@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे?

 चाची जी
ब मैं पाँच बरस का था तो चाचा जी की शादी हुई। चाची जी घऱ में आ गईं। खिला हुआ गोरा रंग और सुंदर जैसे मंदिर में सजी हुई गौरी हों। उसी साल बी.ए. की परीक्षा दी थी उन्हों ने। तब लड़कियों का मेट्रिक पास करना भी बहुत बड़ा तीर मारना होता था। मैं अक्सर उन के आस पास ही बना रहता। मुझे सब सरदार ही कहा करते थे। स्कूल में नाम दिनेश लिखा गया था। लेकिन चाची जी मुझे हमेशा दिनेश जी कहती थीं। उन का मुझे नाम ले कर पुकारना और फिर पीछे जी लगाना बहुत अच्छा लगा। वे पहली थीं जिन ने मुझे इतनी इज्जत बख्शी थी। इस के बाद तो बहुत लोग जीवन में आए जिन्हों ने उम्र में बड़े होते हुए भी मुझे जी लगा कर पुकारा।
मैं वकालत करने कोटा आया तो यहाँ के अभिभाषकों में सब से वरिष्ठ थे पं. रामशरण जी शर्मा। उन की उम्र मेरे दादा जी के बराबर थी। वे केवल वकील ही नहीं थे। उन का इतर अध्ययन भी था और वे विद्वान थे। सभी उन के पैर छूते थे। उन के पास रहते हुए मुझे बहुत भय लगता था इस बात का कि कहीं ऐसा न हो कि मैं कोई ऐसी बात कह दूँ या कोई ऐसी हरकत कर दूँ जिस से उन्हें बुरा लग जाए। हालांकि इच्छा यह होती थी कि जब भी वे बोल रहे हों उन के आस पास बना रहूँ। उन की आवाज बहुत धीमी और मीठी थी। इतनी धीमी कि लोगों को कान और ध्यान दोनों लगा कर सुनना पड़ता था। अदालत में भी जब वे बहस करते तो भी उन का स्वर धीमा ही रहता था। जज उन की बात को बहुत ध्यान से सुनते थे। जब वे बोलते थे तो अदालत में सन्नाटा होता था। कहीं ऐसा न हो कि उन के बोलने में कोई व्यवधान पड़े। 
क दिन अचानक फोन की घंटी बजी। फोन पर बहुत महीन और मधुर स्वर उभरा - द्विवेदी जी, मैं पंडित रामशऱण अर्ज कर रहा हूँ। 
मैं इस आवाज को सुनते ही हड़बड़ा उठा। मैं ने उन्हें प्रणाम किया। बाद में वे जो कुछ पूछना चाहते थे पूछते रहे मैं जवाब देता रहा। उन के इस विनम्र व्यवहार से मैं उन के प्रति अभिभूत हो उठा था। इस के बाद उन से निकटता बनी। एक दिन उन से खूब बातें हुई। उस दिन मैं ही बोलता रहा, वे अधिकांश सुनते रहे। उन्हों ने कोई टिप्पणी नहीं की। दो-चार दिन बाद उन्हों ने आगे से कहा -मुझे उस दिन तुम्हारी बातों से आश्चर्यजनक प्रसन्नता हुई कि वकीलों में अब भी ऐसे लोग आ रहे हैं जो वकालत की किताबों के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ते हैं। फिर उन के पौत्र वकालत में आए। वे अक्सर उन के बारे में मुझ से पूछते कि -हमारा नरेश कैसा वकील है? मुझे जो भी बन पड़ता जवाब देता। 
मेरी आवाज बहुत ऊंची है। जब अदालत में बहस करता हूँ तो अदालत के बाहर तक सुना जा सकता है। लेकिन मुझे मेरी यही आवाज मुझे अच्छी लगती थी। लेकिन पंडित जी से मिलने के बाद बुरी लगने लगी। मुझे लगा कि मुझे धीमे बोलने की आदत डालना चाहिए जिस से लोग मुझे ध्यान से सुनें और उस पर गौर करें। मेरा व्यवहार छोटे से छोटे व्यक्ति के साथ भी मधुर, विनम्र और सम्मानपूर्ण होना चाहिए। मैं तभी से यह प्रयास करता रहा हूँ कि मैं ऐसा कर सकूँ। मैं अभी तक इस काम में सफल नहीं हो सका हूँ, लेकिन प्रयत्नशील अवश्य हूँ। 
ल खुशदीप जी ने मुझे कहा कि मैं उन्हें खुशदीप कहूँ तो उन्हें खुशी होगी। उन का कहना ठीक है। शायद वे इसी तरह मुझ से अधिक आत्मीयता महसूस करते हों। लेकिन मैं जो कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहा हूँ उस में तो यह बाधा उत्पन्न करता ही है। यदि मैं उन्हें खुशदीप जी कहता रहूँ तो क्या वे कम निकटता, कम स्नेह महसूस करेंगे? मुझे लगता है कि उन्हें इस से बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं सभी से ऐसा ही व्यवहार कर सकूँ। मैं तो कहता हूँ कि मेरे सभी पाठक यदि अपने से उम्र में छोटे-बड़े सभी लोगों से ऐसा व्यवहार कर के देखें।  वे अपने बच्चों और पत्नी या पति को जिस भी नाम से पुकारते हैं उस के अंत में जी लगा कर संबोधित कर के देखें, और लगातार कुछ दिन तक करें। फिर बताएँ कि वे कैसा महसूस करते हैं। 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ब्लागीरी को अपने काम और जीवन का सहयोगी बनाएँ

सोमवार से शोभा के बाऊजी, और जीजी हमारे बच्चों के नाना जी और नानीजी साथ हैं तो घर में रौनक है।  बच्चों के बाहर रहने से हम दोनों पति-पत्नी ही घर में रहते हैं। कोई भी आता है तो रौनक हो जाती है। बाऊजी अस्सी के होने जा रहे हैं, कोई सात बरस पहले उन्हें मधुमेह ने पकड़ लिया। वे स्वयं नामी ऐलोपैथिक चिकित्सक हैं और इलाके में बालरोग विशेषज्ञ के रूप में विख्यात भी। वे अपने शरीर में शर्करा की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। फिर भी मधुमेह ने शरीर पर असर किया है। अब कमर के निचले हिस्से में सुन्नता का अनुभव करते हैं। उन की तंत्रिकाओँ में संचार की गति कुछ मंद हुई है। कोटा के एक ख्यात चिकित्सक को दिखाने आते हैं। इस बार जीजी को भी साथ ले कर आए। हम ने आग्रह किया तो रुक गए। पिछले दो दिनों से लोग उन से मिलने भी आ रहे हैं। लेकिन इन दो दिनों में ही उन्हें अटपटा लगने लगा है। अपने कस्बे में उन बाऊजी के पास सुबह से मरीज आने लगते हैं। वे परिवार के व्यवसायों पर निगरानी भी रखते हैं। जीजी भी सुबह से ही परिवार के घरेलू और खेती कामों पर  निगरानी रखती हैं और कुछ न कुछ करती रहती हैं। यहाँ काम उन के पास कुछ नहीं, केवल बातचीत करने और कुछ घूम आने के सिवा तो शायद वे कुछ बोरियत महसूस करने लगे हों। अब वे वापस घर जाने या जयपुर अपनी दूसरी बेटी से मिलने जाने की योजना बना रहे हैं। मुझे समय नहीं मिल रहा है, अन्यथा वे मुझे साथ ले ही गए होते। हो सकता है कल-परसों तक उन के साथ जयपुर जाना ही हो। सच है काम से विलगाव बोरियत पैदा करता है। 
रात को मैं और बाऊजी एक ही कमरे में सो रहे थे, कूलर चलता रह गया और कमरा अधिक ठंडा हो गया। मैं सुबह उठा तो आँखों के पास तनाव था जो कुछ देर बाद सिर दर्द में बदल गया। मैं ने शोभा से पेन किलर मांगा तो घर में था नहीं। बाजार जाने का वक्त नहीं था। मैं अदालत के लिए चल दिया। पान की दुकान पर रुका तो वहाँ खड़े लोगों में से एक ने अखबार पढ़ते हुए टिप्पणी की कि अब महंगाई रोकने के लिए मंदी पैदा करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। दूसरे ने प्रतिटिप्पणी की -महंगाई कोई रुके है? आदमी तो बहुत हो गए। उतना उत्पादन है नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलावट कर कर के तो जरूरत पूरी की जा रही है, वरना लोगों को कुछ मिले ही नहीं। अब सरकारी डेयरी के दूध-घी में मिलावट आ रही है। वैसे ही गाय-भैंसों के इंजेक्शन लगा कर तो दूध पैदा किया जा रहा है। एक तीसरे ने कहा कि सब्जियों और फलों के भी इंजेक्शन लग रहे हैं और वे सामान्य से बहुत बड़ी बड़ी साइज की आ रही हैं। मैं ने भी प्रतिटिप्पणी ठोकी -भाई जनसंख्या से निपटने का अच्छा तरीका है, सप्लाई भी पूरी और फिर मिलावट वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में कमी तो लाएगी ही।
दालत पहुँचा, कुछ काम किया। मध्यांतर की चाय के वक्त सिर में दर्द असहनीय हो चला। मुवक्किल कुछ कहना चाह रहे थे और बात मेरे सिर से गुजर रही थी। आखिर मेरे एक कनिष्ठ वकील ने एनालजेसिक गोली दी। उसे लेने के पंद्रह मिनट में वापस काम के लायक हुआ। घऱ लौट कर कल के एक मुकदमे की तैयारी में लगा। अभी कुछ फुरसत पाई है तो सोने का समय हो चला है। कल पढ़ा था खुशदीप जी ने सप्ताह में दो पोस्टें ही लिखना तय किया है। अभी ऐसा ही एक ऐलान और पढ़ने को मिला। मुझे नहीं लगता कि पोस्टें लिखने में कमी करने से समस्याएँ कम हो जाएंगी। बात सिर्फ इतनी है कि हम रोजमर्रा के कामों  में बाधा पहुँचाए बिना और अपने आराम के समय में कटौती किए बिना ब्लागीरी कर सकें। इस के लिए हम यह कर सकते हैं कि हमारी ब्लागीरी को हम हमारे इन कामों की सहयोगी बनाएँ। जैसे तीसरा खंबा पर किया जाने वाला काम मेरे व्यवसाय से जुड़ा है और मुझे खुद को ताजा बनाए रखने में सहयोग करता है। अनवरत पर जो भी लिखता हूँ बिना किसी तनाव के लिखता हूँ। यह नहीं सोचता कि उसे लिख कर मुझे तुलसी, अज्ञेय या प्रेमचंद बनना है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

"जो चाहो मुझ पर जुल्म करो" एक नज़्म पाकिस्तान से

शिवराम के संपादन में प्रकाशित हो रही  "सामाजिक यथार्थवादी पत्रिका अभिव्यक्ति" का 36वाँ अंक प्रेस से आ गया है। इस का वितरण आरंभ कर दिया है। प्रकाशक की पाँच सुरक्षित पाँच प्रतियाँ मुझे मिलीं। अभी पूरी तरह इस अंक को देख नहीं पाया हूँ। पर इस में पाकिस्तानी कवि जावेद अहमद जान की एक नज़्म मुझे पसंद आई जो लाहौर के दैनिक जंग में 11 अप्रेल 1989 को प्रकाशित हुई थी। नज़्म आप के लिए पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूँ ----

मैं बागी हूँ
  • जावेद अहमद जान

मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।

इस दौर के रस्म रिवाजों से 
इन तख्तों से इन ताजों से
 जो जुल्म की कोख से जनमे हैं
इन्सानी खून से पलते हैं
ये नफरत की बुनियादें हैं
और खूनी खेत की खादें हैं

मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।

मेरे हाथ में हक का झण्डा है
मेरे सर पे जुल्म का फन्दा है
मैं मरने से कब डरता हूँ
मैं मौत की खातिर जिन्दा हूँ
मेरे खून का सूरज चमकेगा
तो बच्चा बच्चा बोलेगा
मैं बागी हूँ, मैं बागी हूँ
जो चाहो मुझ पर जुल्म करो।
 फ्रेंच कारटूनिस्ट, चित्रकार, मूर्तिकार डौमियर ऑनर (1808-79).की एक कृति

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

फिर से पढना, मुल्कराज आनंद के उपन्यास "कुली" का

किसी भी शाकाहारी के लिए वह भी ऐसे शाकाहारी के लिए जिस के लिए किसी भी तरह के अंडा और लहसुन तक त्याज्य हो,  यात्रा करना एक चुनौती से कम नहीं। वह भी तब जब कि उसे भारत से बाहर जाना पड़ रहा हो। बेटी पूर्वा के साथ भी यही चुनौती उपस्थित हुई थी। उसे पहली बार किसी कार्यशाला के लिए एक अफ्रीकी  देश जाना था। कुल एक सप्ताह की यात्रा थी। आखिर उस की मित्रों ने सलाह दी की तुम्हारी माँ तो बहुत अच्छे खाद्य बनाती है जो महीनों सुरक्षित रहते हैं, तो वही बनवा कर ले जाओ। यह बात जब शोभा तक पहुँची तो पत्थर की लकीर हो गया। बेटी जब पहली बार विदेश जा रही हो तो उस से मिलने जाना ही था। खैर, शोभा ने बेटी के लिए खाद्य बनाए। कुछ और वस्तुएँ जो उसे पहुँचानी थी, ली गई। यात्रा दो से चार दिन की हो सकती थी। कुछ किताबें पढ़ने के लिए होनी चाहिए थीं। मैं ने अपनी अलमारी टटोली और दो बहुत पहले पढ़ी हुई पुस्तकों का चयन किया। इन में से एक भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक मुल्कराज आनंद के उपन्यास कुली का हिन्दी अनुवाद था।
कुली आजादी के पूर्व के परिदृश्य में एक अनाथ पहाड़ी किशोर की कहानी है। चाचा चाची कहते हैं कि वह पर्याप्त बड़ा हो गया है उसे कमाना आरंभ कर देना चाहिए। उसे नजदीक के कस्बे में एक बाबू जी के घर नौकर रख दिया जाता है। उद्देश्य यह की खाएगा वहाँ और जो नकद कमाएगा वह जाएगा चाचा की जेब में। अपना ही निकटतम पालक परिजन  जब शोषक बन जाए तो औरों की तो बात कुछ और ही है। वह शोषण और निर्दयता का मुकाबला करता हुआ उस से भाग कर एक नए जीवन की तलाश में भटकता रहता है। लेकिन जहाँ भी जाता है वहाँ शोषण का अधिक भयानक रूप दिखाई पड़ता है। अंततः 15 वर्ष की आयु में वह यक्ष्मा का शिकार हो कर मर जाता है। 
स उपन्यास में देश में प्रचलित अर्ध सामंती, नए पनपते पूंजीवाद और साम्राज्यवादी शोषण के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। इस में लालच के मनुष्यों को हैवान बना देने के विभत्स रूप देखने को मिलते हैं, तो कहीं कहीं शोषितों के बीच सहृदयता और प्यार के क्षण भी हैं।  भले ही यह उपन्यास आजादी के पहले के भारत का परिदृश्य प्रस्तुत करता है। लेकिन पढ़ने पर आज की दुनिया से समानता दिखाई देती है। शोषण के वे ही विभत्स रूप आज भी हमें अपने आसपास उसी बहुतायत से दिखाई देते हैं। वे हैवान आज भी हमारे आस-पास देखने को मिलते हैं। जिन्हें हम देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं, वैसे ही जैसे बिल्ली कुत्ते को देख कर आँख मूंद लेती है।
मैं इस उपन्यास को आधा कोटा से फरीदाबाद जाते हुए ट्रेन में ही पढ़ गया। शेष भाग फरीदाबाद में पढ़ा गया। बहुत दिनों बाद पढ़ने पर लगा कि जैसे मैं उसे पहली बार पढ़ रहा हूँ। बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक है। जो हमारे वर्तमान समाज के यथार्थ को शिद्दत के साथ महसूस कराती है। यह पुस्तक मिल जाए तो आप भी अवश्य पढ़िए। जो लोग इसे खरीदने में समर्थ हैं वे इसे खरीद कर अपने पुस्तकालय में इसे अवश्य सम्मिलित करें।  यात्रा में ले जाई गई दूसरी पुस्तक का मैं एक ही अध्याय फिर से पढ़ सका। आज मेरे एक कनिष्ट अधिवक्ता उसे पढ़ने के लिए ले गए हैं। देखता हूँ वह कब वापस लौटती है। इस दूसरी पुस्तक के बारे में बात फिर कभी।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी

18 अप्रेल, 2010
पंखा सुधारता मिस्त्री
ड़नतश्तरी ने चित्रों को सही पहचाना वे फरीदाबाद सैक्टर 7-डी के ही थे। बेटी पूर्वा वहीं रहती है। उसी के कारण सपत्नीक वहाँ जाना हुआ। हो सकता था मुझे दो दिन और रुकना पड़ता।  हम कोटा के वकीलों ने 30 अगस्त से छह दिसंबर तक चार माह से कुछ अधिक समय हड़ताल रखी। सारे मुकदमों में विलंब हुआ और यह भी कि उन की अगली तिथियों का प्रबंधन हम न कर पाए। इस के कारण सब ऊल-जलूल तरीके से तारीखों में फिट हो गए। उन्हों ने अब बाहर निकलना दूभर कर दिया है। यदि दो दिन और रुकता तो अपने मुवक्किलों को  अप्रसन्न करता।  लेकिन अभी हमारा समाज बहुत सहयोगी है। मैं ने समस्या का उल्लेख पूर्वा के मकान मालिक से किया तो उन्हों ने कहा -ये भी कोई समस्या है। आप चिंता न करें जरूरत पड़ी तो यह काम मैं स्वयं करूंगा। हम निश्चिंत हुए और आज ही वापस लौट लिए।
कोटा अदालत चौराहे की दोपहर
रोज सुबह आठ बजे अदालत निकल जाना और दोपहर बाद दो बजे तक वहाँ रहना इस भीषण गर्मी में नहीं अखरता।एक तो काम में न सर्दी का अहसास होता है और न गर्मी का। दूसरे कोटा में जहाँ अदालत है वहाँ  आसपास वनस्पति अधिक होने से तापमान दो-चार डिग्री कम रहता है और नमी बनी रहती है। इस कारण गर्मी बरदाश्त हो लेती है। वापस लौट कर घर पर कूलर का सहारा मिल ही जाता है। गर्मियाँ कटती रहती हैं। लेकिन कल सुबह छह बजे ट्रेन कोटा से रवाना हुई और सूरज निकलने के साथ ही गर्मी बढती रही। मथुरा पहुँचते पहुँचते जनशताब्दी का दूसरे दर्जे का डब्बा बिलकुल तंदूर बन चुका था। जैसे तैसे 12 बजे बल्लभगढ़ उतरे तो वहाँ सूरज माथे पर तप रहा था। पूर्वा के आवास पर पहुँचे तो घऱ पूरा गर्म था। कुछ देर कूलर ने साथ दिया और फिर बिजली चली गई। आधी रात तक बिजली कम से कम छह बार जा चुकी थी। बिजली 15 से 30 मिनट रहती और फिर चली जाती। वह शहर में ही ब्याही नई दुल्हन की तरह हो रही थी जो ससुराल में कम और मायके अधिक रहती है।
पंछियों के लिए परिंडा 
रात हो जाने पर हिन्दी ब्लाग जगत के शीर्ष चिट्ठाकार रह चुके अरूण अरोरा (पंगेबाज) जी के घर जाना हुआ।  हमारा सौभाग्य था कि वे घर ही मिल गए। उन्हों ने कुछ मेहमान आमंत्रित किए हुए थे इसलिए वे शीघ्र घर लौट आए थे। वर्ना इन दिनों उन का अक्सर ही आधी रात तक लौटना हो पाता है और सुबह जल्दी घर छोड़ देते हैं। पिछले वर्ष जब सभी उद्योग मंदी झेल रहे थे तब उन्हों ने बहुत पूंजी अपने उद्योग में लगाई थी। मैं सदैव चिंतित रहा कि इस माहौल में उन्हों ने बहुत रिस्क ली है। लेकिन यह जान कर संतोष हुआ कि पूंजी लगाने का सकारात्मक प्रतिफल मिल रहा है। हम उन के घरपहुँचे तब बिजली नहीं थी और रोशनी व पंखा इन्वर्टर पर थे। हमें बात करते हुए दस ही मिनट हुए थे कि वह भी बोल गया। घर से अंधेरा दूर रखने के लिए मोमबत्ती का सहारा लेना पड़ा। कुछ देर में उन के आमंत्रित मेहमान भी आ गए और हम ने विदा ली। रात भर बिजली आती-जाती रही।
सूर्यास्त होने ही वाला है
मारी समस्या हल हो चुकी थी। दोपहर पौने दो बजे कोटा के लिए जनशताब्दी थी। हम उस से वापल लौट लिए। फरीदाबाद हरियाणा सरकार का कमाऊ पूत है। समूचे हरियाणा का आधे से अधिक आयकर इसी शहर से आता है। निश्चित ही राज्य सरकार को भी यहाँ से इसी अनुपात में राजस्व मिलता है। इस शहर की हालत बिजली के मामले में ऐसी है तो यह अत्यंत चिंताजनक बात है। रात को चर्चा करते हुए पंगेबाज जी ने तो कह ही दिया था -और दो काँग्रेस को वोट, अब यही होगा। मैं ने पूछा क्या हरियाणा में इतनी कम बिजली पैदा होती है। तो वे कहने लगे -बिजली तो जरूरत जितनी पैदा होती है लेकिन कांग्रेस की सरकार है तो दिल्ली को बिजली देनी होती है। हम यहाँ भुगतते हैं। अब असलियत क्या है? यह तो कोई खोजी पत्रकार आंकडे़ जुटा कर ही बता सकता है।
लो सूरज विदा हुआ
वापसी यात्रा में जनशताब्दी का डब्बा फिर से तंदूर की तरह तप रहा था। जैसे-तैसे छह घंटों का सफर तय किया और कोटा पहुँचे। मैं शोभा से कह रहा था कि इस भीषण गर्मी में घर छोड़ कर बाहर निकलना मूर्खता से कम नहीं है। वह नाराज हो गई। इस में काहे की मूर्खता है, काम पड़ेगा तो जाना ही पड़ेगा, गर्मी हो या सर्दी। यहाँ आ कर अखबार देखा तो पता लगा कि कल के दिन कोटा का अधिकतम तापमान 45.7 डिग्री सैल्शियस था।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा



कोटा, 16 अप्रेल 2010

मित्रों!
आज व्यस्तता रही। अदालत से आने के बाद बाहर जाने की तैयारी करनी पड़ी। अब कम से कम दो दिन और अधिक से अधिक चार दिनों तक कोटा से बाहर रहना हो सकता है, वहीं जहाँ के ये दोनों चित्र हैं। चाहें तो आप पहचान सकते हैं. ये दोनों चित्र अनवरत की पिछली पोस्टों पर उपलब्ध हैं।

लगभग ढाई वर्ष से हिन्दी ब्लागीरी में हूँ, और यहाँ नियमित बने रहने का प्रयास रहता है। पर फैज़ सही कह गए हैं -और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा।

तो उन का भी खयाल तो रखना होता है।

यदि समय मिला और आप से जुड़ने का साधन तो इस बीच भी आप से राम-राम अवश्य होगी।


--- दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कुछ दिनों के शहंशाह से मुलाकात

प नौकरी करते हैं, हर माह वेतन मिल जाता है। भविष्य की सुरक्षा के लिए भी कुछ न कुछ पीएफ आदि में जमा होता है। चिकित्सा और दुर्घटना के वक्त की भी कुछ न कुछ सुरक्षा रहती है है। आप कोई ठीक ठीक व्यवसाय करते हैं तो भी कुछ न कुछ जमा कर के रखते हैं या फिर जमा को कहीं नियोजित कर अपनी सुरक्षा कर लेते हैं। मगर दुनिया में बहुत लोग ऐसे होते हैं जो सुबह कमाने निकलते हैं और शाम कुछ लेकर आते हैं तो जिन्दगी चलती है। इन में से कुछ तो बचत कर रखते हैं। इस श्रेणी के कुछ लोग कुछ ऐसे धंधों में उलझे रहते हैं जिस में कभी मालामाल तो कभी कंगाल वाली स्थिति रहती है। ये सटोरिए, जुआरी या लाटरीबाज कुछ भी हो सकते हैं। इन्हीं में से एक से इन दिनों मुझे मिलने का अवसर मिला।
 मैं एक मुकदमा लड़ रहा हूँ। जिस में एक विधवा स्त्री ने एक मकान के बंटवारे का मुकदमा किया हुआ है। मकान की कीमत कोई 24-25 लाख है। उस विधवा स्त्री का हिस्सा भी 1/24 ही है। इतना ही उस की दो बेटियों और उस के पुत्र का है,  बाकी हिस्से उस के देवरों के हैं। मुकदमा करने के बाद जब प्रतिवादियों को समन मिले तो उन में से एक देवर सीधे मेरे पास चला आया कहने कि आप ही मेरा मुकदमा लड़ लें। मैं ने मना कर दिया कि मैं तो आप की भाभी का वकील हूँ और आप प्रतिवादी हैं। दूसरा वकील करना पड़ेगा। उस ने मेरे नजदीक बैठने वाले एक वकील को तय कर लिया, उन्हों ने उस की ओर से वकालतनामा दाखिल कर जवाब पेश करने के लिए समय ले लिया। अगली पेशी पर वह नहीं आया, न ही वकील से संपर्क किया और न ही उन्हें फीस दी। वकील साहब ने एक पेशी ले ली, वह फिर भी नहीं आया। मुकदमे में उस का जवाब पेश करने का अवसर समाप्त कर दिया गया। विवाद्यक बन गए और मुकदमा साक्ष्य में आ गया। मैं ने अपनी मुवक्किल की ओर से गवाह सबूत पेश कर दिए। मुकदमा प्रतिवादियों की गवाही के लिए निश्चित हो गया। 
चार दिन पहले इस मुकदमे में पेशी थी। सुबह अदालत के लिए रास्ते में ही फोन आया कि आप अभी तक कोर्ट नहीं आए और हम यहाँ आप का इंतजार कर रहे हैं, मैं ने फोन करने वाले को नहीं पहचाना। अदालत पहुँचने पर मेरे कनिष्ठ ने बताया कि एक आदमी आप को तीन बार पूछ गया है, पागल सा लगता है और उस महिला के मुकदमे से संबंधित है। मैं उसी मुकदमे में अदालत जाने वाला था कि वह व्यक्ति आ गया। आते ही बोला -आप मुझे मुकदमे की फाइल दे दें। मैं ने पूछा -भाई तुम कौन हो? उस ने बताया कि वह उस विधवा स्त्री का देवर है। मैं ने उस से कहा -तुम तो हमारे प्रतिवादी हो तुम्हें फाइल कैसे दे दूँ? तुम मेरी मुवक्किल को भेज दो उसे दे दूंगा। इस पर वह बिफर उठा -आप ने कुछ नहीं किया, साल भर हो गया। आप फाइल कैसे नहीं देंगे? मैं ने उसे कहा कि तुम हमारे मुवक्किल नहीं हो, मैं तुम्हारे खिलाफ वकील हूँ। तुम्हें मुझ से बात नहीं करनी चाहिए। तुंम यहाँ से जाओ। इस पर वह लड़ने को उतारू हो गया। मुझे भी कुछ गुस्सा आया। मैं ने उसे डांटा भी। एक बारगी तो मन में आया कि उसे एक-दो हाथ जड़ दूँ। पर उस से क्या होगा? यह सोच रुक गया। इतने में मेरे कनिष्ठ उसे पकड़ कर ले गए और दूर छोड़ आए। इस बीच हो-हल्ला सुन कर भीड़ इकट्ठी हो गई। 
कुछ देर बाद मैं अदालत में पहुँचा वहाँ एक और प्रतिवादी के वकील मिले। उन्हों ने बताया कि वह कल शाम दारू पी कर उन के दफ्तर पहुँचr था और उन्होंने उसे भगा दिया था। मुझे कहने लगे उस की तो पिटाई कर देनी चाहिए थी। मैं ने उन्हें कहा कि इस का हमें क्या हक है? हर किसी को सिर्फ न्यूसेंस को हटाने का हक है वह हम ने हटा दिया। कुछ देर बाद वह व्यक्ति भी एक वकील के साथ न्यायालय में आ गया। जिस वकील को साथ ले कर आया था वह कहने लगा कि उन्हें तो केवल हमारी केस फाइल की प्रतिलिपि चाहिए ताकि वे आगे कार्यवाही कर सकें। मैं ने उन्हें बताया कि पहले एक और वकील इन के वकील रह चुके हैं, उन के पास इस की फाइल होगी और उन की अनुमति य़ा अनापत्ति के बिना दूसरा वकील इस में आ नहीं सकता। आप के मुवक्किल को उन से संपर्क करना चाहिए। मुकदमे में उस दिन की कार्यवाही के बाद अगली पेशी हो गई। 
ज सुबह मैं एक नए मुकदमे में अपने मुवक्किल की ओर से वकालतनामा दाखिल करने के लिए उस अदालत में जा रहा था कि सीढ़ियों के नीचे वही व्यक्ति मुझे दिखाई दे गया। उस ने मुझे नमस्ते किया और मेरी ओर आने लगा तो पास में खड़े सिपाही ने उस का हाथ पकड़ लिया। सिपाही के साथ ही वह मेरे नजदीक आया, तो मैं ने देखा कि उस के हाथ, पैऱ चेहरा सब सूजे हुए हैं, जैसे उसे खूब मारा गया हो। मैं ने पूछा -ये क्या हुआ?  सिपाही ने जवाब दिया कि इस के खिलाफ 4/25 शस्त्र अधिनियम का मुकदमा बना है। वह कहने लगा -साहब मुझे तो घर से उठा कर ले गए, थाने और वहाँ खूब पिटाई की है, मुझे पूरा सुजा दिया है और मेडीकल भी नहीं करवा रहे हैं। मैंने उसे कहा -तुम्हें मजिस्ट्रेट को ये सब बताना चाहिए। उस ने कहा -मजिस्ट्रेट के सामने तो मुझे पेश ही नहीं किया। सिपाही ने मुझे बताया कि -इस की जमानत देने वाला कोई नहीं आया इसलिए इसे जेल ले जाना पड़ेगा। फिर कहने लगे -इस का मामला ऐसा ही है, यह साल में कम से कम एक बार तो अंदर हो ही जाता है।  यूँ तो अपनी जरूरत के मुताबिक कमाने में ही इस का इतना समय निकल जाता है कि यह केवल शरीफ ही बना रह सकता है।  लेकिन यह थोड़ा बहुत सट्टा वगैरा लगाता रहता है। कभी लग गया, तो इकट्ठा पैसा मिलते ही यह बादशाह और थोड़ी शराब गले से नीचे उतरते ही शहंशाह हो जाता है। फिर किसी को कुछ नहीं समझता। किसी से लड़ पड़ता है, मारपीट कर देता है। जिस से लड़ेगा वह पुलिस के पास ही आएगा। फिर हम इसे पकड़ लाते हैं। नशे की हालत में यह पुलिस को भी कुछ नहीं समझता। ऐसे बात करता है  जैसे पुलिस कमिश्नर लगा हो। तब इस की यह हालत होती है और कुछ दिन बड़े घऱ का मेहमान बन कर लौटता है।
मैं कहानी समझ गया था कि हर बार पुलिस इसे पुलिस एक्ट में या शांति भंग के आरोप में पकड़ती होगी और यह एक-दो दिन में छूट जाता होगा और मुकदमा भी वहीं समाप्त हो जाता होगा। इस बार पुलिस ने इस से  कोई धारदार हथियार या तो वाकई बरामद कर लिया है और नहीं तो बरामद करना दिखा कर लंबा तान दिया है ताकि कम से कम तारीखें तो करेगा। शायद इसी से इस की ये आवारगी काबू में आ जाए।