@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 1 नवंबर 2009

आप कहाँ हैं?


अनवरत पर यादवचंद्र पाण्डेय की कविताएँ आप पहले भी पढ़ चुके हैं। यहाँ प्रस्तुत है उन की एक विशिष्ट कविता 'आप कहाँ हैं?'

आप कहाँ हैं?
  • यादवचंद्र पाण्डेय
नील गगन में
मनिहारिन घनश्याम नटी का
                पुरना-जुड़ना कितना सुंदर !
नील गगन में 
गोरी-गोरी बगुलों की नागर पाँतो का
                फिरना-तिरना कितना सुंदर !
नील गगन में 
कंचनकाया बच्चों-सा हिमशिखरों का 
                 टुक-टुक तकना कितना सुंदर !
नील गगन में 
जूड़े में नौ लाख सितारे 
टाँक रात्रि का खिल-खिल हंसना 
                 मुसका देना कितना सुंदर !
नील गगन में 
नभ-गंगा के कंठहार से 
हीरा मोती सोना झरना 
                  रोज बरसना कितना सुंदर !
बोल, रे पागल मनुवाँ 
                  कितना सुंदर !  कितना सुंदर !


नील गगन में अट्टहास प्रेतों का 
कोरस-मृत्यु नाश का
और मंगलाचरण अनय का 
                   घोर असुंदर !
नील गगन में बजे नगाड़ा
नखत-युद्ध का,  महाप्रलय का 
कुंठा, भय का
                    घोर असुंदर !
नील गगन में गंध चिराइन, धुआँ विषैला
सूरज-चांद-सितारों का काला पड़ जाना 
                    घोर असुंदर !
आठ अरब के भाग्य सूर्य पर 
राष्ट्र संघ के एक राहु का 
ग्रहण लगाना, मोद मनाना
                    घोर असुंदर
शांति कपोत उड़ाने वालों का 
गिद्धों के साथ गगन में 
मंडराना, सह-भोज रचाना 
                    घोर असुंदर !


घोर असुंदर से सुंदर की रक्षा करना 
                    काव्य कर्म है
                    आप कहाँ हैं ?
घोर असुंदर से सुंदर के हित में लड़ना 
                    शास्त्र धर्म है
                    आप कहाँ हैं ?
घोर असुंदर विषघट को अमृत से भरना 
                     आर्ष सूत्र है
                     आप कहाँ हैं?
                     मुक्ति युद्ध में आप कहाँ हैं?

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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

परीक्षा में सफल उम्मीदवार नियुक्ति प्राप्त करने के लिए क्या करें?

खेद है कि यह आलेख त्रुटि वश तीसरा खंबा के स्थान पर अनवरत पर प्रकाशित हो गया था। इसे अब तीसरा खंबा पर स्थानान्तरित कर दिया है। 
-दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

बढ़ने से मंजिल मिल जाती है

भाई महेन्द्र 'नेह' का यह गीत बहुत  दिनों से याद आ रहा था।  आज मुझे पूरा मिल गया  है। बिना किसी भूमिका के उसे आप की चौपाल पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ..... जरा आप भी गुन-गुना कर देखिए ...



बढ़ने से मंजिल मिल जाती है

  • महेन्द्र 'नेह'
पाँव बढ़े 
जो उलझी राहों पर
रोको मत, बढ़ने दो
बढ़ने से मंजिल मिल जाती है।


दर्दों के सिरहाने 
सपनों का तकिया रख
नींद को बुलावा दे
सच पूछो सिर्फ वही कविता है

जेठ के महीने में, मेघ के अभावों में 
लहराए, इतराए सच पूछो 
सिर्फ वही सरिता है 

ज्वार उठे सागर की लहरों में 
बाँधो मत, बहने दो
बहने से जड़ता मिट जाती है।

पानी से बंशी के स्वर मिलना 
याद रखो गंध धुला, दूध धुला 
जीवन है, गीत है जवानी है

बुद्धि का हृदय से औ, अंतस का माटी से
द्रोह अरे!
चिंतन है, दर्शन है, स्वप्न है, कहानी है 

आग लगे मन की गहराई में
ढाँपो मत, जलने दो
जलने से रूह निखर जाती है।


धर्म की तराजू पर 
पाप-पुण्य के पलड़े 
तुमने ही लटकाए
फिर खुद को उन में लटकाया है


मानव ने खुद पर विश्वास न कर
भूल-भुलैया भ्रम की 
निर्मित कर तन-मन भटकाया है

मान लुटे गलियों-चौराहों पर 
झिझको मत, लुटने दो
लुटने से बोझिलता जाती है। 

* * * * * * * * * * * * * *


मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009

डाक्टर, ज्योतिषी और वकील खामोखाँ नहीं डराते

आज तीसरा खंबा की पोस्ट नाबालिग लड़की को भगाकर शादी करना सजा को न्यौता देना है पर निम्न टिप्पणी मिली ...
पी.सी.गोदियाल 27 October, 2009 9:35 AM  

"नाबालिग लड़की को भगाकर शादी करना सजा को न्यौता देना है।"
Hmmm,लगता है इन वकील लोगो के पास भी आजकल कोई काम नहीं , खामखा लोगो को डरा रहे है :)
इस टिप्पणी को देख मुझे अपनी एक लघु कविता स्मरण हो आई। कविता हाड़ौती में है, लेकिन समझ आएगी। वैसे सुविधा के लिए हिन्दी रूपांतर साथ है।

कविता देखिए ...

काँईं डाग्दर, काँईं जोशी अर काँईं वकील  
डरिया ने और डरावै    
फेर डर सूँ खड़बा को गेलो बतावै   
अर जे, अश्याँ न करे    
तो आपणा घर का गबूल्या ही बकावै




हिन्दी रूपांतरण... 

क्या डाक्टर, क्या ज्योतिषी और क्या वकील   
डरे हुए को और डराए 
फिर डर से निकलने का रास्ता बताए और,  
जो ऐसा न करे  तो,  
खुद के घर के बिस्तर/कपड़े बेचे 

  • दिनेशराय द्विवेदी

जनतंत्र की असली ताकतें

पिछली 30 अगस्त से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं, मैं भी। कमाई बंद है। कभी-कभी कोई मुवक्किल आ जाता है और फीस जमा कर भी जाता है।  लेकिन वकालत के खर्चे बदस्तूर जारी हैं। जैसे रोज अदालत जाने के लिए पेट्रोल फूंकना, वहाँ चाय पान, मुंशी का वेतन, किताबें और जर्नल के खर्चे आदि आदि। इस बीच आने वाली राशि खर्चे की रकम की दसवाँ हिस्सा भी नहीं है। इस तरह वकील कमा नहीं रहे हैं बल्कि खर्च कर रहे हैं। इस तरह यह हड़ताल वकील अपनी रिस्क पर कर रहे हैं। मांग है कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खोलना। हाईकोर्ट जो अब चालीस जजों का हो गया है उस का विकेन्द्रीकरण करना।
यूँ तो राज्य की शक्तियों का सतत विकेंद्रीकरण ही जनतंत्र का जीवन है। यह रुक जाता है तो जनतंत्र का ग्राफ मृत्यु की तरफ बढ़ने लगता है। इस कारण से राज्य की कार्यकारी शक्ति अर्थात् संसद, विधानसभा और सरकारों को यह काम स्वतः ही करना चाहिए। लेकिन पिछले दो दशकों से जो सरकारें आ रही हैं उन्होंने विकास के दूसरे काम भले ही किए हों लेकिन जनतंत्र के विकास के लिए उन में से कोई भी चिंतित नजर नहीं आया।  उस के विपरीत उन की रुचि उसे नष्ट करने में अधिक नजर आई। चुनाव में सरकार बदली कि चौथा खंबा ढोल पीटना आरंभ कर देता है कि भारत सब से बड़ा जनतंत्र है, सब से मजबूत जनतंत्र है। जब कि वास्तविकता तो यह है कि चुनाव तक में जन की आवाज नहीं सुनी जाती। केवल जन को सुनाया जाता है। जन जा कर मशीन का कोई बटन दबा आता है। जो बटन वह दबाना चाहता है वह मशीन में है ही नहीं। आखिर वे ही लोग चुन कर फिर चले आते हैं जो जनतंत्र को मृत्यु की तरफ ढकेलने का कर्म कर रहे हैं। जो हर चुनाव के बाद अधिक शातिर होते जाते हैं।

बात चली थी वकील हड़ताल से बीच में ये जनतंतर कथा घुस आई। मुई, य़े कहीं पीछा नहीं छोड़ती। चलो इसे यहीं छोड़ कर आगे बढ़ते हैं। वकीलों इस हड़ताल में क्या क्या न किया? पहले अदालतों का बहिष्कार किया। फिर धरना भी लगाने लगे। एक महीना गुजर गया लेकिन सरकार को उन्हें सुनने की फुरसत तक नहीं मिली। फिर उन्होंने अदालत परिसर में प्रवेश करने के दो बड़े दरवाजों पर तालाबंदी आरंभ कर दी। सुबह स्टाफ और जज परिसर में घुसे कि ताला लगा दिया। एक छोटा दरवाजा और है उस के सामने खुद धरना दे बैठे। अंदर किसी को घुसने तक नहीं दिया। यह आलम रोज का है। वकील रोज इकट्ठा होते हैं और दो बजे तक रोज या तो धरने पर होते हैं, या परिसर के बाहर की सड़कों पर या फिर चाय की दुकानों पर। कोई भी अदालत परिसर में प्रवेश नहीं पाता। एक दिन कलेक्ट्री में घुसे और सीधे कलेक्टर के चैम्बर में पहुँचे और मुख्य मंत्री से बात कराने को कहा। कलेक्टर ने आश्वासन तो दिया, बात आज तक नहीं करवा सका। यह जरूर किया कि उसने कलेक्ट्री के आस पास इतने अवरोध लगवा दिए कि वकील तो वकील जनता भी वहाँ परिंदा न मार सके। दो बजे बाद अदालत परिसर का ये वकील कर्फ्यू टूटता है तो सब परिसर में जाते हैं, तब तक अदालतें पेशियाँ बदल चुकी होती हैं। मुंशी जाते हैं और मुकदमों की पेशियों की आगामी तारीखें नोट कर बाहर आ जाते हैं। वकील एक दिन कोटा शहर में आने वाले सारे राज मार्गों पर तीन घंटे का जाम भी लगवा चुके हैं। अब तक की सारी कार्यवाहियाँ बिलकुल शांतिपूर्ण हैं।
शांतिपूर्ण इसलिए कि वकीलों ने बहिष्कार किया, सरकार ने कहा करने दो, क्या फर्क पड़ता है? अदालत परिसर की तालाबंदी की, सरकार ने कहा करने दो, क्या फर्क पड़ता है? वे कलेक्ट्री में घुसे, कलेक्टर ने खुद को सुरक्षित कर लिया, इतना कि जनता भी उस तक नहीं पहुँचे। उन्हों ने शहर में घुसने वाले राजमार्गों पर जाम लगाया। पुलिस ने पहले ही ट्रेफिक को दस-दस किलोमीटर दूर रोक लिया। जब वकीलों ने जाम हटाने की घोषणा की और मार्गों पर से हट गए तो उस के आधे घंटे बाद ट्रेफिक चालू कर दिया। देखो कितनी अच्छी सरकार है। वकीलों के आंदोलन के लिए सारा इंतजाम कर रही है और शायद करती ही रहेगी। नहीं करेगी तो सिर्फ बात नहीं करेगी। करेगी भी तो तब जब उस के जच जाएगी। अब अफवाहें फैल रही हैं कि मुख्य मंत्री कहते हैं। अदालतें कैसे खोलें? धन ही नहीं है। हाईकोर्ट की बैंच खोलने में भी धन लगता है। फिर एक जगह हो तो खोलें। उदयपुर, बीकानेर भी तो पीछे लगे हैं। फिर उन से ज्यादह महत्वपूर्ण जोधपुर है जहाँ से मैं चुनाव लड़ता हूँ। वहाँ से मुकदमे और जगह चले जाएंगे तो वहाँ के वकील नाराज हो जाएंगे।
चलते-चलते यह आंदोलन वकीलों का नहीं रह गया है, बल्कि जनता का हो गया है। वह समझने लगी है कि लाभ भी उस का होना है। उन का आना-जाना बचेगा, अपरिचित वकील से मुकाबला बचेगा। जनता साथ भी है। अब तीस अक्टूबर को जब हड़ताल को दो माह पूरे होंगे। पूरे संभाग या यूँ कहिए पूरे हाड़ौती अंचल का बंद आयोजित किया है। अब वकील तो अकेले यह काम कर नहीं सकते। जनप्रतिनिधियों की बैठक बुलाई गई। याद आए जन संगठन, बोले तो, संभाग के सारे सामाजिक संगठन, व्यापारिक संगठन, ट्रेडयूनियनें, शिक्षण संस्थाएँ, मोहल्ला समितियाँ और भी बहुत से स्वैच्छिक संगठन और संस्थाएँ। सब ने बंद को समर्थन और सहयोग देने का वचन दिया। मैं समझता हूँ कि बंद शांतिपूर्ण रीति से हो लेगा।

जनतंत्र यहाँ बसता है, इन जन संगठनों में। ये सभी विभिन्न पेशों में काम कर रहे लोगों के संगठन हैं। जो राजनीति से परे रह कर काम करते हैं। उन के चुनाव होते हैं और उन पर उन के सदस्यों का नियंत्रण भी रहता है। इन में कुछ कम जनतांत्रिक हैं, कुछ अधिक, पर जनतांत्रिक हैं। कुछ कमजोर हैं कुछ बहुत मजबूत। जनतंत्र की ताकत भी इन में ही बसती है। ये जितने मजबूत होंगे, जितने जनतांत्रिक होंगे और जितने एक दूसरे के साथ तालमेल बनाएंगे उतना ही जनतंत्र मजबूत होता जाएगा। जनतंत्र की इस ताकत का अपहरण करने को राजनीतिक दल लालायित रहते हैं और बस चल जाता है तो कर भी लेते हैं। लेकिन ये संगठन उन से जितने अप्रभावित रह कर अपने सदस्यों के हितों के लिए काम करेंगे जनतंत्र उतना ही मजबूत होगा।

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

राष्ट्रीय संगोष्टी : हिन्दी ब्लागिरी के इतिहास का सब से बड़ा आयोजन

          *                                      चित्र मसिजीवी जी से साभार

आखिर तीन दिनों से चल रहा भ्रम दूर हो गया कि इलाहाबाद में हिन्दी ब्लागरों का कोई राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था।  बहुत लोगों के पेट में बहुत कुछ उबल रहा था। लगता है वह उबाल अब थम गया होगा। यदि नहीं थमा हो तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद थम ही जाएगा। हालांकि पहले भी यह सब को पता था, लेकिन शायद इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यह कोई हिन्दी ब्लागर सम्मेलन नहीं था। यह महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा 'हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया' परआयोजित राष्ट्रीय संगोष्टी थी। जिसे विश्वविद्यालय ने बुलाया चला गया। उस की जैसी सेवा हुई, हो गई। जिन्हें पहले से आमंत्रण दे कर नहीं बुलाया गया था उन्हें चिट्ठे पर छपा आमंत्रण वहाँ खींच ले गया। उन की भी सेवा हो ली।  
जब विश्वविद्यालय एक संगोष्टी आयोजित करता है तो उस में कौन लोग बुलाए जाएँ ? और कौन लोग नहीं बुलाए जाएँ? इन का निर्णय भी विश्वविद्यालय ही करेगा, उस ने वह किया भी। जिन को नहीं बुलाया गया उन्हें हलकान होने और बुरा मानने की जरूरत नहीं है। पहला सत्र उद्घाटन सत्र के साथ ही पुस्तक विमोचन सत्र था। मुख्य अतिथि नामवर सिंह रहे। मैं समझता हूँ कि ब्लागरी को अभी साहित्य के लिए एक नया माध्यम  ही माना जा रहा है। शायद इसी कारण से नामवर जी उस के मुख्य अतिथि थे। उन्हों ने भी उसे ऐसा ही समझा और वैसा ही अपना भाषण कर दिया। इस के बाद के सत्रों में विमर्श आरंभ हुआ।  ब्लाग पर होने वाले विमर्श में और प्रत्यक्ष होने वाले विमर्श में फर्क होना चाहिए था। आखिर एक में ब्लागर पोस्ट लिख कर छोड़ देता है। उस पर नामी-बेनामी टिप्पणियाँ आती रहती हैं। ब्लागर को समझ आया तो उस ने बीच में दखल दिया तो दिया। नहीं तो अगली पोस्ट के लिए छोड़ दिया। प्रत्यक्ष विमर्श का आनंद और ही होता है।  वहाँ कोई बेनामी नहीं होता।  
अब प्रत्यक्ष सम्मेलन में बेनामी पर चर्चा होना स्वाभाविक था, जो कुछ अधिक हो गई। बेनामी लेखक छापे में भी बहुत हुए हैं तो ब्लागरी में क्यों न हुए। जिस बड़े लेखक ने पत्रिका निकाली उसे चलाने के लिए उसे बहुत सी रचनाएँ खुद दूसरों के नाम से लिखनी पड़ीं और यदा-कदा उन पर प्रतिक्रियाएँ भी छद्म नाम से लिखीं। बहुत से अखबारों में भी यह होता रहा है और होता रहेगा।  बेनामियों का योगदान छापे में महत्वपूर्ण रहा है तो फिर ब्लागरी में क्यों नहीं? यहाँ भी वे महत्वपूर्ण हैं और बने रहेंगे।  चिंता की जानी चाहिए थी उन बेनामी चीजों पर जो सामान्य शिष्टता से परे चली जाती हैं। उन पर नियंत्रण जरूरी है। ऐसी टिप्पणियों को मोडरेशन के माध्यम से रोका जा सकता है, जो किया भी गया है। हाँ बेनामी चिट्ठों को नहीं रोका जा सकता। उन के लिए यह नीति अपनाई जा सकती है कि उन चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं की जाएँ। यदि विरोध ही दर्ज करना हो तो दूसरे चिट्ठों पर पोस्ट लिख कर किया जा सकता है।  
ब्लागरी केवल साहित्य नहीं है। वह उस के परे बहुत कुछ है। वह ज्ञान की सरिता है। जिस में बरसात की हर बूंद को आकर बहने का अधिकार है।  यह जरूर है कि हिन्दी ब्लागरी के विकास में साहित्य और साहित्यकारों का योगदान रहा है। मैं नेट पर साहित्य तलाशने गया था और उस ने मुझे ब्लागरी से परिचित कराया। वहाँ कुछ टिपियाने के बाद मुझे ब्लागिरी में शामिल होने का न्यौता मिला तो मेरी सोच यह थी कि मैं कानून संबंधी अपनी जानकारियों को लोगों से साझा करूँ। इस तरह 'तीसरा खंबा' का जन्म हुआ।  इस ब्लाग में कोई साहित्य नहीं है, वह कानून की जानकारियों और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लाग है।  एक साल से वह सामान्य लोगों को कानूनी जानकारी की सहायता उपलब्ध करा रहा है और आज स्थिति यह है कि कानूनी सलाह प्राप्त करने के लिए बहुत से प्रश्न तीसरा खंबा के पास कतार में उपलब्ध रहते हैं।  बहुत लोगों की समस्याओं को ब्लाग पर न ला कर सीधे सलाह दे कर उन का जवाब दिया जा रहा है।  कुछ ब्लाग समाचारों पर आधारित हैं। कुछ ब्लाग तकनीकी जानकारियों पर आधारित हैं। अजित जी का ब्लाग  'शब्दों का सफर' केवल भाषा और शब्दों पर आधारित है। शब्द केवल साहित्य के लिए उपयोगी नहीं हैं वे प्रत्येक प्रकार के संप्रेषण के लिए उपयोगी हैं। ब्लागरी में साहित्य प्रचुर मात्रा में आया है। उस की बदौलत बहुत से लोगों ने लिखना आरंभ किया है। इस कारण से ब्लागिरी में साहित्य तो है लेकिन साहित्य ब्लागिरी नहीं है। वह 'ज्ञान सरिता' ही है।  
कैसी भी हुई यह राष्ट्रीय संगोष्टी हिन्दी ब्लाग जगत के लिए एक उपलब्धि है। एक विश्वविद्यालय ने ब्लागरी से संबंधित आयोजन किया यह बड़ी बात है। बहुत से हिन्दी ब्लागरों को उस में  विशेष रुप से आमंत्रित किया और शेष को उन की इच्छानुसार आने के लिए भी निमंत्रित किया। जो लोग वहाँ पहुँचे उन का असम्मान नहीं हुआ। इस संगोष्टी ने बहुत से हिंदी ब्लागरों को पहली बार आपस में मिलने का अवसर दिया। उन का एक दूसरे के साथ प्रत्यक्ष होना बड़ी बात थी। कुछ ब्लागर अपनी बात वहाँ रख पाए यह भी बड़ी बात है। कुछ नहीं रख पाए, वह कोई बात नहीं है। उन के पास अपना स्वयं का माध्यम है वे अपने ब्लाग पर उसे रख सकते हैं। हिन्दी में ब्लागरों की संख्या आज की तारीख में चिट्ठाजगत के अनुसार 10895 हिन्दी ब्लाग हैं जिन में से दो हजार से ऊपर सक्रिय हैं। सब को तो वहाँ एकत्र नहीं किया जा सकता था और न ही जो पहुँचे उन सब को बोलने का अवसर दिया जा सकता था।
चलते-चलते एक बात और कि मेरे हिसाब से ब्लाग को चिट्ठा नाम देना ही गलत है। ब्लाग वेब-लॉग से मिल कर बना है। इस में वेब शब्द का 'ब' अत्यंत महत्वपूर्ण है चिट्ठा शब्द में उस का संकेत तक नहीं है। इस कारण से उसे चिट्ठा कहना मेरी निगाह में उचित नहीं है, उसे ब्लाग ही कहना ही उचित है।  ब्लाग एक संज्ञा है और मेरे विचार में किसी भी भाषा के संज्ञा शब्द को ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में आत्मसात किया जा सकता है। जो कर भी लिया गया है। हाँ, मुझे ब्लागिंग शब्द पर जरूर ऐतराज है। क्यों कि इस का 'इंग' हर दम अंग्रेजी की याद दिलाता रहता है। किसी संज्ञा को एक बार अपनी भाषा में आत्मसात कर लेने के उपरांत उस से संबंधित अन्य शब्द अपनी भाषा के नियमानुसार बनाए जा सकते हैं। इस लिए मैं ब्लागिंग के स्थान पर ब्लागरी या ब्लागिरी शब्द का प्रयोग करता हूँ। मुझे लगता है कुछ ब्लागर इस का अनुसरण और करें तो यह भी आत्मसात कर लिया जाएगा।
कुल मिला कर 'हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया' पर महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा की गई राष्ट्रीय संगोष्टी ब्लागरी के इतिहास की बड़ी घटना है, जिस ने इतने सारे ब्लागरों को एक साथ मिलने और प्रत्यक्ष चर्चा करने का अवसर प्रदान किया। इस घटना को बड़ी घटना की तरह स्मरण किया जाएगा और यह घटना तब तक बड़ी बनी रहेगी जब तक इस से बड़ी लकीर कोई नहीं खिंच जाती है।


गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! तुम बहुत, बहुत याद आओगी!


पिछली जनवरी में मेरा भिलाई जाना हुआ था। दो रात और तीन दिन पाबला जी के घर रहना हुआ। वहीं उन की पालतू डेज़ी से भेंट हुई। वह उन के परिवार की अभिन्न सदस्या थी। दीवाली पर पटाखों से उत्पन्न धूंएँ और ध्वनि के प्रदूषण ने उसे बुरी तरह प्रभावित किया और वह बीमार हो गई। इतनी बीमार कि चिकित्सा की भरपूर सहायता भी उसे जीवन दान न दे सकी। आज दोपहर डेजी नहीं रही। उन तीन दिनों के प्रवास में डे़ज़ी ने जिस अपनत्व का व्यवहार मुझे दिया मैं उसे जीवन भर नहीं भुला सकता हूँ। मेरी भिलाई यात्रा के विवरण में डेज़ी का उल्लेख अनायास ही हुआ था। जिस के अंत में मैं ने लिखा था ....'कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो'।
 लेकिन शिकायत करने वाली डेज़ी आज नहीं रही। जब से उस के प्राणत्याग की सूचना मिली है मैं उसे नहीं भुला पा रहा हूँ तो पाबला जी और उन के परिजनों की क्या स्थिति होगी? जिन के बीच वह चौबीसों घंटे रहती थी। मेरे बेटे वैभव ने शाम पाबला जी के पुत्र गुरुप्रीत से  फोन पर बात करनी चाही, लेकिन गुरुप्रीत बात नहीं कर सका उस का स्वर रुआँसा हो उठा।

अपनी भिलाई यात्रा के विवरण में से डेज़ी से सम्बंधित अंश यहाँ उस के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत कर रहा हूँ ......

पाबला जी की वैन से हम उन के घर के लिए रवाना हुए वेबताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला 'पहुँच गए'।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक-एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कुछ अभिनय किया। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी, पाबला जी ने बताया डेज़ी नाम है उस का।

.................आँख खुली तो डेज़ी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।



......... तीसरे दिन सुबह गुरप्रीत ने सोने जाने के पहले कॉफी पिलाई।  नींद पूरी न हो पाने के कारण मैं फिर चादर ओढ़ कर सो लिया।  दुबारा उठा तो डेज़ी चुपचाप मुझे तंग किए बिना मेरे पैरों को सहला रही थी।  मुझे उठता देख तुरंत दूर हट कर बैठ गई और मुझे देखने लगी।  हमारे  पास भैंस के अतिरिक्त कभी कोई भी पालतू नहीं रहा।  उन की मुझे आदत भी नहीं।  पास आने पर और स्वैच्छापूर्वक छूने पर अजीब सा लगता है।  डेज़ी को मेरे भरपूर स्नेह के बावजूद लगा होगा कि मैं शायद उस का छूना पसंद नहीं करता इस लिए वह पहले दिन के अलावा मुझ से कुछ दूरी बनाए रखती थी।  उस दिन मुझे वह उदास भी दिखाई दी।  जैसे ही पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया वह बाहर चल दी।  लेकिन उस के बाद मैं ने महसूस किया कि वह मेरा पीछा कर रही है। मैं जहाँ भी जाता हूँ मेरे पीछे जाती है और मुझे देखती रहती है।  मैं उसे देखता हूँ तो वह भी मुझे उदास निगाहों से देखती है।  मुझे लगा कि मेरे हाव भाव से उसे महसूस हो गया है कि मैं जाने वाला हूँ।  उस का यह व्यवहार सिर्फ मेरे प्रति था, वैभव के प्रति नहीं। शायद उसे यह भी अहसास था कि वैभव नहीं जा रहा है, केवल मैं ही जा रहा हूँ।


हमें दो बजे तक दुर्ग बार ऐसोसिएशन पहुँचना था।  मैं धीरे-धीरे तैयार हो रहा था।  पाबला जी की बिटिया के कॉलेज जाने के पहले उस से बातें कीं।  फिर कुछ देर बैठ कर पाबला जी के माँ-पिताजी के साथ बात की।  हर जगह डेज़ी मेरे साथ थी।  मैं ने पाबला जी को बताया कि डेज़ी अजीब व्यवहार कर रही है, शायद वह भाँप गई है कि मैं आज जाने वाला हूँ।  ........

मैं सवा बजे पाबला जी के घर से निकलने को तैयार था।  मैं ने अपना सभी सामान चैक किया।  कुल मिला कर एक सूटकेस और एक एयर बैग साथ था। मैं ने पैर छूकर स्नेहमयी माँ और पिता जी से विदा ली।  मैं नहीं जानता था कि उन से दुबारा कब मिल सकूँगा? या कभी नहीं मिलूँगा।  लेकिन यह जरूर था कि मैं उन्हें शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकूँ।

मैं सामान ले कर  दालान में आया तो देखा वे मुझे छोड़ने दरवाजे तक आ रहे हैं और डेजी उन के आगे है।  मैं डेजी को देख रुक गया तो वह दो पैरों पर खड़ी हो गई  बिलकुल मौन।  मैं ने उसे कहा बेटे रहने दो। तो वापस चार पैरों पर आ गई।  गुरप्रीत पहले ही बाहर वैन के पास खड़ा था। उस ने मेरा सामान वैन के पीछे रख दिया।  मैं पाबला जी और वैभव हम वैन में बैठे सब से विदाई ली।  डेजी चुप चाप वैन के चक्कर लगा रही थी। शायद अवसर देख रही थी कि पाबला जी का इशारा हो और वह भी वैन में बैठ जाए।  पाबला जी ने उसे अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर हो गई और वहाँ से निहारने लगी।  हमारी वैन दुर्ग की ओर चल दी।  मैं ने डेजी जैसी पालतू अपने जीवन में पहली बार देखी जो दो दिन रुके मेहमान के प्रति इतना अनुराग कर बैठी थी।  मैं जानता था कि कभी मैं दुबारा वहाँ आया तो वह तुरंत शिकायत करेगी कि बहुत दिनों में आ रहे हो।

इस पोस्ट का मकसद डेज़ी को स्मरण करना तो है ही साथ ही यह भी कि शायद हम अपने त्योहारों या अन्य किसी प्रकार की मौज-मस्ती के बीच उन्हें पहुँचाने वाले जानलेवा कष्टों को पहचान सकें और व्यवहार में कुछ सहिष्णु हो सकें। 

डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! 
तुम बहुत, बहुत याद आओगी!