर देते हैं। फिर कुछ या कई मिनटों के बाद कोई आकर गेट खोलता है, आप का इंटरव्यू करता है कि आप घर में घुसाने लायक व्यक्ति हैं, कि नहीं ?
जब तक कोई बहुत बड़ी गरज न हो या फिर कोई अपने वाला ही न हो, तो ऐसे वक्त में खुद पर बड़ी कोफ्त होती है, कि पहले ही क्यों न पता कर लिया कि जहाँ जा रहे हो वह जगह कुत्ते वाली तो नहीं है ? और पता लग जाता तो शायद वहाँ तक पहुँचते ही नहीं।
आज हर व्यक्ति के पास बहुत कम समय है। दाल-रोटी का जुगाड़ ही सारा समय नष्ट कर देता है। ऐसे समय में हमें दूसरे लोगों के समय की कीमत पहचानना चाहिए। खास कर हिन्दी चिट्ठाकारों को जरूर पहचानना चाहिए।
मैं हिन्दी चिट्ठाकारी में नया जरूर हूँ। मगर अपने इस काम के प्रति संजीदा भी रहना चाहता हूँ। जैसे कहा जाता है कि जो रोज नहीं पढ़ता उसे पढ़ाने का अधिकार नहीं। इसी तरह मेरा सोचना है कि जो रोज कम से कम बीस चिट्ठे नहीं पढ़ता उसे चिट्ठा लिखने का भी कोई अधिकार नहीं।
अब आप चिट्ठे पढ़ेंगे तो टिप्पणी जरुर करेंगे। करना भी चाहिए। चिट्ठा लिखने का कोई तो आप का उद्देश्य रहा होगा। अनेक बार चिट्ठा लिखने का उद्देश्य केवल किसी चिट्ठे पर लिखे आलेख पर टिप्पणी करने से भी पूरा हो जाता है। इस तरह आप किसी विषय पर दोहराने वाला आलेख लिखने से बच जाते हैं और आप को एक नए बिन्दु पर चिट्ठा लिखने का अवसर मिल जाता है। जो चिट्ठाकार और पाठक दोनों के लिए ही उत्तम और समय को बचाने वाला है। इस कारण से सभी संजीदा चिट्ठाकारों को समय बचाने के मामले में सजग रहना चाहिए।
यह सारी बात यहाँ से उठी है कि अनेक नए-पुराने चिट्ठों पर जरुरी समझते हुए टिप्पणी करने पहुँचे, टिप्पणी टाइप भी कर दी, आगे बढ़े तो वर्ड वेरीफिकेशन ने रास्ता रोक दिया। वैसा ही लगा जैसे किसी से मिलने पहुँचे हों और दरवाजे पर तख्ती दिख गई हो “कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि हिन्दी चिट्ठाकारों को इस वर्ड वेरीफिकेशन की जरूरत क्या है ? कोई मशीन तो आप के चिट्ठे पर टिप्पणी करने आने वाली नहीं है, आयेंगे सिर्फ इंसान ही। और अगर मशीन भी आ कर कोई टिप्पणी कर रही हो तो उस से आप को नुकसान क्या है ? अधिक टिप्पणियाँ आप की रेटिंग को ही बढ़ाएगी।
टिप्पणीकर्ता कितना असहज महसूस करता है जब उस के सामने टिप्पणी टाइप करने के बाद यह वर्ड वेरीफिकेशन टपकता है। वह हिन्दी में टाइप कर रहा है। इस वर्ड वेरीफिकेशन के कारण उसे वापस अंग्रेजी में टोगल करना पड़ता है। कभी कभी शीघ्रता में कोई अक्षर समझ में न आए य़ा हिन्दी लिखते लिखते यकाय़क अंग्रेजी पर जाने के कारण अभ्यास से गलत अक्षर टाइप कर दे तो उसे दुबारा यह परीक्षा देनी पड़ती है। एक दुष्प्रभाव यह भी छूटता है कि चिट्ठाकार के बारे में यह समझ बनती है कि वह कभी दूसरों को पढ़ता और टिप्पणी नहीं करता है।
सभी हिन्दी चिट्ठाकारों से मेरा विनम्र निवेदन है कि आप अपने अपने चिट्ठों से वर्ड वेरीफिकेशन की तख्ती हटा ही दें। मैं आप को बता दूँ कि कुछ महत्वपूर्ण चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं आती थीं। मेरे व्यक्तिगत निवेदन के बाद से उन्हों ने वर्ड वेरीफिकेशन को हटाया और उन चिट्ठों को टिप्पणियां मिलने लगीं।
शनिवार, 9 फ़रवरी 2008
बीस इंची साईकिल
बीस इंची साईकिल
बारहवें जन्म दिन पर
मिली है उसे
पूरे बीस इंच की साईकिल।
पानी के छींटे दे
अभिषेक किया है,
कच्चा रंगा सूत बांध
पहनाए हैं वस्त्र और
रोली का टीका लगा
श्रंगार किया है,
साईकिल का।
पहले ही दिन
घुटने छिले हैं,
एक पतलून
तैयार हो गयी है
रफूगर के लिए,
दूसरे दिन लगाए हैं
तीन फेरे, अपने दोस्त के घर और
दोनों जा कर देख आए हैं
अपनी टीचर का मकान।
तीसरे दिन
अपनी माँ को
खरीद कर ला दिया है
नया झाड़ू।
और आज
चक्की से
पिसा कर लाया है गेहूँ।
कर सकता है कई काम
जो किया करता था
कल तक उस का पिता।
वह बताता है-
लोग नहीं चलते बाएं,
टकरा जाने पर
देते हैं नसीहत उसे ही
बाएं चलने पर।
चौड़ा गयी है दुनियाँ
उस के लिए,
लगे हों जैसे पंख
नयी चिड़िया के।
नीम पर कोंपलें
हरिया रही हैं,
वसन्त अभी दूर है
पर आएगा, वह भी।
बेटा हुआ है किशोर
तो, होगा जवान भी
खुश हैं मां और बहिन
और पिता भी।
कि उसका कद
बढ़ने लगा है। - दिनेशराय द्विवेदी
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008
धूप की पोथी
बड़ी बहस छिड़ी है। नतीजा सभी को पता है।
भारत सभी भारतीयों का है।
इस बीच मराठियों, बिहारियों, उत्तर भारतीयों - सभी की बातें होंगी, हो रही हैं
इस बीच आदमी गौण हो रहेगा और राजनीति प्रमुख
राजनीति वह जो जनता को बेवकूफ बनाने और अपना उल्लू सीधा करने की है।
मुझे इस वक्त महेन्द्र 'नेह' की कविता 'धूप की पोथी' का स्मरण हो रहा है।
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धूप की पोथी
-महेन्द्र 'नेह'
रो रहे हैं
खून के आँसू
जिन्हों ने
इस चमन में गन्ध रोपी है !
फड़फड़ाई सुबह जब
अखबार बन कर
पांव उन के पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उन के सांकलों में थे
सी रहे हैं
फट गई चादर
जिन्हों ने
इस धरा को चांदनी दी है !
डगमगाई नाव जब
पतवार बन कर
देह उन की हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उन की हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं
धूप की पोथी
जिन्हों ने बरगदों को छाँह सोंपी है !
छलछलाई आँख जब
त्यौहार बन कर
प्राण उन के युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश हो कर
कदम उन के अग्नि-पथ पर थे
सह रहे हैं
मार सत्ता की
जिन्होंने
इस वतन को जिन्दगी दी है !