पिछले महीने की इकत्तीस तारीख से कोटा के वकील हड़ताल पर चल रहे हैं। हम भी साथ साथ हैं। रोज अदालत जाते हैं। वहाँ कोई काम नहीं, बस धरने पर बैठो, या अपने पटरे पर, या फिर दोस्तों के साथ चाय-कॉफी की चुस्कियाँ मारो। क्या फर्क पड़ता है? पर दिनचर्या बिगड़ गई है। जब काम ही नहीं होना है तो रोज फाइलें कौन निकाले और देखे। फाइलें अलमारी में पड़े पड़े आराम फरमा रही हैं। मुवक्किल भी फोन से पूछ रहे हैं कि हम आएँ या बिना आए काम चल जाएगा? अभी अदालतें सख्ती नहीं कर रही, शायद दुगने-चौगुने काम के बोझ से मारी अदालतें भी हड़ताल से मिले आराम का लाभ उठा रही हैं। मुवक्किलों की भीड़ अदालत में कुछ कम है। मुंशी जाते हैं, तारीख ले आते हैं। किसी मुवक्किल को जल्दी होती है तो उस की दरख्वास्त पेश कर देते हैं। किसी की जमानत करानी होती है तो मुंशी अर्जी पेश कर देता है, वही फार्म भर देता है। अदालतें हैं कि बिना वकीलों का तनाव झेले बने बनाए ढर्रे पर जमानत ले लेती है, मुलजिम बाहर आ जाता है। जिस ने थोड़ा भी संगीन अपराध किया हो वह मुश्किल में हैं, उस की जमानत अटकी है। पुराना खुर्राट मुंशी एक जूनियर वकील को सलाह देता हुआ हमने सुन लिया "वकील साहब! मुवक्किलों को तो जरूर बुलाया करो। आएंगे तो कुछ तो नामा-पानी कर जाएंगे। वरना हड़ताल में सब्जी कहाँ से आएगी। दीवानी और गैरफौजदारी मुकदमों में कोई कार्यवाही नहीं हो रही है।
भले ही हड़ताल हो पर पेट हड़ताल नहीं करता। बिजली, पानी टेलीफोन वाले भी उन के बिल नहीं रोकते। पर भला हो उन मुवक्किलों का जो हड़ताल के वक्त अपने वकीलों का खयाल रखते हैं, फीस दे जाते हैं, कुछ तो इतने उदार हैं कि इस वक्त में ज्यादा भी दे जाते हैं। शायद वकील साहब बुरे वक्त में पाए पैसे की लाज रख लें। कुछ ज्यादा तवज्जो उस के मुकदमे पर दें।
हड़ताल तो कोटा के वकील छह साल से करते आए हैं, महीने के आखिरी शनिवार को। चाहते हैं, कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खुल जाए। छह साल से एक हड़ताल चल रही है। किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। वह स्वैच्छिक अवकाश जैसी चीज बन गई है। लेकिन हड़ताल बदस्तूर जारी है। कभी तो बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा। कभी तो हाईकोर्ट और उस की एक बैंच की कमर फाइलों के बोझ से दोहरी होने लगेगी। कभी तो सरकार सोचेगी ही कि और भी बैंचें बनाई जाएँ। वैसे भी बीस बीस जजों को दो जगह बिठाने से क्या फायदा? इस की जगह दस दस जजों को चार जगह बिठा दिया जाए तो जनता को तो सुविधा होगी ही। यह सीधे-सीधे डेमोक्रेसी के डीसेंट्रलाइजेशन का मामला बनता है। पर अभी हड़तालियों का ध्यान अपनी मांग के इस लोजीकल प्रेजेंटेशन की तरफ नहीं गया है।
काम के दिनों में फुरसत निकलती थी। सब समझते थे कि वकील साहब काम में व्यस्त हैं। इधर जब से हड़ताल का पता लगा है। पत्नी से ले कर दोस्तों तक को वकील साहब फुरसत में नजर आ रहे हैं। हर कोई हमारी फुरसत पर पिले पड़ा है। पत्नी को दिवाली की सफाई के काम में हाथ बंटवाना है. दोस्तों को कुछ खास काम निकलवाने हैं। कुछ मुवक्किल भी इसी इंतजार में बैठे थे, वे भी चक्कर लगाने लगे हैं। शायद बहुत दिनों से क्यू में इंतजार कर रहे उन के काम की बारी आ जाए। सब हमारी फुरसत पर निगाह जमाए बैठे हैं। कब मौका मिले और हमारी फुरसत हथिया लें। मुश्किल से अब जा कर उन का मौका जो लगा है। फुरसत पर डाका पड़ रहा है। इस डाके के लिए किसी थाने में रिपोर्ट, तफ्तीश और चालान का कायदा भी नहीं है।