@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

फुरसत पर डाका


पिछले महीने की इकत्तीस तारीख से कोटा के वकील हड़ताल पर चल रहे हैं। हम भी साथ साथ हैं। रोज अदालत जाते हैं। वहाँ कोई काम नहीं, बस धरने पर बैठो, या अपने पटरे पर, या फिर दोस्तों के साथ चाय-कॉफी की चुस्कियाँ मारो। क्या फर्क पड़ता है? पर दिनचर्या बिगड़ गई है। जब काम ही नहीं होना है तो रोज फाइलें कौन निकाले और देखे। फाइलें अलमारी में पड़े पड़े आराम फरमा रही हैं। मुवक्किल भी फोन से पूछ रहे हैं कि हम आएँ या बिना आए काम चल जाएगा? अभी अदालतें सख्ती नहीं कर रही, शायद दुगने-चौगुने काम के बोझ से मारी अदालतें भी हड़ताल से मिले आराम का लाभ उठा रही हैं। मुवक्किलों की भीड़ अदालत में कुछ कम है।  मुंशी जाते हैं, तारीख ले आते हैं। किसी मुवक्किल को जल्दी होती है तो उस की दरख्वास्त पेश कर देते हैं। किसी की जमानत करानी होती है तो मुंशी अर्जी पेश कर देता है, वही फार्म भर देता है। अदालतें हैं कि बिना वकीलों का तनाव झेले बने बनाए ढर्रे पर जमानत ले लेती है, मुलजिम बाहर आ जाता है। जिस ने थोड़ा भी संगीन अपराध किया हो वह मुश्किल में हैं, उस की जमानत अटकी है। पुराना खुर्राट मुंशी एक जूनियर वकील को सलाह देता हुआ हमने सुन लिया "वकील साहब! मुवक्किलों को तो जरूर बुलाया करो। आएंगे तो कुछ तो नामा-पानी कर जाएंगे। वरना हड़ताल में सब्जी कहाँ से आएगी। दीवानी और गैरफौजदारी मुकदमों में कोई कार्यवाही नहीं हो रही है।

भले ही हड़ताल हो पर पेट हड़ताल नहीं करता। बिजली, पानी टेलीफोन वाले भी उन के बिल नहीं रोकते। पर भला हो उन मुवक्किलों का जो हड़ताल के वक्त अपने वकीलों का खयाल रखते हैं, फीस दे जाते हैं, कुछ तो इतने उदार हैं कि इस वक्त में ज्यादा भी दे जाते हैं। शायद वकील साहब बुरे वक्त में पाए पैसे की लाज रख लें। कुछ ज्यादा तवज्जो उस के मुकदमे पर दें।

हड़ताल तो कोटा के वकील छह साल से करते आए हैं, महीने के आखिरी शनिवार को। चाहते हैं, कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खुल जाए।  छह साल से एक हड़ताल चल रही है। किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। वह स्वैच्छिक अवकाश जैसी चीज बन गई है। लेकिन हड़ताल बदस्तूर जारी है। कभी तो बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा। कभी तो हाईकोर्ट और उस की एक बैंच की कमर फाइलों के बोझ से दोहरी होने लगेगी। कभी तो सरकार सोचेगी ही कि और भी बैंचें बनाई जाएँ। वैसे भी बीस बीस जजों को दो जगह बिठाने से क्या फायदा? इस की जगह दस दस जजों को चार जगह बिठा दिया जाए तो जनता को तो सुविधा होगी ही। यह सीधे-सीधे डेमोक्रेसी के डीसेंट्रलाइजेशन का मामला बनता है। पर अभी हड़तालियों का ध्यान अपनी मांग के इस लोजीकल प्रेजेंटेशन की तरफ नहीं गया है।


काम के दिनों में फुरसत निकलती थी। सब समझते थे कि वकील साहब काम में व्यस्त हैं। इधर जब से हड़ताल का पता लगा है। पत्नी से ले कर दोस्तों तक को वकील साहब फुरसत में नजर आ  रहे हैं।  हर कोई हमारी फुरसत पर पिले पड़ा है। पत्नी को दिवाली की सफाई के काम में हाथ बंटवाना है. दोस्तों को कुछ खास काम निकलवाने हैं।  कुछ मुवक्किल भी इसी इंतजार में बैठे थे, वे भी चक्कर लगाने लगे हैं। शायद बहुत दिनों से क्यू में इंतजार कर रहे उन के काम की बारी आ जाए।  सब हमारी फुरसत पर निगाह जमाए बैठे हैं।  कब मौका मिले और हमारी फुरसत हथिया लें। मुश्किल से अब जा कर उन का मौका जो लगा  है। फुरसत पर डाका पड़ रहा है। इस डाके के लिए किसी थाने में रिपोर्ट, तफ्तीश और चालान का कायदा भी नहीं है।

सोमवार, 21 सितंबर 2009

कुछ संवाद 'गटक चूरमा' नाटक से .....

- अपने वो वकील साहब हैं न?
- कौन?
- अरे ! वो ही, जो 'तीसरा खंबा' पे कानूनी बात बतावत हैं, और 'अनवरत' पर भी न जाने क्या क्या लिक्खे हैं।
- हाँ, हाँ वही न, जो सिर से गंजे हो कर भी 'शब्दों का सफर' में सरदार बने बैठे हैं?
- हाँ, वो ही।
- वो दो दिन से कुच्छ भी ना लिख रहे, अनवरत खाली पड्यो है।
- क्या? दो दिन में लिखने को कुच्छ ई ना मिल्यो उन को? आज तो बड़्डे-बड्डे मौके थे जी। एक तो पाबला जी को जनम दिन थो, दूजो करीना कपूर को, तीजो ईद को। कच्छु नाहीं तो मुबारक बाद ही लिक्ख मारते!
-एक दिन तो निकल गयो, शिबराम जी की नाटकाँ की किताबाँ का लोकार्पण में।
-आज दफ्तर में काम करने बैठ गए जी, फेर साम को कोई से मिलने-जुलने निकल गए जी। अब खा पी के लोकार्पण हुई किताब बाँच रहे हैं।
- कौन सी किताब बाँच रिये हैं जी?
- वो, ही जी, का कहत हैं उसे ..... "गटक चूरमा"।
- अब ये गटक चूरमा  का होवे जी?
- य्हाँ तो किताब और नाटक को नाम है जी। पर जे एक चूरन होवे, जो मुहँ में फाँके तो खुद बे खुद पानी आवे और गले से निच्चे उतर जावे।
- वो तो ठीक, पर ई किताब में का लिक्खो होगो?
- चल्ल वा वकील साब से ही पूच्छ लेवें।
- चल!
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- वकील साब! गटक चूरमा पढ़ो हो। कच्छु हमें ही सुना देब, दो-च्चार लाइन।
- तो सुनो.....


भोपा और भोपी, वे ही जो राजस्थान में फड़ बांच सुनावें। रामचंदर के गांव बड़ौद पहुंच गए हैं। जबरन रामचंदर के बेटी जमाई भी बन लिए। अब रामचंदर ले जा रहा है उन्हें अपने घर। रास्ते में कुत्ता भोंकता है।
रामचंदर-  तो ..... तो....... (कहते हुए पत्थर मार कर कुत्ते को भगाता है और कहता है) मेहमान हैं, नालायक कोटा से आए हैं ... (फिर भोपा-भोपी से मुखातिब हो कर) कुत्ते हैं, नया आदमी देखते हैं तो भोंकते हैं। कुत्ते तो कोटा में भी भोंकते होंगे।
भोपी- ना, हमारे यहाँ तो काटते हैं, फफेड़ देते हैं, पेट में चौदह इंजेक्शन लगें। नहीं तो कुत्ते के साथ ही जै श्री राम!
भोपा- नही, ये तो झूठ बोलती है। हमारे यहाँ तो कुत्ते दुम हिलाते हैं और पैर चाटते हैं।
भोपी- चाटते हैं, पर बड़े लोगों के। छोटे लोगों को देख कर तो ऐसे झपटते हैं जैसे पुलिस।
भोपा- ऐ भोपी, तू पालतू कुत्तों की बात कर रही है और यहाँ बात चल रही है गली मोहल्ले के कुत्तों की। समझती नहीं है क्या।
रामचंदर- सच कहते हो भाई। उन कुत्तों की तो किस्मत ही निराली है, जो कोठी-बंगलों में रहते हैं। किसन बता रहा था कि बड़े ठाट हैं भाई उन के। हम से तो वे कुत्ते ही बढ़िया।
भोपा- बढ़िया? पाँचों अंगुली घी में...।
भोपी- अरे! मेरे राजा, पाँचों नहीं दसों अंगुलियाँ घी में। साहब और मेम साहब अपने हाथों मालिस करें, नहलावें-धुलावें, बाथरूम, टॉयलट करावें...।
भोपी- (रामचंदर से) मतलब टट्टी पेशाब करावें।
(रामचंदर हँसता है)
भोपी- फस्सकिलास खाना खिलाएँ और गद्दों पर सुलाएँ।
भोपा- और झक्क सैर कराने ले जाएँ।
भोपी- आगे आगे कुत्ता और पीछे-पीछे साब।
भोपी- वाह! क्या दृश्य बनता है।
पता नहीं चल पाता कि इनमें कुत्ता कौन है और साहब कौन...।
(भोपा और रामचंदर ठठा कर हँस पड़ते हैं)
-बस भाई इत्ता ही। वकील साब बोले। आगे या तो किताब खुद बाँचो या फिर कहीं नाटक खेला जाए तो देखो। नहीं तो किताब मंगाओ और खुद खेलो।


भोपा-भोपी
और अंत में-
सब से पहले टिप्पणीकारों, फिर गैरटिप्पणीकार पाठकों और फिर ब्लागर भाइयों को ईद-उल-फित्र की बधाई और शुभकामनाएँ। 
राम! राम!
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शनिवार, 19 सितंबर 2009

अपना मुख जन-गण की ओर -शिवराम


 आज  शिवराम के नाटकों की दो पुस्तकों 'गटक चूरमा' (मूल्य 35 रुपए) और 'पुनर्नव' (मूल्य 50 रुपए) का लोकार्पण है। इन में सम्मिलित सभी नाटक खेले जा चुके हैं और उन का नाटकीय आवश्यकताओं के अनुसार पुनर्लेखन भी हुआ है।  सभी नाटक किसी भी नाटक रूप में खेलने के लिए आदर्श हैं। मैं चाहता था कि इस अवसर पर इन नाटकों के बारे में कुछ लिखूँ। जब मैं उन्हें इस हेतु फिर से पढ़ने बैठा तो लगा कि उन पर कुछ लिखने से बेहतर होगा कि 'गटक चूरमा' की भूमिका में लिखा गया शिवराम का आलेख यहाँ प्रस्तुत करना अधिक प्रासंगिक होगा।  उसे ही बिना किसी टिप्पणी के यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ......

हिन्दी जगत की सक्रिय नाट्य संस्थाओं की सब से बड़ी समस्या कोई है तो वर्तमान  संदर्भों में प्रासंगिक नाटकों की।  नाटक कम लिखे जा रहे हैं। पुराने नाटकों की प्रासंगिकता कम दिखाई देती है। दूसरी भाषाओं से अनुवाद अपनी जगह पर है, पर अपनी भाषा में रचे गए नाटकों का दर्शकों के साथ जो सांस्कृतिक तादात्म्य बनता है वह अनुदित नाटकों का नहीं बनता इसलिए यह भी हो रहा है कि नाट्य दल इम्प्रोवाइजेशन पद्धति से किसी एक थीम या आईडिया पर सामूहिक रूप से आलेख तैयार करते हैं और इस तरह नाटकों के अभाव की पूर्ति करते हैं। लेकिन समर्थ लेखक द्वारा नाट्य रचना का सृजन भिन्न प्रकार की रचना प्रक्रिया है, जीवनानुभव, जीवन दर्शन और मानवीय संवेदनाओं के क्रिया व्यापार के बेहतर समुच्चय की संभावना वहाँ अधिक बनती है। प्रस्तुति के लिए तैयारियों के दौरान निर्देशक और कलाकारों का व्यवहार मंच की आवश्यकतानुसार  उस समृद्ध करता ही है, लेकिन यदि उन के पास 'थीम' या 'आईडिया' के बजाय नाटक-रचना उपलब्ध हो और वे उस पर काम शुरू करें तो यह उन के लिए भी अधिक सुविधाप्रद रहता है और बेहतर नाट्य प्रस्तुति के लिए भी अधिक उपयुक्त रहता है। जाहिर है हिन्दी में वर्तमान सामाजिक यथार्थ पर आधारित नाटकों की जरूरत है।

जो लोग सामाजिक दायित्वबोध से संचालित हैं और जनता के बीच सास्कृतिक-सामाजिक आंदोलन निर्मित किए जाने के पक्षधर हैं, उन्हें कलाओं और साहित्य की जनोन्मुखी विधाओं और प्रवृत्तियों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।  अभिजनोन्मुखी साहित्यिक सांस्कृतिक मठाधीशों की दुनिया जनोन्मुखी कला कर्म का उपहास और तिरस्कार करेगी ही, उन्हें अपने काम में लगे रहने दें। भविष्य उसी कला कर्म का है, सार्थकता उसी कलाकर्म की है जो अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करता है। अपना मुख जनगण की ओर रखता है।

नाटक एक ऐसी विधा है जो काव्य भी है और कहानी भी।  मंच पर प्रस्तुति के समय तो सभी कला विधाएँ उस के साथ समुच्चित होने लगती हैं। अतः यह कविता या कहानी से कम महत्वपूर्ण विधा नहीं है। बल्कि अधिक महत्वपूर्ण है। नाट्य रचना कठिन काम है, कविता या कहानी से अधिक कठिन है। वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत में उस का कम मान है तो यह अभिजनोन्मुखता की प्रवृत्तियों के वर्चस्व के कारण है। जिन्हें अभिजन समाज की सेवा चाकरी में अपने कला कर्म को परोसना है और उन से प्राप्त इनामों-इकरामों से जीवन यापन करना है वे अपने इस चारण-विदूषक-चाटुकार कर्म में लगे रहें और कुंठित हो हो कर भूलुंठित होते रहे, उन के दिए ताजों-भूषणों से अलंकृत हो हो कर दुमें ऊँची कर-कर के ऐंठते-गुर्राते रहें। ऐसे लोगों को ठेंगा दिखाओ और हो सके तो इन बेचारों पर दया करो, लेकिन जो साहित्य और कलाओं को मनुष्य के सांस्कृतिक उन्नयन की साधना मानता है और इस हेतु जन-गण को समर्पित है उन की दुनिया अलग है, उन का मार्ग अलग है। कठिनाई तब होती है जब दोनों दुनियाओं में स्थान बनाने की आकांक्षा उछल-कूद करती है। इस दुविधा से मुक्त होना चाहिए। या तो इस और या उस ओर। तिकड़मों, हुक्मरानों की कृपाओं, संसाधनों के बल पर पाए प्रचारों से कुछ समय के लिए अपनी श्रेष्ठता का भ्रम पैदा किया जा सकता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया अंततः वही बचता है, जिसे लोक सहेजता है।

नाटक, गीत, पोस्टर, चित्रकला, आदि जन सांस्कृतिक अभियान के प्रमुख अंग हैं।  हमें इन्हें पुष्ट और समृद्ध करना चाहिए।

ये नाटक ऐसी ही जरूरतों के अंतर्गत लिखे गए हैं। इस संग्रह में चार नाटक हैं; 'गटक चूरमा', 'हम लड़कियाँ', 'बोलो-हल्ला बोलो' और 'ढम ढमा ढम ढम'। 'दुलारी की माँ', एक गाँव की कहानी' और 'रधिया की कहानी' नाटकों को भी मैं इस में शामिल करना चाहता था लेकिन ये तीनों नाटक अलग अलग पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और अभी उपलब्ध भी हैं, इस लिए फिर इन्हें इस संग्रह में शामिल करने का इरादा छोड़ दिया।

ये नाटक मेहनतकश अवाम की जिंदगी, उन की समस्याओं और साम्राज्यवादी भू-मंडलीकरण के यथार्थ से रूबरू होते हैं और दर्शकों को रूबरू कराते हैं। इन्हें नुक्कड़ों, चौपालों, खुले मंचों और रंगमंच पर सभी रूपों में खेला जा सकता है।

'अभिव्यक्ति' नाट्य एवं कला मंच कोटा ने इस पुस्तक के प्रकाशन में दायित्वपूर्ण सहयोग किया है।  सच तो यह है कि मेरे नाटकों को इस संस्था से सम्बद्ध रंगकर्मियों ने मुझ से अधिक जिया है। मैं उन के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ।  मैं उन सभी मित्रों और निर्देशकों का आभारी हूँ, जिन्हों ने  इस हेतु प्रेरणा दी और सहयोग किया। उनि सभी रंग संस्थाओं और रंग कर्मियों का भी मैं आभारी हूँ। जिन्हो ने इन नाटकों की प्रस्तुतियाँ दी और इन्हें जन-नाटक बनाया।

मुझे विश्वास है कि जनता के बीच सक्रिय जनोन्मुखी रंगकर्मी इन नाटकों को उपयोगी पाएँगे।

इन नाटकों के गैर व्यावसायिक मंचन के लिए पूर्व स्वीकृति की आवश्यक नहीं है। मंचन की सूचना् देंगे तो अच्छा लगेगा।
-शिवराम



दोनों नाटक पुस्तकों की प्रतियाँ स्वयं शिवराम से या प्रकाशक से मंगाई जा सकती हैं। उन के पते सुविधा के लिए यहाँ दिए जा रहे हैं।

  • शिवराम, 4-पी-46, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) 
  • बोधि प्रकाशन, ऐंचारा बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

शिवराम की दो और नाट्य पुस्तकें पुनर्नव और गटक चूरमा


हिन्दी नाटक के क्षेत्र में शिवराम जाने माने नाटककार हैं। उन्हों ने नाटक केवल लिखे नहीं है, उन्हें खेला है और जनता के बीच जा कर खेला है।  यह कहा  जा सकता है कि उन्हों ने नाटकों को खेलने  के लिए ही लिखा है। उन  के नाटक केवल रंगमंच के नाटक नहीं हैं। वे जनता के नाटक हैं। जनता उन के नाटकों को देखती है और उन पर प्रतिक्रिया भी करती है। उन के नाटकों की चेतना जनता को अन्याय और शोषण के विरुद्ध संगठित होने और संघर्ष करने की प्रेऱणा देती है। जब उन्हों ने पहले पहल नाटक खेले और खान मजदूर उन के पास आ गए कि नाटक बता कर संगठित होने का संदेशा तो दे दिया लेकिन अब हमें संगठित होने का तरीका भी बताइए। खैर उस वक्त तो उन्हों ने मजदूरों को पास के नगर के ट्रेड यूनियन नेताओं के हवाले कर दिया। लेकिन जल्दी ही उन के अपने विभाग के कर्मचारियों ने उन्हें पकड़ा तो विभाग से  सेवा निवृत्ति के बाद भी उन से पीछा नहीं छूटा है।

शिवराम की छह पुस्तकें पहले आ चुकी हैं। जिन में जनता पागल हो गई है, घुसपैठिए, दुलारी की माँ, एक गाँव की कहानी, राधेया की कहानी नाटकों की पुस्तकें हैं तथा सूली ऊपर सेज सेज पर विवेचनात्मक पुस्तक है। पिछले ही महीने उन के नाटक जनता पागल हो गई है के हाड़ौती अनुवाद जनता बावळी होगी का लोकार्पण हुआ है।  जनता पागल हो गई है उन का वह नाटक है जिस ने उन्हें न केवल हिन्दी प्रदेशों में अपितु संपूर्ण भारत और विदेशों तक में पहुँचाया। इस नाटक को लगभग सभी भारतीय भाषाओं में खेला जा चुका है। राज की बात यह कि इस बन्दे ने भी उस नाटक में एक खासमखास भूमिका  अनेक बार अदा की है।



अब इस बार उन के नाटकों की दो पुस्तकें पुनर्नव और गटक चूरमा बोधि प्रकाशन ने एक साथ प्रकाशित की हैं। 20 सितम्बर को अभिव्यक्ति नाट्य़ मंच और 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच कोटा ने इन दोनों पुस्तकों का लोकार्पण समारोह आयोजित किया है। पुनर्नव में तीन जनप्रिय कहानियों के नाट्य रूपांतरण हैं। जिन में मुंशी प्रेमचंद की ठाकुर का कुआँ, सत्याग्रह और ऐसा क्यूँ हुआ हैं,  तो रिज़वान जहीर उस्मान की खोजा नसरूद्दीन बनारस में और नीरज सिंह की क्यो? उर्फ वक्त की पुकार शामिल हैं। दूसरी पुस्तक में उन के चार मौलिक नाटक गटक चूरमा, बोलो- हल्ला बोलो!,  ढम, ढमा-ढम-ढम और हम लड़कियाँ शामिल हैं।



लोकार्पण समारोह में 'विकल्प' के राष्ट्रीय अध्यक्ष और बी.आर.ए. विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर बिहार के विभागाध्यक्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि' मुख्य अतिथि हैं एल.एस. कॉलेज मुजफ्फरपुर बिहार की डॉ. मंजरी वर्मा विशिष्ट अतिथि हैं, अतुल चतुर्वेदी मुख्य वक्तव्य देंगे. समारोह की अध्यक्षता डॉ. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी और संचालन महेंन्द्र नेह करेंगें। इस समारोह में समकालीन परिस्थितियों और नाटकों पर अच्छा विमर्श होने की संभावना है।
लोकार्पण समारोह की रिपोर्ट और दोनो पुस्तकों का परिचय अनवरत आप को पहुँचाएगा। 

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अश्यी काँई ख्हे दी ब्हापड़ा नें

घणो बवाल मचायो! अश्यी काँईं ख्ह दी।  य्हा ई तो बोल्यो थरूर के कैटल क्लास म्हँ जातरा कर ल्यूंगो।  अब थें ई सोचो;  ब्हापड़ा नें घणी घणी म्हेनत करी। पैदा होबा के फ्हेली ई हिन्दुस्तान आज़ाद होग्यो जी सूँ बिदेस म्हँ पैदा होणी पड्यो। फेर बम्बई कलकत्ता म्हँ पढणी पड़्यो। इत्य्हास मँ डिगरी पास करी व्हा बी अंग्रेजी म्हँ प्हडर। फेर अमरीका ज्यार एम्में अर पीएचडयाँ करणी पड़ी। नरी सारी कित्याबाँ मांडी। जद ज्यार ज्यूएन म्हँ सर्णार्थ्याँ का हाई कमीस्नर बण्यो। फेर परमोसन लेताँ लेताँ कणा काँई सूँ कणा काँईं बण बैठ्यो।  फेर बडी मुसकिल सूँ जुगाड़ भड़ायो अर ज्यू एन का सेकरेटरी जर्नल को चुणाव ज्या लड्यो। ऊँम्हँ भी हारबा को अंदसो होयो तो नाम ई पाछो जा ल्यो।
अब यो अतनो ऊँचो कश्याँ बण्यो? थाँ ईँ याद होव तो बताओ! न्हँ तो म्हूँ बताऊँ छूँ। अतनो बडो आदमी अश्याँ  ई थोड़ी बण ज्याव छे। घणा पापड़ बेलणी पड़ छे, ज्यूएन म्हँ घुसबा कारणे। जमारा भर का मोटा मोटा सेठ पटाणी पड़े छे।  कान काईँ बण ज्याबा प व्हाँ की सेवा करणी पड़े छे। जद परमोसन मले छे। अब अश्याँ परमोसन लेताँ लेताँ दोन्यूँ को गठजोड़ो अतनो गाढ़ो हो ज्यावे छे जश्याँ फेवीकोल को जोड़। दोन्यूँ आडी हाथी अड़ा र खींचे  जद  भी न छूटे। 
अब थाँ ई बोलो! जमारा भर का सेठाँ सूं गठजोड़ो बांधे अर फेर भी व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास म्हाइनें जातरा करे। य्हा कोई जमबा हाळी बात छे कईँ। अब य्हा ई तो गलती होगी, के उँठी ज्यूएन छोडर अठी आ मर् यो। पण काँई करतो ब्हापड़ो, उँठी मंदी की मार पड़ री छी। गठजोड़ा हाळा सन्दा सेठा के ही व्हा गळा में आ री छी तो यो व्हाँ काई करतो। अठी इटली हाळी माता जी नें देखी के यो ज्यूएन को बंदो फोकट म्हँ पल्ले पड़ रियो छे तो ईं ने छोडो मती, पकड़ ल्यो।  व्हाँ ने पकड़्यो अर किसमत नें जोर मारि्यो, अर चुणाव में जीतग्यो। अठी जीत्यो अर उठीं उँ की पौ बारा।  झट्ट सूं सेकिण्ड बिदेस मंतरी जा बणायो। आखर कार ऊँ ने गठजोड़ा को धरम भी तो निभाणो छो। 
अब थें ई बताओ! अतनो बडो आदमी ज्ये जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ो बणावे अर व्हाँ के कारणे सैकिंड बिदेस मंतरी बण के दिखावे। ऊँ से था खेवो के भाया खरचा माथे व्हाई ज्हाज का थर्ड किलास में बैठणी पड़सी। अब माता जी को खेबो भलाईँ न्ह माने पण गठजोड़ा को धरम तो निभाणी पडे। अर माताजी न्हें भी थोड़ी आँख्याँ दखाणी पड़े; के थें यूँ मती सोच जो के म्हूँ थाँ के न्हाईं छूँ। थानें हिन्दूस्तानी व्हाई ज्हाज का डिरेवर सूँ गठजोड़ो बणायो, पण म्हंने तो जमारा भर का सेठाँ सू बणायो छे, आज ताईँ निभायो छे। अर आगे भी निभाबा को पक्को इरादो कर मेल्यो छे। 
थें ई बताओ, के ससी थरूर न्हें काँई झूट बोल्यो? हिन्दुस्तान का व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास गायाँ भैस्याँ के बरोबर छे क कोई न्हँ? थाईं तो याद छे के व्ह परदेसी गायाँ जे पच्चीस-पच्चीस सेर दूध देव व्हाँ के ताँई कूलर एसी म्हँ रखाणणी पड़े छे। अब ससी थरूर साइब के ताईं जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ा को सरूर न्हँ होवेगो तो काँईँ थारे ताँई होवेगो के ?

स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाने और साथ खाने का आनंद

पिताजी को भोजन बनाने, खिलाने और खाने का शौक था। वे अक्सर नौकरी पर रहते और केवल रविवार या किसी त्यौहार के अवकाश के दिन घर आते।  अक्सर मौसम के हिसाब से भोजन बनाते। हर त्यौहार का भोजन भिन्न  होता। गोगा नवमी को कृष्ण जन्मोत्सव पर मालपुए बनते, कभी लड्डू-बाटी कभी कुछ और। हर भोजन में उन के चार-छह मित्र आमंत्रित होते। उन्हें भोजन कराते साथ ही खुद करते।

 श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन कराने का नियम है। लेकिन उस से अधिक महत्व इस बात का है कि उस के उपरांत आप को परिजनों और मित्रों के साथ भोजन करना चाहिए। इस से हम अपने पूर्वजों के मूल्यों व परंपराओं को दोहराते हुए उन का का स्मरण करते है। श्राद्ध के कर्मकांड को एक तरफ रख दें, जिसे वैसे भी अब लोग विस्मृत करते जा रहे है, तो मुझे यह बहुत पसंद है।  मामा जी अमावस के दिन नाना जी का श्राद्ध करते थे। दिन में ब्राह्मण को भोजन करा दिया और सांयकाल परिजन और मित्र एकत्र होते थे तो उस में ब्राह्मणों की अपेक्षा बनिए और जैन अधिक हुआ करते थे। मुझे उन का इस तरह नाना जी को स्मरण करना बहुत अच्छा लगता था। नाना जी को या उन के चित्र को मैं ने कभी नहीं देखा, लेकिन मैं उन्हें इन्हीं आयोजनों की चर्चा के माध्यम से जान सका। लेकिन मेरे मस्तिष्क में उन का चित्र बहुत स्पष्ट है। 

यही एक बात है जो मुझे श्राद्ध को इस तरह करने के लिए बाध्य करती है। आज पिताजी का श्राद्ध था। सुबह हमारे एक ब्राह्मण मित्र भोजन पर थे। शाम को मेरे कनिष्ट, मुंशी और मित्र भोजन पर थे। नाटककार शिवराम भी हमारे साथ थे। उन की याद तो मुझे प्रातः बहुत आ रही थी। यहाँ तक कि कल सुबह की पोस्ट का शीर्षक और उस की अंतिम पंक्ति उन्हीं के नाटक 'जनता पागल हो गई है' के एक गीत से ली गई थी। रविकुमार ने उस गीत के कुछ अंश इस पोस्ट पर उद्धृत भी किए हैं। उन्हों ने न केवल इस पोस्ट को पढ़ा लेकिन यह  भी बताया कि अब नाटक में मूल गीत में एक पैरा और बढ़ा दिया गया है। मेरा मन उसे पूरा यहाँ प्रस्तुत करने का था। लेकिन फिर इस विचार को त्याग दिया क्यों कि अब बढ़ाए गए पैरा के साथ ही उसे प्रस्तुत करना उचित होगा। वह भी उस नाटक की मेरी अपनी स्मृतियों के साथ।  उन्हों ने बताया कि उन के दो नाटक संग्रहों का विमोचन 20 सितंबर को होने जा रहा है। उन पुस्तकों को मैं देख नहीं पाया हूँ। शिवराम ने आज कल में उन के आमुख के चित्र भेजने को कहा है। उन के प्राप्त होने पर उस की जानकारी आप को दूंगा।
फिलहाल यहाँ विराम देने के पूर्व बता देना चाहता हूँ कि शोभा ने पूरी श्रद्धा और कौशल के साथ हमें गर्मागर्म मालपुए, खीर, कचौड़ियाँ, पूरियाँ खिलाईं। शिवराम अंत में कहने लगे आलू की सब्जी इन दिनों बढ़िया नहीं बन रही है लेकिन आज बहुत अच्छी लगी। केवल आलू की सब्जी खा कर भोजन को विश्राम दिया गया। स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाना और साथ खाने के आनंद का कोई सानी नहीं। नगरीय जीवन में यह आनंद बहुत सीमित रह गया है।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

भूख लगे तो गाना गाsssss..आ.sssss.......

मानसून रूठ गया। बरसात नहीं हुई है। सूखा मुहँ बाए खड़ा है। महंगाई रोंद रही है। बहुत लोग हैं जो इस में कमाई का सतूना देख रहे हैं और कर रहे हैं। सरकार स्तब्ध है। कुछ कर नहीं पा रही है। कहती है .... हम इंतजाम कर रहे हैं पर कुछ तो बढ़ेगी। भुगतना होगा। सरकार को भी लगता है भुगतना होगा। सरकार परेशान है। सरकार में बैठी पार्टी परेशान है।

वह रास्ता निकालती है, कम खर्च करो बिजनेस की बजाय इकॉनॉमी में सफर करो। हवाई जहाज को छोड़ो ट्रेन में सफर करो। जनता के लिए यह संदेश है, तुम सफर करना बंद करो, पैसा बचाओ और उस से खाना खरीदो। सरकार मुश्किल में है। और बातें तो ठीक थीं पर मानसून यह न जाने क्यों गले पर आ कर बैठ गया। अब संकट है। वह संकट के उपाय तलाश रही है। 
मीडिया संकट का बड़ा साथी है। वह संकट पैदा करता है, वह संकट नष्ट करता है। उसे दुकान चलानी है। गड्ढा खोदो और फिर उसे भरो। तमाशा देखें उन को विज्ञापन दिखा कर पैसा वसूल करो। कुछ न हो तो पुराने पेड़ की खोह में आग लगा दो। जब तक पेड़ जल न जाए। ढोल पीट पीट कर लाइव दिखाते रहो। लोगों को बिजी कर दो और बिजनेस करो। रोटी कमाओ। 
पाकिस्तान परमानेंट इलाज है। जब कुछ काम न आए तो उधर से गोली चलने और गोला फेंकने की खबर दो। जब लोग पत्थर ले कर उधर फैंकने लगें तो कह दो ये तो उग्रवादियों की गतिविधि है। वह बेचारा खुदे ई उन से परेसान है। फिर औसामा को गाली दो। काम न चले तो डॉलर से उस की रिश्तेदारी का बखान करो। दो दिन निकल जाएंगे।
फिर चीन की तरफ झाँको। वह घुसा और लाल स्याही से पत्थरों पर चीन लिख गया। फिर चीन से तस्करी से आने वाले माल का उल्लेख करो, तस्करी को लाइव दिखाओ। कब से हो रही है? मीडिया जी अब तक कहाँ थे? यहीं थे। बस रिजर्व में रखा था इस माल को। अब जरूरत पड़ी तो दिखा रहे हैं। जब लोग बोर होने लगें तो दिखा दो कोई नहीं घुसा। वह तो अपने ही लोग पत्थरों पर चीन-चीन लिखना सीख रहे थे। 
लोग तमाशा देखेंगे, और रोटी को भूल जाएँगे, महंगाई को भूल जाएंगे, बेरोजगारी को भूल जाएंगे।  सीधे सतर खड़े हो कर जन, गण, मन गाएंगे। सीधे सतर न रहें तो भी तमाशा है उसे दिखाओ। हर ओर से चांदी है।  जब लोगों को भूख लगे, वे चिल्लाने लगें तो किसी अच्छे कंडक्टर को बुलाओ जो मंच पर खड़ा हो कर डंडी हिलाए और गाना गवाए - भूख लगे तो गाना गा, भूख लगे तो गाना गा...ssss...sssss....