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रविवार, 13 सितंबर 2009

पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की दो बाल कविताएँ


नवरत के पुराने पाठक ‘यक़ीन’ साहब की उर्दू शायरी से परिचित हैं। उन्हों ने हिन्दी, ब्रज, अंग्रेजी में भी खूब हाथ आजमाया है और बच्चों के लिए भी कविताएँ लिखी हैं। एक का रसास्वादन आप पहले कर चुके हैं। यहाँ पेश हैं उन की दो बाल रचनाएँ..........





(1) 

पापा
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
सुब्ह काम पर जाते पापा
देर रात घर आते पापा

फिर भी मम्मी क्यूँ कहती हैं
ज़्यादा नहीं कमाते पापा
*******





(2) 
भोर का तारा

  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

उठो सवेरे ने ललकारा
कहने लगा भोर का तारा
सूरज चला काम पर अपने
तुम निपटाओ काम तुम्हारा
उठो सवेरे ने ललकारा ...


डाल-डाल पर चिड़ियाँ गातीं
चीं चीं चूँ चूँ तुम्हें जगातीं
जागो बच्चो बिस्तर छोड़ो
भोर हुई भागा अँधियारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


श्रम से कभी न आँख चुराओ
पढ़ो लिखो ज्ञानी कहलाओ
मानवता से प्यार करो तुम
जग में चमके नाम तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...


कहना मेरा इतना मानो
मूल्य समय का तुम पहचानो
जीवन थोड़ा काम बहुत है
व्यर्थ न पल भी जाए तुम्हारा

उठो सवेरे ने ललकारा ...



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शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाया ! बैल बगाग्यो

पंडित श्याम शंकर जी व्यास अपने जमाने के जाने माने अध्यापक थे। उन के इकलौते पुत्र थे कमल किशोर व्यास।  उन्हें खूब मार पीट कर पढ़ाया गया।  पढ़े तो कमल जी व्यास खूब, विद्वान भी हो गए। पर परीक्षा में सफल होना नहीं लिखा था। हुए भी तो कभी डिविजन नहीं आया, किस्मत में तृतीय श्रेणी लिखी थी।  जैसे-तैसे संस्कृत में बी.ए, हुए। कुछ न हो तो मास्टर हो जाएँ यही सोच उन्हें बी.एस.टी.सी. करा दी गई। वे पंचायत समिति में तृतीय श्रेणी शिक्षक हो गए।  पंचायत समिति के अधीन सब प्राइमरी के स्कूल थे। वहाँ विद्वता की कोई कद्र न थी। गाँव में पोस्टिंग होती। हर दो साल बाद तबादला हो जाता। व्यास जी गाँव-गाँव घूम-घूम कर थक गए। 

व्यास जी के बीस बीघा जमीन थी बिलकुल कौरवान। पानी का नाम न था। खेती बरसात पर आधारित थी। व्यास जी उसे गाँव के किसान को मुनाफे पर दे देते और साल के शुरु में ही मुनाफे की रकम ले शहर आ जाते। बाँध बना और नहर निकली तो जमीन नहर की हो गई।  मुनाफा बढ़ गया।  गाँव-गाँव घूम कर थके कमल किशोर जी व्यास ने सोचा, इस गाँव-गाँव की मास्टरी से तो अच्छा है अपने गाँव स्थाई रूप से टिक कर खेती की जाए।

खेती का ताम-झाम बसाया गया। बढ़िया नागौरी बैल खरीदे गए। खेत हाँकने का वक्त आ गया। कमल किशोर व्यास जी खुद ही खेत हाँकने चल दिए। दो दिन हँकाई की, तीसरे दिन हँकाई कर रहे थे कि एक बैल नीचे गिरा और तड़पने लगा। अब व्यास जी परेशान।  अच्छे खासे बैल को न जाने क्या हुआ? बड़ी मुश्किल से महंगा बैल खरीदा था, इसे कुछ हो गया तो खेती का क्या होगा? दूर दूर तक जानवरों का अस्पताल नहीं ,बैल को कस्बे तक कैसे ले जाएँ? और डाक्टर को कहाँ ढूंढें और कैसे लाएँ?  बैल को वहीं तड़पता छोड़ पास के खेत में भागे, जहाँ दूसरा किसान खेत हाँक रहा था। उसे हाल सुनाया तो वह अपने खेत की हँकाई छोड़ इन के साथ भागा आया। किसान ने बैल को देखा और उस की बीमारी का निदान कर दिया। भाया यो तो बैल 'बगाग्यो' ।   व्यास जी की डिक्शनरी में तो ये शब्द था ही नहीं। वे सोच में पड़ गए ये कौन सी बीमारी आ गई? बैल जाने बचेगा, जाने मर जाएगा? 

किसान ने उन से कहा मास्साब शीशी भर मीठा तेल ल्याओ।  मास्टर जी भागे और अलसी के तेल की शीशी ले कर आए।  किसान ने शीशी का ढक्कन खोला और उसे बैल की गुदा में लगा दिया, ऐसे  कि जिस से उस का तेल गुदा में प्रवेश कर जाए। कुछ देर बाद शीशी को हटा लिया। व्यास जी महाराज का सारा ध्यान बैल की गुदा की तरफ था। तेल गुदा से वापस बाहर आने लगा मिनटों में बैल की गुदा में से तेल के साथ एक उड़ने वाला कीड़ा (जिसे हाड़ौती भाषा में बग्गी कहते हैं) निकला और उड़ गया। व्यास जी को तुरंत समझ आ गया कि 'बगाग्यो' शब्द का अर्थ क्या है। उन का संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन बेकार गया। 

पंडित कमल किशोर व्यास हाड़ौती का शब्दकोश तलाशने बैठे तो पता लगा कि ऐसा कोई शब्दकोश बना और छपा ही नहीं है । बस बैल की गुदा में बग्गी घुसी थी, इस कारण से बीमारी का नाम पड़ा 'बगाग्यो'।  यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"। 

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

राजनैतिक स्वार्थों को साधने का घृणित अवसरवाद

मुझे पिछले दिनों दो बार जोधपुर यात्रा करनी पड़ी।  दोनों यात्राओं का सिलसिला एक ही था। एक उद्योग में नियोजित श्रमिकों ने अपनी ट्रेड यूनियन बना कर पंजीकृत कराई थी। जब उद्योग के दो तिहाई से भी अधिक श्रमिक इस यूनियन के सदस्य हो गए और उन्हों ने कानून के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं को लागू करने की मांग की तो उद्योग के मालिकों के माथे पर बल पड़ने आरंभ हो गए। उन्हों ने यूनियन का पंजीयन प्रमाणपत्र रद्द कर ने के लिए ट्रेड यूनियन पंजीयक के सामने एक आवेदन प्रस्तुत किया। इसी आवेदन में यूनियन का पक्ष रखने के लिए यह यात्रा हुई थी। उस का कानूनी पक्ष क्या था। यह यहाँ इस आलेख का विषय नहीं है। उसे फिर कभी 'तीसरा खंबा' पर प्रस्तुत किया जाएगा। पहली सुनवाई के दिन जोधपुर बंद था। मांग यह थी कि उदयपुर और बीकानेर के वकीलों की मांग पर राजस्थान हाईकोर्ट की बैंचे न खोली जाएँ और एक बार विभाजित हो चुके हाईकोर्ट को विभाजित न किया जाए। हाईकोर्ट की अधिक बैंचें स्थापित किए जाने का विषय भी विस्तृत है और यह आलेख उस के बारे में भी नहीं है। इन विषयों पर आलेख फिर कभी 'तीसरा खंबा' पर प्रस्तुत किए जाएँगे।

उस दिन सुनवाई के समय कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर से उद्योग के कोई सौ से अधिक मजदूर आए थे। वे अपने झंडे लिए जब ट्रेड यूनियन पंजीयक के कार्यालय की और जा रहे थे तो बंद कराने वालों का एक समूह वहाँ से गुजरा और उन्हों ने झंडे लिए मजदूरों को देखते ही नारे लगाने आरंभ कर दिए 'वकील-मजदूर एकता जिन्दाबाद !' मजदूरों ने भी उन के स्वर में स्वर मिलाया। कुछ देर नारेबाजी चलती रही फिर दोनों अपनी राह चल दिए। जब मजदूर पंजीयक कार्यालय पहुँचे तो वहाँ वे बाहर कुछ देर नारे लगाते रहे वहाँ बंद समर्थकों का एक और समूह आ निकला। फिर से नारे लगने लगे। मजदूरों ने भी वकील-मजदूर एकता के नारों में साथ दिया और साथ में अपने नारे भी लगाए जिस में उस समूह के लोगों ने भी साथ दिया। बंद समर्थक समूह में शिवसेना के कुछ कार्यकर्ता भी थे। जिन की पहचान गले में डाले हुए केसरिया रंग के पटके जिस पर लाल रंग से शिव सेना छपा था से स्पष्ट थी। उन्हों ने मारवाड़ के गौरव के संबंध में कुछ नारे लगाए। फिर यह भी कहा कि  उन्हें पृथक मारवाड़ राज्य  दे दिया जाए तो उन का अपना अविभाजित हाईकोर्ट वापस मिल जाएगा। फिर शेष राजस्थान का हाईकोर्ट वे कहीं भी ले जाएँ। इस तरह हाईकोर्ट को विभाजित नहीं किए जाने की मांग के बीच प्रदेश को ही विभाजित कर डालने की मांग पसरी दिखाई दी। 

कोटा वालों की यह पुरानी मांग है कि राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच के पास लम्बित मुकदमों मे चालीस प्रतिशत सिर्फ हाड़ौती से हैं, इस कारण से कोटा में भी एक बैंच स्थापित की जानी चाहिए। अपनी इस मांग के समर्थन में वे विगत छह वर्षों से माह के अंतिम शनिवार को हड़ताल रखते हैं। जब देखा कि हाईकोर्ट बैंच के लिए उदयपुर वाले पिछले दो माह से और बीकानेर वाले एक माह से अधिक से संघर्ष कर रहे हैं। यदि इस अवसर पर कोटा वाले चुप रहे तो कोटा में बैंच खोलने की उन की मांग कमजोर पड़ जाएगी। तो वे भी 31 अगस्त से हड़ताल पर आ गए हैं। वकीलों के काम न करने के कारण उदयपुर, बीकानेर और कोटा संभागों में अदालती काम पूरी तरह से ठप्प हो चुका है। 


आज सुबह जब मैं कोटा पहुँचा तो यहाँ हाईकोर्ट की बैंच कोटा में स्थापित करने के समर्थन में शिवसेना ने कलेक्ट्री के बाहर धरना दिया हुआ था। सुबह से ले कर शाम तक जोरों से भाषण होते रहे और नारे लगते रहे। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जोधपुर में शिवसेना हाईकोर्ट को विभाजित न करने के आंदोलन के साथ थी तो कोटा में उसे विभाजित करने के आंदोलन के साथ। एक ही दल के दो संभागों की शाखाएं आमने सामने खड़ी थीं। गनीमत यह थी कि जोधपुर की शिवसेना जो दबे स्वरों में मारवाड़ प्रांत अलग स्थापित करने की मांग कर रही थी। कोटा की शिवसेना ने पृथक हाड़ौती प्रांत जैसी कोई मांग नहीं उठा रही थी। मैं सोच रहा था कि राजनैतिक स्वार्थों को साधने का  इस से घृणित भी कोई अवसरवादी रूप हो सकता है क्या?

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

आत्म केंद्रीयता और स्वार्थ

शनिवार को  अत्यावश्यक कार्य करते हुए रविवार के दो बज गए, सोए थे कि बेटे को स्टेशन छोड़ने जाने के लिए पाँच बजे ही उठना पडा़। अब ढाई घंटे की नींद भी कोई नींद है। सात बजे वापस लौटे तो नींद नहीं आई। नेट पर कुछ पढ़ते रहे। आठ बजे सुबह सोने गए तो दस बजे टेलीफोन ने जगा लिया। महेन्द्र नेह का फोन था। पाण्डे जी का एक्सीडेंट हो गया है हम पुलिस स्टेशन में हैं रिपोर्ट लिखा दी है, पुलिस वाले धाराएँ सही नहीं लगा रहे हैं, आप आ जाओ। जाना पड़ा। पुलिस स्टेशन पर उपस्थित अधिकारी परिचित था। मैं ने कहा 336 कैसे लगा रहे हैं भाई 338 लगाओ। रस्सा गले में फाँसी बन गया होता तो पाण्डे जी का कल्याण ही हो गया था। अधिकारी ने कहा 337 लगा दिया है। अब अन्वेषण में प्रकट हुआ तो 338 भी लगा देंगे। मैं बाहर आया तो वहाँ एक परिचित कहने लगा -राजीनामा करवा दो। मैं ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया पुलिस अधिकारी ने रपट पर पाण्डे जी के हस्ताक्षर करवा कर उन्हें चोट परीक्षण के लिए अस्पताल भिजवा दिया। थाने के बाहर ही मोटर का वहाँ परिचित फिर मिला और कहने लगा ड्राइवर मेरा भाई है राजीनामा करवा दो, भाई और मालिक दोनों को ले आया हूँ। इन लोगों में से एक ने भी अब तक यह नहीं पूछा था कि दुर्घटना में घायल को कितनी चोट लगी है। मालिक के पास कार थी। लेकिन पाण्डे जी को पुलिसमेन उन की मोटर सायकिल पर ही बिठा कर अस्पताल ले गया। बस मालिक ने यह भी नहीं कहा कि मेरी कार में ले चलता हूँ। 

मुझे गुस्सा आ गया। मैं ने तीनों को आड़े हाथों लिया। "तुम्हें शर्म नहीं आती, तुम राजीनामे की बातें करते हो, तुमने पाण्डे जी से पूछा कि उन को कितनी लगी है? तुमने तो उन्हें अस्पताल तक ले जाने की भी न पूछी, किस मुहँ से राजीनामे की बात करते हो?

घटना वास्तव में अजीब थी। पाण्डे जी मोटर सायकिल से जा रहे थे। पास से बस ने ओवर टेक किया और उस में से एक रस्सा जिस का सिरा बस की छत पर बंधा था गिरा और उस ने पांडे जी की गर्दन और मोटर सायकिल को लपेट लिया। पांडे जी घिसटते हुए दूर तक चले गए। कुछ संयोग से और कुछ पांडे जी के प्रयत्नों से रस्सा गर्दन से खुल गया। वरना फाँसी लगने में कोई कसर न थी। पांडे जी के छूटने के बाद भी रस्सा करीब सौ मीटर तक मोटर सायकिल को घसीटते ले गया। पांडे जी का शरीर सर से पैर तक घायल हो गया। 

मैं जानता हूँ। उन्हें कोई गंभीर चोट नहीं है। पैर में फ्रेक्चर हो सकता है लेकिन उस की रिपोर्ट तो डाक्टर के  एक्स-रे पढ़ने पर आएगी। आईपीसी की धारा 279 और 337 का मामला बनेगा, जो पुलिस बना ही चुकी है। एक में अधिकतम छह माह की सजा और एक हजार रुपए का जुर्माना और दूसरी धारा में छह माह की सजा और पाँच सौ रुपया जुर्माना है। दोनों अपराध राज्य के विरुद्ध अपराध हैं।  राजीनामा संभव नहीं है। यह ड्राइवर जानता था  और इसीलिए ड्राइवर मुकदमा दर्ज होने के पहले ही राजीनामा करने पर अड़ा था। उसे अपने मुकदमे की तो चिंता थी, लेकिन यह फिक्र न थी कि घायल को कितनी चोट लगी है। 

दूसरी ओर बस का मालिक निश्चिंत खड़ा था उस पर कोई असर नहीं था। वह जानता था कि उसे सिर्फ पुलिस द्वारा जब्त बस को छुड़वाना है जिसे उस का स्थाई वकील किसी तरह छुड़वा ही लेगा। ड्राइवर पेशी करे या उसे सजा हो जाए तो इस से उसे क्या? वह तब तक ही उसे मुकदमा लड़ने का खर्च देगा जब तक ड्राइवर उस की नौकरी में है। बाद में उस की वह जाने। आज के युग ने व्यक्ति को कितना आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी बना दिया है।

शनिवार, 5 सितंबर 2009

अध्यापक जी का न्याय, शिक्षक दिवस पर एक नमन !

प्राइमरी स्कूल था। सुबह प्रार्थना होती थी। सभी विद्यार्थी स्कूल के बीच के मैदान में एकत्र होते। हर कक्षा की एक पंक्ति थी। पंक्ति का मुख मंच की ओर होता। प्रार्थना के बाद दिन भर के लिए हिदायतें मिलती थीं। उस दिन स्कूल के एक अध्यापक जी ने प्रार्थना के बाद सब विद्यार्थियों को अपने अपने स्थान पर बैठने को कहा। सब बैठ गए।
ध्यापक जी ने अपनी बुलंद आवाज में कहा। मैं आप सब से एक प्रश्न पूछता हूँ, सब विद्यार्थियों को जोर से जवाब देना है।
ध्यापक जी ने पूछा -क्या चोरी करना अच्छी बात है?
ब विद्यार्थी बोले -नहीं ईईईईई.......।
ध्यापक जी -चोरी करने वाले को सजा मिलनी चाहिए या नहीं? 
विद्यार्थी  -मिलनी चाहिए एएएएएए....।
ध्यापक जी  -और यदि चोर खुद ही पश्चाताप करे और अपनी गलती स्वीकार करते हुए आगे गलती न करने को कहे तो क्या उसे माफ कर देना चाहिए?
ब विद्यार्थी बोले -नहीं ईईईई ........।
ध्यापक जी  -तो उसे सजा तो कम मिलनी चाहिए?
ब विद्यार्थी बोले -हाँ आँआँआँआँ .......।
ध्यापक जी फिर बोले -तो सुनिए यहाँ बैठे विद्यार्थियों में से एकने कल अपने पिताजी की जेब में से रुपए चुराए हैं। यदि वह विद्यार्थी पश्चाताप करेगा और यहाँ सब के सामने आ कर अपनी गलती स्वीकार कर लेगा तो हम उसे कम सजा भी नहीं देंगे, और माफ कर देंगे। 
विद्यार्थियों में सन्नाटा छा गया। बच्चे सब एक दूसरे की ओर देखने लगे। आखिर उन मे कौन ऐसा है? दो मिनट निकल गए लेकिन कोई विद्यार्थी सामने न आया। 
अध्यापक जी फिर बोले -देखिए दो मिनट हो चुके हैं मैं दो मिनट और देता हूँ, वह विद्यार्थी सामने आ जाए। 
लेकिन फिर भी कोई सामने नहीं आया। दो मिनट और निकल गए। अब विद्यार्थी खुसर-फुसर करने लगे थे।
अध्यापक जी फिर बोले -देखिए  अतिरिक्त दो मिनट भी निकल गए हैं। अब पश्चाताप का समय निकल चुका है लेकिन मैं उस विद्यार्थी को एक मिनट और देता हूँ, यदि अब भी विद्यार्थी सामने नहीं आया तो उसे सजा ही देनी होगी। वह विद्यार्थी सामने आ जाए।
पूरे पाँच मिनट का समय निकल जाने पर भी वह विद्यार्थी सामने न आया। अध्यापक जी ने समय पूरा होने की घोषणा की और मंच से उतर कर नीचे मैदान में आए और एक पंक्ति में से एक विद्यार्थी को उठाया और पकड़ कर मंच पर ले चले। मंच पर उसे विद्यार्थियों के सामने खड़ा कर दिया। फिर बोलने लगे -इस विद्यार्थी ने अपने पिता की जेब से कल पचास रुपए चुराए हैं। पहली सजा तो इसे मिल चुकी है कि अब सब लोग जान गए हैं कि यह विद्यार्थी कैसा है। लेकिन सजा इतनी ही नहीं है। इसे यहाँ पहले घंटे तक मुर्गा बने रहना पड़ेगा। हाँ, यदि यहाँ यह कान पकड़ कर स्वयं स्वीकार कर ले कि उसने रुपए चुराए थे और उन रुपयों का क्या किया? तो इसे मुर्गा नहीं बनना पड़ेगा।
विद्यार्थी अब तक रुआँसा हो चुका था। उस ने रुआँसे स्वर में स्वीकार किया कि उस ने पचास रुपए चुराए थे जिस में से कुछ खर्च कर दिए हैं और कुछ उस के पास हैं। जो वह यहाँ निकाल कर दे रहा है। वह प्रतिज्ञा करता है कि वह जीवन में कभी भी चोरी  नहीं करेगा। किसी दूसरे की किसी वस्तु को हाथ भी न लगाएगा। उस ने वे रुपए निकाल कर अध्यापक जी को दिए। 
अध्यापक जी ने कहा -अभी सजा पूरी नहीं हुई। अभी तुम्हें कान पकड़ कर दस बैठकें यहाँ सब के सामने लगानी होंगी। विद्यार्थी ने दस बैठकें सब के सामने लगाईं। अध्यापक जी ने कहा -इस विद्यार्थी ने अपनी गलती स्वीकार ली है और उस का दंड भी भुगत लिया है। अब इसे कोई चोर न कहेगा। यदि किसी विद्यार्थी ने इसे चोर कहा और उस की शिकायत आई तो उसे भी दंड मिलेगा। 
सुबह की प्रार्थना सभा समाप्त हुई। विद्यार्थी ही नहीं, विद्यालय के सब शिक्षक और कर्मचारी भी इस न्याय पर हैरान थे। सब जानते थे कि सजा पाने वाला विद्यार्थी स्वयं उन अध्यापक जी का पुत्र है।
मुझे उन अध्यापक जी का नाम स्मरण नहीं आ रहा है। लेकिन आज शिक्षक दिवस पर उन्हें स्मरण करते हुए नमन करता हूँ।

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

संतानें पिता के नाम से ही क्यों पहचानी जाती हैं?

बुजुर्ग कहते हैं कि शाम का दूध पाचक होता है। जानवर दिन भर घूम कर चारा चरते हैं, तो यह मेहनत का दूध होता है और स्वास्थ्यवर्धक भी।  मैं इसी लिए शाम का दूध लेता हूँ।  डेयरी से रात को दूध घरों पर सप्लाई नहीं होता।  इसलिए खुद डेयरी जाना पड़ता है। आज शाम जब डेयरी पहुँचा तो डेयरी  के मालिक  मांगीलाल ने सवाल किया कि भीष्म को गंगा पुत्र क्यों कहते हैं। उसे पिता के नाम से क्यों नहीं जाना जाता है।  मैं ने कहा -गंगा ने शांतनु से विवाह के पूर्व वचन लिया था कि वह जो भी करेगी, उसे नहीं टोका जाएगा।  वह अपने पुत्रों को नदी में बहा देती थी। जब उस के आठवाँ पुत्र हुआ तो राजा  शांतनु ने उसे टोक दिया कि यह पुत्र तो मुझे दे दो। गंगा ने अपने इस पुत्र का नहीं बहाया, लेकिन शांतनु द्वारा वचन भंग कर देने के कारण वह पुत्र को साथ ले कर चली गई।  पुत्र के जवान होने पर गंगा ने उसे राजा को लौटा दिया। इसीलिए भीष्म को सिर्फ गंगापुत्र कहा गया, क्यों कि शांतनु को वह गंगा ने दिया था। उस की जिज्ञासा शांत हो गई। लेकिन मेरे सामने एक विकट प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि 'क्यों संतानें पिता के नाम से ही पहचानी जाती हैं, माता के नाम से क्यों नहीं?'

आखिर स्कूल में भर्ती के समय पिता का नाम पूछा और दर्ज किया जाता है। मतदाता सूची में पिता का नाम दर्ज किया जाता है। तमाम पहचान पत्रों में भी पिता का नाम ही दर्ज किया जाता है। घर में भी यही कहा जाता है कि वह अपने पिता का पुत्र है। क्यों हमेशा उस की पहचान को पिता के नाम से ही दर्ज किया जाता है?
इस विकट प्रश्न का जो जवाब मेरे मस्तिष्क ने दिया वह बहुत अजीब था। लेकिन लगता तार्किक है।  मैं ने डेयरी वाले से सवाल किया। तो उस ने इस का कोई जवाब नहीं दिया। उस के वहाँ मौजूद दोनों पुत्र भी खामोश ही रहे। आखिर मेरे मस्तिष्क ने जो उत्तर दिया था वह उन्हें सुना दिया।

माँ का तो सब को पता होता है कि उस ने संतान को जन्म दिया है। उस का प्रत्यक्ष प्रमाण भी होता है। लेकिन पिता का नहीं। क्यों कि उस की एक मात्र साक्ष्य केवल संतान की माता ही होती है। केवल और केवल वही बता सकती है कि उस की संतान का पिता कौन है? समाज में इस का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता कि पुत्र का पिता कौन है? समाज में यह स्थापित करने की आवश्यकता होती है कि संतान किस पिता की है। यही कारण है कि जब संतान पैदा होती है तो सब से पहले दाई (नर्स) यह बताती है कि फंला पिता के संतान हुई है। फिर थाली बजा कर या अन्य तरीकों से यह घोषणा की जाती है कि फलाँ व्यक्ति के संतान हुई है। संतान का पिता होने की घोषणा पर पिता किसी भी तरह से  उस का जन्मोत्सव मनाता है। वह लोगों को मिठाई बाँटता है। अपने मित्रों औऱ परिजनों को बुला कर भोजन कराता है और उपहार बांटता है। इस तरह यह स्थापित होता है कि उसे संतान हुई है।
मैं ने अपने मस्तिष्क द्वारा सुझाया यही उत्तर मांगीलाल को भी दिया। उस में आपत्ति करने का कोई कारण उसे नहीं दिखाई दिया, उस ने और वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने इस तर्क को सहज रुप से स्वीकार कर लिया।
अब आप ही बताएँ मेरे मस्तिष्क ने जो उत्तर सुझाया वह सही है कि नहीं। किसी के पास कोई और भी उत्तर हो तो वह भी बताएँ।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

ग़ज़लों का जादू, पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की युग्मित ग़ज़ल

आप ने पिछली दो पोस्टों में पुरुषोत्तम की जादू वाली ग़ज़लें पढ़ीं। कुछ पाठकों ने इस जादू को भेदने का प्रयत्न भी किया। घोस्टबस्टर जी जादू के बहुत नजदीक तक भी पहुँचे। लेकिन उसे भेद नहीं पाए।


'यक़ीन' साहब को कल शाम ही आना था। वे आए भी। लेकिन मैं घर से बाहर था, मुलाकात नहीं हो सकी। आज सुबह उन से फोन पर बात हुई। जो कुछ उन ने बताया वह इतना सरल था कि मुझे भी विश्वास नहीं हुआ। उन की बात सुन मैं ने कुछ चित्र ढूंढ निकाले हैं, एक तो ऊपर ही है,  जिसे आप देख चुके हैं। आप इन दोनों चेहरों को यक़ीन साहब की दो ग़ज़लें मान लें। अब जरा इन नीचे वाले चित्रों को भी देखिए.....
इस पैरेलल बार को देखें दो भाग समानांतर स्थिति में मिल कर एक यंत्र बना रहे हैं।

और यहाँ.... इस अँधेरे में ये दो चमकती आकृतियाँ क्या कर रही हैं?


 ये दो पृथक-पृथक सजीव रचनाएँ हैं जो आपस में मिल कर एक नई सजीव रचना बनाने में जुटी हैं।  

और यहाँ.........


 
यहाँ तो ये दोनों मिल कर एक हो चुकी हैं

ठीक इसी तरह यक़ीन साहब की दोनों ग़ज़लें भी समानान्तर दशा में मिल कर एक नई ग़ज़ल बन जाती हैं। मजे की बात यह कि उन दोनों ग़ज़लों का आंनंद भिन्न था और इस 'युग्मित ग़जल' का आनंद बिलकुल भिन्न है। आप भी इस का आनंद लीजिए.....

कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
 - पुरुषोत्तम 'यक़ीन' -


तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम, नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू बादल तू सबा तू शबनम, तू आकाश है और ज़मीं तू

छल करते हैं अपना बन कर, वो अपने मतलब के संगी
मेरे साथी मेरे हमदम, उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू

तेरे मुख पर तेज है सच का, दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
तेरे आगे सूरज मद्धम, कैसे कह दूँ माहजबीं तू

दर्दे-जुदाई और तन्हाई, तू यह कैसे सह लेता है
क्यूँ न निकल जाता है ये दम, आह! कहीं मैं और कहीं तू

कोई नहीं है तुझ बिन मेरा, तेरे दिल की बात न जानूँ
कह तो दे इतना कम से कम, मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं तू

खुल कर बात करें आपस में, कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म, आ कर मेरे बैठ क़रीं तू

झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए, कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम, चुप ही रहना दोस्त हसीं तू

आप चाहें तो इसे इस तरह भी देख सकते हैं, यहाँ दोनों ग़ज़लें अपना अलग अस्तित्व, अलग असर और अलग अर्थ रखती हैं -

तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम,                 नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू बादल तू सबा तू शबनम,                  तू आकाश है और ज़मीं तू

छल करते हैं अपना बन कर,                वो अपने मतलब के संगी
मेरे साथी मेरे हमदम,                           उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू

तेरे मुख पर तेज है सच का,                   दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
तेरे आगे सूरज मद्धम,                            कैसे कह दूँ माहजबीं तू

दर्दे-जुदाई और तन्हाई,                          तू यह कैसे सह लेता है
क्यूँ न निकल जाता है ये दम,                आह! कहीं मैं और कहीं तू

कोई नहीं है तुझ बिन मेरा,                    तेरे दिल की बात न जानूँ
कह तो दे इतना कम से कम,                 मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं तू

खुल कर बात करें आपस में,                  कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म,                 आ कर मेरे बैठ क़रीं तू

झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए,                  कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम,                  चुप ही रहना दोस्त हसीं तू


यक़ीन साहब ने इसे 'युग्मित ग़ज़ल' नाम दिया है। मैं ने उन्हें कोई उर्दू शब्द तलाश करने को कहा है। आप चाहें तो आप भी इस कारस्तानी को कोई खूबसूरत सा नाम दे सकते हैं।