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मंगलवार, 6 मई 2014

धर्मनिरपेक्षता का क्या अर्थ है? ... आनन्द तेलतुंबड़े

आनंद तेलतुंबड़े का यह लेख न सिर्फ दलों से अलग, भारतीय राज्य के फासीवादी चरित्र को पहचानने की जरूरत पर जोर देता है बल्कि यह धर्मनिरपेक्षता की ओट में इस फासीवादी-ब्राह्मणवादी राज्य के कारोबार को चलाते रहने की सियासत को उजागर करता है. अनुवाद: रेयाज उल हक

अपने एक हालिया साक्षात्कार में मोदी द्वारा इस बात पर घुमा फिरा कर दी गई सफाई की वजह से एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता पर बहस छिड़ गई, कि क्यों उसने मुस्लिम टोपी नहीं पहनी थी.  मानो मुसलमानों के प्रति मोदी और उसकी पार्टी के रवैए में अब भी संदेह हो, फिर से पेशेवर धर्मनिरपेक्ष उस मोदी के बारे में बताने के लिए टीवी के पर्दे पर बातें बघारने आए, जिस मोदी को दुनिया पहले से जानती है. यहां तक कि बॉलीवुड भी धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी चिंता जाहिर करने में पीछे नहीं रहा. चुनावों की गर्मा-गर्मी में, सबसे ज्यादा वोट पाने को विजेता घोषित करने वाली हमारी चुनावी पद्धति में, व्यावहारिक रूप से इन सबका मतलब कांग्रेस के पक्ष में जाता है, क्योंकि आखिर में शायद कम्युनिस्टों और ‘भौंचक’ आम आदमी पार्टी (आप) को छोड़ कर सारे दल दो शिविरों में गोलबंद हो जाएंगे. वैसे भी चुनावों के बाद के समीकरण में इन दोनों से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. कम्युनिस्टों का उनकी ऐतिहासिक गलतियों की वजह से, जिसे वे सही बताए आए हैं, और आप का इसलिए कि उसने राजनीति के सड़े हुए तौर तरीके के खिलाफ जनता के गुस्से को इस लापरवाही से और इतनी हड़बड़ी में नाकाम कर दिया. अरसे से गैर-भाजपा दलों के अपराधों का बचाव करने के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ का एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन किसी भी चीज की सीमा होती है. जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की करतूतों और अयोग्यताओं ने हद पार कर दी है और इस तरह आज भाजपा को सत्ता के मुहाने पर ले आई है, तो ऐसा ही सही. यह धर्मनिरपेक्षता का सवाल नहीं है. यह स्थिति, जिसमें घूम-फिर कर दो दल ही बचते हैं, एक बड़ा सवाल पेश करती है कि क्या भारतीय जनता के पास चुनावों में सचमुच कोई विकल्प है!

क्या कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है?

धर्मनिरपेक्षता के आम विपरीतार्थक शब्द सांप्रदायिकता से अलग, किसी को भी ठीक ठीक यह नहीं पता कि धर्मनिरपेक्षता क्या है. सांप्रदायिकता का मतलब संप्रदायों के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करना है. औपनिवेशिक दौर से ही संप्रदायों का मतलब हिंदू और मुसलमान लगाए जाने का चलन रहा है, जबकि इन दोनों के अलावा भी इस देश में अनेक अन्य संप्रदाय हैं. चूंकि भाजपा की जड़ें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हैं, जिसका मकसद भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना है, तो यह एक सांप्रदायिक दल बन जाता है. हालांकि आरएसएस अपने हिंदुत्व को यह कह कर छुपाने की कोशिश करता है कि यह हिंदू धर्म पर आधारित नहीं है (वे यह कहने की हद तक भी जा सकते हैं कि हिंदू धर्म जैसी कोई चीज ही नहीं है), बस फर्क यही है कि अपनी समझ को उनके हाथों गिरवी रख चुके उनके अंधभक्त जानते हैं कि इसका केंद्रीय तत्व हिंदूवाद ही है. आरएसएस को दूसरे समुदायों को लुभाने के लिए ऐसे एक बहाने की जरूरत तब पड़ी जब बड़ी मुश्किलों से उसे यह समझ में आया कि हिंदू बहुसंख्या के रूप में जो चीज दिखती है वो असल में जातियों की अल्पसंख्या का एक जमावड़ा है. हालांकि इसने मुसलमानों समेत सभी समुदायों में अपने लिए किसी तरह समर्थन जुटा लिया है, तब भी यह अपने सांप्रदायिक पहचान से बच नहीं पाया है. तब सवाल यह है कि इसका राष्ट्रीय विकल्प कांग्रेस क्या धर्मनिरपेक्ष है. इसका मतलब है कि क्या वह सांप्रदायिक नहीं है?

अगर कोई कांग्रेस के इतिहास पर सख्ती से नजर डाले तो वह साफ नकारात्मक जवाब से बच नहीं सकता. यह कांग्रेस ही थी, जिसने भारत में औपनिवेशिक ताकतों को सांप्रदायिक राजनीति के दलदल में जाने को उकसाया और इसमें मदद की जिसका अंजाम विभाजन के रूप में सामने आया. भारत को संप्रदायों के एक जमावड़े के रूप में पेश करने की औपनिवेशिक ताकतों की सचेत रणनीति के बावजूद, सभी भारतीयों की प्रतिनिधि पार्टी के रूप में उनके हाथों में खेलने की जिम्मेदारी से कांग्रेस बच नहीं सकती. यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि कांग्रेस ने मुसलमानों की एक पार्टी मुस्लिम लीग के मुकाबले में खुद को हिंदू पार्टी के रूप में पेश किया. बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना (जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के नेता थे) के बीच 1916 में हुए लखनऊ समझौते में, जिसने बाकी बातों के अलावा प्रांतीय परिषद चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था कायम की. यह आगे चल कर एक ऐसी मुस्लिम राजनीति को शक्ल देने वाला था, जिसका अंजाम तीन दशकों के बाद विभाजन के रूप में सामने आना था. अगर कोई देखे तो उस त्रासदी के पीछे कांग्रेस की सांप्रदायिक बेवकूफी ही साफ दिखेगी, जिसने दसियों लाख जिंदगियों को अपनी चपेट में लिया और उपमहाद्वीप की सियासत को एक कभी न भरने वाला जख्म दिया.

1947 के बाद भी, जब शुरुआती दशकों तक कांग्रेस के सामने कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था, इसने धर्मनिरपेक्ष चेतना को फैलाने के लिए कुछ भी नहीं किया, और इसके बजाए इसने बांटो और राज करो के औपनिवेशिक तौर तरीकों को जारी रखा. जनसंघ और भाजपा जैसे हिंदुत्व दल तब तक बहुत छोटी ताकतें बने रहे, जब तक कि कांग्रेस की चालबाजियों ने उनमें जान नहीं फूंक दी. इतिहास गवाह है कि यह राजीव गांधी द्वारा 1985 में शाह बानो मामले में दी गई दखल से शुरू हुआ. राजीव ने अपनी भारी संसदीय बहुमत का इस्तेमाल मुस्लिम भावनाओं को तुष्ट करने की खातिर, सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले को पलटने में किया. इसने हिंदुत्व ताकतों को सांप्रदायिक आग भड़काने के लिए जरूरी चिन्गारी मुहैया कराई. जैसे तैसे भरपाई करने के लिए, और इस बार हिंदुओं को खुश करने के लिए, महज कुछ ही महीनों के बाद राजीव गांधी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का आदेश किया और आग को नर्क की आग में बदलने दिया, जो आगे चल कर न सिर्फ बाबरी मस्जिद को तोड़ने वाली थी, बल्कि इसके बाद सैकड़ों लोगों की जिंदगियों को भी लीलने वाली थी और भाजपा को सियासी रंगमंच पर पहुंचाने वाली थी. यहां तक कि मस्जिद को तोड़े जाने की कार्रवाई में कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की जो मौन भूमिका रही, उसके भी पर्याप्त प्रमाण हैं. असल में ऐसी मिसालों की भरमार है.

धर्मनिरपेक्षता का हौवा

मौजूदा सियासी हालात में असल में कोई ऐसी पार्टी नहीं है जिसे सचमुच धर्मनिरपेक्ष कहा जा सके. हरेक दल चुनावों में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिसाब-किताब से काम लेते हैं. धर्मनिपेक्षता का मुद्दा सिर्फ इस्लाम या मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है, इसके दायरे में संप्रदायों के सभी आधार आते हैं और इसमें निश्चित रूप से जातियों को शामिल किया जाना चाहिए, जो कि हमारे राजनेताओं का मुख्य विषय हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि जातियां कभी भी धर्मनिरपेक्षता की बहसों में दूर दूर तक जगह नहीं पाती हैं. जैसा कि मैंने अपनी एक किताब हिंदुत्व एंड दलित्स में कहा है, सांप्रदायिकता की जड़ें जातिवाद में देखी जा सकती हैं. हिंदुत्व की ताकतों में मुसलमानों और ईसाइयों के लिए अभी जो नफरत है, वह इसलिए नहीं है कि वे एक पराई और दूसरी आस्था को मानते हैं, बल्कि बुनियादी तौर पर यह इस याद से जुड़ी हुई है कि इन संप्रदायों की व्यापक बहुसंख्या निचली जातियों से आई है. वे अब भी उनसे अस्वच्छ, असभ्य और पिछड़ों के रूप में नफरत करते हैं, जैसा कि वे दलितों से करते हैं. लेकिन ऐसी गहरी और बारीक समझ से दूर, वामपंथी उदारवादी धर्मनिरपेक्षतावादी उन सांप्रदायिक टकरावों पर गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाते हैं, जिनकी पहचान खास तौर से हिंदुओं और मुस्लिमों से जुड़ी होती है, और जातीय हिंसा की रोज रोज होने वाली घटनाओं पर अपवित्र चुप्पी साधे रहते हैं. एक अजीब से तर्क के साथ सांप्रदायिक टकरावों के प्रति चिंता को प्रगतिशील माना जाता है जबकि जातीय उत्पीड़न के लिए चिंताओं को जातिवाद माना जाता है.

धर्मनिरपेक्षता के हौवे ने एक तरफ तो भाजपा को अपना जनाधार मजबूत करने में मदद किया है, और दूसरी तरफ कांग्रेस को अपनी जनविरोधी, दलाल नीतियों को जारी रखने में. पहली संप्रग सरकार को माकपा का बाहर से समर्थन किए जाने का मामला इसे बहुत साफ साफ दिखाता है. यह बहुत साफ था कि सरकार अपने नवउदारवादी एजेंडे को छोड़ने नहीं जा रही है. लेकिन तब भी माकपा का समर्थन हासिल करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम की एक बेमेल खिचड़ी बनाई गई. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर, जब असहमतियां उभर कर सतह पर आईं, तो माकपा समर्थन को वापस ले सकती थी और इस तरह सरकार और समझौते दोनों को जोखिम में डाल सकती थी. लेकिन इसने बड़े भद्दे तरीके से सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर समर्थन जारी रखा और कांग्रेस को वैकल्पिक इंतजाम करने का वक्त दिया. जब इसने वास्तव में समर्थन वापस लिया, तो न तो सरकार का कुछ नुकसान हुआ और न समझौते का. बल्कि सांप्रदायिकता का घिसा-पिटा बहाना लोगों के गले भी नहीं उतरा. अक्सर धर्मनिरपेक्षता जनता की गुजर बसर की चिंताओं पर कहीं भारी पड़ती है!

गलत सरोकार

सटीक रूप में कहा जाए तो धर्मनिरपेक्षता राज्य का विषय है न कि दलों का. असल में इसकी बुनियाद यह है कि समाज और इसके  अलग अलग अंग अपने अपने धर्मों को मानेंगे और उन पर चलेंगे. लेकिन ऐसे एक समाज का शासन धार्मिक मामलों में पूरी तरह तटस्थ रचना चाहिए, और उसे सभी नागरिकों के साथ समान रूप से व्यवहार करना चाहिए चाहे उनका धर्म कोई भी हो, और राज्य के पदाधिकारी काम के दौरान किसी भी धार्मिक रीति-रिवाज का पालन नहीं करेंगे. भाजपा को हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करने या किसी भी दल को इसका विरोध किए जाने की ठीक ठीक इजाजत तभी तक दी जा सकती है जब तक वे कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं खड़ी कर देते. बल्कि राज्य की तटस्थता का मतलब ही यही है कि वह इसे यकीनी बनाए. लेकिन इसके उलट सरकारी दफ्तरों में हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें सजी होना और राज्य के कामकाज में हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया जाना रोजमर्रा का दृश्य है. यह मुद्दा धर्मनिरपेक्षतावादियों की तरफ से चुनौती दिए जाने की मांग करता है, लेकिन किसी ने इसकी तरफ निगाह तक नहीं की है.

जब भी कोई इसे उठाता है, तो वो अपने को अकेला पाता है. 01 मई 2010 को, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की मौजूदगी में गुजरात के राज्यपाल द्वारा एक उच्च न्यायालय की इमारत के लिए भूमि पूजन समारोह किया जा रहा था. यह समारोह पूरी तरह हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक किया जा रहा था, जिसमें एक पुजारी हवन भी करा रहा था. एक जानेमाने दलित कार्यकर्ता राजेश सोलंकी ने उच्च न्यायालय में इसके खिलाफ एक याचिका दायर की. 17 जनवरी, 2011 को जज जयंत पटेल ने याचिका को पथभ्रष्ट बताते हुए रद्द कर दिया और सोलंकी पर 20 हजार रुपए का हर्जाना थोप दिया. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की लेकिन संसाधनों की कमी की वजह से वहां भी यह फौरन खारिज कर दिया गया. इस मुकदमे को धर्मनिरपेक्षता की कसौटी बनाया जा सकता था, क्योंकि यह ठीक ठीक राज्य के धार्मिक व्यवहार को चुनौती देता था. लेकिन एक भी धर्मनिरपेक्षतावादी, किसी मीडिया, एक भी राजनीतिक दल ने इसकी तरफ निगाह नहीं उठाई.

अगर मोदी आ गया तो

इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी अब तक आए सभी प्रधानमंत्रियों से कहीं ज्यादा अंधराष्ट्रवादी होगा. अब चूंकि इसके प्रधानमंत्री बनने की संभावना ही ज्यादा दिख रही है तो इस पर बात करने से बचने के बजाए, अब यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि बुरा क्या हो सकता है. यह साफ है कि मोदी कार्यकाल बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा, जिन्होंने उसको खुल्लमखुल्ला समर्थन दिया है. लेकिन क्या कांग्रेस सरकार क्या उनके लिए कम फायदेमंद रही है? यकीनन मोदी सरकार हमारी शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों का भगवाकरण करेगी, जैसा कि पहले की राजग सरकारों के दौरान हुआ था. लेकिन तब भी यह बात अपनी जगह बरकरार है कि उसके बाद के एक दशक के कांग्रेस शासन ने न उस भगवाकरण को खत्म किया है और न कैंपसों/संस्थानों को इससे मुक्त कराया है. यह अंदेशा जताया जा रहा है कि यह जनांदोलनों और नागरिक अधिकार गतिविधियों पर फासीवादी आतंक थोप देगा. तब सवाल उठता है कि, जनांदोलनों पर थोपे गए राजकीय आतंक के मौजूदा हालात को देखते हुए-जैसे कि माओवादियों के खिलाफ युद्ध, उत्तर-पूर्व में अफ्स्पा, मजदूर वर्ग पर हमले, वीआईपी/वीवीआईपी को सुरक्षा देने की लहर-जो पहले से ही चल रहा है उसमें और जोड़ने के लिए अब क्या बचता है? लोग डर रहे हैं कि मोदी संविधान को निलंबित कर देगा, लेकिन तब वे शायद यह नहीं जानते कि जहां तक संविधान के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से भाग 4 की बात है-जिसमें राज्य के नीति निर्देशक तत्व हैं-संविधान मुख्यत: निलंबित ही रहा है.

यह सच है कि इतिहास में ज्यादातर फासिस्ट चुनावों के जरिए ही सत्ता में आए हैं लेकिन वे चुनावों के जरिए हटाए नहीं जा सके. चाहे मोदी हो या उसकी जगह कोई और, अगर वो ऐसे कदम उठाने की कोशिश करेगा तो बेवकूफ ही होगा, क्योंकि ऐसा निरंकुश शासन सबसे पहले तो नामुमकिन है और फिर भारत जैसे देश में उसकी कोई जरूरत भी नहीं है. बल्कि ये सारी बातें भीतर ही भीतर पहले से ही मौजूद है और अगर हम धर्मनिरपेक्षता का अंधा चश्मा पहने रहे तो यह सब ऐसे ही चलता रहेगा.

रविवार, 4 मई 2014

भाजपा का घोषणापत्रः फासीवादी दस्तावेज

  • अनिल यादव

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने जो अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी किया है, वह भारत जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए घातक ही नहीं, बल्कि उसके संवैधानिक मूल्यों के भी विपरीत है। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का दंभ भरने वाली भाजपा का घोषणापत्र भारत के संविधान की धज्जियां उड़ाता नजर आता है। भाजपा द्वारा जारी किए गए घोषणा-पत्र को गंभीरता से देखें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि विकास का झुनझुना बजाने वाले मोदी और उनके सिपहसलारों का उद्देश्य कुछ दूसरा ही है। घोषणा-पत्र के मुख्य पृष्ठ पर ही ’एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ का श्लोगन भाजपा की मानसिकता की तरफ इशारा करता नजर आता है। वस्तुतः जब भी हमारे मस्तिष्क में ’एक’ की प्रस्तुति होती है, त्यों ही हम दो के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। एक भारत कहने का अर्थ साफ है कि भाजपा का घोषणा-पत्र बनाने वाली समिति किसी ’दूसरे’ भारत के बारे में जानती है, अर्थात वह भारत को एक नही मानती है। भाजपा का ’एक’ भारत कैसा होगा? कहीं यह हिन्दू राष्ट्र की तरफ इशारा तो नही है? क्या भाजपा पुराने संघी अवधरणा की तरफ इशारा करती नजर नही आ रही है कि भारत के भीतर कई पाकिस्तान हैं।

मोदी ने अपने पूर्वोत्तर की एक रैली में कहा था कि जहां भी हिन्दुओं पर अत्याचार होगा, उसके लिए भारत सुरक्षित जगह होगी। वह भारत ही लौटकर आएंगे। अब 2014 के भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र ने इसे बिल्कुल साफ कर दिया है। भाजपा के घोषणा-पत्र में स्पष्ट लिखा है कि अपनी जमीन से उजाड़े गए हिन्दुओं के लिए भारत सदैव प्राकृतिक गृह रहेगा और यहां आश्रय लेने के लिए उनका स्वागत है। इससे साफ है कि भाजपा भारत को हिन्दू राष्ट्र के तौर पर ही देखती है।

एक अप्रैल 2014 को नेपाल में भाजपा के अनुषांगी संगठन विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल नें विराट नगर में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि यदि मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं तो नेपाल को एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया जाएगा। एक तरफ भारतीय संविधान जहां किसी भी देश के खिलाफ षडयंत्र न रचने और मैत्रीपूर्ण संबंधों की वकालत करता है, वहीं दूसरी तरफ सत्ता का ख्वाब सजा रही भाजपा और उससे जुड़े हुए नेताओं का विचार बेहद घातक है, जो सिर्फ भारत के लोकतंत्र के लिए ही नहीं बल्कि बल्कि पड़ोसी मुल्को के लोकतंत्र के लिए भी घातक है।

ऐतिहासिक तथ्य है कि शुरू से ही भाजपा और संघ परिवार के लिए नेपाल बहुत ही महत्वपूर्ण राष्ट्र रहा है। सावरकर जैसे हिन्दूवादी दार्शनिक ने तो यहां तक घोषणा की थी कि भारत आजाद होगा तो उसे नेपाल में विलय कर दिया जाएगा। नेपाल नरेश को सावरकर ने विश्व हिन्दू सम्राट की उपाधि भी प्रदान की थी। जब नेपाल के लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत थे तो 2006 में गोरखपुर में आयोजित हिन्दू महा सम्मेलन में ’राजनीति का हिन्दुत्व करण और हिन्दुओं का सैन्यकरण’ का नारा बुलंद किया गया था। इसी क्रम में 23 से 25 अप्रैल 2008 में देवीपाटन मंदिर बलरामपुर में विश्व हिंदू महासंघ की कार्यकारिणी की बैठक में साफ कहा गया था कि नेपाल में हिन्दू राष्ट्र की बहाली होकर रहेगी, चाहे हमें हिंसा का सहारा ही क्यों न लेना पड़े। परन्तु, हिन्दुत्ववादियों को इसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई।

भाजपा के 2009 के घोषणा-पत्र को देखा जाए तो इसमें साफ लिखा है कि यदि वो सत्ता में आएं तो नेपाल के प्रति नीति की समीक्षा करेंगे। आखिर यह इशारा क्या था? भाजपा का दुर्भाग्य था और नेपाली लोकतंत्र का सौभाग्य कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार पीएम इन वेटिंग ही रह गए। यदि हम भाजपा के 2014 के घोषणा-पत्र के प्रस्तावना को ध्यान से देखें तो साफ जाहिर हो जाता है कि भाजपा हिन्दुत्व और विदेश नीति को लेकर क्या सोचती है। भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में उल्लेख किया है कि कोई भी राष्ट्र अपने आप को, अपने इतिहास को, अपनी जड़ों को, अपनी शक्तियों और सफलता को ध्यान में रखे बिना अपने विदेश नीति को तय नहीं कर सकता है। वस्तुतः भाजपा अपने घिसे पिटे तर्कों के आधार पर भारत को प्राचीन में एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखती है। वह अपनी जड़ों को नेपाल की हिन्दू राजशाही से भी जोड़कर देखना चाहती है।

नेपाल से जुड़े पूर्वाचल में हिन्दुत्व के पैरोकार योगी आदित्यनाथ ने तो भारत के हिन्दू राष्ट्र होने का खाका भी तैयार कर लिया है। योगी आदित्यनाथ के लोग पूर्वांचल में खुले मंचों से मुसलमानों से उनके वोट देने के वैधानिक अधिकार को छीनने की बात करते नजर आते है। आदित्यनाथ के लोग न सिर्फ भारत के आंतरिक संप्रभुता के विरुद्ध हैं, बल्कि नेपाल जैसे संप्रभु राष्ट्र की संप्रभुता के लिए भी घातक हैं। ज्ञातव्य हो कि मालेगांव बम विस्फोट के बाद एटीएस चार्जशीट में गोडसे की बेटी और सावरकर की बहू हिमानी सावरकर नें स्वीकार किया है कि भारत में सैन्य विद्रोह के लिए नेपाल से मदद ली जाएगी और ’बाहर’ से ही भारत की सरकार को चलाया जाएगा। इसके साथ ही साथ नेपाल में भी कई आतंकवादी घटनाओं में योगी आदित्यनाथ का नाम भी आया है।

भारत पर अध्ययन के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले पाॅल ब्राश नामक विद्वान ने ’द पाॅलिटिक्स आॅफ इंडिया सिंस इन्डिपेंन्डेन्स’ में लिखा है कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि भारतीय समाज और राजनीति बहुत सारे उन पूर्व- फासिस्ट समय के हिंसक लक्षणों को प्रदशित कर रही है, जिन्होंने अनगिनत शहरों में स्थानीय रूप से अपने ’क्रिस्टलनाख्त’ (हिटलर के समय नाजी ठिकाने, जो यहूदियों पर हमला करने के लिए बनाए गए थे) बना लिए हैं। भाजपा ने ऐसे असंवैधानिक मुद्दों को अपने घोषणा-पत्र में शामिल करके सत्ता में आना चाहती है। ताकि जब वह सत्ता में आए तो उसके पास यह तर्क हो कि भारत की जनता ने उसके घोषणा-पत्र को स्वीकार किया है।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

'हाडौती कहानी' प्यास लगे तो .....(2)


दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद अनवरत पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन पर अपने ब्लाग समञ्जस पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। अब इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का उत्तरार्ध प्रस्तुत है।


‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो ..... 

गिरधारी लाल ‘मालव’ 

अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी

(2) 


क दिन सुगन ने चम्पा के हाथ अंग्रेजी की पुस्तक देखी। पहले तो गौर से उसे देखता रहा। फिर पूछा “कैसी पुस्तक है?” चम्पा को ध्यान न था कि चोरी पकड़ी जाएगी। वह लज्जा से गुलाबी हो गई। धीमे स्वर में बोली -क्या करूँ? मन नहीं लगता तो ऐसे ही पन्ने पलटने लगती हूँ”।
चंपा का पढ़ने में मन देख सुगन ने सुझाया -माँ साब¡  से पूछ लो। वे कह देंगी तो मैं घड़ी दो घड़ी आ कर पढ़ा दूंगा।  चाहो तो सैकण्डरी का फार्म भर देना। पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी और पढ़ने की आप की। पटेल पटेलिन ने सोचा-इस बहाने से दोनों का मन मिल जाए तो क्या बुरा है? है तो जात का बेटा ही।
पाँच बरस गुजर गए।  इस अरसे में गाँव में शायद ही कोई घर बचा हो जिस के दुःख दर्द में सुगन काम न आया हो।  वह रोगी की सेवा भगवान की सेवा मानता।  किसी के बीमार होने का पता लगता तो वह तुरन्त पहुँचता। उस के पहुँचते ही लोग विश्वास से भर जाते -लो सुगन जी आ गए अब चिन्ता किस बात की?
चम्पा ने सैकण्डरी पास कर ली। उस के जीवन में नया प्रकाश फूटने लगा था।  बोलने-चलने से उठने-बैठने तक उस का व्यवहार सब के लिए मिठास बाँटने लगा।  गाँव में स्त्रियों के लिए खिंची लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में जितना कर सकती थी लोगों के काम आती। रात के खाने-पीने से निपट कर अपने घर के बंगले में लड़कियों को इकट्ठा करती और उन्हें पढ़ाती।
सुगन पास के गाँव हाट में सामान लेने आया हुआ था। सूरज अस्ताचल को जाए उस से पहले ही काम निपटा कर उस ने अपने गाँव की राह पकड़ी। यूँ और लोग भी हाट से गाँव लौट रहे थे। लेकिन उस के बीस तीस कदम आगे पीछे कोई नहीं था, वह अकेला ही चल रहा था। आगे के तिराहे से उसे गाँव की ओर मुड़ना था। वहीं से रास्ता चम्पा के ससुराल की ओर निकलता था।  तिराहे से कुछ पहले एक पेड के पास दो व्यक्ति बैठे दिखे।  उस ने अनुमान किया कि हाट में थके होंगे तो विश्राम के लिए रुक गए होंगे। वह तो दिन बाद होने वाले स्कूल इंस्पेक्टर के गाँव आने की सूचना के बारे में  सोच रहा था।  पिछली बार जब डिप्टी इंस्पेक्टर जाँच करने आए तो हेड मास्टर ने चंपा के अलग से स्कूल चलाने से सरकारी स्कूल में लड़कियों की अनुपस्थिति बढ़ने की शिकायत की थी। लेकिन गाँव के लोगों ने चम्पा के स्कूल बहुत प्रशंसा की थी। तब डिप्टी साहब रात रुके और चम्पा का स्कूल चलाना देखा।  आज सुबह ही सूचना मिली थी कि खुद इंस्पेक्टर साहब आएंगे और चम्पा का स्कूल का भी देखेंगे। वह सोच रहा था कि चंपा के स्कूल में कुछ कार्यक्रम भी करना चाहिए। यदि इंस्पेक्टर को चंपा का स्कूल अच्छा लगा तो जरूर वे चंपा के स्कूल और उस के विद्यार्थियों को सरकारी मदद दिलवा देंगे। तभी सुगन के कानों में आवाज पड़ी।
-ये जाने वाला कौन है?
-सुगन मास्टर है। दूसरे ने जवाब दिया।
फिर दोनों सुगन के पीछे पगडंडी पर उतर आए। सुगन का ध्यान उधर न था। वह तो सोचता जा रहा था -कैसे चंपा के स्कूल में कार्यक्रम कराना होगा, स्वागत गान किस से कराएंगे कौन सी लड़कियों से गीत-कविताएँ प्रस्तुत कराना उचित होगा, कैसे सभा का संचालन होगा आदि आदि ...
तभी सुगन से जोर से सुना –ठहर जा रे¡ उस ने पीछे मुड़ कर देखा। दो अनजान जवान थे।
-क्या बात है? सुगन ने पूछा।
-सुगन है ना तू? एक ने डपट कर पूछा।
-हाँ, पर आप कौन हैं? सुगन ने पलट कर उन से पूछा।
-हम कौन हैं? अभी बताते हैं।  सुगन कुछ संभलता उस के पहले ही एक ने अपनी लाठी उस के माथे पर दे मारी। सुगन गिरा तो दोनों उसे लाठियों से मारते चले गए। आगे पीछे के लोग कुछ समझ कर उस तरफ आते उस से पहले ही दोनों उसे छोड़ कर भाग छूटे।
सुगन ने लाठी अपने सिर पर उठती देखी।  फिर खोपड़ी में पटाखे सा धमाका हुआ. आखों में पहले तेज रोशनी सी चमकी फिर अंधेरा छा गया।  पीछे क्या हुआ ये उसे नहीं पता। कितनी लाठियाँ उस के शरीर पर कहाँ पड़ीं? सब सपने जैसा लगा। पीछे उन दोनों में से कोई बोला था -मेरी सगी भावज को घर में डाल कर पूछता है कि तुम कौन हो? फिर डरावनी सी हँसी सुनाई दी थी।
सुगन की निद्रा टूटी तो उसे लगा उस का सिर किसी नरम तकिए पर है।  सोचा थोड़ा और सो लिया जाए। फिर याद आई कि इंस्पेक्टर साहब आएंगे। चम्पा चिन्ता में घुली होगी। फिर भी मन ने कहा कुछ देर और सो लेने से क्या बिगड़ेगा? अभी तैयारी को पूरा दिन पड़ा है। उस ने करवट बदलनी चाही। शरीर हिला तो  सिर में तेज दर्द की लहर दौड़ गई, कण्ठ से कराह फूट पड़ी। तभी गरम पानी की दो बूंदे उस के गाल पर गिरीं। ये कहाँ से आईं? देखने के लिए आँखें खोली। आँखों से आधे हाथ दूर चम्पा का चेहरा दिखा। इतने नजदीक से वह उसे पहली बार देख रहा था। सुगन के कण्ठ से बोल न फूटा। चम्पा की बरसती और सूजी आँखों से उसे रात की घटना याद आ गई। पर ये न समझ आया कि वह कहाँ है और यहाँ कैसे पहुँचा?  उस ने पूछना चाहा -मैं कहाँ हूँ?
दर्द और कराह के बीच मुहँ से पूरा वाक्य भी न निकल सका, आँखों से आँसू निकल पड़े। चंपा ने उस की उस की आँखें अपने लूगड़े के पल्ले से पोंछीं। उसे न बोलने का इशारा करते हुए धीमे से बोली – सब बता दूंगी।
सुगन ने आसपास निगाह दौड़ाई तो समझ में आया कि चंपा के सोने का कमरा है। उस का सिर चंपा की गोद में है। आसपास चंपा की माँ और सयानी उम्र की कुछ औरतें-आदमी बैठे हैं। उस के सिर पर पट्टी बंधी है, फिर भी उस का सिर फटा जा रहा है।  
एक आदमी दूसरे से कह रहा था – आगे ही आगे मैं था। मैं तो अचानक देखते ही हक्का-बक्का रह गया। डरते डरते नजदीक पहुँचा तो देखा “सुगन जी”। इतने में तुम आ गए ...
-आ क्या गया? वो तो बच्चे के ससुर जी मिल गए। उन के साथ तम्बाकू पीने में पीछे रह गया। नहीं तो तुम्हारे साथ ही था। दूसरे ने बात को पूरा किया।
-फिर तो लोग इकट्ठे हो गए।  पीछे सभी तो आ रहे थे। मगन जी ने खुद का साफा फाड़ा और जला कर घाव में ठूँसा। खून रुका तो बचे हुए साफे से सिर पर पट्टा बांधा। फिर कांधे-माथे उठा के ले आए। आधा कोस ही तो था।
सुगन ने फिर करवट लेने की कोशिश की। चम्पा की माँ पूछने लगी। आँखें खुली क्या बेटी? हल्दी, गुड़ दूध के साथ ओटा कर रखी है, लाउँ?
चंपा ने सिर हिला कर हाँ का इशारा किया। सहारा दे कर सब ने सुगन को बैठाया। ओटावा पिला कर सुगन को फिर लिटा दिया। चंपा की माँ ने सब से कहा- होश आ गया अब खतरे की कोई बात नहीं।  आप सब सारी रात से बैठे हो। अब  जा कर थोड़ा आराम भी कर लो। सुगन को फिर निद्रा आ गई। उसे आराम से सोता देख सब लोग बिछड़ गए।
अगले दिन इंस्पेक्टर साहब आए।  बंगले में चलता चंपा का स्कूल देखा।  बंगले बाहर के चौक में ही कार्यक्रम हुआ। सुगन को सिर पर पट्टी बांधे देख सब काम करते देखा। कार्यक्रम हुआ। लड़कियों को पुरस्कार भी दिए। सुगन और चंपा के गाँव की लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयासों की प्रशंसा भी की। सरकार की ओर से चंपा के स्कूल को हर महीने आर्थिक सहायता की घोषणा भी की। गाँव के सभी लोग खुश थे। सब काम से ठीक से हो जाने पर सुगन जाने लगा तो चंपा की माँ ने रोका। बोली - भोजन बन रहा है, कर के ही जाना। इस घर को अपना ही समझो। सुगन को रुकना पड़ा।
भोजन के  बाद सुगन घर जाने लगा तो चम्पा की माँ बोली –सुनो तो .....
सुगन जाते जाते ठिठक कर रुक गया।  लेकिन चम्पा की माँ चुप खड़ी रह गई।  सुगन ने ही मौन तोड़ा – कहो न, आप क्या कह रही थीं?
-अब क्या कहूँ?  मैं तो कहूँ अब तो दस्तूर .....।
-कैसा दस्तूर? मैं नहीं समझा। सुगन बात काट कर बोला।
-चंपा की माँ ने सिर से पल्लू कुछ और खींचा और मंद स्वरों से अटक अटक कर कहने लगी – गाँव की चार बायरों को बुला कर घर में लेने का दस्तूर हो जाता तो ...।
-सुगन मौन खड़ा रह गया। फिर होठों में ही बोला – माँ, साब¡ आप ने मुझे धरम संकट में डाल दिया।
-कैसा धरमसंकट?
-आप की बात मानूंगा तो लोग कहेंगे -आया जब से चम्पा पर डोरे डाल रहा था, अब घर में डाल कर ही माना।  और न मानूंगा तो आप की बात का अपमान कर बैठूंगा।  आप ही बताओ जो भी मैं ने किया इसलिए थोड़े ही किया?  मेरे मन में ऐसी बात कभी सपने में भी नहीं आई।
-अब आप की भावना कुछ भी रही हो।  पर जो कुछ आप ने चंपा के लिए किया।  कोई पराया थोड़े ही करता? आप के मन में चंपा के लिए अपनापन है .... और मैं तो कहूँ ये अपनापन सारे जीवन बना रहे।
-इस से क्या होगा? अपनापन तो वैसे भी बना ही रहेगा।
-इस से मेरे मन का बोझ उतर जाएगा। मैं चंपा का घर बसता देखना चाहती हूँ।
सुगन सोच में पड़ गया। वह क्या जवाब दे? फिर कुछ सोच कर बोला – चंपा से पूछा?
-चंपा से क्या पूछना? वह कौन होती है?
-पर फिर भी हर्जा क्या है?
चंपा किवाड़ के पीछे खड़ी दोनों की बातों पर कान लगाए थी।  वह कुछ कहना भी चाहती होगी पर उस ने नकली खाँसी खाँस कर अपनी उपस्थिति जताई।
सुगन ने लगभग हथियार डालते हुए कहा – फिर भी उस की इच्छा जाने बिना ...
सुगन की बात को बीच में ही काट कर चम्पा की माँ ने कड़ाई से बोली  –मर्दों की जात हम बायरों की भावना समझने लगे  तो सारे झगड़े ही नहीं रहें।  जमाना कितना बुरा है। अकेली विधवा आदमी के सहारे बिना कैसे जीवन काट सकेगी? और चंपा के लिए आप से ज्यादा अपना कोई नहीं।  अब मैं आप की कुछ न सुनूंगी।
जाते हुए कार्तिक की रात ठंडाने लगी थी। सुगन ने नीचा सिर कर के धीमे से कहा - आप को हुकुम...।
-जाओ अब सोवो। कह कर पटेलन धीरे धीरे औसारे की ओर मुड़ गई। जाते जाते कहती गई –चंपा¡ पानी का लोटा भर के रख लेना।
... प्यास लगे तो?  
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संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल- 09636403452