@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 17 मई 2011

'सिरफिरा' की प्यारी प्यारी प्रति-टिप्पणियाँ

विचारमग्न
मैं ने अपनी पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता में रमेश कुमार जैन का उल्लेख किया था। इन का तखल्लुस 'सिरफिरा' है।  वे पत्रकार हैं, साथ में पुस्तकें विक्रय करने, विज्ञापन बुक करने, अखबार व पुस्तकें प्रकाशन का कार्य करते हैं। सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों में रुचि रखते हैं और उन का दखल मानवता के पक्ष में होता है। इस मामले में वे समझौता भी नहीं करते। बीच में कुछ व्यक्तिगत परिस्थितियों ने उन के इन कामों में बाधा पैदा की। वे निराश भी हुए। लेकिन अब उन के पास कुछ अच्छे साथियों का साथ है। वे बहुत कुछ इस निराशा से निकल चुके हैं। मुझे विश्वास है कि वे शेष निराशा को भी जल्दी ही यमुनाशरण भेज देंगे। इसी बीच उन्हों ने हिन्दी ब्लागरी को अपनाया और उस का एक अभिन्न हिस्सा बन गए। मुझे यह भी विश्वास है कि वे शीघ्र ही यहाँ कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं। उन के पत्रकारिता, प्रकाशन, विज्ञापन संग्रहण और पुस्तक विक्रय के अनुभव का ब्लागरी को लाभ मिलेगा। मेरा जो ब्लागरों के सहकारी प्रकाशन का विचार है, यदि उस ने मूर्तरूप लिया तो उस के सब से मजबूत स्तम्भों में रमेश जी एक होंगे। 
क्त पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता के एक-एक चरण के जो सटीक और तार्किक उत्तर दिए उन्हें मैं ने अनवरत की पोस्ट क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी में प्रस्तुत किया था।  इस पोस्ट को पढ़ने मात्र से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रमेश जी कैसे व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बस उन की चौथी टिप्पणी छूट गई थी, उसे आज पोस्ट कर रहा हूँ। उन्हों ने उस पोस्ट उद्यमी ठाला नहीं बैठता पर आई  सभी टिप्पणियों पर अपनी प्रतिटिप्पणियाँ भी लिखीं हैं। वे उन्हें उसी पोस्ट पर प्रकाशित भी करना चाहते थे, लेकिन उस दिन ब्लागर के बंद रहने के कारण ये प्रति टिप्पणियाँ उन्हों ने मुझे  मेल कर दीं। उन प्रतिटिप्पणियों को भी मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-

पोस्ट पर चौथी टिप्पणी
अब कुछ लिखते हुए
गुरुवर:-अंत में सिरफिरा जी ने जो कहा वह बात जरूर दिल को लगने वाली है, लेकिन है बहुत जबर्दस्त। वे कहते हैं-किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. बोलो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? उन की ये बात बहुत सारे ब्लागरों को तीर सी चुभ कर उन्हें घायल कर सकती है। वे सोच सकते हैं कि " लो ये आया है कल का ब्लागर, जो अभी अजन्मा है, कह रहा है कि लिखना ऐसा चाहिए जिसे आम आदमी खरीद कर ले जाए। ये कौन होता है हमें सिखाने वाला? हम ब्लागर हैं, ब्लागर। बस कंप्यूटर चालू कर के बैठते हैं और की-बोर्ड पर उंगलियाँ चलने लगती हैं। जो टाइप कर देते हैं वही हमारा लेखन है। सोच समझ कर लिखा, तो क्या लिखा? खैर! आप कुछ भी सोचें मुझे तो सिरफिरा जी कह ही चुके हैं कि मेरी किताब वो छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी भी देंगे। तो मैं क्यों देर करूँ ? चलता हूँ अपनी पोस्टों को संभाल कर, उन का संपादन करने, उन की पाण्डुलिपि तैयार करने। उधर तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट भी लिखनी है। तब तक आप गिनते रहिए कि सहकारी की सौ की संख्या कब पूरी होती है। बस सौ हुए, और सहकारी शुरू।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपने कड़वी सच्चाई को इतनी बेबाकी से रखकर न जाने कितनों को मेरा दुश्मन बना दिया है.लगता है तीन-चार ब्लोगरों ने मान-हानि के नोटिस तो जरुर तैयार करवा दिए होंगे. एक-दो दिन आपके पास या मेरे पास आते ही होंगे. आज इतनी मंहगाई में आम आदमी बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरतों की चीज़ या पुस्तक खरीदता है. तब उसके पास हर दूसरी किताब खरीदने के लिए पैसे कहाँ होंगे? मैं आप (तीसरा खम्बा) की अंधिकाश नई व पुरानी पोस्टें पढ़ चुका हूँ. उपरोक्त किताब द्वारा जानकारी आम-आदमी तक अगर पहुंचती हैं.तब उसके लिए लाभदायक होगी, क्योंकि आम-आदमी ऐसी कई परेशानियों से रोज रूबरू होता है और सही जानकारी न मिलने पर शोषित होता है. यह मेरा आपसे पिछले नौ महीने से जुड़ने के बाद महसूस किया और कुछ भ्रष्टाचारियों की नाक में दम कर रखा है. तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट का बेसब्री से इन्तजार है.

गुरुवर:-रमेश कुमार जैन साहब किताब भी छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी देने को भी। लेकिन मेरे संपादन में समय तो लगेगा और उधर सहकारी शुरू होने में भी। तो तब तक सिरफिरा जी फालतू बैठ कर क्या करेंगे? बहुत सारे ब्लागर बीस-बीस हजार दे कर किताब छपवाने को तैयार बैठे हैं। मेरी जैन साहब को सलाह है कि तब तक उन से कुछ कम-ज्यादा कर-करा कर किताब प्रकाशन का काम तुरन्त शुरू करें। उद्यमी ठाला नहीं बैठता। उन्हें भी नहीं बैठना चाहिए।

सिरफिरा:- गुरुवर! जब तक समय लगता है। तब तक कुछ अपनी उलझनों से भी निकल लेता हूँ और कुछ प्रकाशन परिवार में फैली अव्यवस्था को ठीक कर लेता हूँ। साथ में कुछ यारे-प्यारे का डाटा भी तैयार कर लेता हूँ।  इसलिए ठाली बैठने का सवाल नहीं उठता है। मुझे 20-20 हजार रूपये लेकर किताबें छापनी होतीं तो अब तक प्रकाशन परिवार के 14 वर्षों में कम से कम 140 बुक छाप दी होती।  मुझे किसी को यह नहीं दिखाना कि देखो मैं इतना बड़ा प्रकाशक हूँ, या कोई इनाम/अवार्ड नहीं लेना है।  किताब एक-साल में एक या दो ही प्रकाशित हो, मगर उसकी सामग्री और बिक्री इतनी अच्छी हो कि एक साल में कम से कम दो बार उसका संस्करण प्रकाशित करने की जरूरत पड़े। थोड़े से चाँदी के कागजों के लिए, या यह कहूँ अपने आपको अमीर और गाड़ी वाला दिखाने के लिए "कुछ भी" छापना शुरू कर दूँ।  आज मुझे अपनी गरीबी पर अफ़सोस नहीं है। मगर ऊपर वाले के खाते में अमीरों की सूची में पहला नहीं तो दूसरा स्थान तो पक्का है। आपको हमेशा मेरे उपनाम "सिरफिरा" पर एतराज था।  अब बताइए कि न आधा और न उससे थोडा ज्यादा, हूँ पूरा का पूरा सिरफिरा हूँ कि नहीं?  रहता इस दुनिया में और ख्याब उस दुनिया के देखता है। अब थोडा-सा आपकी अनुमति से जरा टिप्पणीकर्त्ताओं को भी प्यारे-प्यारे जवाब दे दूँ।

 रमेश कुमार जैन 'सिरफिरा' की प्रति टिप्पणियाँ

@अविनाश वाचस्पति जी,  
भूमिगत होने का अनुभव भी है।
आपने कहा कि-  मतलब सिरफिरा तो वे खुद हैं, बीस बीस हजार लेकर सिर फिरा देंगे सब हिंदी ब्‍लॉगरों का। मेरे से एक लाख ले लें और अडवांस में रायल्‍टी दे दें।
सिरफिरा: आदरणीय अविनाश वाचस्पति जी!  वैसे आपकी टिप्पणी का जवाब मेरे गुरुवर दे दिया है. मगर यह नाचीज़ शिष्य अपने गुरुवर की डांट (प्यार) के लिए थोड़ी सी गुस्ताखी कर रहा है।  मेरी आपसे किसी प्रकार व्यक्तिगत लड़ाई या मेरे मन आपके प्रति द्वेष भावना नहीं है। अगर विश्वास न हो, पूर्व सूचना देकर मेहमान नवाजी का मौका देकर देख लें। मगर मेरी विचारों की भिन्नता को लेकर स्वस्थ मानसिकता से आपकी बात को लेकर बहस मात्र है और आपकी कथनी और करनी को जाने की इच्छा मात्र है।  मेरे पास आप जितना ज्ञान नहीं है,  मेरे लेख भी आप जितने प्रकाशित नहीं हुए हैं।  मेरे पास सम्मानों का बहुत बड़ा ढेर भी नहीं हैं। आप द्वारा प्रचारित तीनो हरियाणवीं फ़िल्में देख रखी हैं और गुलाबों के एक गाने के कुछ बोल आज भी याद हैं। जितनी पत्र-पत्रिकाओं के लिए आप लिखते हैं उनमें से एक-दो को छोड़कर, बाकी सब के लिए अपने अच्छे दिनों में विज्ञापन बुक किया करता था। मेरे ब्लागों पर लोग भी इतने नहीं आते हैं, जितने आपके ब्लॉग पर आते हैं। आपसे हर मामले में तुच्छ (नाचीज़) हूँ।  अब आप कह रहे हैं कि मेरे से एक लाख ले लें, चलिए आप बता दीजिये एक लाख रूपये नकद देंगे या चेक से देंगे।  इस पर ब्याज कितना लेंगे। मेरी हैसियत 9 प्रतिशत वार्षिक की है।  हर महीने बिना मांगे 750 रूपये का चेक आपके संतनगर वाले घर पर 11 तारीख को पहुँच जाया करेगा। अगर आप अपना किसी काम के लिए, या किसी विज्ञापन, या इन दिनों मेरी जरूरत के अनुसार कर्ज के बतौर आप एक लाख रूपये दे मुझे दे सकते हों तो अवश्य दें। वरना इन चंद कागज के टुकड़ों का आपकी सेफ में रहना ही बेहतर है।  आपको मेरी आप को तुच्छ सलाह है कि आप खुले आम किसी को रूपये देने का प्रस्ताव न करें।  किसी सिरफिरे ने जिद्द पकड ली, तब आपको देने में मुश्किल होगी। आप एक लाख रूपये की बात तो दूर छोडिये मेरी मेहनत की कमाई से लिये "कैमरे के सैल और उसका चार्जर ही ढूंढ़वाकर भिजवा दें। एक बात आप हमेशा ध्यान रखें कि भारत देश की धरती पर जब तक यह "सिरफिरा" पत्रकार जीवित रहेगा, उसे कोई माई का लाल चंद कागज के टुकड़ों से खरीद नहीं सकता। मुझे मरना मंजूर है, लेकिन बिकना मंजूर नहीं। बाकी रही अडवांस में रायल्‍टी देने की बात, तो पहले किताब या लेखक को हमारे मापदंड पूरे करने होंगे, फिर अनुबंध  होगा। उसके बाद आगे की प्रक्रिया शुरू होगी। वैसे भी गुरुदेव का कहना है कि रॉयल्टी का सम्बन्ध किताब की बिक्री से होता है। बिना किताब लिखे रायल्टी पाने वाले लोग दुनिया में बिरले ही मिलेंगे। मेरा आपका किसी प्रकार अपमान करने का इरादा नहीं है। अगर आप मानें तो ठीक, नहीं तो आप अपने ब्लागों पर किसी भी शैली (व्यंग, विरोध और द्वेष प्रेरित लेख) के माध्यम से हमारी टांग खिंचाई कर सकते है। आपके दर्शनों का अभिलाषी और अतिथि संस्कार का इच्छुक-सिरफिरा।

@ उड़न  तश्तरी ब्लॉग के श्री समीर लाल जी! 
आपको भी बहुत शुभकामनाएँ! ...मुझे आपकी शुभकामनाएँ मिल गई है। अब आप लोगों की दुआएँ और साथ चाहिए।

@ज्ञानदत्त पाण्डेय,  
किंडल जैसे उपकरण मुझे जानकारी नहीं है। मगर मुझे नहीं लगता कि किताबों पर कभी चर्चा समाप्त होगी। यानि किताबों का आस्तित्व खत्म हो जायेगा। लेकिन छोटे बच्चों को अ.आ.इ और ए.बी.सी किताब से ही सिखाई जाती रहेंगी।
.
@सतीश सक्सेना जी, 
 सूरज की किरणें जहाँ-जहाँ पड़ती है। वहीँ पर रौशनी होती है।  गुरु के ज्ञान के बिना शिष्य अधूरा रहता है।

@अख्तर  खान  अकेला जी, 
पहले पोल खोलक यंत्र एक व्यक्ति बजता था।  अब एक और एक, ग्यारह समझो या दो बजायेंगे। 

@अनूप शुक्ल जी, 
आपने सही कहा कि किताब अगर छपें तो दाम कम रखना सबसे अहम बात है। वर्ना किताब खपाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

@काजल  कुमार जी,  
आपने कहा कि-अनूप जी से असहमति...किताब खूब मंहगी होनी चाहिये, लेकिन उसके छपे मूल्य पर 80%-90% तक डिस्कांउट का फंडा रहना चाहिये ताकि जैसा मुंह देखें वैसे ही चिपका दें :) बहुत अधिक मूल्यों वाली किताबें कालर खड़े करने का भी मौक़ा देती हैं, लेखक भी 'बेचारा' नहीं दिखता :)
    सिरफिरा: ऐसी किताबें दोस्तों फ्री में बाटने के बाद लेखक या प्रकाशक की अलमारी में धूल फांकती है या कोई दस साल बाद कबाड़ी के पास 10-15 रूपये किलो बिक रही होती हैं। छपे मूल्य पर 80%-90% तक डिस्कांउट का फंडा किताब की छवि को धूमिल करने के सिवाय कुछ नहीं करता है। जैसा मुंह देखें वैसे ही चिपका दें,  हम यहाँ भी तिकडम या धोखाधडी के सोचते हैं। बिजनेस में अच्छी सोच रखने पर परिणाम भी अच्छे आते हैं।  किताबें कालर खड़े करने का भी मौक़ा देती हैं, एक अच्छी किताब लेखक के पास "कालर" खड़े करने के हजारों मौके पैदा करती है, लेखक भी 'बेचारा' नहीं दिखता।  हमारा इतिहास गवाह है लेखक बेचारा ही बनता हैं। अमीरों को नोट गिनने से फुर्सत कहाँ मिलती हैं?  अगर आपको जानकारी हो तो देना कि क्या किसी अमीर ने कभी कोई किताब (आत्मकथा और रविन्द्रनाथ टैगोर व टॉलस्टॉय जैसे अपवादों को छोड़कर) जनहित हेतु लिखी है?

@अरविन्द  मिश्र जी,  
आपने कहा कि-विचारणीय मुद्दा -कितनी ही बार तो इस विषय पर चर्चा हो चुकी है, मगर कोई निष्कर्ष नहीं दिखता!
    सिरफिरा: जरुर निकलेगा मगर बगैर किसी प्रकार की द्वेष भावना के स्वस्थ बहस की जाए तो निष्कर्ष निकलता है। 

@प्रवीण पाण्डेय जी,  
आपने कहा कि-पुस्तक छपाने की उत्कण्ठा सबमें होती है, पर आज से 10 वर्ष बाद का सोचें तो पुस्तकें उतनी उपयोग में नहीं रह जायेंगी। नेटीय साहित्य बहुत अधिक पढ़ना हो रहा है, अभी उर्वशी पढ़ी है।
    सिरफिरा: पुस्तक छपाने की उत्कण्ठा सबमें होती है, दोस्त आपने कहा है। आज से 10 वर्ष बाद का सोचें तो पुस्तकें उतनी उपयोग में नहीं रह जायेंगी, इसके लिए कम से कम 20 साल समय लग जायेगा। ऐसा हो सकता था, मगर हमारे देश के स्वार्थी नेताओं ने कभी विचार नहीं किया। नेटीय साहित्य में अभी आपने उर्वशी पढ़ी है। इन्टरनेट आज भी आम-आदमी के लिए बीरबल की खिचड़ी है। उसकी पहुँच के लिए देश की बहुत सी व्यवस्थाओं को ठीक करने की जरूरत है। आज जनता का अधिक समय तो छोटे-छोटे कार्यों में खर्च हो जाता है। जैसे-राशन कार्ड में अपना नाम या आयु सही करवानी है। उर्वशी का लिंक मुझे भी भेजें हम भी जरा पढ़ लें, अगर इन्टरनेट का नेटवर्क लगातार सही आता रहा तो।

@बड़े भाई श्री खुशदीप सहगल जी, 
आपके बारें में जानकारी प्राप्त हुई कि आप न्यूज चैनल में है। पिछले दिल्ली नगर निगम 2007 के चुनाव में प्रत्याशी की कवरेज (विज्ञापन) का रेट 25 हजार रूपये था। इस बार (मार्च 2012) आपकी मदद से मेरा काम सस्ते में हो सकता है।  आपका नारा (हमारा नेता कैसा हो, सिरफिरे भाई जैसा हो....) मेरा एक मतदाता 2007 और 2008 में भी लगा चुका है। इस बार आपके चैनल पर लगाया जाए तो कैसा रहे? अपने छोटे भाई का तीसरी बार फिर से चुनाव चिन्ह "कैमरा" याद रखना और अगर आपका पहचान पत्र नहीं बना हो तो ५०० रूपये कुछ लोग बना रहे हैं। जल्दी से बनवा लीजिए। इस बार आपकी वोट मुझे ही चाहिए होगी.जय हिंद...

@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी, 
अच्छी और सस्ती किताबों के वितरण में थोड़ी कम समस्या होती है।

@डा० अमर कुमार जी,  
आपकी तरह सब किस्मत के धनी नहीं होते।

@रवि कुमार स्वर्णकार जी, 
एक अच्छा उद्यमी कभी दूसरे उद्यमी को ठाला नहीं बैठने देता है।

@ राज भाटिय़ा जी, 
आपका पूरा ध्यान रखा जायेगा।  वैसे हमें कहाँ यह लिखना विखना आता है।  हम क.ख.ग... को बस जोड़ लेते हैं। बस, रेल में बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वैसे आपकी  रिटायरमेंट कब हो रही है? और ब्लागरों ने अब तक फैसला लिया भी नहीं है कि ब्लागर की रिटायरमेंट कब होगी? क्या जब वो "सिरफिरा" हो जायेगा तब? चलिए अब बिजनेस की बात पर आते हैं, श्रीमान जी आप कितनी किताब लेना चाहते हैं? देखिये एक-दो किताब पर कमीशन देना संभव नहीं होगा।  अगर हर महीने कम से कम दस किताबें लेंगे तब आपको दो महीने के बाद ही अलग से बोनस भी दिया जायेगा। आपका चैक कब आ रहा है हमारे पास? जरुर बतायें?

@निर्मला कपिला जी,  
आपकी बधाई और शुभकामनायें मिल गई हैं, मगर रॉयल्टी लेने के लिए लेखक को मापदंड (रिश्वत कहे या पैसे और सिफारिश नहीं) पूरे करने होंगे। 

@हकीम  युनुस  खान जी,  
धन्यवाद! खुदा के फज़ल से कोशिशें ही सफल होती हैं। 

@सुनील  कुमार जी, 
आपने कहा कि-सिरफिरा जी ने सर घुमा दिया सवेरे-सवेरे, बात तो लगभग ठीक ही है।
   सिरफिरा: भाई आप अपना सर मत घुमाओ, अगर आप लोग साथ दो तो मैं हमारे देश के स्वार्थी नेताओं का सर घुमाना चाहता हूँ।  इनका सर घुमाने के बाद शायद ये घोटालों की न सोचकर देश के विकास की बात करें और सोचें। उसके बाद मजदूर की तरह उसमें जुट भी जाएँ। एक बार आप दुबारा बगैर "ही" का प्रयोग करें। कह दो न कि बात तो लगभग ठीक है। इस अजन्में बच्चे की जिद्द पूरी नहीं करोंगे भाई। 

@अख्तर खान अकेला जी,  
आपने कहा कि-वाह भाई जान सिरफिरा जी को समर्पित यह पोस्ट भी जीवंत है.
    सिरफिरा:जब से गुरु-चेले की बातचीत शुरू हुई है, तब से टिप्पणीकर्त्ताओं के सर घूम गए हैं और जिन पिछली 8 पोस्टों में गुरु-चेले नहीं थें, वहां टिप्पणी का औसत 18.25 था. गुरु-चेले की 2 पोस्टों में यह औसत सिर्फ 14 रह गया है।  लोग अपने सिरों के इलाज़ के लिए डाक्टरों की दवाइयां खा रहे हैं। आप मेरे गुरु को चने के झाड़ पर चढाओं नहीं, नहीं तो दोनों गुरु-चेला औंधे मुंह गिर जायेंगे।

@अरविन्द मिश्र जी, 
क्षमा चाहता हूँ.आपका सिर फिर गया है-गोल गोल, वैसे तो पृथ्वी घूमती गोल-गोल। मुझे क्या पता था आप लोगों के भी सिर "फिर" जायेंगे, मेरा लक्ष्य मछली की आँख (हमारे देश के स्वार्थी राजनीतिकज्ञ) थे। यानि मेरा तीर दिशाहीन हो गया।  अब गुरुवर के अनुभव का लाभ प्राप्त करके तीर सही निशाने पर लगाऊंगा। मेरे गुरुवर ने पूरी रामायण सुना दी आप पूछ (ये माजरा क्या है?) रहे हैं कि-सीता जी, राम की पत्नी थी या रावण की?

@बड़े भाई खुशदीप सहगल जी,  
आप श्री अरविंद जी वाला ही उत्तर पढ़ें, आपका हाल भी उनके जैसा लग रहा है. जय हिंद!
    ऐसे में...होठों को करके गोल, सीटी बजा के बोल...के भईया आल इज़ वैल......थ्री-इडियट आपने देखी, उसका उद्देश्य बहुत अच्छा था। काश! उसका संदेश पूरे देश में फ़ैल जाए तब भारत देश सबसे मजबूत होगा। आपका एक इडियट दोस्त कहूँगा। क्योंकि आपने छोटा भाई मानने के मंजूरी नहीं दी है.-आपका "सिरफिरा"

@डॉ. अनवर जमाल जी, 
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! ग़ज़ल के लिए भी, जो मैंने पूरी पढ़ ली है।

@प्रवीण पाण्डेय जी,  
आपने कहा कि-चौथी टिप्पणी भी पढ़ते हैं, आने के बाद। फिर देर किस बात की पढ़ लीजिये, आपकी खिदमत में हाजिर है टिप्पणियों पर आधारित उपरोक्त पोस्ट। मेरे हजूर!
@सतीश सक्सेना जी, 
सूरज की किरणें जहाँ-जहाँ पड़ती है, वहीँ पर रौशनी होती है। गुरु के ज्ञान के बिना शिष्य अधूरा रहता है। किसी गुरु-चेले में इतनी कहाँ हिम्मत होती जब तक आप जैसे दोस्त, भाई का साथ न मिले। अरे! आपने यह क्या कह दिया कि-सर मेरा भी घूम रहा है, भाई जल्दी से डॉ. साहब से इलाज कराओ, नहीं तो हमारे प्रकाशन की किताबों की बिक्री कौन करेंगा? फिर हमारा यह बिजनेस शुरू होने से पहले ही बंद न हो जाये। वैसे क्या आपको डॉ. अनवर जमाल जी की दवाइयां सूट करती है या नहीं?

@रचना जी,  
आपने कहा कि-आजकल लगता हैं आपके पास समय बहुत हैं!!! एक आसान तरीका हैं स्पेममार्क करने का कमेन्ट में।
सिरफिरा: इसका जवाब आपको मेरे गुरुवर जी देंगे, क्योंकि उनका इस नाचीज़ शिष्य का तकनीकी ज्ञान अधूरा है। इसलिए क्षमा चाहता हूँ। 

@पटली-The -Village जी, और @संजय भास्कर जी,  
आप दोनों का बहुत-बहुत धन्यवाद! 
 रमेश कुमार जैन सिरफिरा द्वारा लिया गया चित्र

 शाहनवाज आँख बन्द कर मोबाइल पर नंबर डायल करते हैं

सोमवार, 16 मई 2011

लगी लगाई नौकरी के छूट जाने से किस्मत के दरवाजे भी खुल सकते हैं

चानक बोदूराम की लगी लगाई नौकरी छूट गई। वह बड़े भाई की जगह नौकरी लगा था। हालाँकि तब उस का बड़ा भाई जीवित था पर अस्वस्थ हो गया था। अस्वस्थता के बावजूद वह नौकरी करता रहा। वह पूरी ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य करता। मालिकान उस की कर्तव्य परायणता से प्रभावित थे, इतने कि एक बार तो मालिकान में से कुछ उसे जनरल मैनेजर बनाने का प्रस्ताव कर बैठे थे। वह तो उसी ने मना कर उन्हें संकट से उबार लिया था। लेकिन फिर घर वाले बहुत नाराज भी हुए, कि आखिर जनरल मैनेजर बनने का प्रस्ताव उसने क्यों ठुकरा दिया? बाद में वह खुद भी मानने लगा कि उस ने ऐसा कर के ऐतिहासिक गलती की थी। फिर एक दिन ऐसा आया कि उस की अस्वस्थता बढ़ने लगी। उसे कर्तव्य पूरा करने में परेशानी होने लगी। आखिर उस ने इस्तीफा दे दिया। उस ने पूरे तेईस साल तक कर्तव्य निभाया था। मालिकान ने उस की सेवाओं का कर्ज चुकाने को उस के भाई बोदूराम को उस की जगह नौकरी दे दी।

बोदूराम अपने भाई से कम हुनरमंद नहीं था। कुछ अधिक ही था। उस ने भाई वाला काम संभाल लिया। उस से बेहतर करने लगा। सब लोग उस की तारीफ भी करते। लेकिन उस का ध्यान केवल काम की और ही लगा रहता। वह किसी की न सुनता। धीरे-धीरे कंपनी के दूसरे अधिकारी, कर्मचारी नाराज रहने लगे। उस की शिकायत करने लगे। कोई भी काम खराब होता झट से उस के मत्थे थोप दिया जाता। वह समझ ही नहीं पाता कि आखिर उस से ऐसा क्या हुआ है जिस से हर बुरी चीज उस के मत्थे थोप दी जाती है। वह अपने खिलाफ आरोपों का जोरदार खंडन करता। अपने किए कामों की सूची गिना देता। उस का ध्यान इस और गया ही नहीं कि कंपनी  में उस के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। उस ने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। लोग उस से अधिक से अधिक नाराज होने लगे। शिकायतें बढ़ने लगीं। वह इसी दंभ में फूला रहा कि जब वह सब कुछ ईमानदारी से कर रहा है तो उसे आँच पहुँचाने वाला कौन है? 

खिर उस की शिकायतें इतनी हो गई कि पूरी कंपनी में खबर फैल गई कि इस बोर्ड मीटिंग के बाद उस का पत्ता साफ हो जाएगा। वह फिर भी कहता रहा कि उस का कुछ न बिगड़ेगा। लेकिन बोर्ड मीटिंग हुई,  ऐसा नहीं था कि उस के समर्थन में लोग नहीं थे। लेकिन समर्थन का स्वर कमजोर पड़ गया और उसे निकाल दिया गया। उस ने भी मान लिया कि उसे निकाल दिया गया है, वह घर आ बैठा। अभी उस के घर पर मिलने वालों का ताँता लगा हुआ है, लोग उस के पास ऐसे आ रहे हैं जैसे किसी के घर स्यापा करने जाते हों। जो आता है वही अफसोस जताता है। कहता है गलती तो तुमने कुछ भी न की थी, बस षड़यंत्र का शिकार हो गए। उस की समझ में यह नहीं आ रहा है कि वह लोगों को क्या कहे? 

ज सुबह उस के यहाँ एक आदमी आया और कहने लगा -तुम्हारी किस्मत सही थी जो तुम्हें नौकरी से निकाल दिया गया। एक तुम्हीं थे जो कंपनी को बरबाद होने से रोक रहे थे। कंपनी अब लाभ का सौदा नहीं रही है। मरी हुई लाश से पेट भरने वाले गिद्ध मंडराने लगे थे। तुम उन के मार्ग की रुकावट थे। तुम्हें निकाल दिया गया। अब मार्ग में कोई बाधा नहीं है। गिद्ध अपना पेट भर सकते हैं। तुम काबिल आदमी हो। यही एक काम नहीं है जिसे तुम कर सकते हो। तुम चाहो तो अपना काम खुद का काम कर सकते हो। अपनी खुद की कंपनी खड़ी कर सकते हो। पहले तुम्हारे भाई भी यही कहता था कि वह जरूर अपनी कंपनी खड़ी कर लेगा। लेकिन उस ने अपना जीवन कंपनी की सेवा में गुजार दिया। तुम्हें भी न निकाला जाता तो तुम भी यही करते। अब तुम्हें मौका मिला है तो आज से ही अपना काम शुरू कर दो।  ऐसे बहुत उदाहरण हैं जिन्हें नौकरी से निकाला गया और वे अपना खुद का काम आरंभ कर के बहुत बड़ी हस्ती बन गए। जो नौकरी में रह गए वे पूरी जिन्दगी मालिकों की सेवा करते रहे, सेवक ही बने रहे। तुम चाहो तो खुद मालिक बन सकते हो। लगी लगाई नौकरी के छूट जाने से किस्मत के दरवाजे खुलने का अवसर सामने होता है।
बोदूराम को मिलने आया आदमी चला गया। लेकिन बोदूराम को विचलित कर गया। बोदूराम सोच रहा है क्या करे? वापस कहीं नौकरी पाने का यत्न करे या खुद का काम आरंभ करे।

रविवार, 15 मई 2011

पेट्रोल 100 रुपए लीटर न हुआ

कोई दो माह से हल्ला था कि तेल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बढ़ रहे हैं, तेल कंपनियों को घाटा हो रहा है, भारत में कभी भी  दाम बढ़ाए जा सकते हैं। सांत्वना यह थी कि कम से कम चार राज्यों के चुनाव तक तो नहीं ही बढ़ेंगे। हम भी तसल्ली से बैठे हुए थे। जब चुनाव संपन्न हो गए तो चर्चा फिर गरम हो गई। हमें भी विश्वास हो गया कि अब तो दाम बढ़ने ही वाले हैं। हम अक्सर एक ही पेट्रोल पंप से पेट्रोल लेते हैं। हमें यह विश्वास है कि वहाँ पेट्रोल मे मिलावट न होगी और कम भी न दिया जाएगा। (कभी विश्वास टूट गया तो नया पेट्रोल पंप पकड़ेंगे)  11 मई को पेट्रोल पंप की और से निकले तो हजार रुपए का डलवा लिया और इंतजार करने लगे कि आधी रात को जरूर ही पेट्रोल के दाम बढ़ जाएंगे और सुबह हम अनुमान लगाएंगे कि ये हजार रुपए का पेट्रोल भराने पर कितने का फायदा हुआ। हमारी आदत है कि चाहे मुसीबत का पहाड़ टूटने वाला हो पर हम जरा से फायदे से इतने खुश हो जाते हैं कि मुसीबत भी रुई के बोरे सी आसान लगने लगती है।
स रात दाम न बढ़े। हम निश्चिंत हो गए। कल शाम जब हम काम से निकले तो पेट्रोल पंपों पर पेट्रोल वाहनों की लाइन लगी थी। कुछ पेट्रोल पंप पर कर्मचारी आराम कर रहे थे। उन्हों ने पेट्रोल खतम का बोर्ड चस्पा कर रखा था। हम समझ गए कि पेट्रोल के दाम बढ़ चुके हैं। हम चाहते तो थे कि हम भी सस्ते वाला पेट्रोल भरा लें। पर लाइन इतनी लंबी थी कि हो सकता था हमारा नंबर आते-आते 12 बज जाते और हमें लाइन का कोई लाभ न मिलता। कुछ पेट्रोल पंप ट्राई भी करते तो इतना पेट्रोल खप जाता कि लाभ बराबर हो जाता। 
ब आज सुबह अखबार से पता लगा कि पेट्रोल 62.08 रुपए से बढ़ कर 67.40 हो गया है, यानी अब हमें हर लीटर पर 5.32 पैसे अधिक देने पड़ेंगे। इसे कहते हैं दिन दहाड़े डाका पड़ना। पर इस डाके की रिपोर्ट कहीं नहीं हो सकती। डाका मुंसिफ डाले तो कौन उसे सजा दे? इतना सा दाम बढ़ा कर सरकार ने कोई अच्छा काम नहीं किया। सरकार को पेट्रोल का दाम पूरे 100 रुपए प्रति लीटर कर देना चाहिए था। उस के कई फायदे थे। पिछले पाँच-सात सालों से गृह मंत्रालय ने हमारे बाइक चलाने पर जो प्रतिबंध लगाया है वह हट जाता। हम कार घर में खड़ी कर देते और हमें बाइक चलाने को मिल जाती। दूसरे कार से लिफ्ट मांगने वालों को मैं यह कह कर मना कर सकता था कि मैं जरा बाइक में नया हूँ। यह तो थे मेरे व्यक्तिगत फायदे, पर सरकार को उस से क्या लेना-देना। पर सरकार को भी बहुत फायदे थे। जैसे मैं अदालत कार न ले जाता तो उस के पार्क करने के स्थान पर कम से कम तीन बाइक और पार्क हो जातीं। पार्किंग की समस्या का हल निकल जाता।
दाम सौ रुपये प्रति लीटर होने से ये भी फायदा होता कि फिर दाम जल्दी-जल्दी नहीं बढ़ाने पड़ते। तेल कंपनियाँ कम से कम साल-छह महीने यह नहीं कह सकती थी कि उन्हें घाटा हो रहा है। उन्हें होने वाले लाभ का हिसाब रखा जाता और घाटा आरंभ होने पर भी उसे पिछला लाभ बराबर न हो जाए तब तक वे बोलने लायक भी नहीं होतीं। यकायक दाम बढ़ने से बहुत सी बड़ी गाड़ियाँ सड़कों और पार्किंग में नजर आना बंद हो जातीं। सड़कों पर ट्रेफिक कुछ कम होता तो भिड़ने-भिड़ाने के अवसर भी कम होते और इंश्योरेंस कंपनियों को मोटर दुर्घटनाओं में देने वाले मुआवजे के कारण जो नुकसान हो रहा है वह खतम हो जाता वे भी लाभ में आ जातीं। पेट्रोल गाड़ियों की बिक्री कुछ कम होने से भी सड़कों को कुछ राहत मिलती। यदि दाम बढ़ाने का यह काम अगले तीन-चार साल तक टाला जा सकता तो फिर अगले चुनाव तक तो लोग भूल ही जाते कि पेट्रोल के दाम भी कभी बढ़े थे।
खैर, मैं ने हिसाब लगाया कि कल तक मेरी कार में बारह लीटर पेट्रोल मौजूद था। इस तरह मुझे कुल 63.84 रुपए का नकद फायदा हुआ। मैं कल कार में 16 लीटर पेट्रोल और भरवा सकता था। यदि यह भरवा लेता तो मुझे 85.12 रुपए का फायदा और होता। लेकिन मेरे  1080 रुपए कम से कम चार-पाँच दिन पहले ही खर्च हो जाते। पेट्रोल भरवाने के लिए कम से कम तीन घंटे तो पेट्रोल पंप पर लाइन में बिताने पड़ते। इस बीच हजार रुपए की कमाई कराने वाला मुवक्किल हाथ से निकल जाता। कुल मिला कर मैं ने पेट्रोल भराने के लिए लाइन में लग कर अच्छा ही किया। हाँ, दाम सौ रुपए प्रति लीटर हो जाता तो मैं जरूर लाइन में लग पड़ता। फिर चाहे दस हजार का मुवक्किल क्यों न छूट जाता।

शनिवार, 14 मई 2011

क्या कहते हैं? उद्यमी 'सिरफिरा' जी

 यह पोस्ट कल रात ब्लागर पर प्रकाशित हो चुकी थी। लेकिन मेंटीनेंस शट डाउन के दौरान वापस ड्राफ्ट में चली गई। इस में से चित्र भी गायब हो गया था उसे पुनः लगा कर नए सिरे से प्रकाशित की जा रही है। 
रमेश कुमार जैन 'सिरफिरा'
'अनवरत' को अनवरत होना चाहिए। लेकिन इसे अनवरत रखने वाला व्यक्ति एक है। कभी यह व्यक्ति अवकाश पर भी चला जाता है। कभी काम के बोझ से इतना थक जाता है कि उसे समय नहीं होता। नतीजा यह होता है कि यह अनवरतता बीच बीच में टूटती है। मसलन कल अभिभाषक परिषद कोटा में संगोष्ठी थी। साथ में वकालत के काम भी। शाम को इस व्यक्ति को एक विवाह में कोई आठ-दस किलोमीटर दूर हाजरी दर्ज करवानी थी। उधर ही एक कोचिंग ले रही परिचित छात्रा को भी मिलना था। ये सब काम कर के लौटा तो देर इतनी हो गई कि कुछ लिखने के स्थान पर कुमार शिव की एक ग़ज़ल से परिचित करवाना उचित समझा। आज भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। सुबह का निकला शाम पाँच बजे घर पहुंचा और तुरंत ही एक विवाह समारोह में जाना पड़ा। वहाँ से लौटते लौटते सा़ढ़े नौ बज गए। फिर वकालत का दफ्तर भी संभाला। वर्ना कल अदालत में यह व्यक्ति क्या करता? अब अनवरत को अनवरत रख पाना कठिन लग रहा था कि 'सिरफिरा' जी ने मुश्किल हल कर दी।
हुआ यूँ कि यह व्यक्ति परसों अनवरत पर पोस्ट बना कर निपटा तो पता लगा कि यह पोस्ट तो 'सिरफिरा' पर ही हो गई है। इस पर कुछ टिप्पणियाँ भी आईं। लेकिन खुद 'सिरफिरा' जी गायब रहे। पता लगा वे व्यस्त थे और इस पोस्ट को देख ही नहीं पाए थे। उन्हों ने आज ही इस पोस्ट को पढ़ा और प्रतिक्रिया में अपनी चार टिप्पणियाँ धड़ाधड़ चेप दीं। बहुत से पाठक इस पोस्ट को पढ़ चुके थे और 'सिरफिरा' की टिप्पणियों को पढ़ने शायद ही दुबारा इस पोस्ट पर आते। इसलिए उन की प्रतिक्रियाओं को अनवरत पर स्पेम बना दिया। (आदरणीय बड़े भाई अमर कुमार जी क्षमा करें) पर उन  टिप्पणियों को रोका नहीं है। यहाँ उन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है। जरा आप भी पढ़ कर देखें ...

टिप्पणी नं. 1

गुरुवर जी, प्रणाम! आपने कमाल कर दिया पूरी पोस्ट ही इस नाचीज़(तुच्छ) सिरफिरा पर लिख डाली. अब बाकी लोगों को भी रश्क हो रहा होगा. आठ-आठ बार पोस्ट और टिप्पणियों में अब तक जिक्र हो चुका है. कुछ लोग अब इसमें राज की बात सोच-सोचकर परेशान हो रहे होंगे?

गुरुवर:-पढ़ने वाले जो हैं वो पूँछ पकड़ के लटक जाते हैं। अब हमने क्या लिख दिया था ऐसा, कि पहली पहली टिप्पणी ही मिली कि सौ में पहला नाम तो हमारा लिख लेना। एक ने तो ये भी कह दिया कि एक सौ एकवाँ नाम मेरा भी लिख लेना। देखिए ना पहले-पहले कहने वाला तो अतिभावुकता में कह गया। लेकिन सब से बाद वाला बहुत होसियार निकला। भैय्या कह रहा है कि पहले सौ तो पूरा कर लो। बीच में जितने लोग आए उन सब की गिनती कर ली है। अभी तो दहाई का आँकड़ा भी पूरा नहीं बनता। अब ऐसे तो सहकारी चलने से रही। अब लगता है कि बाकी के अस्सी-बयासी का आँकड़ा जुटाने में काफी समय लगने वाला है। तब तक किया क्या जाए?

सिरफिरा:-उपरोक्त पैराग्राफ बहुत अच्छा है. इसमें व्यंग भी है, कटाक्ष भी है और साथ में मज़बूरी भी है.

गुरुवर:-एक हमको गुरू कहने वाले रमेश कुमार जैन साहब हैं जो खुद को सिरफिरा कहे जाते हैं।
सिरफिरा:- उपरोक्त टिप्पणी पढ़कर सभी जान भी जायेंगे कि-हम कितने बड़े "सिरफिरे" हैं

गुरुवर:-सब से पहले तो सिरफिरा जी ने खुद को बेस्ट सेल्स मेन साबित कर के मुझे ही ग्राहक बनाने को काँटा डाल दिया है.
सिरफिरा:- गुरुवर! लोग बाल वाले को कंधी बेचना "कला" नहीं मानते बल्कि "गंजे" को कंधी बेचना ही कला हैं.किताब न खरीदने वाले को किताब बेचना ही कला होती है.

टिप्पणी नं. 2
गुरुवर:-हाँ हम ने ये मन जरूर बना लिया था कि ब्लागिंग वाली किताब जिसे अविनाश जी और रविन्द्र प्रभात जी ने संपादित किया है उसे जरूर खरीदेंगे। उस के खरीदने की कुछ अतिरिक्त वजहें भी हैं। जैसे उस किताब को नहीं खरीदूंगा तो लोग समझेंगे मैं ब्लागर ही नहीं हूँ। हूँ भी तो चलताऊ किसम का। दूसरी वजह ये थी कि इस बात को कौन जानता कि मैं ने किताब नहीं खरीदी। लेकिन ये पोल खुल सकती है। कभी कोई मेरे घर आ जाए और उस किताब को देखने की ख्वाहिश रखे तो मैं उसे क्या दिखाऊँ। एक वजह और थी, वह ब्लागरों के सामुहिक श्रम का नतीजा है। इसलिए मैं उसे पढ़ना ही नहीं अपने पास रेफेरेंस बुक के बतौर रखना भी चाहता हूँ। दूसरी किताब जो रविन्द्र जी का उपन्यास है उसे इसलिए खरीदना चाहता हूँ कि कहीं रविन्द्र जी नाराज न हो जाएँ।

सिरफिरा:- गुरुवर! कभी हमारा मन या जेब कहे किसी किताब को खरीदना नहीं चाहता है. मगर मात्र डर(लोग क्या कहेंगे), दिखावा(हमने इतनी किताबें पढ़ रखी हैं) और खुश(फँलाना लेखक नाराज न हो जाएँ) करने के लिए क्यों खरीदनी पड़ती है. ऐसा क्यों होता है ? शायद आजकल किताबों में आम-आदमी की जरूरत की चीजें गुम सी हो गई है. वैसे इस मामले में बहुत लक्की हूँ. पेशेगत अक्सर लेखक द्वारा मुझे "सप्रेम भेंट" कर दी जाती, क्योंकि किताब के विमोचन व समीक्षा गोष्टी में आमंत्रित किया जाता है.शायद लेखक इस लालच में देता हो उनका समाचार जरा फोटो-सोटो के साथ अच्छी-सी जगह छाप दूंगा.

गुरुवर:-अब ज्यादा क्या सोचना? ऑर्डर कर ही देता हूँ। सिरफिरा जी को मेल करता हूँ कि दोनों किताबें भिजवा दो और उन की कमीशन-उमीशन काट कर जो भी कीमत बनती है वह बता दो, जो उन के बैंक खाते में जमा करवा दूँ। वैसे मैं उन्हें मेल करना भूल जाऊँ तो वे इस पोस्ट को ही ऑर्डर मान कर मुझे किताबें भेज सकते हैं. कीमत के बारे में बताते ही उनके खाते में रुपए जमा करा दिए जाएंगे।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपकी ईमेल नहीं मिली है, मगर आपका ऑर्डर मिल गया है और "हिंदी साहित्य निकेतन" लिख भी दिया है. अब देखते हैं कि-कब तक भेजी जाती हैं. बाकी आपकी सभी शर्तें मंजूर हैं.

गुरुवर:-अभी तो वो लफड़ा और शेष है जो हमारे इस बीज वाक्य से पैदा हुआ कि सहकारी प्रकाशन चलाया जाए। इस बारे में अब हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। हमारे पास सब कुछ करने वाले सिरफिरा जी जो हैं। वे कहते हैं-"मैंने काफी समय........लेखक को रॉयल्टी देने को भी तैयार हूँ.

सिरफिरा:- गुरुवर! जो कह दिया वो पत्थर की लकीर है. मौखिक रूप से नहीं कहा है बल्कि मैंने अपना निर्णय लिखा है. स्वार्थी राजनीतिक कहते हैं, लिखते नहीं.

टिप्पणी नं. 3


गुरुवर:-मुझे और दूसरे ब्लागरों को अब कुछ करने की जरूरत ही नहीं है सिवाय इस के कि सौ का आँकड़ा पूरा कर लिया जाए। उन में से पाँच व्यक्तियों का एक निदेशक मंडल चुन दिया जाए जो इस बात को तय करे कि किस किताब को छापा जाना है और किस किताब को नहीं? कितनी किताबों का सैट एक साथ छापा जाए। उस की लागत क्या आएगी? और उस के लिए कितना धन चाहिए? समस्या केवल ये है कि उन किताबों को छाप कर क्या किया जाएगा। सब से पहली दस प्रतियाँ तो लेखक को मुफ्त में दे दी जाएँ। फिर उस से पूछा जाए कि वह अपने करीबी लोगों को बाँटने के लिए कितनी किताबें खरीदने की मंशा रखता है? उतनी और उसे नकद बेच दी जाएँ। अब जितनी किताबें बचें उन के विक्रय के लिए खुद सिरफिरा जी से यह कांट्रेक्ट कर लिया जाए कि वे कितने कमीशन पर उन को बेच-बाच कर ठिकाने लगा सकते हैं। मुझे लगता है कि सिरफिरा जी इस के लिए तैयार हो जाएंगे। उन से यह कांट्रेक्ट हो जाएगा तो हम अपने शहर के बुक सेलर को भी कहेंगे कि वह भी किताबें उन से मंगा कर ही बेचे। इस तरह सिरफिरा जी का धंधा भी चमकेगा और लगे हाथ सहकारी की किताबें भी दूसरी किताबों के साथ बेचने में सिरफिरा जी को आसानी होगी। यदि सिरफिरा जी जल्दी से किताबें बेच डालें और रकम वापस आ जाए तो फिर दूसरा सैट जल्दी निकालने की सोची जा सकती है।
मेरा मानना है कि सारी किताबों के केवल पैपरबैक ही छापे जाएँ। कवर पेज रंगीन और आकर्षक हो जिसे यदि रेलवे की व्हीलर की स्टाल पर रखा जाए तो भले ही ग्राहक खरीदे या न खरीदे, लेकिन एक बार हाथ से छू कर जरूर देखे। कुछ ब्लागर तो किसी रेलवे स्टाल पर अपनी पुस्तक देख कर ही अतिसंतुष्ट हो सकते हैं। इस में मेरा भी फायदा है वो ये कि कीमत कम होने से मैं उसे खरीद भी सकता हूँ और उस की कीमत देख कर अपनी पत्नी जी को उन की आँखें चौड़ी करने से बचा सकता हूँ।

सिरफिरा:- गुरुवर! आपकी राय और योजना उचित होने के साथ तर्क संगत भी है. मेरा धंधा चमकाने की सोचने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! अगर रेलवे की स्टाल वाले को दूसरों से थोडा अधिक कमीशन मिलता है.तब उसकी बिक्री(हमारी किताबों की) दूसरों से ज्यादा होती हैं. यह आपकी नहीं, सब को अपनी पत्नियों से शिकायत (आँखें चौड़ी करने की) होती हैं.

स ..... बस....... अब बहुत हो चुका। हालाँ कि अभी टिप्पणी नं. 4 शेष है। लेकिन आज के लिए ये तीन टिप्पणियाँ पर्याप्त हैं। वैसे चौथी टिप्पणी में खुद 'सिरफिरा' जी ने कहा है कि टिप्पणियाँ आगे भी हैं। इसलिए चौथी टिप्पणी को रोक दिया है। सिर्फ एक दिन के लिए। उन की अगली टिप्पणी के साथ उसे भी पढ़ लीजिएगा।

गुरुवार, 12 मई 2011

शिवराम की कविता 'नन्हें'

ल कामरेड पाण्डे के सब से छोटे बेटे की शादी थी, आज रिसेप्शन। मैं बारात में जाना चाहता था। लेकिन कल महेन्द्र के मुकदमे में बहस करनी थी, मैं न जा सका। आज रिसेप्शन में भी बहुत देरी से, रात दस बजे पहुँचा। सभी साथी थे वहाँ। नहीं थे, तो शिवराम!  लेकिन उन का उल्लेख वहाँ जरूर था। सब कुछ था, लेकिन अधूरा था। शिवराम हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के, संकल्पों के और मंजिल तक की यात्रा के अभिन्न हिस्सा थे। वहाँ से लौटा हूँ। उन की एक कविता याद आती है। मैं उन की किताबें टटोलता हूँ। उन के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' में वह कविता मिल जाती है। आप भी पढ़िए,  उसे ...

नन्हें
  • शिवराम

उस ने अंगोछे में बांध ली हैं 
चार रोटियाँ, चटनी, लाल मिर्च की
और हल्के गुलाबी छिलके वाला एक प्याज

काँख में दबा पोटली 
वह चल दिया है काम की तलाश में
सांझ गए लौटेगा
और सारी कमाई 
बूढ़ी दादी की हथेली पर रख देगा
कहेगा - कल भाजी बनाना

इस से पहले सीने से लगाए उसे
गला भर आएगा दादी का
बेटे-बहू की शक्लें उतर आएंगी आँखों में
आँखों से छलके आँसुओं में

वह पोंछेगा दादी के आँसू
मुस्कुराएगा

रात को बहुत गहरी नींद आएगी उसे

कल सुबह जागने के पहले 
नन्हें सपने में देखेगा
नेकर-कमीज पहने
पीठ पर बस्ता लटकाए
वह स्कूल जा रहा है 
वह टाटा कर रहा है और
दादी पास खड़ी निहार रही है

कल सुबह जागने के ठीक पहले 
नन्हें जाएगा स्कूल


मंगलवार, 10 मई 2011

मुख जोशीला है ग़रीब का

स कवि सम्मेलन में आए अधिकतर कवि लोकभाषा हाडौ़ती के थे। एक गौरवर्ण वर्ण लंबा और भरी हुई देह वाला कवि उन में अलग ही नजर आता था। संचालक ने उसे खड़ा करने के पहले परिचय दिया तो पता लगा वह एक वकील भी है। फिर जब उस ने तरन्नुम के साथ कुछ हिन्दी गीत सुनाए तो मैं उन का मुरीद हो गया। कोई छह सात वर्ष बाद जब मैं खुद वकील हुआ तो पता लगा वे वाकई कामयाब वकील हैं। कई वर्षों तक साथ वकालत की। फिर वे राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हो गए। वहाँ से सेवा निवृत्त होने के बाद सुप्रीमकोर्ट में वकालत शुरू की तो सरकार ने उन्हें विधि आयोग का सदस्य बना दिया। वे राजस्थान उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीश न्याय़ाधिपति शिव कुमार शर्मा हैं। उच्च न्यायालय के अपने कार्यकाल में उन्हों ने दस हजार से ऊपर निर्णय हिन्दी में लिखाए हैं। साहित्य जगत में लोग इन्हें कुमार शिव के नाम से जानते हैं। आज अभिभाषक परिषद कोटा में एक संगोष्ठी उन के सानिध्य में हुई। जिस में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए थे। 

मुझे उन की 1978 में प्रकाशित एक संग्रह से कुछ  ग़ज़लें मिली हैं, उन्हीं में से एक यहाँ प्रस्तुत है-

कुमार शिव की एक 'ग़ज़ल'

सूरज पीला है ग़रीब का
आटा गीला है ग़रीब का

बन्दीघर में फँसी चान्दनी
तम का टीला है ग़रीब का

गोदामों में सड़ते गेहूँ
रिक्त पतीला है ग़रीब का

सुर्ख-सुर्ख चर्चे धनिकों के 
दुखड़ा नीला है ग़रीब का 

स्वर्णिम चेहरे झुके हुए हैं
मुख जोशीला है ग़रीब का  



उद्यमी ठाला नहीं बैठता

ब से दिल्ली हो के आए हैं, बस अपनी यात्रा कथा ही गाए जा रहे हैं।  जो लोग सोचे हैं कि हम परिकल्पना सम्मान के बारे में लिख रहे हैं,  वे गलत नहीं सोचे हैं।  लिखते-लिखते कल तक हम भी यही सोचने लगे थे कि हम उसी के बारे में लिख रहे हैं। कल जब लिखने लगे थे तो सोचे थे कि ये किस्सा आज खतम ही किए देते हैं। पर बाम्भन हैं ना, तो जब भी बोलेंगे या लिखेंगे ऐसे कौने छोड़ जाएंगे जो न पढ़ने वाले का पीछा छोड़े न बोलने लिखने वाले का। पढ़ने वाले जो हैं वो पूँछ पकड़ के लटक जाते हैं। अब हमने क्या लिख दिया था ऐसा, कि पहली पहली टिप्पणी ही मिली कि सौ में पहला नाम तो हमारा लिख लेना। एक ने तो ये भी कह दिया कि एक सौ एकवाँ नाम मेरा भी लिख लेना। देखिए ना पहले-पहले कहने वाला तो अतिभावुकता में कह गया। लेकिन सब से बाद वाला बहुत होसियार निकला। भैय्या कह रहा है कि पहले सौ तो पूरा कर लो। बीच में जितने लोग आए उन सब की गिनती कर ली है। अभी तो दहाई का आँकड़ा भी पूरा नहीं बनता। अब ऐसे तो सहकारी चलने से रही। अब लगता है कि बाकी के अस्सी-बयासी का आँकड़ा जुटाने में काफी समय लगने वाला है। तब तक किया क्या जाए?

क हमको गुरू कहने वाले रमेश कुमार जैन साहब हैं जो खुद को सिरफिरा कहे जाते हैं। वो तो पूरी की पूरी प्रकाशन फेक्ट्री खोले बैठे हैं। वो सब से पहले कहते हैं- 

"आप जो-जो किताब नहीं खरीद पाए थें. मुझे उन किताबों की सूची भेजें. आपका नाचीज़ शिष्य डायमंड पाकेट बुक्स के साथ ही कई प्रकाशकों का बिक्री एजेंट है. आपनी सेवा करने का अवसर प्रदान करें. मुझे जो कमीशन प्राप्त होता है, उसी के माध्यम से आपको सबसे बेस्ट कोरियर सेवा से एक-दो दिन में किताबें पहुँचाने का मेरा पक्का और अटल वादा है"

ब से पहले तो सिरफिरा जी ने खुद को बेस्ट सेल्स मेन साबित कर के मुझे ही ग्राहक बनाने को काँटा डाल दिया है और उन किताबों की लिस्ट मांगी है जिन्हें मैं नहीं खरीद पाया था। अब उन्हें कैसे बताऊँ कि मैं बिना देखे किताब नहीं खरीदता? पहले देखता हूँ कि किताब खरीदने लायक है कि नहीं। फिर ये देखता हूँ कि उस किताब की कीमत मेरी जेब को फिट होती है कि नहीं। फिर ये सोचता हूँ कि जेब हलकी की जाए तो खरीद में कीमत वसूल होगी या नहीं। हम न तो हम सब किताबें देख पाए और न ही उन की कीमत। अब फैसला करें भी तो क्या करें? हाँ हम ने ये मन जरूर बना लिया था कि ब्लागिंग वाली किताब जिसे अविनाश जी और रविन्द्र प्रभात जी ने संपादित किया है उसे जरूर खरीदेंगे। उस के खरीदने की कुछ अतिरिक्त वजहें भी हैं। जैसे उस किताब को नहीं खरीदूंगा तो लोग समझेंगे मैं ब्लागर ही नहीं हूँ। हूँ भी तो चलताऊ किसम का। दूसरी वजह ये थी कि इस बात को कौन जानता कि मैं ने किताब नहीं खरीदी। लेकिन ये पोल खुल सकती है। कभी कोई मेरे घर आ जाए और उस किताब को देखने की ख्वाहिश रखे तो मैं उसे क्या दिखाऊँ। एक वजह और थी, वह ब्लागरों के सामुहिक श्रम का नतीजा है। इसलिए मैं उसे पढ़ना ही नहीं अपने पास रेफेरेंस बुक के बतौर रखना भी चाहता हूँ। दूसरी किताब जो रविन्द्र जी का उपन्यास है उसे इसलिए खरीदना चाहता हूँ कि कहीं रविन्द्र जी नाराज न हो जाएँ। पर इस इच्छा की तुलना में उस की कीमत कुछ ज्यादा है। मेरा मन हुआ कि इस का हार्डबाउंड के बजाय पैपरबैक होता तो मुझे इतना नहीं सोचना पड़ता। तुरन्त खरीद लेता। आखिर कीमत आधी से भी कम हो जाती और महंगी नहीं पड़ती। 

ब ज्यादा क्या सोचना? ऑर्डर कर ही देता हूँ। सिरफिरा जी को मेल करता हूँ कि दोनों किताबें भिजवा दो और उन की कमीशन-उमीशन काट कर जो भी कीमत बनती है वह बता दो, जो उन के बैंक खाते में जमा करवा दूँ। वैसे मैं उन्हें मेल करना भूल जाऊँ तो वे इस पोस्ट को ही ऑर्डर मान कर मुझे किताबें भेज सकते हैं. कीमत के बारे में बताते ही उनके खाते में रुपए जमा करा दिए जाएंगे। 

म ने  किताबें खरीदने का निर्णय भी ले लिया और उन को खरीद भी लिया। अब आगे की सोची जाए। अभी तो वो लफड़ा और शेष है जो हमारे इस बीज वाक्य से पैदा हुआ कि सहकारी प्रकाशन चलाया जाए। इस बारे में अब हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। हमारे पास सब कुछ करने वाले सिरफिरा जी जो हैं। वे कहते हैं- 

"मैंने काफी समय पहले ही आपके ब्लॉग "तीसरा खम्बा" पर आपकी एक "क़ानूनी सलाह" पुस्तक प्रकाशित करने का प्रस्ताव रखा था. तब आपको कहा भी था कि-गुरु दक्षिणा(रोयल्टी) से वंचित नहीं करूँगा. तब किसी प्रकाशक को क्यों 20-22 हजार रूपये दिए जा रहे हैं. आज प्रकाशक लेखक का इसी प्रकार शोषण करता है. मेरे पास किताबों की बिक्री का अनुभव भी और मार्केटिंग को लेकर बहुत अच्छी योजना भी है. बस "रॉयल्टी" पर थोडा-सा क़ानूनी ज्ञान नहीं है. अगर आप उपरोक्त विषय पर एक पोस्ट प्रकाशित कर दें. तब रॉयल्टी को लेकर अपने प्रकाशन परिवार की रणनीति व नियम/शर्ते बनाने में आसानी हो जाये. आपके सौ के करीब ब्लागर सहमत हो जाएँ तो आपसी सहयोग से एक सहकारी प्रकाशन अवश्य खड़ा किया जा सकता है वाली बात पर 101 वें स्थान पर मुझे भी रख लें, क्योंकि 101 वां स्थान इसलिए मेरा ब्लॉग अभी "अजन्मा बच्चा" है. इसके साथ ही अगर सौ ब्लागर मुझे योग्य माने तब मैं प्रत्येक पुस्तक पर केवल दो रूपये का लाभ प्राप्त कर प्रकाशित करने का सहयोग करने को तैयार हूँ. जैसे- श्री खुशदीप सहगल की किताब "देशनामा" की 1000 प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं. तब मुझे लाभ के केवल दो हजार रूपये दे दिए जाएँ. इससे मेरी जानकारी का लाभ प्राप्त करके किताब बहुत सस्ती प्रकाशित की जा सकती हैं और पाठकों तक बहुत कम दामों में पहुंचाई जा सकती है. यदि किसी किताब की पांडुलिपि 
मेरे "प्रकाशन परिवार" के मापदंडों (समाज व देशहित और आमआदमी को जागरूक करने का उद्देश्य) को पूरा करती है और मेरे प्रकाशन परिवार द्वारा प्रकाशित किए जाने के लिए कोई ब्लागर सहमत हो जाता है. तो मैं लेखक को रॉयल्टी देने को भी तैयार हूँ.




मुझे और दूसरे ब्लागरों को अब कुछ करने की जरूरत ही नहीं है सिवाय इस के कि सौ का आँकड़ा पूरा कर लिया जाए। उन में से पाँच व्यक्तियों का एक निदेशक मंडल चुन दिया जाए जो इस बात को तय करे कि किस किताब को छापा जाना है और किस किताब को नहीं?  कितनी किताबों का सैट एक साथ छापा जाए। उस की लागत क्या आएगी? और उस के लिए कितना धन चाहिए? 

मस्या केवल ये है कि उन किताबों को छाप कर क्या किया जाएगा। सब से पहली दस प्रतियाँ तो लेखक को मुफ्त में दे दी जाएँ। फिर उस से पूछा जाए कि वह अपने करीबी लोगों को बाँटने के लिए कितनी किताबें खरीदने की मंशा रखता है? उतनी और उसे नकद बेच दी जाएँ। अब जितनी किताबें बचें उन के विक्रय के लिए खुद सिरफिरा जी से यह कांट्रेक्ट कर लिया जाए कि वे कितने कमीशन पर उन को बेच-बाच कर ठिकाने लगा सकते हैं। मुझे लगता है कि सिरफिरा जी इस के लिए तैयार हो जाएंगे। उन से यह कांट्रेक्ट हो जाएगा तो हम अपने शहर के बुक सेलर को भी कहेंगे कि वह भी किताबें उन से मंगा कर ही बेचे। इस तरह सिरफिरा जी का धंधा भी चमकेगा और लगे हाथ सहकारी की किताबें भी दूसरी किताबों के साथ बेचने में सिरफिरा जी को आसानी होगी। यदि सिरफिरा जी जल्दी से किताबें बेच डालें और रकम वापस आ जाए तो फिर दूसरा सैट जल्दी निकालने की सोची जा सकती है। 

स सारे हिसाब-किताब में मेरा अपना मंतव्य तो रखना ही भूल गया हूँ। मेरा मानना है कि सारी किताबों के केवल पैपरबैक ही छापे जाएँ। कवर पेज रंगीन और आकर्षक हो जिसे यदि रेलवे की व्हीलर की स्टाल पर रखा जाए तो भले ही ग्राहक खरीदे या न खरीदे, लेकिन एक बार हाथ से छू कर जरूर देखे। कुछ ब्लागर तो किसी रेलवे स्टाल पर अपनी पुस्तक देख कर ही अतिसंतुष्ट हो सकते हैं। इस में मेरा भी फायदा है वो ये कि कीमत कम होने से मैं उसे खरीद भी सकता हूँ और उस की कीमत देख कर अपनी पत्नी जी को उन की आँखें चौड़ी करने से बचा सकता हूँ। 

अंत में सिरफिरा जी ने जो कहा वह बात जरूर दिल को लगने वाली है, लेकिन है बहुत जबर्दस्त। वे कहते हैं-

किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. 


बोलो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? उन की ये बात बहुत सारे ब्लागरों को तीर सी चुभ कर उन्हें घायल कर सकती है। वे सोच सकते हैं कि " लो ये आया है कल का ब्लागर, जो अभी अजन्मा है, कह रहा है कि लिखना ऐसा चाहिए जिसे आम आदमी खरीद कर ले जाए। ये  कौन होता है हमें सिखाने वाला? हम ब्लागर हैं, ब्लागर। बस कंप्यूटर चालू कर के बैठते हैं और की-बोर्ड  पर उंगलियाँ चलने लगती हैं। जो टाइप कर देते हैं वही हमारा लेखन है। सोच समझ कर लिखा, तो क्या लिखा? खैर! आप कुछ भी सोचें मुझे तो सिरफिरा जी कह ही चुके हैं कि मेरी किताब वो छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी भी देंगे। तो मैं क्यों देर करूँ ? चलता हूँ अपनी पोस्टों को संभाल कर, उन का संपादन करने, उन की पाण्डुलिपि तैयार करने। उधर तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट भी लिखनी है। तब तक आप गिनते रहिए कि सहकारी की सौ की संख्या कब पूरी होती है। बस सौ हुए, और सहकारी शुरू।  

मेश कुमार जैन साहब किताब भी छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी देने को भी। लेकिन मेरे संपादन में समय तो लगेगा और उधर सहकारी शुरू होने में भी। तो तब तक सिरफिरा जी फालतू बैठ कर क्या करेंगे? बहुत सारे ब्लागर बीस-बीस हजार दे कर किताब छपवाने को तैयार बैठे हैं। मेरी जैन साहब को सलाह है कि तब तक उन से कुछ कम-ज्यादा कर-करा कर किताब प्रकाशन का काम तुरन्त शुरू करें। उद्यमी ठाला नहीं बैठता। उन्हें भी नहीं बैठना चाहिए।