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रविवार, 12 सितंबर 2010

अखबारों में खबरें अधूरी क्यों होती हैं?

दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण ने स्थानीय नगर निगम के बारे में खबर प्रकाशित की है, " तंगी में भी बदहाली" । यह किसी घटना से उपजा समाचार नहीं, अपितु नगर निगम कोटा की कार्य प्रणाली से संबद्ध कुछ सूचनाओँ से उत्पन्न की गई एक रिपोर्ट है। जिस का निष्कर्ष यह है कि नगर निगम के पास अपने कामों के लिए पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। उसे बहुत सारे कर्मचारियों को ठेकेदारों के माध्यम से नियोजित करना पड़ता है। ठेकेदार दो तरह के हैं एक तो वे जिन्हें नगर निगम द्वारा निविदा के माध्यम से ठेका दिया गया है। दूसरी बहुद्देशीय सहकारी समितियाँ हैं जिन्हें बिना निविदा आमंत्रित किए काम दिया जा सकता है। समाचार कहता है कि निविदा ठेकेदारों को प्रत्येक कर्मचारी के लिए नगर निगम को 100 से 115 रुपए प्रतिदिन मजदूरी देनी होती है, जब कि बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से नियोजित 132 कर्मचारियों के निए नगर निगम को 172 से 178 रुपए प्रति कर्मचारी प्रतिदिन भुगतान करना पड़ता है। इस से नगर निगम को 29 लाख रुपए वार्षिक चूना लग रहा है। यह हालात तब हैं जब नगर निगम आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। समाचार एक तरह से यह कह रहा है कि नगर निगम बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से कर्मचारी जुटा कर गलती कर रहा है और उसे यह काम भी निविदा के माध्यम से ठेकेदारों को देना चाहिए। इस समाचार में गलती से एक पंक्ति यह भी अंकित हो गई है कि " निगम में कार्यरत सफाई ठेका कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी 100 रुपए रोजाना हासिल करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।"
स समाचार का शीर्षक ही भ्रामक है, जिस मे तंगी और दरियादिली शब्दों का उल्लेख किया गया है, समाचार की जमीनी हकीकत बिलकुल भिन्न है। आज से पचास वर्ष पहले नगरपालिका में एक भी ठेका कर्मचारी या दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं हुआ करता था। केवल स्थाई या मासिक रुप से वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारी होते थे। सफाई व्यवस्था आज के मुकाबले  बहुत अच्छी हुआ करती थी। गलियोँ और बाजारों की नालियों को साफ करने के लिए भिश्ती और झाड़ू वाला आया करता था। अन्य कामों  में भी इसी तरह के कर्मचारी नियुक्त थे। जनता पर टैक्सों की इतनी भरमार भी नहीं थी। नगर निगम के पास धन की कमी भी होती थी तो उस का प्रदर्शन नहीं किया जाता था अपितु पार्षद उस का मार्ग तलाश करते थे। लेकिन अब स्थिति बिलकुल बदल गई है। सफाई दिखाने भर की नजर आती है। नगरपालिकाएँ स्थाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं करती हैं। वे इन्हें ठेकेदारों से प्राप्त करती है। ठेकेदार का काम सिर्फ कर्मचारी उपलब्ध कराना और उन्हें मजदूरी देना होता है। उन से काम लेना और उन पर नियंत्रण रखना नगरपालिकाओं का काम है। व्यवस्था में यह परिवर्तन क्यों आया यह एक बड़ा प्रश्न है। 
वास्तविकता यह है कि तब पार्षद और नगरपालिकाएँ नगर के प्रति अपना दायित्व समझती थीं। आज वह स्थिति नहीं है। आज जिस तरह चुनाव होते हैं उन में चुने जाने के लिए उम्मीदवारों को अत्य़धिक धन खर्च करना होता है। जिस पद के लिए वे चुने जाते हैं उसी के प्रभाव से वे उस धन से कई गुना धन की वसूली करते हैं।  वस्तुतः चुनाव में धन खर्च करना एक तरह का निवेश हो गया है जो सर्वाधिक लाभप्रद है। जो उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। उन में से एक ही जीतता है बाकी हार जाते हैं। हारने वाले उम्मीदवारों का धन व्यर्थ चला जाता है। ठीक जुए की मेज की तरह जहाँ बैठने वाले जुआरियों में से एक सब का धन समेट कर चल देता है। दूसरे दिन भिर जुए की मेज लग जाती है। वस्तुतः चुनाव लड़ने का धन्धा दुनिया का सब से बड़ा जुआ बन गया है और यह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की देन है।
जदूरी के बारे में हम यह पढ़ते हैं कि यह अनेक प्रकार की होती है। एक न्यूनतम मजदूरी होती है जिसे सरकार यह मान कर चलती है कि यह व्यक्ति के जीवन निर्वाह के लिए केवल न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। अनेक बीच के स्तरों को पार करते हुए एक उचित मजदूरी होती है जो कि कर्मचारी को जीवन निर्वाह के सभी साधन उपलब्ध कराती है और उन के भविष्य का ख्याल भी रखती है। एक सरकारी या सार्वजनिक संस्था को अपने सभी कर्मचारियों को उचित मजदूरी देनी चाहिए। लेकिन हुआ यह है कि इन संस्थाओं के लिए काम करने वाले मजदूरों को उचित वेतन तो क्या न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। हो यह रहा है कि कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके उठा दिए जाते हैं जिन का मूल्य न्यूनतम मजदूरी के बराबर या उस से कुछ अधिक होता है। उन दरों को देखें तो पता लगेगा कि ठेकेदार अपनी जेब से कुछ पैसा लगा कर मजदूर उपलब्ध करवा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जितने मजदूर कागजों पर उपलब्ध कराए जाते हैं उन से आधे ही वास्तव में काम कर रहे होते हैं। वास्तव में उपलब्ध न कराए जाने वाले मजदूरों के लिए जो पैसा नगरपालिकाओं से उठाया जाता है उस में ठेकेदारों, पार्षदों, नगरपालिकाओं के अधिकारियों और पदाधिकारियों का हिस्सा शामिल होता है। 
सी व्यवस्था से देश चल रहा है। नगरपालिकाएँ तो उन का नमूना मात्र हैं, पंचायतें, राज्य और केंद्र सरकारें इसी तरह चल रही हैं। सारा देश और जनता इस बात को जानती है। लेकिन मौन रहती है। पर कब तक वह मौन रह सकेगी? शायद पाप का घड़ा फूटने तक या फिर पानी सर से गुजर जाने तक? मेरा मकसद यहाँ जनतंत्र के चौथे खंबे के काम की ओर ध्यान दिलाना था। यह समाचार लिखने वाले पत्रकार का क्या यह कर्तव्य नहीं था क्या कि वह ठेकेदारों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले कर्मचारियों की वास्तविक संख्या का भी पता लगाता और पार्षदों, ठेकेदारों, पदाधिकारियों और अफसरों के अंतर्सबंधों की खोज  करता औऱ उस के परिणामों को अपनी कलम के माध्यम से सब के सामने रखता। वह रखना भी चाहता तो शायद ऐसा नहीं कर सकता था। क्यों कि अखबार विज्ञापनों से चलते हैं। विज्ञापन इन्हीं ठेकेदारों, अफसरों, पदाधिकारियों और पार्षदों के माध्यम  से प्राप्त होते हैं और अखबार का मालिक इसी कारण से अपने पत्रकारों को इस से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दे सकता। एक प्रश्न यह हो सकता है कि ये खबरें छापी ही क्यों जाती हैं? अब ठेकेदारों को ज्यादा काम चाहिए वे चाहते हैं कि सहकारी समितियों के माध्यम से काम कर रहे लोगों के बजाय उन्हें काम मिले। तो इस तरह की खबरें बनती हैं, बनवाई और बनाई जाती हैं। 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

"मृगतृष्णा" (बुर्जुआ जनतंत्र) यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सोलहवाँ सर्ग भाग-2

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  पंद्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। इस काव्य के सोलहवें सर्ग "मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)" का प्रथम भाग आप पढ़ चुके हैं यहां द्वितीय भाग प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

सोलहवाँ सर्ग
मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)
भाग द्वितीय
 
जब तक यह जंतर-तंतर है, बुढ़िया डायन का मन्तर है
मन्तर का रक्षक है विधान, उस के पहरे पर लश्कर है
 
इन्साफ धर्म की गद्दी पर 
ईश्वर है और महीश्वर है
तब तक न सुरक्षित है पूंजी
जब  तक विषधर का गव्हर है
 
गव्हर में कैद करो अहि को, फन को तोड़ो, जनता को टेरो
यन्त्रों को चाहिए जन बल, मत सोचो, बस, समता को टेरो
तुम वट विशाल की छाँव तले बिरवा रोपोगे-क्या होगा ?
पील पड़ कर मर जाएगा, माथा ठोकोगे-क्या होगा ?
 
धुंधुँआती ज्वाला को मारो
दो  फूँक, जगा दो - मत सोचो
तूफान उठा जो उसे बुला कर 
राह दिखा दो - मत सोचो
 
उखड़ेंगे नभचुम्बी पादप, तुम तो बौने हो - मत सोचो
सोचे जो लिए बुढ़ापा है, तुम तो छौने हो - मत सोचो 
 
अधिकार हीन जो इतर वर्ग, उस में तुम भी हो, ख्याल रहे
उत्पादन यन्त्रों के मालिक अब तो तुम ही हो, ख्याल रहे
यन्त्रों की मुट्ठी में जन बल है
 
और तन्त्र यह-ख्याल रहे
इस प्रजातंत्र के माने तुम हो
महामान्य यह, ख्याल रहे
 
बाजार गरम रखने को संचय करो कोयला, जन बल का
अब मिल के भीतर-बाहर जग में बजे नगाड़ा जय-जय का
रुढ़िग्रस्त यह फटा-पुराना महल खड़ा जो, उसे ढाह दो
अपने दुश्मन के प्रतिपक्षी-जनता को तुम उठो, बाँह दो
मात्र आज के तुम विकल्प हो
 
मत जाने दो वृथा आह को
विष का थोड़ा अंश मिले
शिव बन, कर लो कण्ठस्थ दाह को
 
करवालो सिंहासन खाली पहले, फिर लिक्खो विधान को
अपने वेद-पुराण-शास्त्र को, धारा में विज्ञान-ज्ञान को

विश्वासों के मोती बिखरे बनो रेशमी धागा
आज लोक की आशा में आगे बढ़ कर 'हाँ' कर दो
किरण बनो, फैलो विकास के नये क्षितिज बन, उभरो

हतभागों के भाग्योदय का उचरो बन तुम कागा
नव मूल्यों के प्रति उदार तुम करो न पीछा आगा

चरण-धूलि ले शीश चढ़ाओ,  जनता की जय बोलो
मान नये, उपमान नये, इतिहास नये तुम खोलो

कोटि-कोटि जन जड़वत अधरों पर हास-राग है जागा
 
प्रजातंत्र जीने की पद्धति है, तुम को है जीना
तार-तार जो कोटि हृदय हैं, आज तुम्हें सीना है
घर को छोड़ चले उन को भी खाना है, पीना है
सोना चांदी क्या है ? है माथे का तरल पसीना

जीवन लेन-देन का सौदा कड़ा करो अब सीना
बनिक तुला पर जैरूसेलम, काशी नपे मदीना
 
बेड़ियाँ टूटीं प्रभञ्जन वेग से 
सिद्धियों के द्वार खट-खट खुल गये
जिन्दगी के मान जो बिलकुल नये
भर कुलाचें मञ्च पर हैं आ रहे

खोलते मुट्ठी बरसता अन्न है
सप्त रंगे वस्त्र का अम्बार है
हुक्म भर की देर है इस दैत्य को
दुष्प्राप्य क्या ? हर वस्तु इस को लभ्य
 
यन्त्र  चालित तन्त्र पढ़ते मन्त्र हैं
चरचरा कर ब्रह्म गँवई गिर पड़े
आग खा कर जो उगलते धुआँ
दैत्य करते रव-विजन में है खड़े

नापते भूगोल डग से घड़ी में
चीरते हैं सिन्धु ज्यो कच्चा घड़ा-
डोर दे कर पड़ित खच्-सा काटता,
फाड़ते हैं गगन कदली - वीर -  सा

दैत्य की यह शक्ति हो बसवर्तिनी
किस तरह, किस की, यही दो प्रश्न हैं
जो इसे बस में करे, उस के लिए
अर्थ, धर्म, कामादि सब कुछ देय
 
अर्थ का दे नाम युग - मन्थन करो
अमिय घट निश्चित निकलना जान लो
सर्वहारा को थमा दो काल - मुख
स्वयं पकड़ो पूँछ वैतरणी तरो

पाँत में बैठो, बिठाओ दलित को
पर बचाओ अमिय-भक्षण से उसे
प्रश्न भावी युद्ध का ध्रुव है, अभी
सत्व, शासन पर उभय पद की नजर

दैत्य युग के हैं खड़े सम भाव से
बन्द कर दो त्वरित उन को बैंक में
और जो सामन्त तुम से क्रुद्ध हैं
्ब हिले उन दाँत को पोटाश दो

शक्ति जो सन्मुख तुम्हारे जुड़ रही
केन्द्र उन के गाँव हैं, औ गाँव को
गाँव में ही बन्द कर लो, डोर दे
ढहे सामन्ती घरों को मदद दो

वे सहारा खोजता आधार वह
है यही मौका, न चूको, खींच लो
स्वार्थ उस का अब न रक्षित है कहीं
अहम् उस का मर गया, तर्पण करो

कहो, उट्ठे, चाकरी तेरी करे
टिम-टिमाए, विभा तुम से कर्ज ले
पढ़े तेरे विधि-विधानों को, समझ,
देख ले, जो छूट है उस को मिली

वह कटा विज्ञान युग से, नहीं तो
आज का भूगोल लख मर जायगा
खैर, गित को मैं पढ़ूंगा, वह रहे
खाता-कमाता मदद में मेरी खड़ा

पूर्ववर्ती शक्ति है वह, इसलिए
छूट उस को दे रहा हूँ, नहीं तो
अमरिका की भाँति सारे विश्व से
एक क्षण में मैं उसे देता मिटा

दिखा देता यन्त्र की जादूगरी
अर्थ के दो हाथ मैं देता बता
अलग से व्यापारियों का तन्त्र क्या?
प्रजातन्त्री खोज में ही वह खड़ा

राजतन्त्री खोल पर मैं ने लिखा
प्रजातन्त्री बोल को इंगलेंड में
राष्ट्रवादी 'सोसलिज्म खेल' को 
जर्मनी में अजी मैं ने ही रचा
 
शुद्धतम राष्ट्रीयता की बन लहर
दुश्मनों पर कहर बन मैं टूटता
किन्तु, अपने विश्व में बिखरे हुए
बान्धवों लड़ी प्रतिपल जोड़ता

जोड़ने की युक्ति ही है सभ्यता
तोड़ने की कला ही कानून है
प्रश्न सीधा और उलटा का नहीं
पुष्टि में मेरे, वही मजमून है

दुश्मनों से जो लड़े मेरे लिए
धर्म है, साहित्य है, आदर्श है
जो मिलाए हाथ मेरे शत्रु से
घोषित हमारे मूल्य का वह शत्रु

'प्रज्ञा' मेरे कोष का वह शब्द है
व्याप्ति जिस की मात्र मेरे लोग से
और उस का तन्त्र ? जिस की राह पर
सिर्फ मेरे स्वार्थ की दूकान हो

'प्रजा द्वारा, प्रजा का, जो प्रजा हित
तन्त्र - उस के मन्त्र का गुर है यही
अर्थ इस के परे के सब व्यर्थ हैं
अर्थ सच्चा, जो खरा व्यवहार में

'प्रजा' मेरी कत्ल करती है उसे
जो प्रजा का अर्थ बहुमत मानते
और पूंजीवादियों को बाद दे
तन्त्र रचते दलित, शापित वर्ग का
 
या कि मेरी ही तरह संसार के
सभी शापित को पिरो कर सूत्र में
अलग अपने विधि-विधानों को बना
बात करना चाहते  हम से अलग
सापेक्ष राजा का प्रजा है शब्द
पर गनीमत, श्रमिक को जो मान्य,
मान्य जो उस को, उसी के शब्द में
भुक्खड़ों की आग को कर के नियन्त्रित
मिलों की इन
लपलपाती
भट्टियों में झोंक दो
ढक्कन गिरा दो
और इन की
चाल को
दूनी बढ़ा दो
गेट पर 
पहरे बिठा दो
भूत इन के
गर,
उपद्रव करें तो
फौजें बुला लो
कामगारों 
को बता दो
'न्याय- 
शासन दण्ड की अभिव्यक्ति है'
हाँ, आज मेरे यन्त्र में ही 
प्रजा की सब शक्ति है।
 
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गुरुवार, 9 सितंबर 2010

"मृगतृष्णा" (बुर्जुआ जनतंत्र) यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सोलहवाँ सर्ग



यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  पंद्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। आज इस काव्य के सोलहवें सर्ग "मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)" का प्रथम भाग प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

सोलहवाँ सर्ग
मृगतृष्णा (बुर्जुआ जनतंत्र)
भाग प्रथम 


दो कफन चिराग को कि,
राग मुस्कुरा उठे, थिरक उठे
दल कमल विहँस उठे कि,
ज्योति बंद मुक्त हो दमक उठे
प्राण की घुटन मिटे कि,
हर कली चटक उठे, चहक उठे
तब मजा बहार में कि,
बद्ध वज्र साधना बहक उठे
खिन्न मन लुटा विटप कि,
पत्र-पुष्प युक्त हो गमक उठे
हर फटे, बुझे नयन कि, 
मधुर स्वप्न में पगे, चमक उठे

विनत सत्व गर, निढ़ाल हो गया
आग धधक उठती है
विदित है कि रावण है महाजयी
लंका पर, जलती है 
शांति सदा अनय गोद में पली
हाथ सिसक मलती है
मुट्ठी भर शासक की कैद में
क्रुद्ध क्रांति पलती है
क्षुद्र अल्प संख्यक की चाकरी
बहुमत को खलती है
इसी द्विधा काल में प्रलय प्रिया
छम् -छम् कर चलती है

लिंकन
दर्द खोलता आँखों में ले
घूर रहा इंसान, बचो तुम
खड़ा स्वत्व पर कुपित ध्वंस-सा
धरती का भगवान, बचो तुम
पर्वत तोड़, अतल को भरने
आया है तूफान, बचो तुम
तूर्यनाद करता समता का 
काल बड़ा बलवान, बचो तुम
जनबल का अभियान, बचो तुम
 जागा है अभिमान, बचो तुम
रक्त स्नात वो - तिमिर कुण्ड से
निकला विहान, बचो तुम

युग की हुई गुहार - सुनो रे
भूत जन्य चीत्कार - सुनो रे
लिंकन की ललकार - सुनो रे
रहा तिलक हूँकार - सुनो रे
रूसो की टंकार - सुनो रे
लू-सुन की फूत्कार - सुनो रे

तिलक
मचता हाहाकार - उठो रे
हुँ हुँ आता संहार - उठो रे
गरजे पारावार - उठो रे
बरसे क्रुद्ध पहाड़ - उठो रे
पेरू की जलधारा गरजी
धड़क उठा संसार - उठो रे

पूरब में छाई है लाली 
बोलती जातियाँ - जय काली !
मस्जिद कहती - या अली, अली !
 मंदिर कहते - जय बजरंग बली !
पागोड़ा में - जय हिराकिरी ! 
गुरुद्वारों में कि, फतह गुरू की !
 

जंजीरें तड़ तड़ टूट रहीं
(उपधर्म) दासता छूट रही

लू-शुन
अफ्रिकी नग काल डोले
एशिया फोड़ता बम गोले
आजादी या फिर बर्बादी
जिस संग चाहे जग हो ले
जीवन की सुखद अवस्था दो
 जीवन में एक व्यवस्था दो
मुर्दों को नूतन प्राण मिले
दलितों को दुख से त्राण मिले
रिसते व्रण को उपचार मिले
टूटे मन को सुख प्यार मिले
रूठे भावों को छंद मिले
जीवन में मकरंद मिले
सूखे कण्ठों को गीत मिले
रूठा मेरा फिर मीत मिले
जो बाजी अब तक रहे हार
इस बार उसे तो जीत मिले !

रस्सी जली न ऐंठन छूटी अपने मुँह बनते काजी हैं
जनता का रूप भयंकर है राजे-रजवाड़े पाजी हैं
बुर्जुआ

रक्षक ही भक्षक बन बैठे
फिर जनता क्यों विश्वास करे
पूँजीपति गुमसुम सोच रहे हैं
अच्छा है दोनों लड़ें - मरें

इन नीच कमीने सामन्तों, की आँखों के हम भी काँटे 
क्या बुरा कि जन बल जाय उबल, जड़ दे शासक को दो चाँटे
क्रमशः ......
 
  

बुधवार, 8 सितंबर 2010

अन्न को सड़ने के लिए छोड़ देना कितना जरूरी है?

विष्य के लिए संग्रहीत भोजन ही वह वस्तु है जिस ने मनुष्य को सोचने और बहुत सारे दूसरे कामों को करने की फुरसत बख्शी। यदि उस के पास कुछ दिनों या महिनों का भोजन न होता तो उस का सारा समय भोजन की तलाश में ही जाया होता रहता। इस रूप में सब से पहले उस के कब्जे में पालतू पशु आए। स्त्रियाँ उन की सार संभाल में लगीं और पुरुष शिकार में। स्त्रियाँ चूंकि आवास के नजदीक रहती थीं तो उन्हों ने पाया कि कुछ पौधों को सायास उगा कर खाद्यान्न उपजाया जा सकता है जो कि उन के सुरक्षित भोजन का आधार बन सकता है। यह खाद्यान्न ही था जिस ने मनुष्य की भोजन की अनवरत तलाश में कुछ विराम दे कर उसे बहुत से कामों को करने का समय दिया। आज का सारा विज्ञान और तकनीक उसी फुरसत के समय की देन है। इस मायने में अन्न और उस का सुरक्षित भंडार मनुष्य के विकास की मूल है। आज भी उसे यदि फुरसत है तो खाद्यान्नों के इन सुरक्षित भंडारों के कारण ही। यदि यकायक ये सुरक्षित भंडार समाप्त हो जाएँ तो मनुष्य की भोजन की तलाश फिर आरंभ हो लेगी, और मनुष्य का विकास वह रुक भी सकता है और पीछे भी जा सकता है।
ही कारण है कि हमारे पूर्वज अन्न का महत्व समझते थे। छांदोग्य उपनिषद कहता है, अन्न ब्रह्म है। दादा जी के लिए अन्न का एक दाना भी बहुत बड़ी चीज थी। वह एक दाना सैंकड़ों दूसरे अन्न के दानों को जन्म दे सकता था। वे अपनी भोजन की थाली को भोजन के बाद पानी डाल कर उसे पी जाते थे, जिस से अन्न का एक कण भी बेकार न जाए। पिताजी जब भोजन कर के उठते थे तो उन की थाली मंजी हुई थाली का भ्रम पैदा करती थी। कोई भी उसे साफ समझ कर भोजन परस सकता था। पहचान के लिए वह थोड़ा सा पानी उस में डाल दिया करते थे। मैं जब सब के बाद भोजन करने बैठता हूँ तो महसूस करता हूँ कि सब्जी शेष न बचे और न बुसे। लेकिन हमारा युग यह कर रहा है कि वह लाखों टन अनाज को सड़ने के लिए खुला छोड़ देता है। 
डॉक्टर मनमोहन सिंह जहीन आदमी हैं। हम समझते थे कि उन के संरक्षण में देश में अन्न बहुत है कोई कमी न होगी। लेकिन देश में लोग भूख से मरते हैं। दूसरी ओर सार्वजनिक धन से खरीदा गया अन्न सड़ने के लिए अभिशापित है।
इस बात पर हर कोई आश्चर्य कर सकता है कि 120 करोड़ मनुष्यों के देश में अन्न सड़ भी सकता है। 120 करोड़ लोग 178 लाख मीट्रिक टन अनाज को सुरक्षित स्थानों पर नहीं रख सकते। इस जुलाई के आरंभ में सरकार के पास 423 लाख मीट्रिक टन अनाज को सुरक्षित रखने की क्षमता थी। लेकिन फिर भी 178 मीट्रिक टन अनाज खुले में पडा़ था जिस के पास वर्षा के मौसम में भीगने और सड़ने के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि देश के पास इस अन्न को सुरक्षित रखने का कोई साधन नहीं हो। अपितु इस देश के पास कम से कम इस से दस गुणा अनाज और सुरक्षित ऱखने का साधन मौजूद था। समस्या यह थी कि वह साधन सरकार को नजर नहीं आ रहा था और नजर आया भी हो तो सरकार उसे खास कारणों से नजरअंदाज कर रही थी। 
म घर में दो वयस्क प्राणी हैं और एक पचास किलोग्राम गेहूँ का कट्टा तीन माह में हम खा डालते हैं। यही तीन-चार माह बरसात के होते हैं। यदि हम चाहें कि हम बरसात भर का गेहूँ जून या मई के महीने में खरीद कर अपने घर में रख लें तो हमें कम से कम पचास किलोग्राम के दो कट्टे तो सहेज कर रखने होंगे। इस का सीधा अर्थ यह हुआ कि बरसात के मौसम के लिए पचास किलोग्राम अनाज का एक कट्टा प्रति व्यक्ति आवश्यक है। डाक्टर मनमोहन सिंह ने परसों संपादकों से बात करते हुए यह खुद स्वीकार किया है कि वे देश की सैंतीस प्रतिशत आबादी अर्थात लगभग पैंतालीस करोड़ लोग देश में गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अब यदि इन पैंतालीस करोड़ लोगों के पास किसी भी तरह से बरसात भर का अन्न मई-जून माह में पहुँचा दिया जाता तो वह सारा खाद्यान्न सुरक्षित हो जाता। जिन लोगों के पास वह अन्न पहुँचता वे उस की प्राण प्रण से रक्षा करते क्यों कि वह उन के लिए जीवन दायक होता। इस अन्न की मात्रा मात्र 225 लाख मीट्रिक टन होती। लेकिन फिर भी वह उस अनाज से अधिक होती जो सड़ने के लिए सरकार और उस की ऐजेंसियों ने खुले में छोड़ दिया था। यह संभव भी था और अपेक्षित भी। 
डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विख्यात अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जिन से बातें करने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा तक को आनंद मिलता है वे अवश्य ही इस का मार्ग खोज सकने में समर्थ थे कि यह अनाज कैसे इन लोगों के पास पहुँच कर सुरक्षित हो सकता है। अनाज की सब से बड़ी सुरक्षा यही है कि वह उस मनुष्य के पास पहुँच जाये जिसे उसे उपयोग में लेना है। 
पर डाक्टर मनमोहन सिंह ने ऐसा नहीं किया या नहीं कर सके। उस का कारण भी स्पष्ट है। फिर बरसात में अनाज के दाम नहीं बढ़ते। निजी भंडारण करने वाले लोग जो मुनाफा बरसात में वसूलते हैं वह नहीं वसूला जा सकता था। फिर महंगाई नहीं बढ़ती। और महंगाई नहीं बढ़ती तो विकास कैसे होता? विकास की दर कैसे कायम रह पाती। विकास के लिए आवश्यक है कि मुनाफाखोरों को प्रसन्न रखा जाए। इसी कारण तो उन्हें हमारे डाक्टर साहब मनमोहक लगते हैं। महंगाई नहीं बढ़ती तो विपक्ष वाले क्या करते? इसी कारण उन्हें भी डाक्टर साहब मनमोहक लगते हैं। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि अन्न को सड़ने के लिए छोड़ देना कितना जरूरी है?

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

उन्हें खाद्यान्न को सड़ाना अधिक पसंद है

डॉक्टर मनमोहन सिंह, भारत के प्रधानमंत्री ने कल देश के चुने हुए संपादकों से बात करते हुए बहुत मजेदार बातें कही हैं। मैं उन का अर्थ तलाशने का प्रयत्न कर रहा हूँ, विशेष रुप से खाद्यान्नों के मामले में।
न्हों ने कहा-
रकार अनाज की बरबादी को ले कर सुप्रीम कोर्ट की भावनाओं का सम्मान करती है।  खाद्यान्न को मुफ्त वितरित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट को सरकार के नीति निर्धारण संबंधी मामलों में नहीं पड़ना चाहिए। संपदा का उत्पादन किए बगैर गरीबी नहीं मिटाई जा सकती। देश में 37 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करती है। आबादी के इतने बड़े हिस्से को मुफ्त में अनाज कैसे बांटा जा सकता है? रियायती मूल्य पर उसे अवश्य ही वितरित किया जा सकता है जिस के लिए सरकार इश्यु मूल्य निश्चित कर चुकी है। अनाज के मुफ्त वितरण का विचार किसानों को खाद्यान्न उत्पादन से हतोत्साहित करेगा।

ब मामला सुप्रीम कोर्ट के पास गया था तब सुप्रीम कोर्ट के सामने दो तथ्य थे। पहला यह कि देश के गोदामों और उन से बाहर रखा गया अनाज बड़ी मात्रा में उचित संरक्षण के अभाव में सड़ रहा है। दूसरा तथ्य यह कि देश की आबादी का एक हिस्से को दो वक्त के लिए खाद्यान्न उपलब्ध नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि अनाज को सड़ाने के स्थान पर उन लोगों तक मुफ्त में पहुँचा दिया जाए जिन्हें इस की आवश्यकता है। 
म्माननीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने खाद्यान्नों के सड़ने पर एक भी शब्द अपनी बातचीत में नहीं कहा। 
 शायद उन्हें खाद्यान्न को सड़ाना अधिक पसंद है, बजाय इस के कि उस का सदुपयोग हो जाए।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

छप्पन के बचपने का पहला दिन .....

ल का दिन अहम तो था ही। आखिर हम सुबह सवेरे जब पाँच बज कर उनचास मिनट में छह सैकंड शेष थे तब जिन्दगी के पचपन साल पूरे कर छप्पनवें में प्रवेश कर लिया था। हम ने घोषणा भी कर दी थी कि अब फिर से बचपन आरंभ हो रहा है। लेकिन बचपन को बचपन जैसे साथी भी तो मिलते। उन का अभी सर्वथा अभाव है। घर में तो हम दो प्राणी हैं। एक हम खुद और दूसरी हमारी अर्धांगिनी शोभा। हमारा जन्मदिन भले ही सुबह आरंभ छह बजे के करीब आरंभ हुआ हो, पर बधाइयाँ रात बारह के बारह के पहले ही आरंभ हो चुकी थीं। पाबला जी की जय हो। सब से पहले उन का फोन था। बात उन के सुपुत्र गुरुप्रीत से भी हुई। बहुत दूर था पार्टी चाह रहा था। हम ने कहा आ जाओ। उस ने जल्दी ही आने का वायदा किया। वह होता तो बचपन का आनंद मिलता। फिर सुबह बिस्तर से नीचे उतरता उस से पहले ही मोबाइल की घंटी बज उठी। दीपक मशाल थे। पूछ रहे थे कैसे मनाएंगे? मंदिर जाएंगे। हम ने कहा -सोचा नहीं है। पर हमारा घर मंदिर से कम थोड़े ही ना है।
कॉफी पी और आदत के मुताबिक कंप्यूटर संभाला। संदेशों का उत्तर दिया। तभी ताऊ जी का ब्लाग खुल गया। पहेली थी। हम जिद पर आ गए कि आज तो पहेली हमें ही जीतनी है। जन्मदिन का आरंभ इसी से क्यों न हो। हम पहेली का उत्तर तलाशने लगे। उत्तर मिला लेकिन जैसे ही जवाब लिखने लगे बिजली ने कंप्यूटर का बैंड बजा दिया। ठीक साढ़े आठ पर गई थी। नौ बजे तक नहीं लौटी। बिजली वालों से फोन कर के पूछते उस से पहले अखबार देख लेना उचित समझा। अखबार के पाँचवे पृष्ठ पर हमारी बस्ती का नाम उस सूची में शामिल था जिस की बिजली एक बजे तक बंद रहनी थी। अब देखिए, बिजली वालों को भी मेरी बस्ती की बिजली मरम्मत के लिए आज ही का दिन मिला था। तभी फोन आ गया। बेटा वैभव बधाई दे रहा था। अब बिजली नहीं थी। लेकिन मोबाइल और बेसिक दोनों फोन चालू थे। श्रीमती जी ने स्नान कर के स्नानघर हमारे लिए छोड़ दिया था। हम उसी की शरण मे  चले गए।
चपन याद आने लगा। तब तिथि पकड़ कर जन्मदिन मनाया जाता था। रक्षाबंधन के अगले दिन। उस दिन के कुछ मेहमान स्थायी होते थे। सुबह ही स्नान करा दिया जाता था। अम्माँ उस दिन जरूर हल्दी-आटे-चंदन का उबटन लगाती थीं। हमें हल्दी का रंग निकालने के लिए दो बार साबुन लगा कर नहाना होता था, जो हमेशा तकलीफदेह होता था। शायद ही कभी साबुन आँखों में न जाता हो। कल कई सालों के बाद सिर के बचे हुए 20 फीसदी बालों को शैम्पू किया। चांदी से बाल मुलायम हो गए। नहाने के लिए सिर को बचाते हुए इस्तेमाल किया। पर साबुन को भी हमारा बचपन याद आ गया और उस ने आँखों  से छेड़-छाड़ कर दी। बचपन का आरंभ हो चुका था। स्नान कर के बाहर निकला तब तक शोभा जी अपने शंकर जी की पूजा कर चुकी थीं। हम ने भी अपना श्रृंगार किया। शोभा जानती है कि हमारी भूख का स्नान से तगड़ा रिश्ता है। कहने लगी -आप को तो पार्टी में जाना है? पर वहाँ तो देर से भोजन होगा। अभी क्या बनाया जाए। पूर्व संध्या पर उस का भोजन बनाने का मन नहीं था। भूख भी कम ही थी। हम कहीं मिल कर लौटे थे तो घर में घुसने के बाद उस ने कहा था। रास्ते में याद नहीं रहा, वर्ना कचौड़ियाँ लेते आते। मैं ने कहा कचौड़ियाँ ले आता हूँ। उस ने सहमति मे सिर हिला दिया।
मैं
ने बेटे की बाइक निकाली। अभी मैं उस पर असहज होता हूँ। लेकिन एक किलोमीटर ही तो जाना था। कचौड़ियों की दुकान से कचौड़ियाँ लेते लेते बूंदाबांदी आरंभ हो गई। मैं रुका नहीं चलता रहा, भीगने का आनंद लेता हुआ। घर के नजदीक पहुँचा तो शोभा बाहर ही खड़ी थी। उस ने जल्दी से गेट खोल दिया। मैं ने भी भीगने से बचने के लिए बाइक को सीधे ही रैंप पर चढ़ा दिया। मुझे ख्याल नहीं रहा था कि बाइक चौथे गियर में है और रेंप की चढ़ाई नहीं चढ़ सकेगी। आधे रेंप पर चढ़ते ही बोल गई। हाथ क्लच पर चला गया। इंजन का पहिए से रहा सहा रिश्ता भी समाप्त होते ही वह दौड़ पड़ा। बाइक कटी पतंग की तरह पीछे लौटने लगी। ब्रेक लगाया तो फिसल पड़ी। तब तक एक पैर जमीन पर टिक चुका था। पर बाइक को पीछे लौटने से रोकना था। उस कोशिश में हेंडल घूम गया। बाएँ हाथ की कलाई और दायाँ कंधा दोनों मोच खा गए। एक बारगी लगा कि दायें बाजू की हड्डी कंधे में से निकल पड़ेगी। पर तब तक संभल चुका था। वह अपने स्थान पर जमी रह गई। इस में दोनों स्थानों की पेशियों ने अपनी महान भूमिका अदा की। लेकिन बेचारी घायल हो कर गान करने लगीं। बाइक को बंद हालत में ही धकिया कर घर में चढ़ाया गया। 
श्रीमती जी हमारी संगत में हम से भी पक्की होमियोपैथ हो गई हैं। उन्हों ने तुरंत आर्निका-200 की एक खुराक दे डाली। मैं निश्चिंत हो गया कि अब सूजन तो नहीं आएगी। वह आई भी नहीं। थैली में पाँच कचौड़ियाँ थीं। मुझे तो जीमने जाना ही था, दो ही खाईं, तीन शोभा को दीं। उस के खाने का किस्सा शाम तक का तमाम हो चुका था। बिजली एक के बजाए बारह बजे ही चालू हो गई। हमने तुरंत ताऊ पहेली का जवाब दिया। तभी वापस चली गई। हम समझ गए कि बिजली वाले अपनी कारगुजारियों की जाँच कर रहे हैं। एक बजे पड़ौसी जैन साहब ने आवाज लगा दी। चलना नहीं है क्या? एक पड़ौसी इकत्तीस को नौकरी से मुक्त हुए थे, उन की पार्टी में भीतरिया कुंड जाना था। हमने कार निकाली, चार और पडौसियों को ले कर भीतरिया कुंड पहुंच गए। तब तक वहाँ मेहमान कम थे। भोजन तैयार था। भीतरिया कुंड चम्बल के किनारे बना एक पुराना बगीचा है। जहाँ एक प्राचीन शिवमंदिर भी है मंदिर के सामने बारह मासी एक कुंड। पास ही चंबल, यहाँ से नदी पार का थर्मल पावर स्टेशन और बैराज एक साथ दिखाई देते हैं। मुझे दीपक मशाल की बात याद आई। मैं मंदिर की और चल दिया। मेजबान कहने लगे कहाँ चल दिए। मैं ने कहा शंकर जी से मिल आता हूँ। वरना शोभा से शिकायत करेंगे कि बहुत दिनों में बगीचे में आया और उन से मिला भी नहीं। अब सु्प्रीम कोर्ट की शिकायत से कौन न बचना चाहेगा? 
मंदिर के बाहर ही मालिनें बैठी थीं। अब इन का कारोबार मंदिरो पर ही रह गया है। शेष फ्लावर हाउस छीन ले गए। एक जमाने में ये मालिनें बहुत से कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हुआ करती थीं। पर अब फैशन बदल गया है। एक मालिन ने आवाज लगाई -बाबूजी आज ग्यारस है। आँकड़े की माला ले जाओ, पाँच रुपये में। मैं ने एक ले ली और मंदिर में पहुँच गया। शंकर जी को किसी ने नहलाया ही था। पूरी तरह श्रृंगारविहीन थे। मैं ने आँकड़े की माला उन्हें पहना दी। फिर उन के परिजनों की सुध लेने लगा। सब दिखाई दिए। माँ गौरी थीं, गणेश थे, नंदी था, साँप और चंद्र भी थे। पर कार्तिकेय नहीं दिखाई दिए। बहुत तलाशा पर नहीं मिले। जब से वे दक्षिण जा कर सुब्रह्मण्यम हुए हैं, उत्तर वाले उन्हें विस्मृत करने लगे हैं। हरिहर अयप्पा को तो शायद जानते भी नहीं यदि उत्तर में आ कर बस गए मलयालियों ने उन के मंदिर न बनवा दिए होते। वापस लौटा तो कलाई और कांधे की जुगलबंदी आरंभ हो चुकी थी। शोभा ने एक गोली किसी दर्दनिवारक की दी। मैं फिर बिस्तरशरण हो गया। थोड़ी देर बाद ही शोभा ने जगा दिया। दूध लेने चलना है। वहाँ गये तो  महिलाएँ कतार से बैठी थीं, भैस का खालिस दूध लेने के लिए। बराबर बाँट में दूध बस एक किलो मिला। अगले दिन बछारस जो थी। उस दिन गाय का दूध और गेहूँ का उपयोग महिलाओं के लिए वर्जित है। यह संभवतः उन दिनों की स्मृति है जब खेती के लिए गौवत्स निहायत आवश्यक हो उठे थे और उन का वंश बनाए रखने के लिए यह अनुष्ठान आरंभ हुआ होगा। इस की कथा कोई महिला ही कहे तो अच्छा लगेगा। 
खैर! छप्पनवें साल के बचपने ने पहले दिन ही रंगत दिखा दी। इस लिए आज सिर्फ आराम किया गया। हाथों और उंगलियों को भी करने दिया। शोभा सो गई है इसलिए इन्हें तकलीफ देने की हिमाकत की है। डर भी लग रहा है कि उठ गई तो डाँटेगी नहीं तो ताना तो कस ही देगी।
चंबल पार थर्मल प्लांट और दाएं बैराज

उद्यान में मंदिर और चंबल की ओर उतरती सीढ़ियाँ


चतुर्मुखी शिव और बीच में लिंग
शंकर अर्धांगिनी पार्वती

नंदी


सीढ़ियों से दिखाई देती चंबल

गणेश

अनवरत ताजा जल से भरा कुंड

शनिवार, 4 सितंबर 2010

एक पड़ाव यह भी.......

ज उम्र का वही पड़ाव है जिस पर आ कर पिता जी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए थे। सेवानिवृत्ति के अगले दिन से ही सेवानिवृत्ति की आयु तीन वर्ष बढ़ा दी गई थी। पर उन्हें कोई अफसोस नहीं था। वे प्रसन्न  थे कि उन्हें नौकरी से छुटकारा मिल गया है। जितनी उन्हें पेंशन मिली थी और जितना उन्हें ग्रेच्यूटी और भविष्यनिधि से मिली राशि के उपयोग से वे आय कर सकते थे वह उन के वेतन से कुछ ही कम थी। इस में भी नौकरी के स्थान पर किराए के मकान और आने जाने आदि में जो खर्च होता था वह बच गया था। कुल मिला कर उन की आय उतनी ही थी और नौकरी से पीछा छूटा था। वे बहुत प्रसन्न थे। उन पर तीन बेटों को योग्य बनाने और उन के विवाह की जिम्मेदारियाँ शेष थी। वे घर लौटे, लेकिन तब तक मैं घर छो़ड़ चुका था। कोटा आ कर वकालत करने लगा था। उन को घर पर मेरी अनुपस्थिति अवश्य अखरी थी। घर लौट कर उन्हों ने अपने स्वभाव के अनुसार चर्या आरंभ कर दी। सुबह उठना अंधेरे ही स्नानादि से निवृत्त हो मंदिर जा कर छोटे भाई की मदद करना। लौट कर आते कुछ पढ़ने लगते। फिर दस बजे मंदिर जा कर कथा पढ़ना। फिर भोजन और विश्राम। शाम को घूमने निकलना और अपने मित्रों के साथ उठना बैठना शाम घर लौट कर बच्चों की पढ़ाई का ख्याल करना। नगर में अधिकांश वयस्क उन के शिष्य थे। उन्हें पता लगा कि गुरुजी सेवा निवृत्त हो कर घर आ गए हैं तो अपनी बेटियों को ट्यूशन पढ़ाने का आग्रह करने लगे। जल्दी ही सुबह की कथा के पहले और बाद दो कक्षाएँ लड़कियों की लगने लगीं। घर में बेटियों की रौनक होने लगी। शाम के समय उन के पास लोग सलाह के लिए आने लगे। वे यह सब जीवन पर्यंत करते रहे। जिस रात उन्हों ने विदा ली उस से अगली सुबह पढ़ने आई बेटियों को वहीं आ कर पता लगा कि वे विदा ले चुके हैं। 
मेरे पास अपने पेशे से निवृत्ति का अवसर नहीं है। कहते हैं वकील की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वह युवा होता जाता है। पचपन का हो कर मैं अपने को बचपन में लौटा महसूस कर रहा हूँ। जिस के सामने पहाड़ जैसी दुनिया खड़ी होती है, ढेर सारी चुनौतियाँ होती हैं। वह उन से जूझने की तैयारी कर रहा होता है। मेरे लिए अभी अपनी सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों से जूझना शेष है। लगता है अभी जीवन आरंभ ही हुआ है। ठान बैठा हूँ कि जितनी क्षमता होगी काम करता रहूंगा बिना प्रतिफल की आशा के जैसा अब तक किया है। इस विश्वास के साथ कि ऐसे में कभी बचपना हो जाए तो इस पचपन पार को मित्रगण अवश्य क्षमा कर देंगे।
मित्रों के संदेश आरंभ हो चुके हैं। पाबला जी, उन के सुपुत्र गुरुप्रीत फुनिया चुके हैं, हाशमी साहब का बधाई ई-पत्र मिला है, और बहुत दिनों बाद अनिता जी के मेल में सिर्फ बधाई! लगता है कुछ नाराज हैं वे। अब दीदी से मैं तो नाराज हो नहीं सकता, और संदेश आ रहे हैं। मैं बहुत खुश हूँ, वैसा ही जैसा पचास बरस पहले कैमरे वाले चाचा चम्पाराम जी के इस अवसर पर आ कर एक फोटो अपने कैमरे में कैद कर लेने पर खुश होता था। सभी मित्रों को जो बधाई दे चुके हैं, धन्यवाद और उन्हें भी जो देने वाले हैं, अग्रिम धन्यवाद!!!