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सोमवार, 1 मार्च 2010

होली के दिन का फिर हमें है इन्तज़ार

मारे शायर दोस्त पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ हर साल बड़ी हसरत लिए निकलते हैं होली खेलने। उन की हसरत कई साल से पूरी न हो पा रही है। बस एक वादा लिए लौट आते हैं हर बार। पिछले साल लौटे तो एक नज़्म लिखी। आज होली के दिन उन की ये नज़्म उन्हीं को समर्पित है । इस आशा के साथ कि इस साल तो उन की ये हसरत पूरी हो ले.......

नज़्म






नज़्म
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

होली के दिन का था बड़ी हसरत से इन्तज़ार
अर्मां किसी के लम्स का करता था बेक़रार
होली जो आई तो चढ़ा, दिल पर हसीं जुनून
छू लेंगे अब के हुस्न को, आऐगा कुछ सुकून


ले कर गुलाल हाथ में, जा पहुँचे उन के घर
दरवाज़े पे खड़े थे वो ज़ुल्फ़ें बिखेर कर
हम को लगा कि अब चढ़ीं पर्वान हसरतें
आऐंगी काम आज बरस भर की मिन्नतें
मुखड़े पे उन के हम जो लगाऐंगे कुछ गुलाल
छूते ही लाल शर्म से हो जाऐंगे वो गाल


लेकिन वो बात हो गई, था जिस का हम को डर
बस आज भी वो अड़ गए हम को सताने पर
इठला के दूर हो गए, वो मुस्कुरा के बस
अपनी जगह से फिर हुए बिल्कुल न टस से मस
पहले की जैसे आज भी उस शोख़ ने किया
कोई क़रीब आने का मौक़ा नहीं दिया


होली की बात उस ने फिर आगे पे टाल दी
शातिर बहानेबाज़ की ख़ासी मिसाल दी
नाज़ो-अदा से भर तो ली मुट्ठी गुलाल की
पर दूर से खड़े-खड़े हम पर उछाल दी
हम भी अबीर फैंक के बस उन पे दूर से
अपना-सा मुँह लिए अजी आए हैं लौट के

होली के दिन का फिर हमें करना है इन्तज़ार
होली के दिन ही का किया है उस ने फिर क़रार


रविवार, 28 फ़रवरी 2010

पहेली!

ल मैं ने एक चित्र आप को यहाँ दिखाया था और पूछा था आप बताएंगे यह क्या है?
जवाब समीर लाल जी ने देना आरंभ किया बेर है, फिर किसी ने उसे देख सेब की याद आई किसी ने उसे आड़ू और गूलर भी बताया। पर बिलकुल सही उत्तर दिया अभय तिवारी जी ने। वे कहते हैं ....
ये बरगद का फल/ फूल है। बरगद फ़िकस या फ़िग परिवार का पेड़ है जिसमें फूल ही फल होता है। इस परिवार के दूसरे पेड़ हैं - पीपल, पाकड़ और गूलर। गूलर के बारे में कहावत है - तू त गुलेरवा के फूल हो गयल! क्योंकि गूलर का फूल कभी दिखता ही नहीं.. असल में दिखता खूब है लेकिन उसे फूल नहीं फल मानते हैं लोग।
ऐसे ही यह फल है दिखता फल है लेकिन असल में है फूल।
मेरी आँख कहती है कि ये वही बरगद का फूल है।
ही में यह बरगद का फूल ही था। कल दोपहर बाद जैसे ही हम कॉफी पी कर उठे तो देखा सामने वाले बरगद पर सुर्ख फूल दमक रहे हैं। मैं ने तुरंत तीन चित्र ले डाले। अब आप ही देखें कितने सुंदर लग रहे हैं ये लाल फूल बरगद के पत्तों के हरे रंग के पार्श्व के साथ।



होली के पहले की एक रंगभरी शाम

ज मिलादुन्नबी का त्यौहार था। बहुतों के साथ ही मेरे लिए भी होली के पहले एक दिन और अवकाश का। इस्लाम के अनुयायियों के लिए उतना ही बड़ा दिन जितना शायद कृष्ण जन्माष्टमी या क्रिसमस है। बिटिया दीपावली के बाद अब घर आई है तो घर ही रहा। कुछ साल पहले तक मुहल्ले में होली मुहल्ले की सोसायटी मनाती थी। तो हफ्ते भर पहले से मेरा दफ्तर सोसायटी का दफ्तर हो जाता था। पहले होली मनाने के तरीके पर मीटिंग होती। फिर चंदा इकट्ठा किया जाता। फिर होली की तैयारी शुरू हो जाती। कुछ सालों से सोसायटी ने यह काम बंद कर दिया। यह जिम्मा नौजवानों ने संभाल लिया। मैं ने कल ही विकास को पूछा था -भाई होली की तैयारी नहीं है क्या। वह अपने कामों में उलझा था। वह बोला था -अंकल कल का दिन बहुत है, सब कर लेंगे। मैं ने उसे बताया था कि मेरे पास विजया का अच्छा स्टॉक पड़ा है उसे टेस्ट कर लो। होली के दिन काम में लेने लायक है या नहीं। उस ने शाम को आने को बोला। लेकिन शाम को गच्चा मार गया। मैं भी पूर्वा को स्टेशन से लाने में व्यस्त हो गया।
ज सुबह से ही जी-मेल के बज़ पर दिल्ली से अजय झा विज्ञापन लगाए बैठे थे....
  • होलिका दहन के लिए लकडी के दरवाजे खिडकियां खटिया के दाता लोग नाम लिखाएं ..जल्दी ...पावती रसीद के साथ भांग का पाऊच फ़्री मिलेगा :) :) :) :) :) :)
जोधपुर से हरि शर्मा बोले-
  • इस तरह मांगने से काम न चलेगा, चोरी करनी पड़ेगी।
हम ने विज्ञापन देखा तो बोल दिया.....
  • कुछ टूटे स्टूल टेबल का कबाड़ छत पर पड़ा है। आप खुशी से मंगा सकते हैं। मेरे ऑफिस (जो घर पर ही है) की टेबुल की दराज में दो सौ चालीस ग्राम भांग रखी है (दस ग्राम प्रयोग में ली जा चुकी है) कबाड़ उठाने आप खुद आ जाएँ तो छत पर ही सिल-बट्टा बजा लिया जाएगा। आप का इंतजार है।
म शाम तक इंतजार में रहे झा जी आएँगे! पर उन्हें न आना था, न आए! शाम को विकास अपनी टीम ले कर पहुँचा। एक छोटे से कागज के पुर्जे में लिस्ट बनाई हुई थी। मैं ने पुर्जा देखा तो वे लोग 2250 रुपए एकत्र कर चुके थे, मेरे सौ मिला कर 2350 पचास हो गए। होली का अच्छा खासा इंतजाम हो चुका था। वे भी ये काम कर के थक चुके थे। तुरंत सिल-बट्टा ले आए। विजया पहले घुटी, फिर छन गई। भोले का प्रसाद सबने लिया। अंत में महेन्द्र 'नेह' आए, वे भी चख गए। हमने आधे घंटे बाद काव्य-मधुबन के सालाना कार्यक्रम फुहार में जाना तय किया जहाँ इस बार सूर्यकुमार पाण्डेय का सम्मान होना था। यह संस्था प्रतिवर्ष होली की पूर्व संध्या पर एक व्यंगकार को सम्मानित करती है।

हेन्द्र नेह के साथ कार्यक्रम में पहुँचे तो वहाँ गायन चल रहा था। भावना काले और भूपेन्द्र शर्मा होरियाँ गा रहे थे। हम भी सुनने बैठ गए। होरी गायन विशुद्ध रूप से प्रेम में पगा होता है। चाहे वह प्रेम भौतिक हो या आध्यात्मिक। प्रेम का गायन बहुत ऊर्जा चाहता है। वह गायन बिलकुल मन से हो तो उस के आनंद का जवाब नहीं। भावना काले बहुत अच्छा गाती हैं। लेकिन आज ऐसा लगा जैसे उन का मन कहीं और भटका हुआ है, व्यथित है, उन के गायन में मन का रंग नहीं था। गायन में कहीं कोई कमी नजर आ रही थी। मैं उन से पूछना भी चाहता था कि ऐसा क्यों है? लेकिन  कार्यक्रम के बाद उन से भेंट ही नहीं हो सके। लेकिन जब भूपेन्द्र शर्मा गाने लगे तो मन का वह रंग खिलने लगा। वह गायन कला के नियमों से ऊपर था। जैसे प्रेम अठखेलियाँ कर रहा हो।
गायन समाप्त हुआ तो सूर्यकुमार जी पांडेय जी का सम्मान हुआ। कोटा की साहित्यिक बिरादरी के सभी मंजे हुए हस्ताक्षर वहाँ उपस्थित थे। उन में व्यंगकार औंकारनाथ चतुर्वेदी, नाटक कार शिवराम, ब्लागरों में नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी और शरद तैलंग वहाँ थे। समारोह के अंत में पाण्डेय जी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया और बहुत सी व्यंग्य रचनाएं सुनाई। आलोचक उषा झा ने उन का परिचय दिया तो पता लगा उन्हें 1970 से सम्मान मिलने आरंभ हो गए थे। हर साल दो-चार सम्मान उन्हों ने प्राप्त किए और अब तक प्राप्त किए जा रहे हैं। मैं उन का सम्मान प्राप्त करने का माद्दा देख कर दंग रह गया। वह उन की काबिलियत को प्रदर्शित कर रहा था। वैसे भी पाण्डेय जी ने 1970 से आज तक सब तरह का साहित्य लिखा है। जब जब जिस की मांग रही वही उन्हों ने लिखा और मांग को पूरा किया और पूरी शुचिता के साथ। वे वास्तविक मसिजीवी रहे हैं। अंत में उन्हों ने अपना एक गद्य व्यंग्य सुनाया। उन के व्यंगकार का महत्व यह रहा कि उन्हों ने आम मध्यवर्ग के मन को ठीक से अपने साहित्य में उड़ेला। उन्हों ने व्यवस्था की कुरूपता को उजागर किया और उस के छद्म को जग जाहिर कर लोगों को हंसाया भी।  
विगत आठ सालों से कोटा की संस्था काव्य-मधुबन होली के अवसर पर निरंतर इस सम्मान समारोह को आयोजित करती रही है, यह बड़ी बात है। इस निरंतर आयोजन के पीछे संस्था के अध्यक्ष अतुल चतुर्वेदी का श्रम और लगन रही है। आज के आयोजन का सफल संचालन भी उन्हों ने ही किया। वे स्वयं एक समर्थ कवि और व्यंगकार हैं। उन का अपना हिन्दी ब्लाग भी है। बस उसे वे अपना अधिक समय नहीं दे पाते। लेकिन उन से हिन्दी ब्लाग जगत में सक्रिय होने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है जिस से उन के रचना कौशल का जलवा वे यहाँ भी बिखेर सकें।
चित्र
1. कैप्शन की जरूरत नहीं, 2. गायक भूपेन्द्र शर्मा, 3.सम्मान के बाद अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते सूर्यकुमार पाण्डेय, 4. समारोह के बाद पांडेय जी और व्यंगकार शरद तैलंग।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

पहेली!

होली का अवसर है। इन दिनों हरे रंग का पार्श्व हो और सुर्ख लाल रंग ऊपर चमकता हो बहुत सुंदर लगता है। कल ऐसे ही कुछ चित्र लेने का अवसर मिला। उन में से एक चित्र आप के लिए यहाँ रख रहा हूँ। 




आप बताएँ, यह चित्र किस का है?

आपाधापी-अवरोध और हॉर्न

दो दिनों से कुछ भी लिखने को मन नहीं किया। होली सर पर आ गई और दोनों बच्चे घर में नहीं। मन कुछ तो उदास होना ही था। पूर्वा बिटिया आ रही है यह सोच कर मन उद्विग्न भी था। आज रात वह कोटा पहुँच गई। उस की ट्रेन बीस मिनट लेट थी। हम स्टेशन पहुँच कर उस की प्रतीक्षा करते रहे। उस ने फोन पर बताया कि अब ट्रेन चंबल पार कर चुकी है। वहाँ से मुश्किल से पाँच मिनट में उसे प्लेटफॉर्म पर होना चाहिए था। लेकिन आधा घंटा गुजर जाने के बाद भी ट्रेन नदारद थी। पूर्वा को फिर फोन लगाया तो पता लगा आउटर पर खड़ी है। आज कल ट्रेन यातायात इतना व्यस्त रहता है कि एक ट्रेन समय से विचलित हो जाती है तो उसे फिर मार्ग खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। खैर ट्रेन पूरे एक घंटा बीस मिनट देरी से कोटा पहुँची।

यातायात की यह समस्या सभी क्षेत्रों में हो चली है। स्टेशन जाने के पहले घर से रवाना हुए तो बीस मिनट का समय था। सोचा कार में पेट्रोल ले लिया जाए। पेट्रोल पंप पर सामान्य से अधिक भीड़ थी। मैं हमेशा एक ही पंप से पेट्रोल लेता हूँ, कार पहचान कर मुझे वेंडर ने गाइड किया और तुरंत पेट्रोल दे दिया। वरना बिना पेट्रोल लिए ही स्टेशन रवाना होना पड़ता। बाद में घर पहुँच कर पता लगा कि बजट में पेट्रोल की कीमतें बढ़ने की खबर से लोग पेट्रोल पंपों की ओर दौड़ रहे थे। पंप से चले तो रास्ते की दोनों लाल बत्तियों पर रुकना पड़ा। वहाँ भी आपा-धापी से पाला पड़ा हर कोई आगे निकलना चाहता था। 
स्टेशन से चले तो दो कदम बाद ही स्टेशन सीमा में ही जाम से जूझना पड़ा। हुआ ये कि ट्रेन लेट होने से जो भी आटो-रिक्षा स्टेशन पहुँचता गया उस का चालक ट्रेन से निकलने वाली सवारियों के मोह में अपना वाहन इस तरह फँसाता गया कि वाहन फँस गए। मुश्किल से पंद्रह मिनट में जाम खुला। इस बीच बज रहे हॉर्न ? बाप रे बाप! एक बार आगे वाला ऑटो-रिक्षा पीछे खिसकने लगा तो मुझे भी हॉर्न को एक पुश देना पड़ा। तुरंत पूर्वा ने टोक दिया। पापा! अब जाम में हॉर्न बजाने का क्या लाभ? वह तो खुलते ही खुलेगा। वापसी में फिर से दोनों लाल बत्तियों पर रुकना, फिर वही आगे निकलने की आपा धापी। मेरे पीछे से एक कार बार बार हॉर्न दे रही थी। लेकिन मैं उसे मार्ग नहीं दे सकता था। इधर-उधर सरकाने का स्थान ही नहीं था। जैसे ही मुझे स्थान मिला मैं ही आगे चल दिया। पीछे वाली गाड़ी को स्थान दे दे ने के बावजूद वह आगे नहीं निकल सकी। पर हॉर्न देती रही। दिन में फिर भी हॉर्न बर्दाश्त हो जाता है। लेकिन रात को हॉर्न सुनाई दे तो ऐसा लगता है जैसे कानों में किसी ने सीसा घोल दिया है। पता नहीं क्यों लोग रात को इतना हॉर्न बजाते हैं? वह भी बार बार लगातार।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

न जाने कब हूर मिलेगी?

'कहानी'
 न जाने कब हूर मिलेगी? 
 दालत के जज साहब पूरे सप्ताह अवकाश पर हैं। रीडर साहब की मेज पर पड़ी आज की दैनिक मुकदमा सूची गवाही दे रही है कि जिन मुकदमों में आज पेशी थी, उन में तारीख बदली जा चुकी है। जो मुवक्किल पेशी पर आए थे वे तारीखें ले कर जा चुके हैं।  जिन मुकदमों में मुवक्किल नहीं आए उन में वकील या उन के मुंशी आ रहे हैं और मुकदमा सूची से ही नोट कर के जा रहे हैं। रीडर सभी फाइलों में आदेशिका लिख कर फुरसत पा चुका है और डायस पर अपनी कुर्सी से उतर कर वकीलों और मुवक्किलों के बैठने की बेंच पर आ बैठा है। एक दो लोग उस के पास और बैठे हैं।
ये और रीडरों से अलग आदमी हैं। उन के बारे में कहा जाता है कि वे किसी काम में पैसा नहीं लेते। यहाँ तक कि चाय भी केवल उसी की पीते हैं जिस से उन का दिल मिल गया है। धार्मिक कामों में उन की रुचि है। आज कल एक प्राचीन उपेक्षित कृष्ण मंदिर के जीर्णोद्धार में आगे बढ़ कर सहयोग कर रहे हैं। मैं एक मुकदमे की तारीख जानने अदालत में जाता हूँ तो मुझे आवाज दे लेते हैं। मैं उन के पास जा कर बैठता हूँ। उन के साथ कुछ लोग और बैठे हैं। धर्म चर्चा चल रही है। एक कहता है -आजकल लोगों में धार्मिक भावना बहुत बढ़ गई है। कोटा से सुबह छह बजे जनशताब्दी जाती है। उस में एक सीट खाली नहीं रहती। लेकिन मथुरा में वह ट्रेन आधी से अधिक खाली हो जाती है। इतने लोग गोवर्धन जी की परिक्रमा के लिए जाते हैं कि मथुरा पहुँचने वाली शायद ही कोई ट्रेन ऐसी हो जिस से कम से कम एक  तिहाई सवारी वहाँ न उतरती हो। मैं भी अनेक बार इस ट्रेन से यात्रा कर चुका हूँ, मैं कभी भी मथुरा इस से नहीं उतरा। यह सही था कि मथुरा में बहुत सवारियाँ उतरती हैं। लेकिन पूरी ट्रेन में दस-पंद्रह प्रतिशत से अधिक सवारी मथुरा की नहीं होती। 
-हो सकता है, एकादशी से पूर्णिमा के बीच आधी सवारियाँ मथुरा उतरती हों। लेकिन ट्रेन तो निजामुद्दीन तक भरी जाती है। मैं ने कहा। उस के बाद बात मुड़ गई। 
क सज्जन कहने लगे।-लेकिन यह धार्मिकता बाहर के लोगों में ही है, वहाँ के स्थानीय लोगों में नहीं। हम वहाँ परिक्रमा पथ के एक गांव में एक के घर रुके। हमारे साथ कोई था उस के रिश्तेदार का घर था। उन्हों ने हमें पानी और चाय पिलाई। उन के घर की 45 वर्ष की महिला से मैं ने पूछा कि उन की तो साल में अनेक परिक्रमाएँ हो जाती होंगी? तो वे कहने लगी मुझे यहाँ ब्याह कर आए पच्चीस बरस हो गए, मैं एक बार भी पूरी परिक्रमा नहीं कर सकी हूँ। 
स बीच रीडर साहब बोल पड़े -लेकिन हमारे पास मैरिज गार्डन के पीछे जो मंदिर है उस का पुजारी है। बहुत गरीब है। मैरिज गार्डन वाले ने उसे पूजा के लिए रखा है। उसे पाँच-छह सौ रुपए हर माह दे-देता है। बाकी काम चढ़ावे से चलता है जो वहाँ अधिक नहीं आता। पुजारी को आजीविका के लिए छोटे-मोटे काम भी करने पड़ते हैं. लेकिन वह हर माह परिक्रमा करने जरूर जाता है। वह कहता है कि मैं ने यहाँ एक डब्बा रख छोड़ा है जिस में मैं बिला नागा बीस रुपए रोज अलग रख देता हूँ। महिने मैं पाँच सौ से ऊपर इकट्ठे हो जाते हैं। बस इतना ही परिक्रमा करने में खर्चा होता है। मैं कई वर्षों से वहाँ जा रहा हूँ। मैं ने उस से पूछा कि कितनी परिक्रमा कर चुके हो तो कहता है कि पिछले साल 108 पूरी हो गई थीं। उस के बाद मैं ने गिनना छोड़ दिया।
मैं ने कहा -आप देखेंगे कि नियमित परिक्रमा जाने वाले अधिकांश लोग गरीब और निम्नमध्यम वर्ग के ही हैं। आप जानते हैं कि वे नियमित रूप से वहाँ क्यों जाते हैं? 
वे एक-एक कर जवाब देने लगते हैं -भावना के कारण? श्रद्धा के कारण? आध्यात्मिक उन्नति के लिए,?भक्ति के लिए? या फिर किसी मन्नत के कारण? मैं उन के हर जवाब के बाद कहता हूँ -गलत जवाब। वे मुझे पूछने लगते हैं -आप ही बताइए, क्या  कारण है? 
मैं कहता हूँ -उन्हें वहाँ आनंद मिलता है, और उसी का मजा लेने वे जाते हैं। हो सकता है वे पहली-दूसरी बार वहाँ उन में से किसी उद्देश्य से जाते हों जो आपने बताए हैं। लेकिन अपनी रूटीन की जिन्दगी में ऊबते लोग, हर वक्त किसी न किसी चिंता से ग्रस्त लोग, आर्थिक दबावों में पिसते और जूझते लोग जब एक-दो बार वहाँ जाते हैं। कुछ दोस्तों के साथ गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं। वहाँ हर बार बहुत लोग नए मिलते हैं, उन से बात करते हैं। मंदिरों के दर्शन करते हैं। वहाँ उन की व्यथा कथा कोई रुचि से सुनता है और अपनी सुनाता है तो घावों पर मरहम लग जाते हैं। एक डेढ़ दिन वहाँ बिता कर वापस आते हैं तो उन का रूटीन टूटता है। वहाँ से लौटने पर वे जीवन में एक बदलाव महसूस करते हैं। वे हर माह वहाँ जाने लगते हैं उस में उन्हें आनंद मिलने लगता है।
रीडर साहब के साथ वहाँ बैठे लोग भी मेरी बात से सहमत हो जाते हैं। मैं कहता हूँ  -लोग अनेक तरह से आनंद लेते हैं। कोई रोज शाम को काम से निपटते ही बगीची भागता है। जहाँ और लोग मिलते हैं, सब मिल कर विजया पीसते हैं फिर छान कर महादेव को भोग लगाते हैं। शाम का भोजन कर फिर कोई संगीत सुनता है, कोई गाने वालों की महफिल में चला जाता है तो कोई पान की दुकान पर या मुहल्ले में गप्पे मारने चला जाता है। वे अपने तरीके से आनंद लेते हैं। कोई शाम को पैग लगा कर नदी किनारे या पार्क में जा बैठता है, या भोजन कर के बिस्तर पर सोने चला जाता है। जिस को जिस में आनंद मिलता है वह वही करता है। कई बार तो यह आनंद भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और बरसात से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। 
मैं थोड़ी देर रुकता हूँ। तो वहाँ बैठे लोगों में कोई बोल पड़ता है, -लोग आनंद के लिए मरने भी चले जाते हैं। उन पढ़े लिखे नौजवानों को देखिए जो अच्छी भली नौकरियाँ और धन्धों को छोड़ कर दुनिया बदलने के नशे में जंगल में जा कर बंदूक उठा लेते हैं। उन्हें जान की परवाह ही नहीं है। मैं ने सुना है बड़े बड़े नगरों की जवान लड़कियाँ भी उन में शामिल हैं। और उसे देखो वह कसाब? दस लोगों के साथ यहाँ आया था। बाकी नौ मर गए। वह जेल में पड़ा अपनी मौत का इंतजार कर रहा है। बड़ी बुरी गुजरी उस पर।  जरूर सोच रहा होगा -वे नौ मर गए साले। उन्हें जरूर जन्नत में हूरें मिल गई होंगी। एक मैं ही बचा जिसे ये लोग सजा भी नहीं दे रहे हैं। पता नहीं कब तक नहीं देंगे? मुझे न जाने कब हूर मिलेगी?

जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं

मेरे यहाँ कोटा में वकीलों की चार माह तक चली हड़ताल समाप्त हुए डेढ़ माह से ऊपर हो चला है। अदालतें अब पूरी शक्ति से काम करने लगी हैं। अपने निर्धारित कोटे से दुगना और कोई कोई तो उस से भी अधिक काम कर रही हैं। बहुत दिनों के बाद मुझे लग कर काम करना पड़ा है। दो मुकदमों में सोमवार को और दो में मंगलवार को बहस हो गई और उन में अन्तिम निर्णय के लिए तारीखें निश्चित हो गईँ। फिर भी सब वकीलों के पास काम इतना नहीं है और जो काम कर रहे हैं वे भी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मैं उस के कारणों में जाना चाहता हूँ।
कोटा में पंजीकृत वकीलों की संख्या 1700 के लगभग है जिन में से कोई 900 वकील नियमित रूप से वकालत के पेशे में हैं यहाँ अदालतों की संख्या 45 से अधिक है। एक मुकदमे में समस्त सुनवाई करने के उपरांत निर्णय करने के लिए अदालत के पीठासीन अधिकारी को दो दिन का समय मिलता है। यदि अदालतें एक दिन में दो निर्णय करती हैं तो वे निर्धारित कोटे से चार गुना काम कर रही हैं। इस से अधिक काम कर पाना  तमाम तकनीकी मदद के भी असंभव है।  इस गति से भी इस नगर की अदालतों में सौ से कम मुकदमों में ही निर्णय हो सकते हैं। इस तरह लगभग वकीलों की संख्या के अनुपात में केवल दस से बारह प्रतिशत मुकदमे ही निर्णीत हो सकते हैं। 
धर अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है जो कि कम होने का नाम नहीं ले रहा है।  निश्चित रूप से बहुत से वकील फुरसत में हैं। वे काम करना चाहते हैं लेकिन काम करने के लिए अदालतें तो हों। अब वे इस फुरसत से भी खीजने लगे हैं। रोज बिना उपलब्धि के घर लौटना किसे सुहाता है। जब किसी वकील के खाते में माह में दो मुकदमों का निर्णय भी न लिखा जाए तो उस के पास किसी न्यायार्थी को खींच लाने के लिए क्या बचेगा? केवल डींग हाँकने से तो न्यायार्थी उस के पास टिकने से रहा। मैं ने तय किया था कि मैं अपने किसी कारण के कारण किसी मुकदमे में बिना कोई काम किए अदालत से तारीख बदलने के लिए नहीं कहूँगा। पर काम की अधिकता के कारण खुद अदालतें ही मुकदमों में तारीखें बदलें तो क्या किया जा सकता है। श्रम न्यायालय में जहाँ मेरे पास के लगभग एक चौथाई मुकदमे लंबित हैं। आठ-दस साल पुराने मुकदमे में अगली तारीख पांच-छह माह की होती है। न्यायार्थी माह में एक सुनवाई तो अवश्य ही चाहता है। कहता है -वकील साहब! तारीख जल्दी की लेना। मैं उसे क्या कहूँ? मैं उसे कहता हूँ जल्दी की तारीख अदालत के स्टॉक में नहीं है।