आनंद तेलतुंबड़े का
यह लेख न सिर्फ दलों से अलग, भारतीय राज्य के फासीवादी चरित्र को पहचानने
की जरूरत पर जोर देता है बल्कि यह धर्मनिरपेक्षता की ओट में इस
फासीवादी-ब्राह्मणवादी राज्य के कारोबार को चलाते रहने की सियासत को उजागर
करता है. अनुवाद: रेयाज उल हक
अपने एक हालिया साक्षात्कार में मोदी द्वारा इस बात पर घुमा फिरा कर दी गई सफाई की वजह से एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता पर बहस छिड़ गई, कि क्यों उसने मुस्लिम टोपी नहीं पहनी थी. मानो मुसलमानों के प्रति मोदी और उसकी पार्टी के रवैए में अब भी संदेह हो, फिर से पेशेवर धर्मनिरपेक्ष उस मोदी के बारे में बताने के लिए टीवी के पर्दे पर बातें बघारने आए, जिस मोदी को दुनिया पहले से जानती है. यहां तक कि बॉलीवुड भी धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी चिंता जाहिर करने में पीछे नहीं रहा. चुनावों की गर्मा-गर्मी में, सबसे ज्यादा वोट पाने को विजेता घोषित करने वाली हमारी चुनावी पद्धति में, व्यावहारिक रूप से इन सबका मतलब कांग्रेस के पक्ष में जाता है, क्योंकि आखिर में शायद कम्युनिस्टों और ‘भौंचक’ आम आदमी पार्टी (आप) को छोड़ कर सारे दल दो शिविरों में गोलबंद हो जाएंगे. वैसे भी चुनावों के बाद के समीकरण में इन दोनों से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. कम्युनिस्टों का उनकी ऐतिहासिक गलतियों की वजह से, जिसे वे सही बताए आए हैं, और आप का इसलिए कि उसने राजनीति के सड़े हुए तौर तरीके के खिलाफ जनता के गुस्से को इस लापरवाही से और इतनी हड़बड़ी में नाकाम कर दिया. अरसे से गैर-भाजपा दलों के अपराधों का बचाव करने के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ का एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन किसी भी चीज की सीमा होती है. जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की करतूतों और अयोग्यताओं ने हद पार कर दी है और इस तरह आज भाजपा को सत्ता के मुहाने पर ले आई है, तो ऐसा ही सही. यह धर्मनिरपेक्षता का सवाल नहीं है. यह स्थिति, जिसमें घूम-फिर कर दो दल ही बचते हैं, एक बड़ा सवाल पेश करती है कि क्या भारतीय जनता के पास चुनावों में सचमुच कोई विकल्प है!
अपने एक हालिया साक्षात्कार में मोदी द्वारा इस बात पर घुमा फिरा कर दी गई सफाई की वजह से एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता पर बहस छिड़ गई, कि क्यों उसने मुस्लिम टोपी नहीं पहनी थी. मानो मुसलमानों के प्रति मोदी और उसकी पार्टी के रवैए में अब भी संदेह हो, फिर से पेशेवर धर्मनिरपेक्ष उस मोदी के बारे में बताने के लिए टीवी के पर्दे पर बातें बघारने आए, जिस मोदी को दुनिया पहले से जानती है. यहां तक कि बॉलीवुड भी धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी चिंता जाहिर करने में पीछे नहीं रहा. चुनावों की गर्मा-गर्मी में, सबसे ज्यादा वोट पाने को विजेता घोषित करने वाली हमारी चुनावी पद्धति में, व्यावहारिक रूप से इन सबका मतलब कांग्रेस के पक्ष में जाता है, क्योंकि आखिर में शायद कम्युनिस्टों और ‘भौंचक’ आम आदमी पार्टी (आप) को छोड़ कर सारे दल दो शिविरों में गोलबंद हो जाएंगे. वैसे भी चुनावों के बाद के समीकरण में इन दोनों से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला. कम्युनिस्टों का उनकी ऐतिहासिक गलतियों की वजह से, जिसे वे सही बताए आए हैं, और आप का इसलिए कि उसने राजनीति के सड़े हुए तौर तरीके के खिलाफ जनता के गुस्से को इस लापरवाही से और इतनी हड़बड़ी में नाकाम कर दिया. अरसे से गैर-भाजपा दलों के अपराधों का बचाव करने के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ का एक ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन किसी भी चीज की सीमा होती है. जब कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग की करतूतों और अयोग्यताओं ने हद पार कर दी है और इस तरह आज भाजपा को सत्ता के मुहाने पर ले आई है, तो ऐसा ही सही. यह धर्मनिरपेक्षता का सवाल नहीं है. यह स्थिति, जिसमें घूम-फिर कर दो दल ही बचते हैं, एक बड़ा सवाल पेश करती है कि क्या भारतीय जनता के पास चुनावों में सचमुच कोई विकल्प है!
क्या कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है?
धर्मनिरपेक्षता के आम विपरीतार्थक शब्द
सांप्रदायिकता से अलग, किसी को भी ठीक ठीक यह नहीं पता कि धर्मनिरपेक्षता
क्या है. सांप्रदायिकता का मतलब संप्रदायों के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव
करना है. औपनिवेशिक दौर से ही संप्रदायों का मतलब हिंदू और मुसलमान लगाए
जाने का चलन रहा है, जबकि इन दोनों के अलावा भी इस देश में अनेक अन्य
संप्रदाय हैं. चूंकि भाजपा की जड़ें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हैं,
जिसका मकसद भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना है, तो यह एक सांप्रदायिक दल बन
जाता है. हालांकि आरएसएस अपने हिंदुत्व को यह कह कर छुपाने की कोशिश करता
है कि यह हिंदू धर्म पर आधारित नहीं है (वे यह कहने की हद तक भी जा सकते
हैं कि हिंदू धर्म जैसी कोई चीज ही नहीं है), बस फर्क यही है कि अपनी समझ
को उनके हाथों गिरवी रख चुके उनके अंधभक्त जानते हैं कि इसका केंद्रीय तत्व
हिंदूवाद ही है. आरएसएस को दूसरे समुदायों को लुभाने के लिए ऐसे एक बहाने
की जरूरत तब पड़ी जब बड़ी मुश्किलों से उसे यह समझ में आया कि हिंदू
बहुसंख्या के रूप में जो चीज दिखती है वो असल में जातियों की अल्पसंख्या का
एक जमावड़ा है. हालांकि इसने मुसलमानों समेत सभी समुदायों में अपने लिए
किसी तरह समर्थन जुटा लिया है, तब भी यह अपने सांप्रदायिक पहचान से बच नहीं
पाया है. तब सवाल यह है कि इसका राष्ट्रीय विकल्प कांग्रेस क्या
धर्मनिरपेक्ष है. इसका मतलब है कि क्या वह सांप्रदायिक नहीं है?
अगर कोई कांग्रेस के इतिहास पर सख्ती से नजर डाले तो वह साफ नकारात्मक जवाब से बच नहीं सकता. यह कांग्रेस ही थी, जिसने भारत में औपनिवेशिक ताकतों को सांप्रदायिक राजनीति के दलदल में जाने को उकसाया और इसमें मदद की जिसका अंजाम विभाजन के रूप में सामने आया. भारत को संप्रदायों के एक जमावड़े के रूप में पेश करने की औपनिवेशिक ताकतों की सचेत रणनीति के बावजूद, सभी भारतीयों की प्रतिनिधि पार्टी के रूप में उनके हाथों में खेलने की जिम्मेदारी से कांग्रेस बच नहीं सकती. यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि कांग्रेस ने मुसलमानों की एक पार्टी मुस्लिम लीग के मुकाबले में खुद को हिंदू पार्टी के रूप में पेश किया. बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना (जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के नेता थे) के बीच 1916 में हुए लखनऊ समझौते में, जिसने बाकी बातों के अलावा प्रांतीय परिषद चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था कायम की. यह आगे चल कर एक ऐसी मुस्लिम राजनीति को शक्ल देने वाला था, जिसका अंजाम तीन दशकों के बाद विभाजन के रूप में सामने आना था. अगर कोई देखे तो उस त्रासदी के पीछे कांग्रेस की सांप्रदायिक बेवकूफी ही साफ दिखेगी, जिसने दसियों लाख जिंदगियों को अपनी चपेट में लिया और उपमहाद्वीप की सियासत को एक कभी न भरने वाला जख्म दिया.
1947 के बाद भी, जब शुरुआती दशकों तक कांग्रेस के सामने कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था, इसने धर्मनिरपेक्ष चेतना को फैलाने के लिए कुछ भी नहीं किया, और इसके बजाए इसने बांटो और राज करो के औपनिवेशिक तौर तरीकों को जारी रखा. जनसंघ और भाजपा जैसे हिंदुत्व दल तब तक बहुत छोटी ताकतें बने रहे, जब तक कि कांग्रेस की चालबाजियों ने उनमें जान नहीं फूंक दी. इतिहास गवाह है कि यह राजीव गांधी द्वारा 1985 में शाह बानो मामले में दी गई दखल से शुरू हुआ. राजीव ने अपनी भारी संसदीय बहुमत का इस्तेमाल मुस्लिम भावनाओं को तुष्ट करने की खातिर, सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले को पलटने में किया. इसने हिंदुत्व ताकतों को सांप्रदायिक आग भड़काने के लिए जरूरी चिन्गारी मुहैया कराई. जैसे तैसे भरपाई करने के लिए, और इस बार हिंदुओं को खुश करने के लिए, महज कुछ ही महीनों के बाद राजीव गांधी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का आदेश किया और आग को नर्क की आग में बदलने दिया, जो आगे चल कर न सिर्फ बाबरी मस्जिद को तोड़ने वाली थी, बल्कि इसके बाद सैकड़ों लोगों की जिंदगियों को भी लीलने वाली थी और भाजपा को सियासी रंगमंच पर पहुंचाने वाली थी. यहां तक कि मस्जिद को तोड़े जाने की कार्रवाई में कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की जो मौन भूमिका रही, उसके भी पर्याप्त प्रमाण हैं. असल में ऐसी मिसालों की भरमार है.
अगर कोई कांग्रेस के इतिहास पर सख्ती से नजर डाले तो वह साफ नकारात्मक जवाब से बच नहीं सकता. यह कांग्रेस ही थी, जिसने भारत में औपनिवेशिक ताकतों को सांप्रदायिक राजनीति के दलदल में जाने को उकसाया और इसमें मदद की जिसका अंजाम विभाजन के रूप में सामने आया. भारत को संप्रदायों के एक जमावड़े के रूप में पेश करने की औपनिवेशिक ताकतों की सचेत रणनीति के बावजूद, सभी भारतीयों की प्रतिनिधि पार्टी के रूप में उनके हाथों में खेलने की जिम्मेदारी से कांग्रेस बच नहीं सकती. यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि कांग्रेस ने मुसलमानों की एक पार्टी मुस्लिम लीग के मुकाबले में खुद को हिंदू पार्टी के रूप में पेश किया. बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना (जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के नेता थे) के बीच 1916 में हुए लखनऊ समझौते में, जिसने बाकी बातों के अलावा प्रांतीय परिषद चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडलों की व्यवस्था कायम की. यह आगे चल कर एक ऐसी मुस्लिम राजनीति को शक्ल देने वाला था, जिसका अंजाम तीन दशकों के बाद विभाजन के रूप में सामने आना था. अगर कोई देखे तो उस त्रासदी के पीछे कांग्रेस की सांप्रदायिक बेवकूफी ही साफ दिखेगी, जिसने दसियों लाख जिंदगियों को अपनी चपेट में लिया और उपमहाद्वीप की सियासत को एक कभी न भरने वाला जख्म दिया.
1947 के बाद भी, जब शुरुआती दशकों तक कांग्रेस के सामने कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था, इसने धर्मनिरपेक्ष चेतना को फैलाने के लिए कुछ भी नहीं किया, और इसके बजाए इसने बांटो और राज करो के औपनिवेशिक तौर तरीकों को जारी रखा. जनसंघ और भाजपा जैसे हिंदुत्व दल तब तक बहुत छोटी ताकतें बने रहे, जब तक कि कांग्रेस की चालबाजियों ने उनमें जान नहीं फूंक दी. इतिहास गवाह है कि यह राजीव गांधी द्वारा 1985 में शाह बानो मामले में दी गई दखल से शुरू हुआ. राजीव ने अपनी भारी संसदीय बहुमत का इस्तेमाल मुस्लिम भावनाओं को तुष्ट करने की खातिर, सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले को पलटने में किया. इसने हिंदुत्व ताकतों को सांप्रदायिक आग भड़काने के लिए जरूरी चिन्गारी मुहैया कराई. जैसे तैसे भरपाई करने के लिए, और इस बार हिंदुओं को खुश करने के लिए, महज कुछ ही महीनों के बाद राजीव गांधी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खोलने का आदेश किया और आग को नर्क की आग में बदलने दिया, जो आगे चल कर न सिर्फ बाबरी मस्जिद को तोड़ने वाली थी, बल्कि इसके बाद सैकड़ों लोगों की जिंदगियों को भी लीलने वाली थी और भाजपा को सियासी रंगमंच पर पहुंचाने वाली थी. यहां तक कि मस्जिद को तोड़े जाने की कार्रवाई में कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की जो मौन भूमिका रही, उसके भी पर्याप्त प्रमाण हैं. असल में ऐसी मिसालों की भरमार है.
धर्मनिरपेक्षता का हौवा
मौजूदा सियासी हालात में असल में कोई ऐसी
पार्टी नहीं है जिसे सचमुच धर्मनिरपेक्ष कहा जा सके. हरेक दल चुनावों में
बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिसाब-किताब से काम लेते हैं. धर्मनिपेक्षता का
मुद्दा सिर्फ इस्लाम या मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है, इसके दायरे में
संप्रदायों के सभी आधार आते हैं और इसमें निश्चित रूप से जातियों को शामिल
किया जाना चाहिए, जो कि हमारे राजनेताओं का मुख्य विषय हैं. लेकिन हैरानी
की बात है कि जातियां कभी भी धर्मनिरपेक्षता की बहसों में दूर दूर तक जगह
नहीं पाती हैं. जैसा कि मैंने अपनी एक किताब हिंदुत्व एंड दलित्स
में कहा है, सांप्रदायिकता की जड़ें जातिवाद में देखी जा सकती हैं.
हिंदुत्व की ताकतों में मुसलमानों और ईसाइयों के लिए अभी जो नफरत है, वह
इसलिए नहीं है कि वे एक पराई और दूसरी आस्था को मानते हैं, बल्कि बुनियादी
तौर पर यह इस याद से जुड़ी हुई है कि इन संप्रदायों की व्यापक बहुसंख्या
निचली जातियों से आई है. वे अब भी उनसे अस्वच्छ, असभ्य और पिछड़ों के रूप
में नफरत करते हैं, जैसा कि वे दलितों से करते हैं. लेकिन ऐसी गहरी और
बारीक समझ से दूर, वामपंथी उदारवादी धर्मनिरपेक्षतावादी उन सांप्रदायिक
टकरावों पर गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाते हैं, जिनकी पहचान खास तौर से हिंदुओं
और मुस्लिमों से जुड़ी होती है, और जातीय हिंसा की रोज रोज होने वाली
घटनाओं पर अपवित्र चुप्पी साधे रहते हैं. एक अजीब से तर्क के साथ
सांप्रदायिक टकरावों के प्रति चिंता को प्रगतिशील माना जाता है जबकि जातीय
उत्पीड़न के लिए चिंताओं को जातिवाद माना जाता है.
धर्मनिरपेक्षता के हौवे ने एक तरफ तो भाजपा को अपना जनाधार मजबूत करने में मदद किया है, और दूसरी तरफ कांग्रेस को अपनी जनविरोधी, दलाल नीतियों को जारी रखने में. पहली संप्रग सरकार को माकपा का बाहर से समर्थन किए जाने का मामला इसे बहुत साफ साफ दिखाता है. यह बहुत साफ था कि सरकार अपने नवउदारवादी एजेंडे को छोड़ने नहीं जा रही है. लेकिन तब भी माकपा का समर्थन हासिल करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम की एक बेमेल खिचड़ी बनाई गई. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर, जब असहमतियां उभर कर सतह पर आईं, तो माकपा समर्थन को वापस ले सकती थी और इस तरह सरकार और समझौते दोनों को जोखिम में डाल सकती थी. लेकिन इसने बड़े भद्दे तरीके से सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर समर्थन जारी रखा और कांग्रेस को वैकल्पिक इंतजाम करने का वक्त दिया. जब इसने वास्तव में समर्थन वापस लिया, तो न तो सरकार का कुछ नुकसान हुआ और न समझौते का. बल्कि सांप्रदायिकता का घिसा-पिटा बहाना लोगों के गले भी नहीं उतरा. अक्सर धर्मनिरपेक्षता जनता की गुजर बसर की चिंताओं पर कहीं भारी पड़ती है!
धर्मनिरपेक्षता के हौवे ने एक तरफ तो भाजपा को अपना जनाधार मजबूत करने में मदद किया है, और दूसरी तरफ कांग्रेस को अपनी जनविरोधी, दलाल नीतियों को जारी रखने में. पहली संप्रग सरकार को माकपा का बाहर से समर्थन किए जाने का मामला इसे बहुत साफ साफ दिखाता है. यह बहुत साफ था कि सरकार अपने नवउदारवादी एजेंडे को छोड़ने नहीं जा रही है. लेकिन तब भी माकपा का समर्थन हासिल करने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम की एक बेमेल खिचड़ी बनाई गई. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मुद्दे पर, जब असहमतियां उभर कर सतह पर आईं, तो माकपा समर्थन को वापस ले सकती थी और इस तरह सरकार और समझौते दोनों को जोखिम में डाल सकती थी. लेकिन इसने बड़े भद्दे तरीके से सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर समर्थन जारी रखा और कांग्रेस को वैकल्पिक इंतजाम करने का वक्त दिया. जब इसने वास्तव में समर्थन वापस लिया, तो न तो सरकार का कुछ नुकसान हुआ और न समझौते का. बल्कि सांप्रदायिकता का घिसा-पिटा बहाना लोगों के गले भी नहीं उतरा. अक्सर धर्मनिरपेक्षता जनता की गुजर बसर की चिंताओं पर कहीं भारी पड़ती है!
गलत सरोकार
सटीक रूप में कहा जाए तो धर्मनिरपेक्षता राज्य
का विषय है न कि दलों का. असल में इसकी बुनियाद यह है कि समाज और इसके
अलग अलग अंग अपने अपने धर्मों को मानेंगे और उन पर चलेंगे. लेकिन ऐसे एक
समाज का शासन धार्मिक मामलों में पूरी तरह तटस्थ रचना चाहिए, और उसे सभी
नागरिकों के साथ समान रूप से व्यवहार करना चाहिए चाहे उनका धर्म कोई भी हो,
और राज्य के पदाधिकारी काम के दौरान किसी भी धार्मिक रीति-रिवाज का पालन
नहीं करेंगे. भाजपा को हिंदुत्व की विचारधारा का प्रचार करने या किसी भी दल
को इसका विरोध किए जाने की ठीक ठीक इजाजत तभी तक दी जा सकती है जब तक वे
कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं खड़ी कर देते. बल्कि राज्य की तटस्थता का
मतलब ही यही है कि वह इसे यकीनी बनाए. लेकिन इसके उलट सरकारी दफ्तरों में
हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें सजी होना और राज्य के कामकाज में हिंदू
रीति-रिवाजों का पालन किया जाना रोजमर्रा का दृश्य है. यह मुद्दा
धर्मनिरपेक्षतावादियों की तरफ से चुनौती दिए जाने की मांग करता है, लेकिन
किसी ने इसकी तरफ निगाह तक नहीं की है.
जब भी कोई इसे उठाता है, तो वो अपने को अकेला पाता है. 01 मई 2010 को, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की मौजूदगी में गुजरात के राज्यपाल द्वारा एक उच्च न्यायालय की इमारत के लिए भूमि पूजन समारोह किया जा रहा था. यह समारोह पूरी तरह हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक किया जा रहा था, जिसमें एक पुजारी हवन भी करा रहा था. एक जानेमाने दलित कार्यकर्ता राजेश सोलंकी ने उच्च न्यायालय में इसके खिलाफ एक याचिका दायर की. 17 जनवरी, 2011 को जज जयंत पटेल ने याचिका को पथभ्रष्ट बताते हुए रद्द कर दिया और सोलंकी पर 20 हजार रुपए का हर्जाना थोप दिया. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की लेकिन संसाधनों की कमी की वजह से वहां भी यह फौरन खारिज कर दिया गया. इस मुकदमे को धर्मनिरपेक्षता की कसौटी बनाया जा सकता था, क्योंकि यह ठीक ठीक राज्य के धार्मिक व्यवहार को चुनौती देता था. लेकिन एक भी धर्मनिरपेक्षतावादी, किसी मीडिया, एक भी राजनीतिक दल ने इसकी तरफ निगाह नहीं उठाई.
जब भी कोई इसे उठाता है, तो वो अपने को अकेला पाता है. 01 मई 2010 को, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की मौजूदगी में गुजरात के राज्यपाल द्वारा एक उच्च न्यायालय की इमारत के लिए भूमि पूजन समारोह किया जा रहा था. यह समारोह पूरी तरह हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक किया जा रहा था, जिसमें एक पुजारी हवन भी करा रहा था. एक जानेमाने दलित कार्यकर्ता राजेश सोलंकी ने उच्च न्यायालय में इसके खिलाफ एक याचिका दायर की. 17 जनवरी, 2011 को जज जयंत पटेल ने याचिका को पथभ्रष्ट बताते हुए रद्द कर दिया और सोलंकी पर 20 हजार रुपए का हर्जाना थोप दिया. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की लेकिन संसाधनों की कमी की वजह से वहां भी यह फौरन खारिज कर दिया गया. इस मुकदमे को धर्मनिरपेक्षता की कसौटी बनाया जा सकता था, क्योंकि यह ठीक ठीक राज्य के धार्मिक व्यवहार को चुनौती देता था. लेकिन एक भी धर्मनिरपेक्षतावादी, किसी मीडिया, एक भी राजनीतिक दल ने इसकी तरफ निगाह नहीं उठाई.
अगर मोदी आ गया तो
इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में
मोदी अब तक आए सभी प्रधानमंत्रियों से कहीं ज्यादा अंधराष्ट्रवादी होगा.
अब चूंकि इसके प्रधानमंत्री बनने की संभावना ही ज्यादा दिख रही है तो इस पर
बात करने से बचने के बजाए, अब यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि बुरा क्या हो
सकता है. यह साफ है कि मोदी कार्यकाल बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए ज्यादा
फायदेमंद होगा, जिन्होंने उसको खुल्लमखुल्ला समर्थन दिया है. लेकिन क्या
कांग्रेस सरकार क्या उनके लिए कम फायदेमंद रही है? यकीनन मोदी सरकार हमारी
शिक्षा व्यवस्था और संस्थानों का भगवाकरण करेगी, जैसा कि पहले की राजग
सरकारों के दौरान हुआ था. लेकिन तब भी यह बात अपनी जगह बरकरार है कि उसके
बाद के एक दशक के कांग्रेस शासन ने न उस भगवाकरण को खत्म किया है और न
कैंपसों/संस्थानों को इससे मुक्त कराया है. यह अंदेशा जताया जा रहा है कि
यह जनांदोलनों और नागरिक अधिकार गतिविधियों पर फासीवादी आतंक थोप देगा. तब
सवाल उठता है कि, जनांदोलनों पर थोपे गए राजकीय आतंक के मौजूदा हालात को
देखते हुए-जैसे कि माओवादियों के खिलाफ युद्ध, उत्तर-पूर्व में अफ्स्पा,
मजदूर वर्ग पर हमले, वीआईपी/वीवीआईपी को सुरक्षा देने की लहर-जो पहले से ही
चल रहा है उसमें और जोड़ने के लिए अब क्या बचता है? लोग डर रहे हैं कि
मोदी संविधान को निलंबित कर देगा, लेकिन तब वे शायद यह नहीं जानते कि जहां
तक संविधान के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से भाग 4 की बात है-जिसमें राज्य के
नीति निर्देशक तत्व हैं-संविधान मुख्यत: निलंबित ही रहा है.
यह सच है कि इतिहास में ज्यादातर फासिस्ट चुनावों के जरिए ही सत्ता में आए हैं लेकिन वे चुनावों के जरिए हटाए नहीं जा सके. चाहे मोदी हो या उसकी जगह कोई और, अगर वो ऐसे कदम उठाने की कोशिश करेगा तो बेवकूफ ही होगा, क्योंकि ऐसा निरंकुश शासन सबसे पहले तो नामुमकिन है और फिर भारत जैसे देश में उसकी कोई जरूरत भी नहीं है. बल्कि ये सारी बातें भीतर ही भीतर पहले से ही मौजूद है और अगर हम धर्मनिरपेक्षता का अंधा चश्मा पहने रहे तो यह सब ऐसे ही चलता रहेगा.
यह सच है कि इतिहास में ज्यादातर फासिस्ट चुनावों के जरिए ही सत्ता में आए हैं लेकिन वे चुनावों के जरिए हटाए नहीं जा सके. चाहे मोदी हो या उसकी जगह कोई और, अगर वो ऐसे कदम उठाने की कोशिश करेगा तो बेवकूफ ही होगा, क्योंकि ऐसा निरंकुश शासन सबसे पहले तो नामुमकिन है और फिर भारत जैसे देश में उसकी कोई जरूरत भी नहीं है. बल्कि ये सारी बातें भीतर ही भीतर पहले से ही मौजूद है और अगर हम धर्मनिरपेक्षता का अंधा चश्मा पहने रहे तो यह सब ऐसे ही चलता रहेगा.