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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

जो चमकाए देस उन को हम चमकाए देत : जनतन्तर कथा (14)

हे, पाठक!
किसी भी पंचायत का पाँच साल चल जाना आज के वक्त में बड़ी बात है।  भले ही चाचा पन्द्रह साल और उन की बेटी दस साल पंचायत में बैठी रही हो,  पर अब वह अपवाद ही नजर आता है।  अब तो इस का उदाहरण भारतवर्ष में केवल बंग ही रह गया है जहाँ इक्सीस सालों से एक ही गठबंधन पंचायत में जमा बैठा है।  बाकी तो यह कहा जाता है कि जो भी सरकार पाँच साल चले वह विपथगामिता का शिकार हुए बिना नहीं रहती। जनता को भी अब रोटी पलट कर सेंकने की आदत बन चली है।  ऐसा नहीं कि वायरस पार्टी की छत्रछाया में चली इस सरकार की उपलब्धियाँ कम रही हों।  लेकिन जनता का वह तबका जो हर बार अपनी राय बदल कर नतीजे बदलता है, शायद सिर्फ यही देखना चाहता है कि उस की खुद की हालत पंचायत ने कितनी और कैसी बदली है? जैसी उस की हालत बदलती है वैसी ही वह सरकार की बदल देती है।

हे, पाठक! 
पिछला महापंचायत चुनाव जहाँ दो शख्सियतों का सीधा टकराव था वहीं दो गठजोड़ों का मुकाबला था।  तीसरी ताकत बीच में कहीं नहीं थी।  गठजोडों के मुकाबले में जहाँ वायरस पार्टी को तेरह दिन, तेरह माह पंचायत चला कर महारत मिल गई थी, वहीं बैक्टीरिया पार्टी को एकला चालो रे से मुक्ति पानी थी।  देखा जाए तो वायरस पार्टी एण्ड कंपनी के अच्छे चांसेज थे।  चौथे खंबे ने भी उन का बहुत साथ दिया।  वे मतदान के पहले ही नमूने के मतदानों में इसे विजयी भवः का आशीर्वाद दे चुके थे।  पर महान देस की महान जनता की महानता इसी में है कि वह आखिरी पल तक भी इस बात का अनुमान नहीं देती कि वह क्या करने जा रही है।  शायद गुप्त मतदान का पाठ सब से अच्छी तरह उसी ने पढ़ा है। सबक सीख कर सिखाना भी वह सीख चुकी है।

हे,  पाठक! 
जनता ने देखा कि, इस सरकार ने अपनी उपलब्धियाँ गिनाना शुरू कर दिया।  वह कह रही थी,  हम ने जनता को फील गुड कराया है अब हम देस को चमकाएँगे।  देस की जनता को फील गु़ड पसंद नहीं आया।  शायद वह फील गुड केवल नेता महसूसते थे।  जनता ने सोचा,  हमारा काहे का फील गुड?  हम तो वही हैं जहाँ पहले थे, जीने की मुश्किलें और बढ़ गई हैं।  वह अपना पाँच साल का बेड फील बताती तो चमचे उसे चुप करा देते।  बोलते यह फील गुड में समझती ही नहीं है। जनता ने वायरस पार्टी एण्ड कंपनी को फील गुड करा दिया बोली, तुम काहे का देस चमकाओगे हम तुमको ही चमकाए देत हैं।


हे, पाठक! 
जब नतीजे आने लगे तो वायरस पार्टी के फील गुड ने अंतरिक्ष की राह पकड़ी और नतीजे आने के बाद अपनी हार स्वीकार कर ली।  बैक्टीरिया पार्टी के लिए फिर से सत्ता के सुहाने सफर का मार्ग प्रशस्त हो चला था।  चुनाव के पहले वह किसी से पक्का याराना नहीं बना सकी थी।  लेकिन बाद में उस ने जुगत भिड़ा ली और यार कबाड़ लिए, यहाँ तक कि लाल वस्त्र धारिणी बहनों ने भी घर के बाहर से ही सही साथ देने का वायदा कर लिया।  अन्दाज था कि लोग परदेसी मेम को ही मुखिया मान लेंगे।  वायरसों ने हल्ला भी खूब मचाया।  लेकिन परदेसी मेम शातिर निकली।  उस ने खुद ही मुखिया बनने से इन्कार कर दिया और एक अर्थ विद्वान को मुखिया बना दिया।  लाठी भी न टूटी,  और साँप भी मर गया।  स्कीम में बिना मरे, शहीद का दर्जा पाया सो अलग।  महापंचायत फिर चल निकली।  पूरे पाँच साल गुजारे।  हालांकि लाल वस्त्र धारिणियों ने बीच में साथ छोड़ा तो वे काम आए जो बेचारे पहले बेइज्जत हुए थे।

हे, पाठक! 
इस तरह अब तक खंडित भरतखंड के इस भारत वर्ष में आज तक जितनी महापंचायतें  हुई हैं और उन के चुनाव की जो गाथा थी वह सार संक्षेप में आप को बताई।  उन्हें विस्तार से बताया जाता तो हनुमान की पूँछ की तरह हो लेती।   यह भी भय था कि पाठक मंडल प्रसन्न होने के स्थान पर नाराज हो कर हमें फील गुड कह देता।  वैसे भी सूचना की दुनिया इतनी विस्तृत है कि जानने को बहुत कुछ है और समय बहुत कम।  आजकल फिर महापंचायत का चुनाव चल रहा है।  कल उस के लिए देस की चौथाई हिस्सा मतदान कर चुका है।

आज का वक्त यहीं खत्म, अगली बैठक में... कथा होगी मौजूदा महापंचायत चुनाव की
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

पाँच बरस चल गया साँझे का चूल्हा : जनतन्तर-कथा (13)

हे, पाठक! 
ये जो बैक्टीरिया पार्टी है न? यह ऐसे ही बैक्टीरिया पार्टी नहीं बन गई।  इसे ऐसी बनने में बरसों लग गए।  तब भरतखण्ड पर परदेसी राज करते थे, और इस बिचार के साथ कि उस परदेसी राज में भी पड़े लिखे भारतियों की अहम भूमिका हो एक कमेटी गठित की गई थी। तब यह बैक्टीरिया पार्टी नहीं थी।  तब यह नयी कोंपल की तरह थी, जिसे विकसित होना था। वह विकसित हुई और इस हद तक कि एक दिन पूर्ण स्वराज्य उस की मांग हो गया।  लेकिन जैसे जैसे स्वराज्य की संभावना बढ़ती गई और इस बात की भी कि सुराज में इस पार्टी का अहम रोल रहेगा।  बैक्टीरियाओं ने इस के पेट में प्रवेश करना शुरू कर दिया था।  जब बिदेसी बनिए का बोरिया बिस्तर हमेशा के लिए जहाज में लदा तब तक बहुत से बैक्टीरिया छुपे रास्ते से अंदर प्रवेश कर गए।  पर उन दिनों स्वराज का जुनून था और बैक्टीरियाओं को कुछ करने का मौका न था।   कुछ करते तो पकड़े जाते और भेद खुल जाता।  पर पन्द्रह बीस वर्षों में बेक्टीरियाओं ने अपनी जगह इतनी पक्की कर ली कि उन्हें बाहर खदेड़ कर पार्टी का अस्तित्व बचा पाना कठिन था।  फिर एक अवसर ऐसा भी आया कि बैक्टीरिया प्रमुख हो गए।  और मूल पार्टी अपना अस्तित्व ही खो बैठी।  आज यह पूरी तरह से बैक्टीरिया पार्टी बन चुकी है।  पुराने जमाने का उल्लेख केवल खुद को गौरवशाली बनाने के लिए किया जाता है।

हे, पाठक!

आज लोग बैक्टीरिया पार्टी की असलियत जानते हैं लेकिन फिर भी उसे बर्दाश्त करते हैं।  वे इस भ्रम में हैं कि अकेले इसी पार्टी के बैक्टीरिया सारे भारतवर्ष में फैले हैं।  लेकिन ऐसा नहीं है।  अनेक स्थानों पर उस का अस्तित्व नगण्य हो गया है और वहाँ नए प्रकार की प्रजातियाँ उन की जगह ले रही हैं।  सवा सौ साल पुरानी पार्टी अब भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है।  लेकिन कब तक? आचार्य बृहस्पति सत्य कह गए हैं कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा।  यह पार्टी पैदा हुई थी तो मरेगी भी अवश्य ही, लेकिन कब? यह तो अभी भविष्य के गर्भ में छुपा है।  इस पार्टी का स्थान लेने के लिए अनेक दूसरी प्रजातियाँ लगातार कोशिश करती रहती हैं।  अभी तक कोई भी उस का स्थान लेने जितना सक्षम नहीं हो सकी है।  इन पार्टियों की चर्चा फिर कभी करेंगे। अभी तेरहवीं महापंचायत पर वापस आते हैं।

हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी की हार का एक कारण यह भी था कि उस ने अपने जवान प्रधान की हत्या के बाद उस की परदेसी पत्नी को आगे किया था उसे पार्टी की प्रधान बना दिया था। इस से पार्टी के कुछ बैक्टीरिया नाराज हो कर अलग हो गए थे और विरोधियों को मौका मिल गया था।  देस को अभी तक परदेसी कुछ खास पसंद न थे यहाँ तक कि  खुद बैक्टीरिया पार्टी का भी यही हाल था।  लेकिन बाकी सभी अगुआ बैक्टीरिया दूसरे को पसंद न करते थे और आपस में लड़ भिड़ कर पार्टी को ही नष्ट कर सकते थे। ऐसे आपातकाल में अच्छा यही था कि अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उसे स्वीकार कर लें।

हे, पाठक!
तेरहवीं महापंचायत पूरे पाँच साल चली।  यह भारतवर्ष के लिए ऐतिहासिक बात थी कि नाना प्रकार के प्राणियों से बनी, साँझे चूल्हे पर पकाने वाली सरकार अपना समय पूरा कर गई।  इस के अच्छे नतीजे भी आए।  आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगी।  परदेसी सिक्कों से भंडार भरा रहने लगा।  इस सरकार ने उत्पादन के साथ साथ सेवा को भी महत्व दिया जिस से नए रोजगार उत्पन्न होने लगे।  देस के हालात ठीक ठीक लगने लगे।  इस सरकार के केन्द्र में वायरस पार्टी थी जिस ने अन्य प्रकार के जीवों से मजबूत याराना बना कर सरकार को चलाया था।  लेकिन इस बीच बैक्टीरिया पार्टी ने भी बहुत से सबक लिए थे।  जिन में प्रमुख यह था कि वह जमाना गया जब वे अकेले सरकार बना और चला सकते थे।  इस लिए उन्हों ने भी अन्य प्रजातियों के साथ याराना बढ़ाना शुरू किया। इस तरह देस में दो ध्रुव उभर कर आए।  दोनों की खूबियाँ ये थीं कि ये यारों की मजलिस थे।  लाल वस्त्र धारी बहनों की हालत मे कोई बदलाव नहीं था।  देस से कोई उल्लेखनीय पोषण नहीं मिलने पर भी उन की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई थी।  बैक्टीरिया और वायरस रोज यह चाहते थे कि इन का अस्तित्व खाँ  मो खाँ बना हुआ है, कैसे भी ये न रहें तो शायद उन की हालत में इजाफा हो।  लेकिन बहुत ही प्रयास करने पर भी उन दोनों बहनों का कुछ भी न बिगड़ता था, वे अपना अस्तित्व बनाए हुए थीं।  यह बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय था।  इसी बीच चौदहवीं पंचायत की तैयारी होने लगी।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

चालीस माह में महा-पंचायत के तीन चुनाव : जनतन्तर-कथा (12)

ग्यारहवीं महापंचायत पूरी तरह से ऐतिहासिक थी।  वायरस पार्टी की सरकार तेरह दिन चली।  विश्वास मत पर घंटों बहस हुई।  बहस के बाद मतदान होता, उस से पहले ही सरकार ने हार मान ली।  अरे भाई जब जानते थे कि सरकार नहीं बचा पाएँगे तो बनाई क्यों थी?  अपनी समझ में कुछ नहीं आया।  दो बातें समझ में आती हैं, एक तो यह कि शायद सरकार बनने के बाद रुतबे से ही कुछ मनसबदार टूट जाएँ, ट्राई मारने में क्या बुराई है। फिर ट्राई मारी गई और फेल हो गए।  दूसरा यह कि जानते थे, सरकार न बचा पाएँगे।  फिर भी 13 दिन का प्रधान होना क्या बुरा है? वह भी तब जब न्यौता मिला हो, इतिहास में तो दर्ज हो ही जाएँगे।  एक तीसरा विकल्प और भी, कि इस से संसद में भाषण का अवसर तो मिलेगा।  टीवी पर करोड़ों लोग एक साथ देखेंगे।  कुछ नहीं तो प्रचार मिलेगा।  खैर मकसद कुछ भी रहा हो।  तेरह दिन की शहंशाही खत्म हो गई। भारतवर्ष ने तो एक दिन में चमड़े के सिक्के चलते देखे हैं, यह कौन सी नई बात हुई।


सरकार का ऐसा अंत देखा तो इस महापंचायत में बैक्टीरिया पार्टी दूसरी सब से बड़ी थी पर सरकार बनाने तैयार न हुई, तो दक्षिण का एक किसान पंच आ गया।  उसे प्रधान बनाया गया।  वह जानता था कि बहुत दिनों नहीं सम्भाल सकेगा।  पर हरदनहल्ली को इस भाव में इतिहास में नाम लिखाने से क्या परहेज हो सकता था।  किसान किसानी संभाल ले वही बहुत।  लेकिन बैक्टीरिया ने काम बिगाड़ा। ये बैक्टीरिया भी बड़े अजीब हैं। पेट में रहते हैं, तो पाचन चलता रहता है, शरीर चलता रहता है। किसी कारण हड़ताल कर गए तो फिर शरीर के हाल खराब।  बैद-डाक्टर कहते हैं, दही खाओ,  पेट में बैक्टीरिया पहुंचाओ,  लगे दस्त अपने आप मुकाम पकड़ लेंगे।  बैक्टीरिया हरदनहल्ली का साथ छोड़ गए।   

फिर नए बैक्टीरिया की तलाश शुरू हुई तो किसी ने बताया कि परदेस मंत्री का कैप्सूल बैक्टीरिया को टिका सकता है।   उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी परधानी भी करनी पड़ेगी।  पर देश हित में वह भी किया।   पंचायत चुनाव जितना देर  से होता देश के लिए अच्छा था,  खरचा बचता था।  उन के भी पेट में बैक्टीरिया कुछ ज्यादा दिन नहीं टिक पाए।  टालते टालते भी चुनाव का खरचा नहीं बचाया जा सका।  अट्ठारह माह में ही ग्यारहवीं पंचायत धराशाही हो गई।  बारहवीं पंचायत का बिगुल बज गया।

बारहवीं पंचायत फिर से बैठी, फिर वही किस्सा।  तेरह दिन की सरकार के मुखिया ने फिर से परधान का पद संभाला।  पीछे के अनुभव काम आए।  चौबीस गुटों को एक कर पिछली पंचायत के तेरह दिनों को तेरह माह में तब्दील किया।  पर एक अभिनेत्री को न संभाल पाए।  वह हाथ छुड़ा कर भाग ली।  सरकार पर संशय खड़ा हो गया।  पिछली बार विश्वास मत लेना था।  इस बार अविश्वास मत का नंबर था।  एक मत से सरकार पिट गई।  फिर चुनाव हुए।  इस बार दो बातों का साथ मिला एक तो बाजार को हवा पानी के लिए खोलने से देस में ब्योपार बढ़ा तो बनिए खुश थे।  दूसरे सीमा पर गड़बड़ करने वालों का मुकाबला किया गया था।  दोनों ने  वायरस पार्टी के गठजोड़ को अच्छा खासा तसल्ली बख्श बहुमत दिला दिया।  तसल्ली हुई कि  इस बार महापंचायत को पूरे समय चलाई जा सकेगी।  हालांकि यह शर्त जरूर थी कि गठजोड़ के साथियों की राय माननी पड़ेगी, उस हद तक कि वे रूठें तो सही,  पर भागें नहीं।  सरकार चलने लगी।  वायरस पार्टी के गठजोड़ का सिक्का चलने लगा था।  पर देस की जनता ने चालीस महिनों में तीन महापंचायतों के चुनाव देखे नहीं थे ढोए थे।  आखिर चुनाव का खऱचा तो जनता को ही भुगतना था।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

तेरह दिन की सरकार : जनतन्तर-कथा (11)

हे, पाठक! 
नौ वीं महापंचायत पाँच साल के बजाय केवल सोलह महीने चली।  कोई एक पार्टी नहीं थी जो महा पंचायत में बहुमत में होती और नेता चुन कर उसे टिकाऊ रख पाती।  दसवीं महापंचायत बुलानी पड़ी।  पाँचवीं महापंचायत में देस से गरीबी हटाने की बात थी। उस का मजाक बना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला। इस के बाद महंगाई का भी उल्लेख हुआ। इन सब मुद्दों से परेशानी सिर्फ बनियों को थी।  सब उन की लूट के पीछे पड़े थे।  लेकिन उस ने भी परदेसियों से कुछ तो सीखा ही था।  उस ने जवान नेता को उकसाया, मंदिर का ताला खुलवा दो। मंदिर वालों के वोट मिलेंगे, मस्जिद वाले तो तुम्हारे साथ हैं ही।  जवान नेता ने मंदिर का ताला खुलवाया।  बस क्या था? वायरस पार्टी को बैठे बिठाए रोजगार मिल गया।  उस ने कमंडल हाथ में ले हवन यज्ञ शुरू कर दिए।  उधर बिहारी लल्ला ने हवन में बाधा डाल कर उसे और भड़का दिया।  देश में फिर से धरम को लेकर लोगों के बीच वैमनस्य फैलने लगा।  लोग एक दूसरे के खून के प्यासे होने लगे।


हे, पाठक!
जब दसवीं महापंचायत के लिये वोट पड़ने की नौबत आई तो एक ओर तो  कमंडल थे दूसरी और मण्डल था।  लोग दोनों के इर्द गिर्द खड़े हो गए। आम जनता के मुद्दे, रोजगार, विकास, गरीबी गौण हो गए।  यही तो बनिए चाहते थे।  चुनाव हुआ लेकिन बीच में ही शंहशाह को बीच मैदान में एक छुपे पैदल ने मार गिराया।  लेकिन पब्लिक शो समाप्त नहीं होता।  वह सिर्फ रुकता है और फिर चल पड़ता है।  जवान शहंशाह नहीं रहा था।  लोग बेगम को ले कर चल पड़े।  बेगम, जिस को अभी देस की बोली सीखनी बाकी थी।  तो नतीजे में फिर वही हालत सामने आई।  कोई भी पार्टी सरकार बनाने की हालत में नहीं।  हाँ नेता की हत्या की सहानुभूति ने बैक्टीरिया पार्टी की संख्या कुछ बढ़ा दी थी। जैसे तैसे भाव-बोली के सहारे बैक्टीरिया पार्टी सरकार बनाने में समर्थ हो गई।  एक वि्द्वान बुजुर्ग को नेता चुना गया। उस ने जैसे तैसे देस चलाना शुरू कर दिया।  उधर मंदिर खंड में कमंडल पार्टी का सिक्का जम चुका था।  देस की सरकार को कमजोर जान उस का जोश बढ़ गया।  उस ने भी सरकार पर धावा बोलने के लिए सारा जोर मंदिर-मस्जिद पर लगा दिया।  नतीजा यह हुआ कि लोगों ने मस्जिद गिरा दी।  मंदिर पर पहरा लग गया जो आज तक जारी है।  वायरस पार्टी को  मंदिर निर्माण की एक ऐसी मणि मिल गई जो सदा चमकती है, जब चाहो उसे मुहँ से निकालो और पत्थर पर रख कर रोशनी कर लो, जब चाहो उसे मुहँ में रख लो।

हे, पाठक!

बहुत सारी बाधाएँ आईं। फिर भी बाजार पर पड़े पर्दे हटाए गए।  कुछ कुछ रोशनी आने लगी। कुछ बाहर जाने लगी।  लेकिन बड़े बड़े दिग्गज साथ छोड़ गए, दलाल गली में सरकारी साहूकारों का उपयोग कर के घोटाला कर के लोग हर्षित हुए, हवाला के जरिए धन लाने की बात भी उजागर हुई।  नहीं नहीं करते करते भी दसवीं महापंचायत पूरे पाँच बरस चल गई। ग्यारहवीं महापंचायत का वक्त आ गया।  साफ साफ तीन खेमे दिखाई देने लगे।  बैक्टीरिया और वायरस पार्टी के खेमे तो थे ही एक तीसरा खेमा लाल फ्रॉक वाली बहनों का भी था, कुछ लोग रीझ कर उधर भी इकट्ठे हो रहे थे।   इस महापंचायत में कोई इतने खेत न जीत सका कि सरकार बना ले।  मणि के प्रभाव से वायरस पार्टी ने पहले से हैसियत तो बढ़ा ली थी पर फिर भी महा पंचायत में एक तिहाई से कम रह गई, बैक्टीरिया पार्टी तो उस से भी पीछे रह गई।  लाल फ्रॉक गठजोड़  सब से पीछे था, पर महत्व रखने लगा था।  सब से बड़ी होने के कारण वायरस पार्टी के नेता को सरकार बनाने को बुलाया तो उस ने सरकार बना ली।  लेकिन तेरह दिन में ही लग गया कि बहुमत न बन पाएगा।  खुदै ही इस्तीफा दे पीछे हट गए।

आज फिर वक्त हो चला, ग्यारहवीं महापंचायत में क्या क्या हुआ?अगली बैठक में...
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 12 अप्रैल 2009

नेता, स्टेरॉयड और बाजुओं की बल्लियाँ : जनतन्तर-कथा (10)

हे, पाठक!
दो सौ बरस से भी अधिक काल तक भरत खंड के देसी बासियों की छाती पर मूंग दलने के बाद, बिदेसी यूँ ही अचानक अपने डेरे तम्बू समेट कर नहीं चले गए थे।  बहुत लोग कहते हैं खुद वे बहुत परेशानी में थे और भरत खंड पर राज करना मुश्किल हो रहा था।  यह बात सच भी है, लेकिन दस फीसदी से ज्यादा नहीं।  बनिया तब तक अपनी दुकान बंद नहीं करता जब तक उसे उस में लगी पूंजी के न्यूनतम ब्याज के बराबर भी मुनाफा होता रहे।  पर रोज रोज गाँव मुहल्ले के छोकरे आ कर दुकान में पटाखे फोड़ने लगें। ग्राहक दुकान का बहिष्कार कर सौदा लेना बंद कर दें। बनिया कहीं देस में निकले और लोग उसे देख कर थूकने लगें।  बेटे-बेटी कहने लगें, अब्बा इस से तो अपना देश ही अच्छा वहाँ कोई हमें देख कर थूकेगा तो नहीं, तो अब्बा को भी परदेस में रहना मुश्किल हो जाएगा।  अब्बा घर में कितने ही गीत गाएँ कि वहाँ अपने देस में जो बड़ी कोठी है, वह यहाँ की कमाई के बूते पर ही है।  बेटे-बेटी तो न मानें।  अब्बा ने मौका देखा, और खानदान समेत खिसक लिया।  जाते जाते कह गया, जा तो रहा हूँ, बरसों यहाँ का नमक खाया है, सब के बीच जिया हूँ, दुख-सुख में साथ रहा हूँ, तो रिश्ता बनाए रखना, दुकान देस में जारी रहेगी। कभी किसी चीज की जरूरत पड़े,  तो मुझे खबर करना, मैं सेवा को हाजिर रहूँगा।

हे, पाठक! 
यह सही है कि जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हुईं तो बनिया खिसक लिया।  लेकिन परिस्थितियों के निर्माण में सब से बड़ा योगदान देसबासियों का था।  जवानों ने पटाखे फोड़े जिन की गूँज सुन कर वे जागे।  उन्हें विश्वास हो गया कि अब बनिया नहीं टिक पाएगा।  फिर तो  देस भर के गाँव मुहल्ले बनिये के खिलाफ जागने लगे।  बनिए के खिलाफ बनिया मैदान में खड़ा नहीं होता, वह आतिशबाजी से भी डरता है।  पर देस भर के धंधों पर कब्जा जमाए बनिये के खिसकने की संभावना बन जाए तो उस में देसी बनियों को भी तो चलते धंधों पर कब्जे का लाभ मिलता है।  एक तो देखा फायदा, दूसरे डर भी सता रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि लोग बनियों के ही खिलाफ हो जाएँ, और उन की नस्ल को ही साफ कर दें।  पटाखे फोड़ने वाले कह भी कुछ ऐसा ही रहे थे कि, सारे बनिए एक जैसे होते हैं, चाहे परदेसी हों या देसी।  इस से देसी बनियों में भय व्याप्त हो गया था।  वे चुपचाप देस के भद्रजनों की मदद करने लगे।  ऐसे में परदेसी बनिया देस छोड़ कर भागा।  आधा-अधूरा भरतखण्ड, बोले तो भारतवर्ष पल्ले पड़ा।

हे, पाठक!
देसबासी उत्तेजित थे देस की उन्नति चाहते थे, रोजमर्रा के राजकाज में दखल चाहते थे।  नेताओं ने ऐसे वादे भी किए थे।  सो रोज-रोज के दखल की बात पर तो पटरी बैठी नहीं।  पटरी बैठी कि देसीबासी पाँच बरस में एक बार महापंचायत चुनेंगे और वह सब काम देखेगी।  चाचा पहले से बैठे ही थे। पहली तीन पंचायतों में तो वही नेता रहे। फिर वे चल बसे।  उन के ही बाएँ हाथ को उन की जगह सोंपी गई।  पर वे भी महापंचायत के पहले ही चल दिए।   फिर चाचा की बेटी आई।  उस ने  महापंचायत में अपनी जुगत लगा ली।  पर देसीबासी चाचा के खानदान से ऊबने लगे थे, देसी बनिए भी परदेसी जैसा बुहार करने लगे थे, ये बातें चाचा की बेटी को भी पता थी।  पड़ौसी की लड़ाई में दखल दे उस ने अपना लोहा मनवाया।  बनियों को रगड़ कर साहूकारों की दुकानें पंचायत के कब्जे में कीं और दूसरी बार महापंचायत में अपना लोहा मनवाया।  देसीबासी फिर भी संतुष्ट न थे, खास कर नौजवान। वे बवाल खड़ा करने लगे।  उसने दबाया और जेल दिखाई तो अगली महापंचायत में मुहँ की खाई।   देसीबासी समझ गए कि महापंचायत में वे दखल कर सकते हैं, नेता बदल सकते हैं।

हे, पाठक!
देसीबासी जब ये समझे कि नेता बदल सकते हैं तो उन्हें इस का चस्का पड़ गया।  अब तक की कथा में आप ने देखा ही है कि उन्हों ने किस कदर नेता बदले हैं,  महापंचायतें चुनी हैं? इस से सब से बड़ा खतरा देसी बनियों को हुआ।  वे नेता को पटा कर रखते, जिस से उन की दुकानें चलती रहें।  महापंचायत में चुने जाने को नेताओं को मदद करते, उन्हें स्टेरॉयड के इंजेक्शन लगाते, नेताओं के बाजूओं की बल्लीयाँ फूल जातीं।  नेताओं को भी उन की आदत पड़ने लगी।  धीरे धीरे हालात ऐसे बन गए कि ज्यादातर नेता स्टेरॉयड के ऐडिक्ट हो लिए।  थोड़े बहुत बचे तो उन के बाजुओं की बल्लियाँ लोगों को दिखाई ही नहीं देतीं।  वे चुने ही नहीं जाते, जो थोड़े बहुत चुने जाते वे महापंचायत के नगाड़ों में तूती के माफिक बने रहते।  महापंचायत में चाचा पार्टी के मुकाबिल, जो  बैक्टीरिया पार्टी कहाने लगी थी,  अलग अलग गांवों-मुहल्लों की रंगबिरंगी पार्टियाँ दिखने लगीं।  नौ वीं महापंचायत में यह सीन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता था।

आज का वक्त समाप्त, आगे दसवीं महापंचायत की कथा टिपियाई जाएगी। तब तक देखें नीचे के वीडियो।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....



शनिवार, 11 अप्रैल 2009

बोफोर्स और मंडल-कमंडल : जनतन्तर-कथा (9)

हे, पाठक!
 देश के वोट डालने वाले लोगों में से लगभग आधों ने जवानी पर भरोसा किया था।  पर नेता के इरादे सही होने पर भी शायद वह अनुभव हीन था।  मिले जुले बंद बाजार को खुले बाजार की ओर खींचने की कोशिशों के बीच तोपों का सौदा भारी पड़ा।  जब खजाँची-सेनापति ही शहंशाह की नीयत पर शक करने लगे तो बाकी मनसबदार क्यों न सरकने लगें?  उसे पद से हटाना ही मुनासिब! बाद में उस ने दरबार ही छोड़ दिया। कुछ और लोगों के साथ नई पार्टी बना ली और चुनाव जीत कर फिर से दरबार में जा बैठा।  नीति यही कहती है कि जब कोई घर का भेदी बाहर आ जाए, तो घर ढहाने को सब उस के साथ होलें।  सो सारे विपक्षी साथ हो लिए।  इधर बाहर आधा-अधूरा पंचनद चैन नहीं लेने दे रहा था कि हमने पडौसी देश की आग में हाथ दे डाला।  हाथ खींचना चाहा तो वापस खिंचा ही नहीं, वहीं पकड़ लिया गया।
हे, पाठक!
वोटों से मिला जनता का समर्थन क्षण भंगुर होता है।  वह वोट देते ही खिसक लेता है।  वोट पाने वाला समझता है वह सिकंदर हो लिया, ऐसा होता नहीं है।  घर के अंदर विरोध तो घर कमजोर, मुहल्ले के अखाड़ची रोज लंगोट घुमा जाएँ,  ऐसे में अपना घर संभालने के बजाए पड़ौसी का झगड़ा सुलझाने को अपने लठैत वहाँ भेज दें और मंदिर-मस्जिद झगड़े का ताला खुलवा दें तो क्या होगा? वही नौजवान शहंशाह का हुआ।  सारी जमातें एक हो गईं। यहाँ तक कि उत्तर-दक्खिन ध्रुव एक हो लिए।  चुनाव में भारी मोर्चा लगा।  फिर चुनाव की शतरंज बिछ गई। हाथी तो तोप प्रकरण ने मार लिए। घोड़े पड़ौसी के यहाँ लठैती में चले गए। अब ऊँटों के जरिए कहाँ तक बाजी संभलती। 
हे, पाठक!   
नौ वीं लोक सभा के लिए नतीजे उलट गए।  इस बार पेटी ने ताकत आधी से भी कम रहने दी।  घर-भेदी को पंचों ने गद्दी पकड़ा दी।  घर-भेदी पिछडों को आरक्षण की तरफदारी मंडल कर गया था।   उस ने सारा जोर आरक्षण बढ़ाने में लगा दिया। इधर पंचों के इरादे ठीक न थे।  ताकत के बल पर मंदिर-मस्जिद का झगड़ा निपटाने का प्रचार करना फायदे का सौदा लगा।  कुछ पंच कमंडल ले कर जातरा पर निकल पड़े।  दूसरे पंच के यहाँ पहुँचे तो उस ने जातरी को जेल पहुँचा दिया।  आग में घी पड़ चुका था।  पंचों की एकता छिन्न भिन्न हो गई।  घर के भेदी का समय इतना ही था।  दरारें दिखते ही कभी के युवा तुर्क जवान नेता की बैक्टीरिया पार्टी की तरफ झाँका, -तुम सहारा दो तो मैं भी तमन्ना पूरी कर लूँ?  उन्हों ने अपनी हथेली लगा दी।  युवा तुर्क गद्दी पर पहुँच गए।  बड़ों की हथेली पर छोटों की गद्दी ज्यादा दिन नहीं टिकती। हथेली हिली कि गद्दी गिरी।  यह हथेली जल्दी ही हिल गई।  पाँच साल के चौथाई वक्त, सवा साल में ही दसवी महापंचायत के लिए रणभेरी बज गई।

आज कथा यहीं तक, लेकिन आगे जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

जनतन्तर-कथा (8) : देश ने जवानी पर भरोसा किया

हे, पाठक!
यह भारतवर्ष का आठवीं पंचायत का चुनाव था।  लट्ठा पार्टी बिखर चुकी थी।  दो बरस से भी कम समय में लट्ठों ने अपनी अपनी नालायकी साबित कर दी थी।  उधर चाचा की बेटी अपनी तमाम करतूतों  के बावजूद भी अपनी योग्यता में विश्वास कायम रख पाने में सफल थी।  भारतवर्ष की बेचारी जनता उस के सामने विकल्प ही कहाँ थे? वह समझ रही थी कि पिछले दशक की भवानी ने पिछले चुनाव नतीजों से जरूर कुछ सबक लिए होंगे, सुधार गृह से जरूर कुछ सीखा होगा। अब पहले जैसी गलती दोहराई नहीं जाएगी।  हमारे यहाँ कोई अपराधी पकड़ा जाता है तो उस के काले कारनामों से अखबार रंगे जाते हैं।  वह सजा पाकर लौटता है तो दया का पात्र बन जाता है। दस्यु सरदार पंच होने की योग्यता हासिल कर लेते हैं।  चाचा की बेटी को फिर कुरसी बख्श दी, वह भी अच्छे खासे बहुमत से।  लट्ठा पार्टी को वरदान मिला पुनर्मूषको भव! उसे पिछले चुनाव में जितना नवाजा गया था, इस बार  उस का दस परसेंट ही रहने दिया गया।  पब्लिक ने चाचा की बेटी को फिर से कुरसी बख्शी।  लेकिन इस बार लगता था कि कुदरत का कहर टूट पड़ा।  छह माह भी न बीते थे कि माँ की लुटिया डुबोने में सहयोग करने वाला बेटा दुनिया छोड़ गया।  वह जहाज उड़ाने गया था, ऐसा जिसे उड़ाने का उस पर लायसेंस नहीं था।   जहाज टपक गया और जहाज के साथ बेटा भी।  आम औरत होती तो इस सदमे से उबरने में बरस लग जाते।   पर वह तुरंत देश संभालने लग गई, जैसे बेटे की मौत का सदमा, उस सदमे के कहीं नहीं लगता था जो कुरसी जाने पर लगा था।  पर इस बार देश पहले जैसा नहीं था और कुरसी भी। दोनों जगह काँटे उग आए थे।

हे, पाठक!
पहले जब बंग देश में युद्ध लड़ा गया था, तो हजारों शरणार्थी इधऱ उत्तर-पूरब खंडों में घुस आए थे।  तब वहाँ के लोगों ने उन आफत के मारों की मेहमान की तरह खूब सेवा की।  अब मेहमान वापस जाने का नाम नहीं लेते थे।  मेहमान खुद आफत बन चुके थे। लोकल लोग उन से दुखी।  वे सब अलोकलों से उलझ पड़े।  इधर पच्छिम के आधे-अधूरे पंचनद में खालसा देश के नाम पर दहशतगर्दी परवान चढ़ रही थी।  पवित्र मंदिरों पर कब्जे हो चुके थे।  कुछ करते नहीं बनता था।  आखिर फौज काम आई।   दहशत कुचल दी गई।  लेकिन फौज को बूटों ने मंदिर में जिस तरह चहलकदमी की उस से गौ-ब्राह्मण की रक्षार्थ बने पंथ के बहुत से अनुयायी गुस्से से भर गए।  इतना गुस्सा कि एक दिन चाचा की बेटी अपने ही अंगरक्षक के भीतर भरे गुस्से का निशाना बनी, और एक युग समाप्त हो गया।

हे, पाठक!
सारा देश शोक में डूब गया।  करतूत एक आदमी के भीतर भरे गुस्से की थी।  लेकिन उसे पूरे पंथ का गुस्सा समझा गया। रातों रात सांप्रदायिकता फैल गई।  इस बार उसे फैलाने वाले लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो सेकुलर होने का तमगा लटकाए घूमते थे।  हजारों घर-परिवार इस आग के शिकार हुए।  इस आग  ने जो जख्म दिए उन्हें आज तक भी नहीं भरा जा सका।  जख्म भरें भी कैसे? आज तक उस आग के गुनहगारों को सजा तक नहीं दी जा सकी।  खैर ऐसे माहौल में पंचायत बर्खास्त कर दी गई।  चुनाव तक चाचा के नाती को नेता मान काँटों भरी कुर्सी पर बिठा दिया गया।  एक औरत को उस के ही घर में कत्ल कर देने से सहानुभूति का  जो जज्बा पनपा था, उस के चलते अगले चुनाव के नतीजों से जो रिकार्ड बना, वह अभूतपूर्व था और आज तक कायम है।  पर वाह रे, भारतवर्ष के जनतंत्र !  उस बरस चाचा के नाती की पार्टी पंचायत के 81 फीसदी से भी ज्यादा स्थानों पर काबिज हो गई।  फिर भी उसे मिले वोटों का हिस्सा पचास फीसदी तक भी नहीं पहुँच पाया।  जो लोग वोट डालने नहीं गए वे तो अलग थे ही।

हे, पाठक!
कुछ बरस पहले तक जो हवाई जहाज चलाता था।  राजकाज से जिसे कोई लेना देना न था।  जो एक परदेसी रमणी से विवाह कर अपने आप में लीन था।  देश ने पहली बार जवानी पर भरोसा किया।  उसे इतनी ताकत दी कि जो चाहे सो कर ले।  उस ने देश को अपने तरीके से चलाने की कोशिश की।  उसने ऊँची उड़ाने उड़ी थीं, यहाँ  क्यों नीची उड़ान उड़ता?  उस ने देश को दुनिया से जोड़ने का बीड़ा उठाया।  देश में तेजी से कम्प्यूटर आने लगे।

आज फिर वक्त हो चला है, कथा आगे भी जारी रहेगी।
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