मैं ने रेत की खूबसूरती देखी थी, आप ने भी जरूर देखी होगी। अगर आप ने सुनीलदत्त और अमिताभ की 'रेशमा और शेरा' या शाहरुख की 'पहेली' देखी हो। चित्रों और फिल्मों में रेत बहुत खूबसूरत लगती है। मैं ने भी उसे चित्रों और परदे पर ही देखा था। लेकिन फिर मैं ने रेत का गान सुना। हाँ, रेत के धोरों को गाते सुना। हरीश 'भादानी' जी के मुहँ से मैं ने रेत का गान सुना। वह प्यास के गीत गाती थी, अदम्य प्यास के गीत, वह रोटी के गीत गाती थी। वह अकुलाते हुए गाती थी। वह मशाल जलाते हुए गाती थी। वह काली अंधियारी रात में सुबह के गीत गाती थी। वह रेत थी निहायत रेत, जो पानी के लिए तरसती, तड़पती थी। पानी का एक अणु भी उस के पास न ठहरता था। वह गान गाने वाला नहीं रहा। अब कौन गाएगा रेत के उन गीतों को? कौन प्यास के गीत गाएगा?
माध्यमिक हिन्दी की किताब में उन का गीत पढ़ा था। उसे गाया भी था। उसे सुबह होने के पहले जब घूमने निकलता तो अक्सर ऊंचे स्वर में गाता था .......
भोर का तारा उगा है
नींद की साँकळ उतारो
किरन देहरी पर खड़ी है
जाग जाने की घड़ी है
हरीश जी ही गा सकते थे -
फिर हवा में घुल गई है रेत
किरकिरी की हर रड़क पर आप
दो अक्टूबर की सुबह महेन्द्र 'नेह' से खबर मिली कि हरीश जी नहीं रहे। मैं कुछ नहीं कहूँगा उन पर। पर वे उन कवियों में एक थे जो मेरे सब से अधिक पसंदीदा हैं। उन्हों ने जन के गीत गाए। अधिक नहीं लिखूंगा। उन पर अनेक पोस्टें आ चुकी हैं। खबर मिली तब तक बिजली जा चुकी थी, किसानों को बिजली देने के लिए शहरियों की चार घंटे की कटौती। पर शायद किसानों ने उस का उपयोग नहीं किया। कहाँ करते। फसलें तो पहले ही बिन पानी के सूरज के ताप में जल चुकी हैं। बिजली एक घंटे में ही लौट आई।
बापू और शास्त्री जी का जन्मदिन था। मैं इसे स्वच्छता दिवस के रूप में मनाता रहा हूँ। कभी घर में, कभी मुहल्ले भर के साथ अपना ऑफिस या मुहल्ले की नालियाँ साफ करते हुए। आज अपना ऑफिस साफ किया/करवाया। कंप्यूटर और ब्रॉड बैंड ने महिनों बाद चैन की साँस ली। सुबह के अलग हुए उन के तार आधी रात के कुछ ही पहले जुड़े हैं। बहुत धूल गई है फेफड़ों में उस का नशा है और थकान का भी।
दिन भर हरीश जी के गीत याद आते रहे। सफाई के दौरान उन का गीत संग्रह रोटी नाम सत है भी हाथ लग
गया। एक गीत उसी से आप के लिए .......
राजा दरजी
मेरी खातिर
अब त सियो कमीज राजा दरजी !
तीसों बरस बनाते गुजरे
बीस गजी अचकन
खादी टाट समेट ले गए
खूब करी कतरन,
मुझे मिली केवल लंगोटी
राजा दरजी !
बाहर बटन भीतरी अस्तर
चेपा मुझे गया,
जहाँ जहाँ भी दिखे कोचरे
तीबा मुझे गया,
चुकने को है अब तेरा धागा
राजा दरजी!
नापी नहीं कभी भी तुमने
कितनी आँत बड़ी,
जितनी दी पोशाकें तुमने
तन पर नहीं अड़ीं
बहुत चलाई अब न चलेगी
राजा दरजी !
- हरीश भादानी












