@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 12 अक्टूबर 2009

अपना घर खुद साफ करें; मोहल्ले की स्वच्छता मिल बैठ तय करें


दीवाली के पहले का सप्ताह आरंभ हो गया है। या तो लोग अपने-अपने घरों की सफाई कर चुके हैं या फिर यह काम जोरों पर है। आखिर दीवाली के पहले सब को अपने-अपने घर चमकाने हैं। देवी लक्ष्मी का स्वागत जो करना है। हमारे घर में यह वार्षिक स्वच्छता अभियान कोई बीस दिन पहले ही आरंभ हो चुका था। श्राद्ध समाप्त हुए, नवरात्र के पहले दिन से ही सफाई का काम आरंभ हो गया। पहले सोने के कमरे को जाँचा गया, पाया कि रंगरोगन अभी ठीक है, वर्ष भर चलेगा, केवल सफाई से काम चल सकता है। उस की सफाई की गई। उस के बाद हमारे बाहर की बैठक की बारी थी। कहने को यह बैठक जरूर है। पर हमारे वकालत के दफ्तर का दरवाजा सुबह छह बजे मुख्य दरवाजे के पहले खुलता है तो रात ग्यारह के बाद मुख्य द्वार पर ताला पड़ने के बाद ही वह बंद होता है। नतीजा ये कि हमारे घर सभी का पहला प्रवेश दफ्तर से होता है। बैठक साफ की गई। इस में वक्त लगा। यहीँ हमारी गैर-वकालती किताबें हैं। सब की सफाई कर वापस जमाया गया। इस तरह दशहरा आ गया।

अब दफ्तर की बारी थी। उस के लिए गांधी जयन्ती नियत है। वह दीवाली के पहले मुकम्मल अवकाश का दिन होता है। उस दिन उस से निपटा गया। इस के बाद बचा सिर्फ बीच का हॉल, रसोई और बाहर का पोर्च बनाम बरामदा। रसोई और बरामदा रंगाई मांग रहे थे। उस के लिए एक भवन निर्माता मुवक्किल से पुताई वाले को भेजने को कहा था। लेकिन सब पुताई वाले अपनी सालाना कमाई में लगे थे, जिस से वे अपने कर्जे चुका कर दीवाली मनाएँगे। कोई खाली न मिला। एक दिन पान की दुकान पर फिटर बाबूलाल नजर न आया तो मैं ने पान वाले बाबूलाल जी से पूछा कि आज बाबूलाल नहीं दिखा। इतने में बाबूलाल आ गया। कहने लगा दुकान के पड़ौस के मकान की पुताई कर रहा हूँ। 1500 रुपए में मजदूरी तय हुई है। मैं ने तुरंत उसे पकड़ा। भाई मेरे मकान में भी कुछ पुताई है, कर दोगे? उस ने हाँ कर दी।

पान वाला और फिटर, दोनों बाबूलाल

बाबूलाल दोहरे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति है। अधिक पढ़ा लिखा नहीं है। अपनी धुन में मस्त रहता है। सुबह नौ बजे बाबूलाल पान वाले की दुकान पर आ जाता है। जिसे भी उस से काम कराना होता है उसे वहीं से पकड़ता है और काम करवा कर वहीं छोड़ देता है। काम में कोई नुक्स नहीं। मुस्कुरा कर बात करता है।  उस से बात करो तो बहुत ज्ञान की बातें करेगा। वह ज्ञान की बातें ही नहीं करता, उन पर अमल भी करता है। पर उस के कुछ परिजनों के लगातार सताने से उस के अंदर एक और व्यक्तित्व विकसित हो गया है, जो दुनिया की सभी बुरी चीजों से घृणा करता है। वह उन्हें समाप्त तो नहीं कर सकता, लेकिन उन्हें बुरा कह सकता है, उन के साथ गाली गलौच कर सकता है, उन्हें शाप दे सकता है। बस कुछ फुरसत हुई, उसे अपने साथ हुए बुरे बर्ताव का स्मरण हुआ, और उस की त्योरियाँ चढ़ जाती हैं, वह पान की दुकान के सामने फुटपाथ पर इधर से उधर तेजी से चक्कर लगाने लगता है। साथ ही कुछ शाप बड़बड़ाने लगता है। फिर ऊंचे फुटपाथ पर सड़क की ओर मुहँ कर के खड़ा हो जाता है। उसे वे सब बुरे लोग सामने दिखाई देने लगते हैं। वह उन्हें खूब दुत्कारता है, शाप देता है। कभी कभी इसी हालत में मैं पहुँच जाता हूँ। जोर से उसे बुलाता हूँ -बाबूलाल ! राम! राम! उस का दूसरा व्यक्तित्व तुरंत गायब हो जाता है और वह हमारा प्यारा बाबूलाल बन जाता है। मैं  और पानवाले बाबूलाल जी चाहते हैं कि उस में से प्रतिशोधी व्यक्तित्व समाप्त हो जाए और वह हमारा प्यारा सा बाबूलाल बन कर रहे।  लेकिन राजस्थान में कहावत है 'रांड रंडापा तो काट ले, पर रंडवे काटने दें तब ना!' उसे भी लोग मजा लेने के लिए छेड़ते हैं और उस का दूसरा व्यक्तित्व उभर आता है।

खैर! हमने सफेदी का सामान खरीदा और बाबूलाल को पान की दुकान से पकड़ लाए। उस ने परसों बरांडे की छत और हमारी रसोई पर सफेदी की और कल बरांडे की दीवारों पर रंग किया।  उस से भोजन के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया कि वह सुबह आठ बजे भोजन कर के ही घर से निकलता है। चाय वह दिन में चार बार पी लेता है। उसे दिन भर यह खुराक समय-समय पर बिना कहे मिल गई। उस ने अपनी मजदूरी पहले नहीं बताई थी। आधा काम करने के बाद उस ने पाँच सौ रुपया बताया, वह उसे दे दिया गया। जाते वक्त बाबूलाल खुश था। इन दो दिनों में उस के दूसरे व्यक्तित्व के एक बार भी दर्शन न हुए।


हमारे घर पर सफेदी होते देख एक पड़ौसन भी पूछने आईँ। हमने बाबूलाल को काम देख आने को कहा। वह देख भी आया। उस ने उन्हें भी वाजिब मजदूरी बताई, लेकिन सौदा तय नहीं हुआ।  हमने भी उस में अधिक रुचि नहीं ली। हमारी रुचि अपने घर की सफाई में थी, पड़ौसी के घर की सफाई में नहीं।  हमें पता भी नहीं कि उन  के घर में कितनी गंदगी है?  जिस की सफाई की जरूरत है और पता हो भी तो हम क्या करें? आखिर उन के घर की चिंता उन्हें करनी चाहिए।  वे अपने घऱ को जैसा रखना चाहेँ रखें। हाँ उन के घर की गंदगी हमारे घर में आए, या हमें प्रभावित करने लगे, या वे हमारे घर की सफाई में जबरन रुचि लेने लगें, या वे हमारे घर के नुक्स निकालने लगें तो हम जरूर आपत्ति करेंगे। वे खुद अपने घर की सफाई में जुटें और मदद मांगें तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।  इस से उन के और हमारे बीच भाईचारा बना रहेगा।  हम सोचते हैं कि चिट्ठा-जगत में भी यही हो तो यहाँ भी भाईचारा बना रहे। हाँ घरों के बाहर मुहल्ले की बात करें तो सब मिल कर बैठ लें, और बात करें कि मोहल्ले में स्वच्छता बनाए रखने के लिए क्या करें?

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

हम सभी उस धर्म से/ मिल कर कहें अब अलविदा 'कविता' महेन्द्र 'नेह'


इस और उस धर्म के बारे में पिछले दो दिनों में बहुत कुछ कहा गया है।  महेन्द्र 'नेह' ने इन धर्मों के बारे में अपनी कविता में कुछ इस तरह कहा है .......


अलविदा 
महेन्द्र 'नेह'

धर्म जो आतंक की बिजली गिराता हो
आदमी की लाश पर उत्सव मनाता हो
औरतों-बच्चों को जो जिन्दा जलाता हो

 हम सभी उस धर्म से 
मिल कर कहें अब अलविदा
इस वतन से अलविदा
इस आशियाँ से अलविदा




धर्म जो भ्रम की आंधी उड़ाता हो
सिर्फ अंधी आस्थाओं को जगाता हो
जो प्रगति की राह में काँटे बिछाता हो

हम सभी उस धर्म से 
मिल कर कहें अब अलविदा
इस सफर से अलविदा
इस कारवाँ से अलविदा


धर्म जो राजा के दरबारों में पलता हो
धर्म जो सेठों की टकसालों में ढलता हो
धर्म जो हथियार की ताकत पे चलता हो

हम सभी उस धर्म से 
मिल कर कहें अब अलविदा
इस धरा से अलविदा
इस आसमाँ से अलविदा





धर्म जो नफ़रत की दीवारें उठाता हो
आदमी से आदमी को जो लड़ाता हो
जो विषमता को सदा जायज़ बताता हो

हम सभी उस धर्म से 
मिल कर कहें अब अलविदा
इस चमन से अलविदा
इस गुलसिताँ से अलविदा

 








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गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

वे सवारियाँ !


सवारी के बिना आज के जमाने में गुजारा नहीं है। जीवन के पहले पच्चीस बरस मैंने अपने गृह नगर बाराँ में बिताए। वहाँ सारा नगर  हर कोई पैदल ही घूमा करता था। चाहे स्टेशन जाना हो, अस्पताल जाना हो या स्कूल-कॉलेज, बस यह प्रकृति प्रदत्त ग्यारह नंबर की बस ही सब जगह काम आती थी। पैदल चलने का लाभ यह था कि जितना भी खाओ पच जाता था। बीमारियाँ दूर भागती थीं। पहली साइकिल घर में आई तब, जब हम नवीं क्लास में पढ़ते थे।  वह भी इस लिए कि पिताजी स्कूल इंस्पेक्टर हो गए थे और उन्हें गावों में स्कूलों का निरीक्षण करने जाना होता था। वे कभी पैडल से साइकिल पर चढ़ना नहीं सीख पाए। हमेशा किसी ऊंची जगह से साइकिल पर चढ़ते थे।  जब तक ऐसी जगह न मिलती थी ,साइकिल को पैदल ही लुढ़काते रहते थे। मैं यह काम दो दिनों में सीख गया था।


घर बाजार में दुमंजिले पर था। सायकिल सुबह घऱ से उतारी जाती और देर रात को वापस चढ़ाई जाती। बीच में जब भी उसे फुरसत होती, वह बाजार में मांगीलाल नाई की दुकान से टिक कर खड़ी रहती थी। एक बार रात को साइकिल को वहाँ से उठा कर घर पर चढ़ाना भूल गए। सुबह साइकिल की जरूरत पड़ी तो तलाश आरंभ हुई। कहीं नहीं मिली। किसी ने सुझाव दिया कि थाने में जा कर देखो। हम गए तो वह वहाँ आराम फरमा रही थी। पता लगा रात को गश्त करने गए सिपाही उठा लाए थे।  इस के बाद उसे थाने जाने की आदत पड़ गई। जब भी हम भूल जाते वह वहाँ चली जाती। हम भी सुबह याद आते ही उसे थाने से बड़े प्यार से उठा लाते। वह जब तक रही अक्सर थाने की सैर करती रही। किसी की बुरी नजर तक उस पर नहीं पड़ी थी।


साइकिलें उन्हीं लोगों के  पास थीं, जिन का नगर से बाहर जाने-आने का काम पड़ता था। उन के अलावा कोई और साइकिल खरीदता तो उसे लक्जरी समझा जाता। नगर में मोटर साइकिलें गिनती की थीं। कहीं जीप नजर आती तो वह जरूर सरकारी होती। नगर का सर्वप्रिय यातायात साधन हाथ ठेला हुआ करता। ट्रेन आने के समय उन की आधी से अधिक आबादी स्टेशन के बाहर खड़ी होती। लोग उन में अपना सामान लदवाते और साथ पैदल चलते। फिर पहले पहल साइकिल रिक्शे चले। तो वे बीमारों को अस्पताल पहुँचाने या वृद्धों को ढोने के काम आने लगे। जवान आदमी उन में बैठ जाता तो लोग दिन भर उस से पूछते रहते -तबीयत तो ठीक है न? कोई अधिक संवेदनशील होता तो बेचारा शाम तक जरूर बीमार पड़ जाता। मेरे मन में भी बहुत हुमक उठती कि कभी मैं भी रिक्शे में बैठूँ। पर लोगों की पूछताछ और उस से बीमार होने के डर से नहीं बैठता। एक बार पत्नी को ले कर स्टेशन पर उतरा और उस के आग्रह पर रिक्शे में बैठ गया। रिक्शा बाजार में हो कर निकला तो सारे नगर को पता लग गया कि हम स्टेशन से घर तक रिक्शे से गए थे। मुझे खुद को ऐसा लग रहा था जैसे मेरी झाँकी निकल रही हो। उस के बाद अब तक अपने शहर में रिक्शे में बैठने की हिम्मत नहीं हुई।  पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों के न होने का असर था कि सुबह नदी गए। एक डुबकी लगाई, किनारे आ कर पूरे बदन को हाथों से रगड़ा और दूसरी डुबकी में बदन साफ। साबुन का उपयोग तो हफ्ते में एक दिन होता था। अंदर के वस्त्रों को छोड़ दें तो कपड़े भी दो-तीन दिन आसानी से चल जाते थे।  दादा जी के मुताबिक तो साबुन और नील के उपयोग से वस्त्र अपवित्र हो जाते थे। इन दोनों का उपयोग किया हुआ वस्त्र पहन कर वे कभी मंदिर के गर्भ-गृह नहीं गए।


जिस साल नगर के कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई और जिला मुख्यालय के पीजी कॉलेज में वकालत की पढ़ाई पढ़ने गए उसी साल दोनों शहरों के बीच एक शटल ट्रेन चलने लगी। बड़ी आसानी हो गई। शाम को कॉलेज लगता। मैं सुबह दस बजे ट्रेन में चढ़ता और बारह पर उतरता। दिन भर इधर-उधर मटरगश्ती करता और शाम को कॉलेज कर के रात को शटल से वापस। दिन भर की मटरगश्ती के लिए वाहन जरूरी था। जिला मुख्यालय का नगर बड़ा था और लंबाई में फैला था। स्टेशन भी नगर से दूर था। साइकिल वहीं स्टेशन के साइकिल स्टेंड पर डाल दी गई जिस से मटरगश्ती में आसानी हो गई।

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

'सलूक' महेन्द्र 'नेह' की कविता, उन के आने वाले संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' से

महेन्द्र 'नेह' का कविता संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' लगभग तैयार है। लोकार्पण की तिथि तय होनी है। आप को पढ़ाते हैं उसी संग्रह से एक कविता ............

       सलूक
  • महेन्द्र 'नेह'

'उसने'
आदमी को निचोड़ा
और तौलिए का
विज्ञापन बना दिया
'उसने'
आदमी को सुखाया
और आदमी देर तक थरथराता रहा
'उसने'
आदमी के बदन पर इत्र छिड़का और
तहा कर जेब में रख लिया
'उसने'
जेब से निकाला आदमी
और उस से अपनी नाक पोंछ ली


आदमी क्या करता
आदमी लाचार था
और उसे अपने को
जिंदा रखना था
जाने क्या सिफ्त है
आदमी में
कि अपने सपनों को
कुचले जाने की आखिरी हदों तक
और अपमान के सब से कड़वे घूँटों
के बीच भी वह जिंदा रह जाती है


आदमी जिंदा रह गया है
और बुरे दिनों के बीच
नए सपने बुनने में लगा है


आदमी को भरोसा है
कि मौसम जरूर बदलेगा
देखते हैं आदमी बदले हुए मौसम में
'उसके' साथ कैसा सलूक करता है?

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रविवार, 4 अक्टूबर 2009

जब वैद्य मामा से औरत पर चढ़ने वाला भूत डरने लगा

लवली कुमारी के ब्लाग संचिका पर उन का आलेख स्त्रियों में मनोरोग पराशक्तियाँ और कुछ विचार पढ़ा। पसंद भी आया। मुझे अपने दो मामाओं के बीच का वार्तालाप स्मरण हो आया।

मेरे मामा जी, पंडित चंदालाल शर्मा शानदार ज्योतिषी थे इलाके में उन का नाम था। हालांकि उन्हों ने इसे पेशा कभी नहीं बनाया। यूँ एक बीड़ी कारखाने के मालिक थे। उन के मित्र वैद्य पं. कृष्णगोपाल पारीक नामी वैद्य थे। उन की स्वयं की औषध शाला थी और भारतीय जड़ी बूटियों के माध्यम  से चिकित्सा पर अधिकार था। उन्हों ने एक आयुर्वेद महाविद्यालय भी कुछ बरस चलाया जिस ने इस क्षेत्र में सैंकड़ों लोगों को वैद्य बनाया। आज भी वे लोग गांवों में चिकित्सा सेवा दे रहे हैं। माँ बैद्य जी को राखी बांधती थीं और वैद्य जी ने उस राखी के रिश्ते को मामा जी से भी बढ़ कर निभाया। आज भी उस परिवार के लोग उस रिश्ते को उसी तरह निभाते हैं।


एक दिन मैं मामा जी से मिलने गया तो वैद्य मामा भी वहीं बैठे थे। दोनों में इस विषय पर वार्तालाप चल रहा था कि लोगों पर जो भूत-प्रेत चढ़ आते हैं उन का क्या इलाज है? मामा जी ने मेरे नाना द्वारा भूत उतारने के किस्से सुनाए। काशी गुरुकुल से विद्या प्राप्त वैद्य मामा कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्हों ने भी एक किस्सा छेड़ दिया। यह किस्सा मुझे इस लिए भी स्मरण रहा क्यों कि यह उस औरत पर से भूत उतारने से संबद्ध था जो उस मकान में रहती थी जिस के पास के मकान में मैं पैदा हुआ था।

उस औरत को अचानक भूत चढ़ने लगा।  पहले पहल ऐसा महिने, दो महिने  में हुआ करता था। फिर आवृत्ति बढ़ती गई। भूत महाराज सप्ताह में दो-तीन बार आने लगे। घर वाले परेशान। एक दिन औरत पर भूत चढ़ा हुआ था कि औरत गली में निकल आई। वैद्य मामा उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने वैसे ही पूछ लिया यह क्या हो रहा है? उन की पूरे मोहल्ले पर ही नहीं पूरे इलाके में धाक थी। उस महिला के पति ने वैद्य मामा से कहा कि 'इसे पिछले चार पांच महिने से भूत चढ़ता है। पहले तो दस-पांच मिनट में उतर जाता था। पर अब तो एक-एक घंटा हो जाता है और सप्ताह में दो-तीन बार चढ़ जाता है। आप के पास कोई इलाज/उपाय हो तो बताएँ। वैद्य मामा  सोच में पड़ गए। थोड़ी देर बाद कहा कि इसे किसी तरह मकान के अंदर कमरे में ले चलो और एक धूपेड़े  (हनुमान जी, माताजी और भैरव मंदिरों में धूप जलाने के लिए रखा जाने वाला मिट्टी का डमरू के आकार का बरतन) में कंडे जला कर रखें।


पति कुछ लोगों की मदद से भूत चढ़ी पत्नी को जैसे-तैसे अपने मकान के कमरे तक ले गया। कुछ ही देर में मामा वैद्य जी वहाँ पहुँच गए। उन्हों ने कमरे का निरीक्षण किया कमरे में हवा-रोशनी आने के लिए दरवाजे के अलावा केवल एक खिड़की थी। उन्हों ने खिड़की को बंद करवा दिया। तब तक धूपे़ड़े में जल चुके कंडे आग में बदल चुके थे। वैद्य जी ने उस आग में कुछ डाला तो तेज गंध आई। वैद्य जी ने सब को कमरे से बाहर निकाला और धूपेड़ा कमरे में ले गए। औरत जोर से चिल्लाने लगी -मुझे कौन भगाने आया। मैं न जाउँगा। मिनट भर बाद ही एक कागज की पुड़िया में से कोई दवा उन्हों ने धूपेड़े में डाली और फौरन कमरे से बाहर आ कर दरवाजे के किवाड़ लगा कर कुंडी लगा दी। अंदर से औरत के चिल्लाने की आवाजें आईँ। फिर वह जोरों से खाँसने लगी। फिर उस के खाँसने की आवाज भी बंद हो गई। वैद्य जी ने तुंरत लोगों को दूर जाने को कहा और किवाड़ व खिड़की खोल दी। अंदर से बहुत सा धुँआ निकला। जो भी उस की चपेट में आया वही खाँसने लगा। औरत अचेत पड़ी थी।  वैद्य जी ने उस औरत के पति को कहा कि उसे खुले में ले आएँ। कुछ देर में यह ठीक हो जाएगी। तभी औरत ने आँखें खोली और सामान्य हो गई। लोगों को देख घूंघट कर लिया। उस का भूत उतर चुका था।

वैद्य मामा ने जब किस्सा सुना चुके तो मैं ने पूछा आखिर आप ने किया क्या था? कहने लगे  -मैं ने बस थोड़ा सा लाल मिर्चों का पाऊडर धूपेड़े में डाला था। जिस के धुँए से औरत बेहाल हो कर बेहोश हो गई। होश में आई तो उस का भूत उतर गया था।
-और उस औरत को कुछ हो जाता तो? मैं ने पूछा।
मैं वहीं था। इलाज कर देता।
फिर कभी उस औरत को भूत चढ़ा या नहीं? मैं ने जिज्ञासावश पूछा।
वैद्य मामा ने बताया कि भूत तो फिर भी उस पर चढ़ता था। लेकिन तभी जब मैं गाँव में नहीं होता था। शायद भूत मुझ से डर गया था।

शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

रेत के धोरों के गान ! अलविदा .....! अलविदा ...! अलविदा ...!

मैं ने रेत की खूबसूरती देखी थी, आप ने भी जरूर देखी होगी। अगर आप ने सुनीलदत्त और अमिताभ की 'रेशमा और शेरा' या शाहरुख की 'पहेली' देखी हो। चित्रों और फिल्मों में रेत बहुत खूबसूरत लगती है।  मैं ने भी उसे चित्रों और परदे पर ही देखा था। लेकिन फिर मैं ने रेत का गान सुना। हाँ,  रेत  के धोरों को गाते सुना। हरीश 'भादानी' जी के मुहँ से मैं ने रेत का गान सुना। वह प्यास के गीत गाती थी, अदम्य प्यास के गीत, वह रोटी के गीत गाती थी। वह अकुलाते हुए गाती थी। वह मशाल जलाते हुए गाती थी। वह काली अंधियारी रात में सुबह के गीत गाती थी। वह रेत थी निहायत रेत, जो पानी के लिए तरसती, तड़पती थी। पानी का एक अणु भी उस के पास न ठहरता था। वह गान गाने वाला नहीं रहा। अब कौन गाएगा रेत के उन गीतों को? कौन प्यास के गीत गाएगा?

माध्यमिक हिन्दी की किताब में उन का गीत पढ़ा था। उसे गाया भी था। उसे सुबह होने के पहले जब घूमने निकलता तो अक्सर ऊंचे स्वर में गाता था .......


भोर का तारा उगा है
नींद की साँकळ उतारो 
किरन देहरी पर खड़ी है
जाग जाने की घड़ी है

हरीश जी ही गा सकते थे -

फिर हवा में घुल गई है रेत
किरकिरी की हर रड़क पर आप

दो अक्टूबर की सुबह महेन्द्र 'नेह' से खबर मिली कि हरीश जी नहीं रहे। मैं कुछ नहीं कहूँगा उन पर। पर वे उन कवियों में एक थे जो मेरे सब से अधिक पसंदीदा हैं। उन्हों ने जन के गीत गाए। अधिक नहीं लिखूंगा।  उन पर अनेक पोस्टें आ चुकी हैं। खबर मिली तब तक बिजली जा चुकी थी,  किसानों को बिजली देने के लिए शहरियों की चार घंटे की कटौती। पर शायद किसानों ने उस का उपयोग  नहीं किया। कहाँ करते। फसलें तो पहले ही बिन पानी के सूरज के ताप में जल चुकी हैं। बिजली एक घंटे में ही लौट आई।

बापू और शास्त्री जी का जन्मदिन था। मैं इसे स्वच्छता दिवस के रूप में मनाता रहा हूँ। कभी घर में, कभी मुहल्ले भर के साथ अपना ऑफिस या मुहल्ले की नालियाँ साफ करते हुए। आज अपना ऑफिस साफ किया/करवाया। कंप्यूटर और ब्रॉड बैंड ने महिनों बाद चैन की साँस ली। सुबह के अलग हुए उन के तार  आधी रात के कुछ ही पहले जुड़े हैं। बहुत धूल गई है फेफड़ों में उस का नशा है और थकान का भी।

दिन भर हरीश जी के गीत याद आते रहे। सफाई के दौरान उन का गीत संग्रह रोटी नाम सत है भी हाथ लग
 गया। एक गीत उसी से आप के लिए .......

राजा दरजी

मेरी खातिर 
अब त सियो कमीज राजा दरजी !


तीसों बरस बनाते गुजरे 
बीस गजी अचकन
खादी टाट समेट ले गए
खूब करी कतरन,
मुझे मिली केवल लंगोटी 
राजा दरजी !


बाहर बटन भीतरी अस्तर
चेपा मुझे गया,
जहाँ जहाँ भी दिखे कोचरे 
तीबा मुझे गया,
चुकने को है अब तेरा धागा
राजा दरजी!

नापी नहीं कभी भी तुमने 
कितनी आँत बड़ी,
जितनी दी पोशाकें तुमने 
तन पर नहीं अड़ीं
बहुत चलाई अब न चलेगी 
राजा दरजी !

  • हरीश भादानी

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

शिवराम ने साबित किया कि 'जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता'

शिवराम की नाट्य पुस्तकों 'गटक चूरमा' और 'पुनर्नव' का लोकार्पण समारोह - एक रपट




शिवराम के नाटक संग्रह 'गटक चूरमा' और नाट्य रूपांतरणों के संग्रह 'पुनर्नव' के लोकार्पण का अवसर था। मुख्य अतिथि थे, 'विकल्प' अखिल भारतीय जन सांस्कृतिक व सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर, बिहार के मानविकी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि'। उन्हों ने कहा कि शिवराम ने रंगकर्मियों की मांग पर नाट्य सृजन किया, वह भी केवल एक रात में, उस की नाट्य प्रस्तुति तीन दिन बाद ही होनी थी। नाट्य दल ने दो दिन के रिहर्सल के बाद उसे सफलता पूर्वक खेला। इस तरह यह साबित किया कि जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता। वह जनता की सामाजिक मांग पर लिखता है और उसकी पूर्ति करता है। इसी लिए उन्हें जन नाट्यकार कहा जाता है। यही नहीं शिवराम की जनता की ग्राह्य क्षमता पर ग़जब की पकड़ है। शिवराम किसी भी बात को अपने नाटक में इतने सहज तरीके से रखते हैं कि वे न केवल दर्शकों को प्रभावित करते हैं, अपितु उन्हें प्रेरित भी करते हैं। उन के नाटकों को बड़े से बड़े मंच पर पूरी साज-सज्जा और साधनों के साथ पेश किया जा सकता है, तो बिना किसी साधन के किसी गांव में अलाव की रोशनी में भी खेला जा सकता है।  दोनों ही रूपों में उन के नाटक समान रूप से प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि उन के बिहार पहुँचने के बहुत पहले ही उन के नाटकों ने बिहार के नाट्यकर्मियों और दर्शकों के दिलों में स्थान बना लिया था। शिवराम ने मुंशी प्रेमचंद की कतिपय कहानियों का नाट्य रूपांतरण करके उन्हें आज के संदर्भों में महत्वपूर्ण तो बनाया ही है, अपने संपूर्ण रचनाकर्म से सामाजिक क्रियाशीलता से उन की परंपरा को आगे बढ़ाया है।

डा़. रवि ने कहा कि शिवराम की रचनाओं में वर्तमान समय की सभी समस्याएँ मूर्त होती हैं, वे उन के परिणाम और समाधान के विकल्प प्रस्तुत करती हैं।  वर्गीय समाज में साहित्य भी वर्गीय पक्षों का प्रतिनिधित्व करता है।  शिवराम का रचनाकर्म उन की जनपक्षधरता को बखूबी सामने रखता है।  उन के नाटकों में प्रचुर रूप से उपस्थित हास्य-व्यंग्य उन्हें लोकप्रिय और लोकरंजक बनाता है। उन्हों ने सूचना दी कि उन के विश्वविद्यालय ने हाल ही में एक विद्यार्थी को 'शिवराम के नुक्कड़ नाटकों का सामाजिक अध्ययन' विषय पर शोध के लिए पीएचडी की उपाधि प्रदान की है।  इस सूचना पर समारोह स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।


पुस्तकों का लोकार्पण समारोह अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच और 'विकल्प' कोटा ने 'कला दीर्घा' के ह़ॉल में आयोजित किया था। कोटा के सभी साहित्य-कला कर्मी उन्हें कितना मान देते हैं और प्यार करते हैं, इस का पैमाना वहाँ उपस्थित लोग थे, जिनके कारण हॉल छोटा पड़ गया था। बहुत लोगों को हॉल के बाहर ही खड़े रहना पड़ा। समारोह का शुभारंभ मशाल प्रदीप्त कर के किया गया। जिसे स्वयं डॉ. रवि ने समारोह स्थल के बाहर ला कर रोपा।

लोकार्पित पुस्तकों पर वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कवि-व्यंग्यकार अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि शिवराम मात्र एक नाटककार नहीं अपितु संपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। उन्हें रंगमंच और अपने दर्शक-पाठक के मन, रुचि और आवश्यकता की गहरी समझ है। वे नाटकों में गीतों की भाषा का उपयोग करते हैं, उन्हें अपने माध्यम की गहरी समझ है और उस पर मजबूत पकड़ भी। इन में वे समसामयिक समस्याओं को उठाते हैं। वे  'ग्लोबल साहब' और 'एटमी जी' जैसे नए शब्द तथा पात्र गढ़ते हैं जो लोगों के वर्गों और समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं।


बिहार से ही आईं विशिष्ठ अतिथि डॉ. मंजरी वर्मा ने कहा कि बिहार में कोटा को दो कारणों से जाना जाता है। कोचिंग के लिए और शिवराम के नाटकों के लिए।  उन के नाटक गाँव-गाँव में खेले जाते हैं और सामाजिक परिवर्तनकारी प्रभाव पैदा करते हैं। बिहार के कुछ गांवों ने तो उन के नाटकों से प्रेरणा प्राप्त कर बरसों पहले यह  तय किया कि गांव में कोई विवाह में दहेज न लेगा और न देगा। वहाँ विवाह पूरे समाज का दायित्व और समारोह बन चुके हैं, जिस में विवाह करने वाले परिवार को कोई आर्थिक बोझा नहीं उठाना पड़ता।  उन के नाटक देश भर के जनआंदोलनों के एक प्रभावी हथियार की साख रखते हैं।

नाट्यकर्मी संदीप राय ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी के शिवराम द्वारा किए गए नाट्य रूपान्तरण 'ठाकुर का कुआँ' के अन्तिम दृश्य की गीत पंक्तियां सस्वर प्रस्तुत कीं...

धुआँ ही धुआँ
धुआँ ही धुआँ
जाति-धर्म भेदभाव
धुआँ ही धुआँ
लिंग-वर्ण भेदभाव
धुआँ ही धुआँ
ठाकुर का कुआँ 
ठाकुर का कुआँ।


उन्हों ने बताया कि किस तरह शिवराम काव्य और गीत पंक्तियों का उपयोग कर, नाटक के प्रभाव को दर्शक के अंतर तक पहुँचा देते हैं। उन्हों ने नाटक हम लड़कियाँ के प्रारंभ और समापन गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं....
हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ

हम मुस्काएँ जग मुस्काए
हम चहकें जग खिल-खिल जाए
तपता सूरज बीच गगन में 
पुलकित और मुदित हो जाए....
हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ
तूफानों से टक्कर लेती लड़कियाँ
हम रचें विश्व को, सृजन करें हम

दें खुशी जगत को, कष्ट सहें हम
पीड़ा के पर्वत से निकली 
निर्मल सरिता सी सदा बहें
दें अखिल विश्व को जीवन सौरभ
प्रेम के सागर की उद्गम हम 
फिर भी हिस्से आएँ हमारे सिसकियाँ
हम लड़कियाँ,हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ !

शिवराम ने इस अवसर पर कहा कि उन की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ कभी भी उन के रचनाकार पर हावी नहीं रहीं।  उन के प्राथमिक नाटकों ने पीड़ित दर्शकों में संगठित हो कर मुकाबला करने की चेतना जगाई और  वे  खुद उन के आंदोलनों से जुड़ गए। समय और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप रचना कर्म करने के परिणाम स्वरूप ही वे आज  इस स्थान पर पहुँचे हैं। उन्हों ने कहा कि साहित्य की सभी विधाएँ तभी सोद्देश्य हैं जब वे अपनी सार्थकता जनपक्षधरता और जनआंदोलनों में खोजती हैं।

समारोह के अध्यक्ष मंडल के सदस्य डॉ़. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने कहा कि शिवराम के नाटक लोक से उत्पन्न हैं, लोक के बीच ही खेले जाते हैं और लोक को ही समर्पित हैं। अध्यक्ष मंडल के  अन्य सदस्यों शैलेन्द्र चौहान और मास्टर राधाकृष्ण ने भी अपने अभिमत प्रस्तुत किए। विकल्प के शकूर 'अनवर' ने स्वागत वक्तव्य दिया और धन्यवाद ज्ञापन चांद 'शैरी' ने।  समारोह का सफल संचालन महेन्द्र 'नेह'  ने किया।
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दोनों नाटक पुस्तकों की प्रतियाँ स्वयं शिवराम से या प्रकाशक से मंगाई जा सकती हैं। उन के पते सुविधा के लिए यहाँ दिए जा रहे हैं।
  • शिवराम, 4-पी-46, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) 
  • बोधि प्रकाशन, ऐंचारा बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)
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