@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 18 जनवरी 2010

भविष्य के लिए मार्ग तलाशें

नवरत पर कल की पोस्ट जब इतिहास जीवित हो उठा का उद्देश्य अपने एक संस्मरण के माध्यम से आदरणीय डॉ. रांगेव राघव जैसे मसिजीवी  को उन के जन्मदिवस पर स्मरण करना और उन के साहित्यिक योगदान के महत्व को प्रदर्शित करना था। एक प्रभावी लेखक का लेखन पाठक को गहरे बहुत गहरे जा कर प्रभावित करता है। डॉ. राघव का साहित्य तो न जाने कितने दशकों या सदियों तक लोगों को प्रभावित करता रहेगा। आज उस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत मुझे मुरैना के युवा ब्लागर और वकील साथी भुवनेश शर्मा से  फोन पर चर्चा हुई। वे बता रहे थे कि वे वरिष्ठ वकील श्री विद्याराम जी गुप्ता  के साथ काम करते हैं जिन की आयु वर्तमान में 86 वर्ष है, उन्हें वे ही नहीं, सारा मुरैना बाबूजी के नाम से संबोधित करता है। वे इस उम्र में भी वकालत के व्यवसाय में सक्रिय हैं।  आगरा में अपने अध्ययन के दौरान डॉ. रांगेय राघव के साथी रहे हैं। बाबूजी विद्याराम जी गुप्ता ने कुछ पुस्तकें लिखी हैं और प्रकाशित भी हुई हैं। लेकिन उन की स्वयं उन के पास भी एक एक प्रतियाँ ही रह गई हैं। उन्हों ने यह भी बताया कि वे उन पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन का मानस भी रखते हैं। मैं ने उन से आग्रह किया कि किसी भी साहित्य को लंबी आयु प्रदान करने का अब हमारे पास एक साधन यह अंतर्जाल है। पुनर्प्रकाशन के लिए उन की पुस्तकों की एक बार सोफ्ट कॉपी बनानी पड़ेगी। वह किसी भी फोंट में बने लेकिन अब हमारे पास वे साधन हैं कि उन्हें यूनिकोड फोंट में परिवर्तित किया जा सके। यदि ऐसा हो सके तो हम उस साहित्य को अंतर्जाल पर उपलब्ध करा सकें तो वह एक लंबी आयु प्राप्त कर सकेगा। मुझे आशा है कि भुवनेश शर्मा मेरे इस आग्रह पर शीघ्र ही अमल करेंगे।


ल की पोस्ट पर एक टिप्पणी भाई अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की भी थी। मेरे यह कहने पर कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई थे और इंद्र इतने बदनाम हो गए थे कि उन के स्थान पर विष्णु को स्थापित करना पड़ा, उन्हें इतना तीव्र क्रोध उपजा कि वे अनायास ही बीच में कम्युनिस्टों और मार्क्स को ले आए। मेरा उन से निवेदन है कि किसी के भी तर्क का जवाब यह नहीं हो सकता कि 'तुम कम्युनिस्ट हो इस लिए ऐसा कहते हो'। उस का उत्तर तो तथ्य या तर्क ही हो सकते हैं। अपितु इस तरह हम एक सही व्यक्ति यदि कम्युनिस्ट न भी हो तो उसे कम्युनिज्म की ओर ढकेलते हैं। इस बात पर अपना अनुभव मैं पूर्व में कहीं लिख चुका हूँ। लेकिन वह मुझे अपनी पुरानी पोस्टों में नहीं मिल रहा है। कभी अपने अनुभव को अलग से पोस्ट में लिखूंगा। 

ल की पोस्ट पर ही आई टिप्पणियों में फिर से एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि आर्य आक्रमण कर्ता थे या नहीं। वे बाहर से आए थे या भारत के ही मूल निवासी थे। इस विवाद पर अभी बरसों खिचड़ी पकाई जा सकती है। लेकिन क्या यह हमारे आगे बढ़ने के लिए आवश्यक शर्त है कि हम इस प्रश्न का हल होने तक जहाँ के तहाँ खड़े रहें। मेरे विचार में यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि हम आर्यों की उत्पत्ति का स्थान खोज निकालें और वह हमारे आगे बढने की अनिवार्य शर्त भी नहीं है। लेकिन मैं समझता हूँ, और शायद आप में से अनेक लोग अपने अपने जीवन अनुभवों को टटोलें तो इस का समर्थन भी करेंगे कि वर्तमान भारतीय जीवन पर मूलतः सिंधु सभ्यता का अधिक प्रभाव है। बल्कि यूँ कहें तो अधिक सच होगा कि सिंधु सभ्यता के मूल जीवन तत्वों को हमने आज तक सुरक्षित रखा है। जब कि आर्य जीवन के तत्व हम से अलग होते चले गए। मेरी यह धारणा जो मुझे बचपन से समझाई गई थी कि हम मूलतः आर्य हैं धीरे-धीरे खंडित होती चली गई। मुझे तो लगता है कि हम मूलत सैंधव या द्राविड़ ही हैं और आज भी उसी जीवन को प्रमुखता से जी रहे हैं। आर्यों का असर अवश्य हम पर है। लेकिन वह ऊपर से ओढ़ा हुआ लगता है। यह बात हो सकता है लोगों को समझ नहीं आए या उन्हें लगे कि मैं यह किसी खास विचारधारा के अधीन हो कर यह बात कह रहा हूँ। लेकिन यह मेरी अपनी मौलिक समझ है। इस बात पर जब भी समय होगा मैं विस्तार से लिखना चाहूँगा। अभी परिस्थितियाँ ऐसी नहीं कि उस में समय दे सकूँ। अभी तो न्याय व्यवस्था की अपर्याप्तता से अधिकांश वकीलों के व्यवसाय पर जो विपरीत प्रभाव हुआ है। उस से उत्पन्न संकट से मुझे भी जूझना पड़ रहा है। पिछले चार माह से कोटा में वकीलों के हड़ताल पर रहने ने इसे और गहराया है।
कोई भी मुद्दे की गंभीर बहस होती है तो उसे अधिक तथ्य परक बनाएँ और समझने-समझाने का दृष्टिकोण अपनाएँ। यह कहने से क्या होगा कि आप कम्युनिस्ट, दक्षिणपंथी, वामपंथी, राष्ट्रवादी , पोंगापंथी, नारीवादी, पुरुषवादी या और कोई वादी हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं, इस से सही दिशा में जा रही बहस बंद हो सकती है और लोग अपने अपने रास्ते चल पड़ सकते हैं या फिर वह गलत दिशा की ओर जा सकती है। जरूरत तो इस बात की है कि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशें। यदि भविष्य के रास्ते के परंपरागत नाम से एतराज हो तो उस का कोई नया नाम रख लें। यदि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशने के स्थान पर अपने अपने पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आपत्ति है कि यह पूर्वग्रह होना चाहिए, हालांकि मुझे पूर्वाग्रह ठीक जँचता है") डटे रहे और फिजूल की बहसों में समय जाया करते रहे तो भावी पीढ़ियाँ हमारा कोई अच्छा मूल्यांकन नहीं करेंगी। 

रविवार, 17 जनवरी 2010

जब इतिहास जीवित हो उठा

1976 या 77 का साल था। मैं बी. एससी. करने के बाद एलएल.बी कर रहा था। उन्हीं दिनों राजस्थान प्रशासनिक सेवा के लिए पहली और आखिरी बार प्रतियोगी परीक्षा में बैठा। मैं ने अपने विज्ञान के विषयों के स्थान पर बिलकुल नए विषय इस परीक्षा के लिए चुने थे। उन में से एक भारत की प्राचीन संस्कृति और उस का इतिहास भी था। इस विषय का चयन मैं ने इसलिए किया था कि मैं इस विषय पर अपने पुस्तकें पढ़ चुका था जिन में दामोदर धर्मानंद कौसम्बी और के.एम. पणिक्कर की पुस्तकें प्रमुख थीं और जिन्हों ने मुझे प्रभावित किया था। कौसंबी जी की पुस्तक मुझे अधिक तर्कसंगत लगती थी जो साक्ष्यों का सही मूल्यांकन करती थी।
मैं इस विषय का पर्चा देने के लिए परीक्षा हॉल में बैठा था। घंटा बजते ही हमें प्रश्नपत्र बांट दिए गए। मैं उसे पढ़ने लगा। पहला ही प्रश्न था। "वर्तमान हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म और सिंधु सभ्यता के धर्म में से किस का अधिक प्रभाव है? साक्ष्यों का उल्लेख करते हुए अपना उत्तर दीजिए।" 
मैं उस प्रश्न को पढ़ते ही सोच में पड़ गया। मैं ने इस दृष्टि से पहले कभी नहीं सोचा था। मैं ने अपने अब तक के समूचे अध्ययन पर निगाह दौड़ाई तो उत्तर सूझ गया कि मौजूदा हिन्दू धर्म पर आर्यों के धर्म की अपेक्षा सिंधु सभ्यता के धर्म का अधिक प्रभाव है।यहाँ तक कि सिंधु सभ्यता के धर्म के जितने प्रामाणिक लक्षण इतिहासकारों को मिले हैं वे सभी आज भी हिन्दू धार्मिक रीतियों में मौजूद हैं। जब कि हमारे हिन्दू धर्म ने आर्यों के धर्म के केवल कुछ ही लक्षणों को अपनाया है। मैं सभी साक्ष्यों पर विचार करने लगा। मुझे लगा कि मैं उस युग में पहुँच गया जब आर्यों का सिंधु सभ्यता के निवासियों से संघर्ष हुआ होगा। दोनों के धर्म, संस्कृति और क्रियाकलाप एक फिल्म की तरह मेरे मस्तिष्क में दिखाई देने लगे। जैसे मैं उन्हें अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। उक्त वर्णित दो प्रामाणिक पुस्तकों के अलावा एक पुस्तक मुझे स्मरण आ रही थी जिस ने इस दृष्यीकरण ( visualisation) का काम किया था। वह पुस्तक थी डॉ. रांगेय राघव का ऐतिहासिक उपन्यास "मुर्दों का टीला"

मैं ने आगे के प्रश्नों को पढ़े बिना ही प्रश्न का उत्तर लिखना आरंभ कर दिया। मूल उत्तर पुस्तिका पूरी भर गई, उस के बाद एक पूरक  उत्तर पुस्तिका भर गई और दूसरी पूरक उत्तरपुस्तिका के दो पृष्ठ लिख देने पर उत्तर पूरा हुआ। इस उत्तर में मैं सारे साक्ष्यों की विवेचना के साथ साथ इतिहास के तर्कशास्त्र के सिद्धांतो को भी अच्छी तरह लिख चुका था। मैं आगे के प्रश्नों को पढ़ता उस से पहले ही घंटा बजा। मैं ने घड़ी देखी दो घंटे पूरे हो चुके थे। केवल एक घंटा शेष था, जिस में मुझे चार प्रश्नों के उत्तर लिखने थे। मैं ने शेष प्रश्नों में से चार को छाँटा और उत्तर पुस्तिका में नोट लगाया कि - मैं पहले प्रश्न का उत्तर विस्तार से लिख चुका हूँ और इतिहास व उस के तर्कशास्त्र से संबद्ध जो कुछ भी मैं इस पहले प्रश्न के उत्तर में लिख चुका हूँ उसे अगले प्रश्नों के उत्तर में पुनः नहीं दोहराउंगा। शेष प्रश्नों के उत्तर के लिए केवल पौन घंटा समय शेष है इस लिए मैं उत्तर संक्षेप में ही दूंगा। मैं ने शेष प्रश्न केवल दो-दो पृष्ठों में निपटाए। समय पूरा होने पर उत्तर पुस्तिका दे कर चला आया । मैं सोचता था कि मैं पचास प्रतिशत अंक भी कठिनाई से ला पाउंगा। लेकिन जब अंक तालिका आई तो उस में सौ में से 72 अंक मुझे मिले थे। इन अंको का सारा श्रेय डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक " मुर्दों का टीला" को ही था।
डॉ. रांगेय राघव जिन का आज 87 वाँ जन्मदिन है। मात्र 39 वर्ष की उम्र में ही कर्कट रोग के कारण उन्हें काल ने हम से छीन लिया। इस अल्पायु में ही उन्हों ने इतनी संख्या में महत्वपूर्ण पुस्तके लिखीं थीं कि कोई प्रयास कर के ही उन के समूचे साहित्य को एक जीवन में पढ़ सकता है। बहुत लोगों ने उन की पुस्तकों से बहुत कुछ सीखा है। उन की पुस्तकें आगे भी पढ़ी जाएंगी और लोग उन से कुछ न कुछ सीखते रहेंगे।

वे मेरे अनेक गुरुओं में से एक हैं। उन्हें उन के जन्मदिवस पर शत शत प्रणाम !


उन की पुस्तकों की एक सूची मैं यहाँ चस्पा कर रहा हूँ --

रांगेय राघव की कृतियाँ
उपन्यास    
घरौंदा • विषाद मठ • मुरदों का टीला • सीधा साधा रास्ता • हुजूर • चीवर • प्रतिदान • अँधेरे के जुगनू • काका • उबाल • पराया • देवकी का बेटा • यशोधरा जीत गई • लोई का ताना • रत्ना की बात • भारती का सपूत • आँधी की नावें • अँधेरे की भूख • बोलते खंडहर • कब तक पुकारूँ • पक्षी और आकाश • बौने और घायल फूल • लखिमा की आँखें • राई और पर्वत • बंदूक और बीन • राह न रुकी • जब आवेगी काली घटा • धूनी का धुआँ • छोटी सी बात • पथ का पाप • मेरी भव बाधा हरो • धरती मेरा घर • आग की प्यास • कल्पना • प्रोफेसर • दायरे • पतझर • आखीरी आवाज़ •
कहानी संग्रह    
साम्राज्य का वैभव • देवदासी • समुद्र के फेन • अधूरी मूरत • जीवन के दाने • अंगारे न बुझे • ऐयाश मुरदे • इन्सान पैदा हुआ • पाँच गधे • एक छोड़ एक
काव्य    
अजेय • खंडहर • पिघलते पत्थर • मेधावी • राह के दीपक • पांचाली • रूपछाया •
नाटक    
स्वर्णभूमि की यात्रा • रामानुज • विरूढ़क       

रिपोर्ताज
तूफ़ानों के बीच
आलोचना    
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका • भारतीय संत परंपरा और समाज • संगम और संघर्ष • प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास • प्रगतिशील साहित्य के मानदंड • समीक्षा और आदर्श • काव्य यथार्थ और प्रगति • काव्य कला और शास्त्र • महाकाव्य विवेचन • तुलसी का कला शिल्प • आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार • आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली • गोरखनाथ और उनका युग •


शनिवार, 16 जनवरी 2010

जेब से पैसे निकालो

शिवराम की यह कविता सारी बात खुद ही कहती है- 
पढ़िए और गुनिए ......


जेब से पैसे निकालो
  • शिवराम
इस कटोरे में हुजूर 
कुछ न कुछ डालो
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !


काम का उपदेश 
यहाँ खूब मिलता है
मगर जनाब कहाँ 
कोई काम मिलता है
यह मेरी मेहरबानी है
कि चोरी नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
नजरें न चुराओ
जल्दी करो, पीछा छुड़ालो ।।1।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !

नजरें फेर लेने से
कुछ नहीं होगा
जब तक नहीं दोगे
जाएगा नहीं गोगा
यह मेरी करुणा है 
कि हिंसा नहीं करता
जीना हक है, मेरा
सो, मर नहीं सकता
ऐंठ न दिखाओ
जल्दी करो, मुक्ति पा लो।।2।।
देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो !
लाल-पीले न होइए
गुस्सा न कीजिए
बहुत क्षुब्ध हैं हम भी
आपा न खोइए
यह मेरी शालीनता है
कि मैं आपा नहीं खोता
जीना हक है, मेरा

सो, मर नहीं सकता
क्रोध मत दिखाओ
जल्दी करो, और न सालो ।।3।।


देखते क्या हो, जेब से पैसे निकालो!

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

प्रकृति के त्यौहार मकर संक्रांति पर एक स्थाई सद्भावना समारोह

कर संक्रांति का धर्म से क्या रिश्ता है? यह तो आप सब को जानते हुए पूरा सप्ताह हो चुका है। टीवी चैनलों ने इसी बात को बताने में घंटों जाया किया है। ऐसा लगता था जैसे वे इस देश को कोई नई जानकारी दे रहे हों। सब को पता था कि मकर संक्रांति पर उन्हें क्या करना था? घरों पर महिलाओं ने बहुत पहले ही तिल-गुड़ के व्यंजन तैयार कर रखे थे। बाजार के लोगों ने पहले ही दुकानों से चंदा कर दुपहर में भंडारों की व्यवस्था कर ली थी। बच्चे पहले ही पतंगें और माँझे ला कर घर में सुरक्षित रख चुके थे। गाँवों में जहाँ अब भी पतंगों का रिवाज नहीं है, खाती से या खुद ही लकड़ी को बसैलों से छील कर गिल्ली-डंडे तैयार रखे थे। यह सब करने में किसी ने जात और धरम का भेद नहीं किया था। ये सब काम सब घरों में चुपचाप हो रहे थे। पतंग-माँझा बनाने और बेचने के व्यवसाय को करने वालों में अधिकांश मुस्लिम थे। संक्रांति का पर्व उन के घरों की समृद्धि का कारण बन रहा हो कोई कारण नहीं कि उन के यहाँ तिल्ली-गुड़ के व्यंजन न बनते हों।


मकर संक्रांति पर उड़ती पतंगें

लेकिन संक्रांति तो सूर्य की, या यूँ कहें कि समूची पृथ्वी की है।  सूर्य जो हमारी आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है उसे केवल आधुनिक दूरबीनों से सजी वेधशालाओं से ही देखा जा सकता है। लेकिन हमारी धरती सूरज के गिर्द जो परिक्रमा करती है उसे  मापने का तरीका है कि आकाश के विस्तार को हमने 12 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग को राशि की संज्ञा दे दी। अब पृथ्वी की परिक्रमा के कारण सूरज आकाश के विस्तार में हर माह एक राशि का मार्ग तय करता  और दूसरी राशि में प्रवेश करता दिखाई है। एक राशि से दूसरी राशि में सूर्य के इस आभासी प्रवेश को हम संक्रांति कहते हैं। अब सूरज न तो हिन्दू देखता है और न मुसलमान और न ही ईसाई। वह तो सभी का है। तो संक्रांति भी सभी की हुई, न कि किसी जाति और धर्म विशेष की। हम ही हैं जो इन प्राकृतिक खगोलीय घटनाओं को अपने धर्मों से जोड़ कर देखते हैं। यूँ यह एक ऋतु परिवर्तन का त्योहार है। शीत की समाप्ति की घोषणा। अब दिन-दिन दिनमान बढ़ता जाता है, सूरज की रोशनी पहले से अधिक मिलने लगती है और शीत से कंपकंपाते जीवन को फिर से नया उत्साह प्राप्त होने लगता है। ऐसे में हर कोई जो भी जीवित है उत्साह से क्यों न भर जाए।

शकूर 'अनवर' के मकान की छत पर पतंग उड़ाती लड़कियाँ

मेरे घर तिल्ली-गुड़ के व्यंजन भी बने और अपनी संस्कृति के मुताबिक शोभा (पत्नी) ने परंपराओं को भी निभाया। दुपहर उस ने मंदिर चलने को कहा तो वहाँ भी गया। बहुत भीड़ थी वहाँ। हर कोई पुण्य कमाने में लगा था। मंदिर के पुजारी का पूरा कुनबा लोगों के पुण्य कर्म से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को बटोरने में लगा था। राह में अनेक स्थानों पर भंडारे भी थे। दोनों ही स्थानों पर विपन्न और भिखारी टूटे पड़े थे। सड़कों पर बच्चे बांस लिए पतंगें लूटने के लिए आसमान की ओर आँखें टिकाए थे और किसी पतंग के डोर से कटते ही उस के गिरने की दिशा में दौड़ पड़ते थे।

मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृश्य

मारे नगर के उर्दू शायर शक़ूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर्व पर खास धूमधाम रहती है। वहाँ इस दिन दोपहर बाद एक खास समारोह होता है जिस में नगर के हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के साहित्यकार एकत्र होते हैं। शक़ूर भाई का पूरा परिवार मौजूद होता है। वे इस दिन किसी न किसी साहित्यकार का सम्मान करते हैं। सब से पहले मकान की तीसरी मंजिल की छत पर जा कर शांति के प्रतीक सफेद कबूतर छोड़े जाते हैं। उस के बाद उड़ाई जाती हैं पतंगें जिन पर सद्भाव के संदेश लिखे होते हैं। फिर आरंभ होता है सम्मान समारोह। सम्मान के उपरांत एक काव्यगोष्टी होती है जो शाम ढले तक चलती रहती है जिस में हिन्दी-उर्दू-हाड़ौती के कवि अपनी रचनाएँ सुनाते हैं। इस मौके पर सब को शक़ूर भाई के घर की खास चाय पीने को तो मिलती ही है। साथ ही मिलती है गुड़-तिल्ली से बनी रेवड़ियाँ और गज़क। शक़ूर भाई के यहाँ संक्रांति पर होने वाले इस सद्भावना समारोह को इस बरस नौ साल पूरे हो गए हैं। शकूर भाई की मेजबानी में इस समारोह का आयोजन  "विकल्प जन सांस्कृतिक मंच" की कोटा नगर इकाई करती है। 


महेन्द्र 'नेह' और शकूर 'अनवर'

ल मैं जब शक़ूर भाई के घर पहुँचा तो कबूतर छोड़े जा चुके थे और पतंग उड़ाने का काम जारी था। जल्दी ही मेहमान पतंगों को एक-एक दो-दो तुनकियाँ दे कर नीचे उतर आए और पतंगों की डोर संभाली शकूर भाई की बेटियों ने। वे पतंगें उड़ाती रहीं। फिर आरंभ हुआ सम्मान समारोह। जिस में कोटा स्नातकोत्तर महाविद्यालय (जो इसी साल से कोटा विश्वविद्यालय का अभिन्न हिस्सा बनने जा रहा है) के उर्दू विभाग की प्रमुख  डॉ. कमर जहाँ बेगम को उन के उर्दू आलोचना साहित्य में योगदान के लिए सद्भावना सम्मान से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर खुद शकूर अनवर साहब की रचनाओं की पुस्तिका "आंधियों से रहा मुकाबला" का लोकार्पण किया गया। समारोह की अध्यक्षता प्रोफेसर ऐहतेशाम अख़्तर और हितेश व्यास ने की। मुख्य अतिथि वेद ऋचाओं के हिन्दी प्रस्तोता कवि बशीर अहमद मयूख और कथाकार श्रीमती लता शर्मा थीं। बाद में हुई गोष्ठी में  पहले लता जी ने अपनी कहानी 'विश्वास' का पाठ किया और फिर मेजर डी एन शर्मा, अखिलेश अंजुम, अकील शादाब, पुरुषोत्तम यक़ीन, हलीम आईना, डॉ. जगतार सिंह, डॉ. नलिन वर्मा, चांद शेरी, ओम नागर, गोपाल भट्ट, नरेंद्र चक्रवर्ती, ड़ॉ. कंचन सक्सेना, नारायण शर्मा, नईम दानिश, सईद महवी, मुकेश श्री वास्तव, गोविंद शांडिल्य, यमुना नारायण और महेन्द्र नेह आदि ने काव्य पाठ किया। गोष्ठी का सफल संचालन आर.सी. शर्मा 'आरसी' ने किया। विकल्प की ओर से सभी अतिथियों को विकल्प प्रकाशन की पुस्तिकाएँ भेंट की गईं।

अतिथि और शकूर भाई के परिवार की महिलाएँ

कूर भाई का घर जहाँ स्थित है वहाँ आसपास घनी मुस्लिम आबादी है। लगभग दूर दूर तक सभी घऱ मुसलमानों के हैं। लेकिन जब मैं ने देखा तो पाया कि आस पास की शायद ही कोई छत हो जहाँ लड़के, लड़कियाँ, महिलाएँ और पुरुष पतंगें उड़ाने में मशगूल न हों। सभी में संक्रान्ति का उत्साह देखते बनता था। मुझे लगा कि शायद सारे शहर की सब से अधिक पतंगें इसी मोहल्ले से उड़ रही थीं। मैं ने पूछा भी तो शकूर भाई के बेटे ने कहा। संक्रांति पर सब से अधिक पतंगें हमारे ही मुहल्ले से उड़ती हैं। दुनिया बेवजह ही प्रकृति के इस त्योहार को एक धरम की अलमारी के एक खाँचे में बंद कर सजा देना चाहती है।
इस अवसर पर मैं ने कुछ चित्र भी लिए, आप की नज्र हैं।



डॉ. जगतार सिंह, पुरुषोत्तम 'यक़ीन', मैं स्वयं और डॉ. कमर जहाँ बेगम



शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर
और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए




श्रीमती लता शर्मा अपनी कहानी का पाठ करते हुए


शकूर 'अनवर' की पुस्तिका का लोकार्पण

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बिलाग जगत कै ताईँ बड़ी सँकराँत को राम राम! आज पढ़ो दाभाई दुर्गादान सींग जी को हाड़ौती को गीत

सब कै ताईँ बड़ी सँकराँत को घणो घणो राम राम !

ब्लागीरी की सुरूआत सूँ ई, एक नियम आपूँ आप बणग्यो। कै म्हूँ ईं दन अनवरत की पोस्ट म्हारी बोली हाड़ौती मैं ही मांडूँ छूँ। या बड़ी सँकरात अश्याँ छे के ईं दन सूँ सूरजनाराण उत्तरायण प्रवेश मानाँ छाँ अर सर्दी कम होबो सुरू हो जावे छे। हाड़ौती म्हाइने सँकरात कश्याँ मनाई जावे छे या जाणबा कारणे आप सब अनवरत की 14.01.2008 अर 14.01.2009 की पोस्टाँ पढ़ो तो घणी आछी। आप थोड़ी भौत हाड़ौती नै भी समझ ज्यागा। बस य्हाँ तारीखाँ पै चटको लगाबा की देर छै, आप आपूँ आप  पोस्ट पै फूग ज्यागा।

ज म्हूँ य्हाँ आप कै ताईं हाड़ौती का वरिष्ट कवि दुर्गादान सिंह जी सूँ मलाबो छाऊँ छूँ। वै हाड़ौती का ई न्हँ, सारा राजस्थान अर देस भर का लाड़ला कवि छै। व्ह जब मंच सूँ कविता को पाठ करै छे तो अश्याँ लागे छे जश्याँ साक्षता सुरसती जुबान पै आ बैठी। व्हाँ को फोटू तो म्हारै ताँई न्ह मल सक्यो। पण व्हाँका हाड़ौती का गीत म्हारे पास छे। व्हाँ में सूँ ई एक गीत य्हाँ आपका पढ़बा कै कारणे म्हेल रियो छूँ। 

म्हाँ व्हाँसूँ उमर में छोटा व्हाँके ताँईं दाभाई दुर्गादान जी ख्हाँ छाँ। व्हाँ का हाडौती गीताँ म्हँ हाडौती की श्रमजीवी लुगायाँ को रूप, श्रम अर विपदा को बरणन छै, उश्यो औठे ख्हाँ भी देखबा में न मलै।  एक गीत य्हाँ आप के सामने प्रस्तुत छै। उश्याँ तो सब की समझ में आ जावेगो। पण न्हँ आवे तो शिकायत जरूर कर ज्यो। जीसूँ उँ को हिन्दी अनुवाद फेर खदी आप के सामने रखबा की कोसिस करूँगो। तो व्हाँको मंच पै सब सूँ ज्यादा पसंद करबा हाळा गीताँ म्हँ सूँ एक गीत आप कै सामने छे। ईं में एक बाप अपणी बेटी सूँ क्हे रियो छे कै ........

....... आप खुद ही काने बाँच ल्यो .....

 बेटी
(हाड़ौती गीत) 

  • दुर्गादान सिंह गौड़
अरी !
जद मांडी तहरीर ब्याव की
मंडग्या थारा कुळ अर खाँप
भाई मंड्यो दलाल्या ऊपर
अर कूँळे मंडग्या माँ अर बाप

थोड़ा लेख लिख्या बिधना नें
थोड़ा मंडग्या आपूँ आप
थँईं बूँतबा लेखे कोयल !
बणग्या नाळा नाळा नाप

जा ऐ सासरे जा बेटी!
लूँण-तेल नें गा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।


वे क्हवे छे, तू बोले छे,
छानी नँ रह जाणे कै
क्यूँ धधके छे, कझळी कझळी,
बानी न्ह हो जाणे कै



मत उफणे तेजाब सरीखी,
पाणी न्ह हो जाणे कै

क्यूँ बागे मोड़ी-मारकणी,
श्याणी न्हँ हो जाणे कै
उल्टी आज हवा बेटी
छाती बांध तवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

घणी हरख सूँ थारो सगपण
ठाँम ठिकाणे जोड़ दियो,
पण दहेज का लोभ्याँ ने
पल भर में सगपण तोड़ दियो


कुँण सूँ बूझूँ, कोई न्ह बोले 
सब ने कोहरो ओढ़ लियो
ईं दन लेखे म्हँने म्हारो
सरो खून निचोड़ दियो


वे सब सदा सवा बेटी
थारा च्यार कवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

काँच कटोरा अर नैणजल,
मोती छे अर मन बेटी
दोन्यूँ कुलाँ को भार उठायाँ 
शेष नाग को फण बेटी


तुलसी, डाब, दियो अर सात्यो,
पूजा अर, हवन बेटी
कतनों भी खरचूँ तो भी म्हूँ, 
थँ सूँ नँ होऊँ उरण बेटी 


रोज आग में न्हा बेटी
रखजै राम गवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

यूँ मत बैठे, थोड़ी पग ले,
झुकी झुकी गरदन ईं ताण
ज्याँ में मिनखपणों ई कोने
व्हाँ को क्यूँ अर कश्यो सम्मान

आज आदमी छोटो पड़ ग्यो,
पीड़ा हो गी माथे सुआण 
बेट्याँ को कतने भख लेगो,
यो सतियाँ को हिन्दुस्तान

जे दे थँने दुआ बेटी
व्हाँने शीश नवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

#######################

बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

अकर्मण्यता का शिकार एक बेहद बकवास अदालती दिन

ल का दिन बहुत बकवास और फालतू दिन था, कम से कम मेरे लिए। कुल छह मुकदमे थे। सारे के सारे अन्तिम बहस के लिए निश्चित थे। मैं ने सभी मुकदमों में तैयारी की। इस भरोसे कि मौका मिला तो सभी में अंतिम बहस कर डालूंगा। कम से कम कुछ में तो निर्णय हो सकेगा। लेकिन सब कुछ मेरे अकेले के सोचने से थोड़े ही हो सकता है। एक मुकदमे में मेरे ही सेवार्थी (मुवक्किल) की माँ का देहान्त हो गया था। वह पेशी पर नहीं आ सकता था। सेवार्थी की अनुपस्थिति में मुकदमे में बहस करना कुछ अच्छा नहीं लगता। फिर भी केवल इसलिए कि मुकदमा किनारे लगे, मैं उस में बहस को तैयार था। पता नहीं क्यों उस मुकदमे में जज खुद बहस सुनने को तैयार नहीं। सामने वाला वकील भी एक बजे तक अदालत में नहीं आया। मौका देख कर अदालत ने तारीख बदल दी। इस मुकदमे में मेरे पक्ष की बहस लगभग सुनी जा चुकी है,  वह भी चार बार में पूरी विस्तारित रुप में। अदालत का खुद का मानना था कि अब उस में समय नहीं लगेगा और मैं एक ही दिन में उसे पूरी कर दूँ। निश्चित रूप से मुझे अवसर मिलता तो मैं एक घंटे से भी कम समय में बहस पूरी कर देता। पर क्या कहा जाए? इस मुकदमे  में मेरा सेवार्थी हाईकोर्ट से निर्देश ला चुका है कि दो माह में इस का निर्णय किया जाए। फिर भी किसी न किसी बहाने यह निर्णीत नहीं हो रहा है। निर्देश को लाए छह माह से भी अधिक समय हो चुका है। खैर निर्देश की लाज रखते हुए अदालत ने उस में चार दिन बाद की तिथि बहस हेतु नियत की है।

गला मुकदमा भी उसी अदालत में है और दस वर्ष से चल रहा है। पिछले चार बरस से तो वह अन्तिम बहस में चल रहा है। कोई उसे सुनना ही नहीं चाहता है। बात मामूली है लेकिन न जाने क्यो अदालत उसे भारी समझती है। इस मामले में मेरा सेवार्थी हर पेशी पर आता है और अदालत पर सुनवाई के लिए दबाव बनाता है, वह अदालत को अनेक बार यह कह चुका है कि मुकदमे का निर्णय कर दिया जाए। चाहे उस के विरुद्ध ही क्यों न हो। लेकिन आज यह सेवार्थी भी अदालत नहीं आया। यह कुछ राजनैतिक गतिविधियों में संलग्न रहता है। इन दिनों पंचायतों के चुनाव चल रहे हैं। हो सकता है उसी कारण न आया हो। मुझ से भी उस ने कोई संपर्क नहीं किया। अदालत ने उसे भी गैर हाजिर देख मुकदमे को नहीं सुना।  मैं ने उस में जल्दी की तिथि तय करने की बात कही तो अदालत ने कहा हम खुद जल्दी की तिथि देंगे। लेकिन तिथि तय हुई कोई बयालीस दिन की। लगता है अदालत के जज मूडी होते हैं वे वही करते हैं जो उन्हें करना होता है। इन दोनों मुकदमों में भी यही स्थिति है। इन में समय खपाना पड़ेगा। कम से कम आठ दस घंटों का तब जा कर उन में निर्णय हो सकेगा। अदालत में मुकदमों का अम्बार है। अदालतें ऐसे सर खपाऊ मुकदमों को क्यों सुने?  जब वह मुश्किल से मिनटों के श्रम से कुछ मुकदमों में निर्णय पारित कर सकती है। मनुष्य की हमेशा लालसा रहती है कि कम से कम काम करने पर अधिक से अधिक प्रतिफल और श्रेय मिले। अदालतों के जज इस लालसा से अछूते क्यों रहें?

चार अन्य मुकदमे एक ही न्यायार्थी द्वारा दायर किए हुए हैं जिन में जीवन बीमा निगम से राहत की मांग की गई थी। एक ही प्रकृति के मुकदमे होने और निर्णय के लिए आवश्यक बिंदु सभी मुकदमों में एक ही होने के कारण उन्हें समेकित कर दिया गया था। मै समझता था कि यह आसान काम है और जज इसे जरूर करेगा। लेकिन ये जज साहब भी लगता है काम करने के मूड में नहीं थे। शायद उन्हों ने यह खबर अपने स्टाफ को दे दी थी कि जितने मुकदमों में वकील चाहें पेशी दे दी जाए। अब आवेदक के वकील को पता है कि उस के ये चारों मुकदमे निरस्त होने की संभावना अत्य़धिक प्रबल है तो वह आसानी से बहस करने का मन नहीं बना पा रहा है। उस ने अदालत से समय चाहा और अदालत ने उसे दे दिया। जज साहब को यहाँ भी फिक्र नहीं है। उन के यहाँ छोटे-छोटे काम इतने हैं कि वे केवल फूँक मार दें तो उन से अपेक्षित काम से चार गुना दिखाई देने लगे।

दालतों की संख्या कम होने और हर अदालत में मुकदमों के अंबार ने और उच्च न्यायालय द्वारा  निश्चित किए गए क़ोटा सिस्टम ने उन्हें अकर्मण्य बना दिया है। वे अंबार में से आसान काम तलाशते हैं और अपने निर्धारित कोटे से दो-तीन गुना अधिक काम कर के अपनी परफोरमेंस को श्रेष्ठ बनाने में जुटे रहते हैं। इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा आए। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौर में काम करने वाले जज नहीं हैं। एक मुकदमे के अंतिम बहस के स्तर पर पहुँचने के बाद एक पक्षकार का देहांत हो गया। सूचना मिलते ही प्रार्थी ने मृतक पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को रिकार्ड पर लेने का आवेदन प्रस्तुत किया। सामान्य जज उस पर तुरंत आदेश पारित न कर के उस के लिए कोई आगे की तिथि तय कर देता। लेकिन अदालत के जज ने उसी समय आदेश पारित कर विधिक प्रतिनिधियों को नोटिस जारी करने का आदेश दिया और कहा कि तुरंत प्रोसेस प्रस्तुत करें जिस से अगली तिथि तक उन्हें नोटिस मिल जाएँ। अगले दिन ही मृतक के एक और विधिक प्रतिनिधि का पता लगा और उस के लिए आवेदन दिया गया तो जज ने तुरंत पत्रावली अदालत में मंगा कर उसे भी साथ ही नोटिस जारी करने का आदेश दे दिया। इस मुकदमे की पत्रावली भी अदालत की शायद सब से मोटी  पत्रावली है, लेकिन यह जज उसे शीघ्र सुनवाई कर निर्णय करना चाहता है। उस जज का सभी मुकदमों के प्रति यही व्यवहार है। ऐसे ही कुछ जजों ने शायद न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बचा रखा है।
जों में जो अकर्मण्यता बढ़ रही है उस का मुख्य कारण अदालतों का पर्याप्त संख्या में न होना और लगभग सभी अदालतों के पास उन की वास्तविक क्षमता से चार-पांच गुना काम का सदैव लंबित रहना है जिस से वे अपने लिए आसान काम का चयन कर लेते हैं और मुश्किल मुकदमे निर्णय के लिए तरसते हुए गिनीज और लिम्का बुकों में रिकार्ड दर्ज कराने की ओर बढ़ते रहते हैं।