आज पढ़ें 'यक़ीन' साहब की ये 'ग़ज़ल'
क्या पता?
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता
ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता
नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता
ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता
टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता
ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता
नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता
ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता
ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता
टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता
इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता
वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता