@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 22 जून 2012

कचरा दरोगा सप्लाई ठेका

लोग कहते हैं। देश कचरे से परेशान है। जिधर जाओ कचरा दिखाई देता है। कोई स्थान इस से अछूता नहीं है। मियाँ जी बेड रूम में लेटे लेटे टीवी देख रहे हैं, अचानक जेब से पाउच निकाला, गुटखा खाया और पाउच वहीं फर्श पर सरका दिया। बीवी नाराज हो तो हो, उस से क्या फर्क पड़ता है? आखिर कचरा उठाना उस की ड्यूटी है। उधर बीवी कौन कम है? वह घर बुहारती है और कचरा सड़क पर। न डाले तो नगर निगम का सफाई वाला क्या करे? अक्सर नगर निगम के पास सफाई वाले कम पड़ते हैं। निगम नगर की बस्तियों के हिसाब से सफाई वाले रखने की योजना बनाता है। फिर भर्ती शुरू होती है, भर्ती पर मुकदमा होता है, स्टे आ जाता है। अब स्टे हटे तो भर्ती हो। स्टे हटता है, भर्ती होती है। जब तक नई भर्ती सफाई करने पहुँचती है, नगर में बस्तियाँ बढ़ जाती हैं। नगर निगम का क्या कसूर?

र्ती होने वालों में से अनेक निगम के अफसरों के घर काम पर हैं। वे वहाँ न हों तो काम अफसर जी करें या उन की बीवी जी, फिर अफसरी कौन करे। अफसरानी जी करें तो अफसरजी को अफसरजी कौन कहे। कुछ नेताओं के घरों पर काम पर हैं। अब नगर की सफाई हो तो कैसे? पर नगर निगम नागरिकों की चिन्ता करता है। ठेके पर कर्मचारी लगाता है। इस से ठेकेदार को रोजगार मिलता है और अफसरों को नजराना। आठ की जगह चार से कर्मचारी लगते हैं, चार से पार्षदों का खर्चा निकलता है। जो चार लगते हैं वे आधे दिन काम करते हैं और आधी तनखा पाते हैं। आधी तनखा से ठेकेदार का खर्च चलता है और सरकार को सेवाकर मिलता है। ठेका तो न्यूनतम वेतन की दर पर होता है। देखा¡ कचरा न हो तो इतने लोग क्या करें?  क्या कमाएँ और क्या खाएँ?

चरा न हो तो कचरे में काम की चीजें बीनने वाले क्या करें?  वे सुबह बोरे ले कर निकलते हैं, कचरे से काम की चीजें बीनते हैं। इस से चीजें बेकार नहीं जाती। देश की अर्थव्यवस्था को सहारा मिलता है, मजबूती बनी रहती है, वह ग्रीस की तरह नहीं होती। सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। कचरा बीनने वालों को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ करना चाहिए। पद्म विभूषण और पद्म श्री के  अवार्डों में एक कैटेगरी कचरा सैक्टर की भी होनी चाहिए। आखिर कचरा बीनना खेलों से कम महत्वपूर्ण तो नहीं? उस के लिए भारत रत्न भी  होना चाहिए।  उस में कुछ मुश्किल हो तो कम से कम राज्यसभा की सदस्यता तो अवश्य दी जा सकती है। आखिर वह खेलों की अपेक्षा कम सामाजिक नहीं।

धर राजनीति में कचरे के बिना काम नहीं चलता, वहाँ भी कचरा करने वाले कम नहीं। नए राष्ट्रपति के लिए मीडिया वालों ने बहुत नाम उछाले, इतने कि कचरा हो गया। यूपीए वाले कचरा साफ कर के एक नाम पर सहमति बनाने चले तो दीदी को पसंद नहीं आया। वे दिल्ली गईं और एयरपोर्ट से सीधे मुलायम के घर पहुँच कर बोली -आओ भाई कचरा करें। मुलायम को तजवीज पसंद आई।  दोनों ज्वाइंट प्रेस कान्फ्रेंस कर के बोले -हम मिल कर कचरा करेंगे। यूपीए में खलबली मच गई। मुलायम को संदेश गया -हम को जीतना नहीं आता तो क्या, कचरा करना तो आता है, यूपी में कर देंगे।  मुलायम क्या करते? उन्हों ने दीदी के प्लान का कचरा कर दिया।  

धर मुम्बई नगर निगम ने वर्ली सी-फेस को खूबसूरत बनाया। लोग टहलने जाने लगे। सीनियर हिन्दी ब्लागर घुघूती जी भी जाने लगीं। वे खुश थीं, वहाँ कचरा नहीं।  दूसरे लोगों को पता लगा तो भीड़ होने लगी।  फेरी वाले आ गए, उन के साथ कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक/पेपर कप, गिलास, चम्मचें व भु्ट्टे भी आए। वर्ली सी फेस की सड़क विशुद्ध भारतीय सड़क हो गई।   वे फिजूल दुखी हैं। भारतीय सड़क के भारतीय होने पर कैसा दुःख?  वे बता रही हैं कि अमरीका में नोट हाथ से छिटक कर सड़क पर गिर जाए तो जुर्माना होता है। यहाँ भी कचरा करने पर जुर्माना होना चाहिए। वे भूल गईं, भारत में जुर्माने को जुर्माना करने वाला तक नहीं गाँठता, कचरा करने वाला क्या गाँठेगा? पुलिस में दरोगा वैसे ही कम हैं। अब कचरा दरोगा कहाँ से लाए जाएँ? मैं ने सुझाव दिया है कि चीन के बेयरफुट डाक्टर की तरह यहाँ बेयरवेतन कचरा दरोगा भर्ती करने चाहिए जिन्हें वेतन की जगह जुर्माने का परसेन्टेज मिले। सौदा कतई घाटे का नहीं रहेगा। सरकार चाहे तो टोल-टेक्स के ठेके की तरह वेस्ट-फाइन ठेका भी कर सकती है। उस में एक और फायदा है। अफसर-नेताओं की पूर्ति भी  होती रहेगी और पार्टी को चुनाव के लिए चंदा भी कम न पड़ेगा। नेताजी फख़्र से कह सकेंगे कि वर्ली सी फेस हांगकांग से कम नहीं। 

सोमवार, 18 जून 2012

हमें का हानि?



बाबूलाल फिटर बिना नागा रोज सुबह साढ़े नौ बजे राधे की पान की दुकान पर पहुँच जाता है। तब पान की दुकान खुली ही होती है। वह पान की दुकान के आरंभिक कामों में राधे की मदद करता है। राधे उसे चाय पिलाता है और मुफ्त में तम्बाकू खाने देता है। आसपास नल और सेनेटरी फिटिंग का सामान बेचने वालों की दुकानें हैं। उन दुकानों पर नल और सेनेटरी फिटिंग की मरम्मत कराने वाले पहुँचते हैं। दुकानदार मरम्मत कराने वालों को बाबूलाल से मिलवा देते हैं, उसे काम मिल जाता है। कई वर्षों से वह यही काम कर रहा है। उस के रिश्तेदारों ने उस की पत्नी को बहुत परेशान किया जिसे वह बहुत चाहता था। पत्नी बीमार हो कर एक बेटी को छोड़ चल बसी। बाबू को मानसिक आघात लगा। उस ने बेटी के खातिर दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी भी उसे प्रेम करने वाली मिली जिसे वह अपने सभी रिश्तेदारों से बचा कर रखता है। उस की बेटी बड़ी हो रही है और तीसरी क्लास में पढ़ती है। पहली पत्नी को परेशान करने वाले रिश्तेदार उसे राक्षस प्रतीत होते हैं। वह चाहता है उन्हें अपने किए की सजा मिले। लेकिन वह उन का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सरकारी मशीनरी उस की सुनती नहीं। उसे सुनाने के साधन उस के पास नहीं हैं। जब भी वह फालतू होता है तो पुरानी बातें सोचते सोचते इन रिश्तेदारों के प्रति गुस्से से भर उठता है। तब वह पान की दुकान के सामने फुटपाथ पर इधर से उधर चहल कदमी करते हुए अपने राक्षस रिश्तेदारों के लिए हवा में गालियाँ फेंकने लगता है। उसे विश्वास है कि उस के भगवान कभी न कभी उन राक्षसों को अवश्य दंडित करेंगे, यही वह बोलता रहता है।  लोग उस का तमाशा देखने लगते हैं। कभी कोई उसे उस हालत में छेड़ दे तो उस से वह शत्रु की तरह भिड़ जाता है। लेकिन कोई उसे प्रेम से पुकारे तो वह गुस्से के मोड से बाहर आ कर एक सामान्य व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लगता है। बाबूलाल भारत का एक आम नागरिक है, जो केवल अपने भरोसे जीता है।

रोज सुबह अदालत जाते समय मैं राधे की दुकान पर रुकता हूँ और बाबूलाल को गुड मॉर्निंग कहता हूँ। उसे यह अच्छा लगता है। सामाजिक व्यवहार पर और राजनीति पर उस की अपनी समझ है। उस पर बात भी करता है। उस से बाजार के लोगों के बारे में पूछो तो सब के बारे में अपनी राय खुल कर प्रकट करता है। उसे यह चिंता भी नहीं होती कि यदि किसी के बारे में उस ने कुछ बुरा कहा तो वे उस का कुछ बिगाड़ सकते हैं। बाबूलाल से मेरी दोस्ती हो गई है। मैं अक्सर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर उस की राय पूछता रहता हूँ।

ल सुबह वह मिला तो मैं ने पूछा- बाबूलाल, देश का नया राष्ट्रपति चुना जाना है, तुम्हारी राय में किसे राष्ट्रपति बनाना चाहिए? मेरा सवाल सुन कर चुप हो गया। दुकान पर खड़े लोग उस की प्रतिक्रिया जानने को उत्सुक हो गए।  राधे मेरा पान लगाने लगा।

मेरा सवाल उसे कुछ अधिक समझ नहीं आया। उस ने मुझ से पूछा कि अभी राष्ट्रपति कौन है? मैं ने उसे वर्तमान राष्ट्रपति का नाम बताया तो बोला -यह तो मुझे भी याद था। पर अभी याद नहीं आ रहा था। पहले तो कलाम साहब राष्ट्रपति थे।  वे अच्छे थे।  स्कूलों में जाते थे, बच्चों से बातें करते थे, उन की हिम्मत बढ़ाते थे। इन वाली राष्ट्रपति का तो पता ही नहीं लगा कि इन्हों ने पाँच बरसों में किया क्या?
ज्यादातर विदेश घूमती रहीं। एक देश से लौटतीं, दूसरे का प्लान बनने लगता।
 -पर राष्ट्रपति का काम क्या होता है? बाबूलाल ने पूछा।
 तब राधे बताने लगा कि पहले देश में बहुत से राजा होते थे। देश आजाद हुआ तो सब राजाओं की राजाई छिन गई। जनतंत्र कायम हो गया। पूरे देश को एक ही राजा की जरूरत थी। तो तय किया कि एक व्यक्ति को विधायक और सांसद मिल कर चुनेंगे और वह राजा की गद्दी पर बैठेगा उसे राष्ट्रपति कहेंगे।
 बाबूलाल ने बीच में ही राधे को टोका – इतना तो मुझे भी याद है। मैं ने भी आठवीं कक्षा पास कर रखी है।  मैं तो पूछ रहा था कि राष्ट्रपति काम क्या करता है?

मैं ने उसे बताया कि राष्ट्रपति संसद को भाषण देता है लेकिन भाषण सरकार तैयार करती है। गणतंत्र दिवस पर परेड की सलामी लेता है। समय समय पर देशवासियों को संदेश देता है। दूसरे देशों के राष्ट्रपति या राजा आते हैं तो उन से मिलता है और दूसरे देशों में मिलने जाता है। संसद या विधानसभाएँ कोई कानून बनाती हैं तो उन पर हस्ताक्षर करता है। देश का सारा राज उसी के नाम  से चलता है। वह हमारी सेनाओं प्रमुख कहलाता है और भी बहुत से काम हैं।  
 -तो ये बात है। फिर तो किसी को भी राष्ट्रपति बना दो, क्या फरक पड़ता है। ये सब काम तो कोई भी कर लेगा। आप ही क्यों नहीं बन जाते राष्ट्रपति? क्या आप नहीं कर सकते ये काम? उस की इस बात पर वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस पड़े, बाबूलाल सकुचा गया। उसे लगा उस ने कोई गलती कर दी है। फिर वह संभला और मुझे छोड़ सब से तर्क करने लगा।
 -मैं ने क्या गलत कहा? क्या भाई साहब राष्ट्रपति नहीं बन सकते? क्या कमी है इन में? ....


हाँ आ कर बाबूलाल मनोरंजन का पात्र हो गया था। राधे ने मेरा पान बना दिया था। मैं वहाँ से चलने को था। मैं ने बाबूलाल को कहा -मैं ने कभी चुनाव नहीं लड़ा और मैं लड़ूंगा भी नहीं। चुनाव में दर्जनों पाप करने पड़ते हैं। मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा तो राष्ट्रपति कैसे बनूंगा? फिर जब राष्ट्रपति को कुछ करना ही नहीं है तो बन कर भी क्या करूंगा?
बाबूलाल को मेरी बात समझ आ गई थी। वह बोला -हाँ, रामायण में भी तो लिखा है “कोऊ नृप होय हमें का हानि”।

मुझे अदालत के लिए देर होने लगी थी। मैं ने बाबूलाल को कहा कि मैं कल आऊंगा तब बात करेंगे। मैं ने उस के आगे हाथ बढ़ाया। उस ने  हाथ मिला कर मुझे विदा किया।

शनिवार, 16 जून 2012

एक चिट्ठी सिम्पल अंकल के नाम


सिम्पल अंकल, 
                   सादर प्रणाम! 
खिर आप ने पहली बार भारतवर्ष के विद्यार्थियों का दर्द समझा है। हम तो कब से कहते थे कि हमारी शिक्षक बिरादरी उतनी पढ़ी लिखी नहीं, जितनी होनी चाहिए। अब तक कोई समझता ही नहीं था। हम कुछ कहते तो हमारी बात को तो बच्चों की बात समझ कर हवा कर दिया जाता। जब हम परेशान हो कर कुछ कर बैठते तो आप और आप के भाई-बंद हमें ही दोष देने लगते। कहते, नई पीढ़ी बिगड़ती जा रही है, वह अपने शिक्षकों का सम्मान करना तक भूलती जा रही है। अब नई पीढ़ी उन कम पढ़े लिखे शिक्षकों का सम्मान भी करे तो कैसे करे? वे हमें वे सब सिखाने की कोशिशें करते रहते हैं जिन की हमें बिलकुल जरूरत नहीं है। आखिर हम स्टूडेंटस् का टाइम कोई खोटी करने के लिए थोड़े ही होता है।

सिम्पल अंकल! वैसे आपने बात बिलकुल मैथेमेटिक्स के फारमूले की तरह कही है। जिसे रटा जा सकता है, लेकिन समझने में पसीने छूटने लगते हैं। ये आपने क्या किया? आप को सारी बात खुलासा करनी चाहिए थी। अब हम तो ये भी नहीं समझ पा रहे हैं कि इस बात को कहने के पीछे आप का इरादा क्या है? खैर¡ आप का इरादा भी पता लग ही जाएगा। अन्वेषण से हर बात पता की जा सकती है।  आप का इरादा कौन बड़ी चीज है?

शिक्षा प्रणाली ही तो ऐसी चीज है जिस के बारे में कोई भी, कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कह देता है। जो मुहँ में आता है वही पेल देता है। जैसे हम बच्चे, बच्चे न हुए एक्सपेरिमेंट का सबजेक्ट हो गए। ये कोई आज की बात भी नहीं। कोई पौन सदी पहले कहानी उपन्यास लिखने वाले कोई मुंशी जी भी ऐसे ही पेल गए थे ‘‘संसार में इस समय जिस शिक्षा प्रणाली का व्यवहार हो रहा है, वह मनुष्य में ईर्ष्या, घृणा, स्वार्थ, अनुदारता और कायरता आदि दुर्गुणों को पुष्ट करती है और यह क्रिया शैशव अवस्था से ही शुरू जो जाती है। सम्पन्न माता-पिता अपने बालक को जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार करके और बड़े होने पर उसकी दूसरे लड़कों से अच्छी दशा में रखने की चेष्टा करके, उसे इतना निकम्मा बना देते हैं, और उसकी बुनियाद को इतना परिवर्तित कर देते हैं कि वह समाज का खून चूसने के सिवा और किसी काम का रह नहीं जाता।“


सिम्पल अंकल! आप ने भी मुंशी जी को जरूर पढ़ा होगा। तभी तो आप को यह सब कहने की प्रेरणा मिली। आप उन्हें न पढ़ते तो कैसे जान पाते कि मुंशी जी के जमाने में अच्छे विद्यार्थी स्कूलों, कालेजों में किस तकनीक से ढाले जाते थे? देखिए तो उन्हों ने क्या कहा था -उस सांचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करने वाला, पक्का उपयोगितावादी और घमंडी होकर रह जाता है।’’  


म ने भी मुंशी जी को न पढ़ा होता तो समझ ही नहीं पाते कि आप का दर्द क्या है? और आप क्यों इतनी पीड़ा के साथ ये बात कह रहे हैं?  वो क्या है न, कि इन दिनों स्कूल कालेज से निकल कर बच्चे लोग आप की वाली पार्टी में नहीं जा रहे, वे पिम्पल अंकल पार्टी में भी नहीं जा रहे। वे स्कूल कालेज से निकलते हैं और सीधे अन्ना के आंदोलन में पहुँच जाते हैं। आप के इस दर्द को हम बच्चे न समझेंगे तो कौन समझेगा?

वैसे आप से पहले भी हम बच्चों के दर्द को बड़े लोग कभी कभी समझ लिया करते थे। कोई पच्चीस साल पहले राजीव अंकल ने हमारे दर्द को समझा था और अमरीका के हावर्ड विश्वविद्यालय में जा कर कहा था ‘‘मैं नहीं समझता कि साक्षरता लोकतंत्र की कुंजी है...हमने देखा है...और मैं सिर्फ भारत की ही बात नहीं कर रहा हूं...कि कभी-कभी साक्षरता दृष्टि को संकुचित बना देती है, उसे विस्तृत नहीं बनाती।’’

ब आप तो उन्हीं की पार्टी के हैं, आप को तो राजीव अंकल का पुख्ता लोकतंत्र का सपना भी पूरा करना है। नहीं करेंगे तो सोनिया आन्टी नाराज नहीं हो जाएंगी? उन्हों ने खोज निकाला था कि लोगों के दृष्टि संकुचन के लिए ये कम पढ़े लिखे शिक्षक ही जिम्मेदार हैं, जो बस उन्हें साक्षर कर छोड़ देते हैं। राजीव अंकल को अनहोनी ने हम से छीन लिया, वरना वे जरूर हमारे लिए कुछ करते। उन के बाद हमारे बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। वो बीच में एक अटल अंकल आए थे, उन्हों ने तो हाथ ही खड़े कर दिए थे,  कहा था ‘‘सरकार के लिए सभी भारतीयों को शिक्षित करना सम्भव नहीं। अतः गैर सरकारी संस्थान आगे आए और देश को पूर्ण शिक्षित करें।’’  अब ये भी कोई बात हुई? बच्चों को इस तरह गैर सरकारी लोगों के भरोसे छोड़ दिया जाएगा तो यही तो होगा न कि वे आप की पार्टी में आना बंद कर देंगे।

सिम्पल अंकल¡ आप को ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए। ये समस्याएँ तो चलती रहती हैं। इन दिनों मन और प्रण अंकल भी कम परेशान नहीं हैं। मन अंकल की बेटी कुमारी अर्थव्यवस्था उन के काबू में नही आ रही है। प्रण अंकल भी उन की मदद नहीं कर पा रहे हैं, इस से मन  अंकल उन से खासे नाराज हैं। आप भी न ज्यादा परेशान न हों। बस डेढ़-दो बरस की बात और है उस के बाद तो आप को वैसे भी इन सब परेशानियों से पब्लिक मुक्ति देने वाली है। आप फिर से बिंदास हो कर वकालत कर सकेंगे। आप बेफालतू परेशान हो रहे हैं। आप को तो अपना दफ्तर और लायब्रेरी संभालनी चाहिए और उसे अपडेट करना चाहिए। 
- हम हैं आप के बच्चे!

शनिवार, 2 जून 2012

शिखंडी! गलत जवाब है

लत, गलत, बिलकुल गलत जवाब है!

च्चे¡ तुम ने सवाल का उत्तर गलत दिया है। चाहते हुए भी तुम्हें नम्बर नहीं दे सकता। तुम्हारे लिए मेरे पास सिर्फ अंडा है। मुर्गी का, या फिर अबाबील का, तोते, का या फिर चील का। बस¡ तुम्हारे पास यही एक च्वाइस है, जिस का चाहो, ले लो। बस एक ही मिलेगा।

मानता था, मैं तुम्हें श्रेष्ठ विद्यार्थी। चाहता था, अव्वल आओ तुम। लेकिन  सब गुड़ गोबर कर दिया। तुमने नहीं पढ़ी महाभारत। फिर भी उस के उदाहरण देने चले? केवल सुन सुना कर, और लोगों से, पोंगा-पण्डितों से। देखा, क्या निकला नतीजा? अंधेरी रात में लालटेन भभक उठा।

ब, पिटोगे तुम। जरूर पिटोगे। तुम ने अपराध ही ऐसा ही किया है। होता कोई ऐरा गैरा, नत्थू खैरा तो बच भी निकलता। पर तुमने तो कानून पढ़ा है। तुम कैसे बचोगे? बच गए लाठियों से, बंदूक से, तोप से तमंचे से तो कानून से घेरे जाओगे। कहाँ जाओगे? कहाँ भागोगे? बच नहीं पाओगे।

क्या सोच कर? क्या सोच कर तुमने कहा? उस मितभाषी, विनम्र, दुबले-पतले, दाढ़ी-पगड़ी वाले, सिर झुकाए, मौन रह कर कार-सेवा कर रहे शालीन बूढ़े को। क्या सोच कर कहा तुमने शिखंडी? तुम जानते नहीं, कौन था, या थी शिखंडी? बिना जाने ही उसे, चस्पा कर दिया तुम ने, उस के नाम पर। तो अब जान लो कौन था, या थी शिखंडी?

भीष्म को तो जानते हो? उस ने किया था अपहरण जिन तीन बहनों का, उन मे से एक थी जो प्यार करती थी किसी से? और रचाना चाहती थी अपना ब्याह उसी से। हर लिया उसे, भीष्म ने, अपने भाई, विचित्रवीर्य के लिए। लेकिन जो प्रेम करती थी किसी और से, कैसे बनाता वह भाभी उसे। मुक्त कर दिया भीष्म ने। किन्तु अपहरण तो दाग था, स्त्री के लिए, कौमार्य उस का हो चका था, अब वह थी कलंकित, भीष्म  के सानिध्य से। त्याग दिया, अपनाया नहीं प्रेमी ने भी उसे। जल उठे उस के क्रुद्ध नयन, बदला लेने को हो गई कृत संकल्प। अबला से बनी सबला। वही थी, बदले की आग ने उसे ही बनाया था शिखंडी। बाप बदला, वेष बदला, की प्रतीक्षा युद्ध के घोष की। तब तान सीना वह खड़ी थी, शत्रु की पाँत में, ठीक भीष्म के सामने। पाप के बोझ से दबे भीष्म ने देखा उसे, शस्त्र अपने धरा पर डाल दिए। फिर तभी लगा छोड़ने तीर, अपने ही  पितामह पर अर्जुन, वीर?

ब बताओ¡ क्यों कहा था? जाने बिना ही, उस बूढ़े को शिखंडी? अब जान कर भी कथा मिथक की। क्या फिर कहोगे? उसे शिखंडी?
और  कहा तो ...
लाओगे कहाँ से वह भीष्म, जिस ने किया हो अपहरण उस बूढ़े का? कौन  है, जिस के सामने खड़ा है? बूढ़ा, बन शिखंडी। कौन है जो उस का प्रेमी बना है? किस ने उसे प्रेम से वंचित किया है? कौन  है जो शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन बना वार करता है?

हाँ तो आड़ ले कर वार करने दुर्योधन खड़ा है।  फिर आड़ जिस का ली गई है, वह क्यों कर शिखंडी हो सकता है?

तो बच्चे? इस बार मिलेगा तुम्हें मात्र अंडा। उत्तीर्ण तुम को कर सकता नहीं। जो ढूंढ लो कोई नयी उपमा, ठीक से पढ़ पढ़ा कर मिथक को। पूरक में बैठ जाना। तब देख लेंगे काबीलियत तुम्हारी, हो सके भी हो या नहीं, उत्तीर्ण होने लायक तुम? 

गुरुवार, 31 मई 2012

जनतंत्र का अव्वल नियम

ज कल हर कोई डेमोक्रेसी, मतलब जनतंत्र के हाथ धो कर पीछे पड़ा रहता है। जैसे जनतंत्र न हुआ एवरेस्ट की चुटिया हो गया, जिस पर चढ़ना बहुत ही टेड़ी खीर हो। नए नए मिनिस्टर बने हमारे मोहल्ले के छन्नू नेता ही देख लें। वे जनतंत्र को समझें या न समझें पर पूरा भाषण पेल सकते हैं। कोई उन से पूछ कर देखे कि आप जानते भी हैं डेमोक्रेसी कौन चिड़िया का नाम है? उन में तुरंत लक्ष्मण की आत्मा आ जाती है। सवाल पूछने वाला परशुराम लगने लगता है। हम को क्या समझा है? ‘बहु धनुहीं तोरीं लरिकाई’। हमने बचपन से कोई खोर थोड़े ही पीसी है। तावड़े में बाल धोले थोड़े ही किए हैं। पहली किलास से मानीटर रहे और तीसरी तक पहुँचते पहुँचते बालसभा के मंत्री हो गए। फिर तो मुड़ कर देखा ही नहीं। जनतंत्र की नब्ज नब्ज पहिचानते हैं। पिराईमरी में बच्चों को पानी बतासे और नारंगी की खट्टी मीठी गोलियाँ खिलाते थे। जो काबू नहीं आता था उस की नाक तोड़ देते थे। बस वही फारमूला वही है। पानी बतासे और नारंगी की गोलियाँ बदल गई हैं। कैसे भी हो कमान अपने हाथ रहनी चाहिए। डेमोकिरेसी कोई आज से है क्या हमारे मुलक में? भगवान बुद्ध से भी पहले गणतंत्र होते थे। हमारे देश की तो नस नस में जनतंत्र व्याप्त है।

अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, अपना संविधान बना, तब से डेमोक्रेसी बहुत आसान हो गई है। बस चुनाव जीतो, फिर जैसे तैसे जीते हुओं को पटाकर रखो। फिर गद्दी अपनी। गद्दी अपने पास हो तो डेमोक्रेसी क्या खा कर चलने से मना करेगी? वायरस पार्टी को देख लो कब से एक नेता के बल पर चल रही है। नेता मर जाए तो नेता चुनने का ज्यादा कुछ चक्कर ही नहीं । नेता के खानदान में जो भी मिले उसे पकड़ कर माला पहना देते हैं। कोई न भी मिले तो नेताजी के घर के अनावर-जनावर तक से काम चला लेते हैं। बड़े ठाठ से राज चल रहा है। कभी राज से बाहर हो भी गए तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। जैसे तैसे वापस लौट ही आते हैं। अब तो फिक्र करना ही बंद कर दिया है। सामने मैदान में कोई दमदार हो तो फिक्र हो।

हुत तो हैं मैदान में। ततैया पार्टी है, बर्र पार्टी है, कछुआ और खरगोश पार्टियाँ हैं, और क्या चाहिए? मच्छर, मक्खी पार्टियों को जश्न में अपनी टेबल पर बिठा कर खिलाने-पिलाने से जनतंत्र में गद्दी पक्की नहीं होने वाली। बहुत कुछ करना पड़ेगा। फिर बैक्टीरिया पार्टी से कैसे निपटोगे? देखा नहीं? तीन तीन प्रान्तों में भरपूर विकास के साथ पुख्तगी से जनतंत्र चला रहे हैं। कुछ दिन पहले तक लोग भले ही कहते हों, डेमोक्रेसी को हाँकने एक नेता तक नहीं है बैक्टीरिया पार्टी के पास। एक वेटिंग में चल रहा था. वह भी बूढ़ा हो चला है शेष जो हैं उन में किसी के पास लियाकत ही नहीं। अब कोई कह के देखे? आज बैक्टीरिया पार्टी का बच्चा बच्चा छाती ठोक कर कहता है, हमारे पास भी नेता है। अरब सागर के किनारे खड़ा हो कर हूँकार भरता है तो जमना का किनारा दहल जाता है। देखा नहीं कल टी.वी. पर, कैसे हूँकार भर रहा था? हफ्ते भर में पार्टी की बिसात बदल के रख दी। इसे कहते हैं, जनतंत्र का चलना और चलाना। लोग बेफालतू बकते रहते हैं। जनतंत्र कोई संविधान से चलता है। वह चलता है, तिकड़म से। संविधान तो बजाने का झुनझुना है, जब देखो कि झुनझुना किसी के आड़े आ रहा है तो उसे बदलवा डालो। रास्ता खुल जाता है, परंपरा पड़ जाती है। जब अपने आड़े आएगा तो परंपरा अपने काम आएगी। वोट की कीमत पहचानो। जब मौका आए तो पूरा ब्लेकमेल करो, विरोधियों को घर से बेदखल करवाओ। फिर खेलो खेल औरंगाबादी, अहमदाबादी। औरंगजेब से सीखो। बादशाह बनना कोई बच्चों का खेल नहीं। ये जनतंत्र का अव्वल नियम है। जो मुकाबले पर आए उसे कैद कर लो या कलम कर दो। ऐसा तुम न करोगे तो वे तुम्हें कलम कर देंगे, फिर चला लिया जंनतंत्र।

मंगलवार, 29 मई 2012

पेट्रोल की साढ़े साती


भारत की जनता को जब जब भी चुनाव से निजात मिलती है, वह अपनी हालत के बारे में सोचने लगती है। जब जनता सोचने लगे तो सरकार के दफ्तर में खतरे का अलार्म बजने लगता है। तभी जरूरी हो जाता है कि उसे फिर से औंधे मुहँ पटका जाए। इस के लिए कुछ अधिक करने की जरूरत नहीं। सरकार पेट्रोल, डीजल या फिर रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है। सेट फारमूला है। कहा ये जाता है कि मजबूरी है। दुनिया भर में खनिज तेल के दाम बढ़ रहे हैं कि कीमतें बढ़ानी पड़ीं। न बढ़ाएँ तो तेल कंपनियाँ औंधे मुहँ गिर जाएँ। फिर कौन तेल खरीदेगा, कौन शोधेगा, कौन उसे गोदामों में पहुँचाएगा और कौन पेट्रोल को पंपों तक, गैस को गैस एजेंसियो तक पहुँचाएगा। सारे वाहन रुक जाएंगे, गति थम जाएगी, गांवों में कैरोसीन नहीं होगा, अंधेरा होगा। लालू की लालटेन नहीं जलेगी, रसोइयों में गैस और केरोसीन नहीं होंगे तो रसोइयाँ रुक जाएंगी। जनता में त्राहि-त्राहि कर उठेगी। कुछ कुछ वैसा ही सीन होगा जैसा पिछले दिनों सीरियल ‘देवों के देव महादेव’ में देखने को मिला। पिता दक्ष ने सती के पति को यज्ञ का न्यौता नहीं दिया, सती बिना न्यौते गई, तो पति का घोर अपमान देखा, सती आत्मदाह पर उतारू हो गई, उसे किसी ने नहीं रोका, आत्मदाह करना पड़ा। शिव क्रोधित हो कर तांडव नृत्य करने लगे। सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मच उठा।  

हुत दिनों से पेट्रोल के दाम बढ़ने की खबर थी। पर कच्चे तेल के दाम गिर गए। सरकार में घबराहट में आ गई।  न आई होती तो कब के बढ़ा चुकी होती। पर रुपए ने रिकार्ड स्तर पर गिर कर सरकार की घबराहट को थाम लिया, दाम बढ़ा दिए। दाम बढ़ने की खबर जंगल में आग की तरह फैली, वाहनों ने पंपों पर कतारें लगा दीं। पेट में जितना समा सकता हो आधी रात तक समा लो, उस के बाद तो बढ़ा हुआ दाम देना ही है। पंपों पर लगी कतारों से सरकार की साँस में साँस आ गई। वह समझ गई, अभी वाहन वालों में बहुत दम है, न होता तो वे पंप के बजाए सरकार की तरफ दौड़ते।  नेतागणों ने नवीन वस्त्र पहने और मेकप करवा कर तैयार हो गए, चालकों को वाहन हमेशा तैयार रहने की हिदायत दे दी गई। टेलीफोन की घंटी बजने का इंतजार होने लगा। कब मीडिया का बुलावा आए और वे कैमरे के  सामने जा कर खड़े हों।

स्टूडियो में बहस चल रही है। विपक्ष कह रहा है -सरकार जनता का तेल निकाल रही है। सरकारी नेता बोला –दाम बढ़ाने में हमारा कोई रोल नहीं। कच्चे तेल के दाम बढ़े, कंपनियों ने पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए। इस में हम क्या कर सकते थे। नीति को विपक्षी जब सरकार में थे तो उन्हों ने तय किया था, हम तो उन का अनुसरण कर रहे हैं। इधर छोटे परदे के दर्शकों को समझ नहीं आ रहा है कि आखिर गलती सरकार की है या विपक्ष की? बहस के बीच ही तेल के दाम और टैक्सों के गणित की क्लास शुरु हो जाती है। सवाल पूछा जा रहा है -35 का तेल जनता को 75 में, 40 कहाँ गए? लोग सवाल का उत्तर तलाश रहे हैं। जवाब नहीं आ रहा है। दर्शकों को पता है, चालीस कहाँ गए? पर उन से कोई नहीं  पूछता। उन्हें 75 देने हैं तो देने हैं। जनतंत्र है भाई, जनता से पूछने लगे तो कैसे चलेगा?

नतंत्र धन से चलता है, जनता से नहीं। सरकार के पास धन नहीं होगा तो वह कैसे चलेगी? अस्पताल कैसे चलेंगे? मनरेगा कैसे चलेगा? पोषाहार ... वगैरा वगैरा  कैसे चलेंगे? घोटाले कैसे चलेंगे? नेतागण कैसे चलेंगे? नेता न चले तो सरकार कैसे चलेगी? जनतंत्र कैसे चलेगा? पेट्रोल, डीजल, गैस और केरोसीन के बिना जनता कैसे चलेगी? जनता को चलना है तो उसे ये सब खरीदना पड़ेगा, किसी कीमत पर। वह जरूर कोई परम विद्वान रहा होगा जिस ने तेल के साथ सरकार का टैक्स चिपकाया और जनतंत्र चलाने का स्थाई समाधान कर दिया। 35 का तेल, 5 की ढुलाई और डीलर कमीशन, बाकी बचे 35 तो उस से सरकार चलती है, जनतंत्र चलता है।  ये 35 सीधे जनता की जेब से आता है, किसी धनपति की  जेब से नहीं। कोई हिम्मतवाला नहीं, जो कहे कि भारत का जनतंत्र धनपति चलाते हैं, कोई हो भी तो कैसे? भारत का जनतंत्र जनता की जेब से चलता है।

क चैनल बता रहा है चीन की मुद्रा 0.6 प्रतिशत कमजोर हूई और वहाँ 9 मई को पेट्रोल की कीमतें घटाई गईं। पाकिस्तानी रुपया एक साल में 4.5 प्रतिशत कमजोर हुआ, दाम 8.5 प्रतिशत बढ़े, लेकिन अब घटाने की चर्चा है। इस घड़ी में भारत की तुलना उस के शत्रु मुल्कों से करने वाले चैनल को तुरंत देशद्रोही घोषित कर देना चाहिए था। दक्ष ने तो शिव की चर्चा तक पर प्रतिबंध लगा रखा था और उसे चाहने वाली अपनी सब से प्रिय पुत्री तक को त्याग दिया था। इस चैनल ने इतना भी ध्यान न रखा कि भारत दुनिया का सब से बड़ा जनतंत्र है जब कि इन शत्रु देशों में जनतंत्र का नामलेवा तक नहीं। इन से भारत की तुलना करना अब तक अपराध क्यों नहीं।  लेकिन भारत सरकार रहम दिल है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से तुलना पर भी इस चैनल पर प्रतिबंध नहीं लगा कर उस ने फिर से साबित कर दिया कि भारत में जनतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं।

क्ष को अनुमान नहीं था कि शिव तांडव करेंगे, दुनिया पर कहर ढा देंगे। उसे कुछ-कुछ अनुमान रहा भी हो तो उसे दुनिया से कोई लेना देना नहीं था। वैसे ही जैसे नेताओं को जनता से। उस ने दुनिया की नहीं, खुद की सुरक्षा देखी, पालनहार विष्णु का भरोसा किया।  दक्ष का अहंकारी मस्तक धड़ से अलग हो यज्ञकुंड में गिरा और फटाफट भस्म हो गया। पालनहार कुछ नहीं कर पाए, शिव से गुहार लगाई, महादेव¡ कुछ करो, वरना दुनिया कैसे चलेगी? दक्ष को बकरे का सिर मिला, वह फिर से मिमियाने लगा।

नतंत्र में किसी का सिर तो नहीं काटा जा सकता न? सरे आम आग्नेयास्त्रों से कत्लेआम करने वाले कसाब तक का नहीं। उसे भी सुनवाई का, अपील का और दयायाचिका का अवसर देना पड़ता है, जनतंत्र जो है। फिर सरकार तो सरकार है, पाँच बरस के लिए चुन कर आती है, उस से पहले उस का कोई क्या बिगाड़ सकता है?  दिल्ली की सड़कों को तिरंगों से पाट कर भी अन्ना ने क्या बिगाड़ लिया? हो तो वही रहा है न, जो सरकार चाह रही है। इसलिए जो होना है वह पाँच बरस पूरे होने पर ही, उस के पहले कुछ भी नहीं।

चैनलों और अखबारों ने दो दिन सरकार को खूब आड़े हाथों लिया। फिर कहने लगे -सब से बड़े जनतंत्र की सरकार ऐसी वैसी नहीं हो सकती। उसे रहमदिल होना चाहिए, वह है भी। शनि की तरह बेरहम नहीं कि एक बार साढ़े साती चढ़ जाए तो साढ़े सात से पहले उतरें ही नहीं। उस का रहम से भरपूर दिल सोच रहा है, क्यों न औंधे मुहँ पड़ी जनता को सीधा कर दिया जाए, कुछ फर्स्ट एड दी जाए। साढ़े साती को ढैया से नहीं बदला जाए तो कम से कम एक ढैया तो कम कर ही दी जाए। हो सकता है सरकार को दो साल बाद का मंजर सताने लगे, जैसे कभी कभी शनि को लंका का कैदखाना याद हो आता है। लेकिन अखबारों, चैनलों का यह प्रयास भी व्यर्थ हो गया। सरकार का बयान आया कि वह बढ़ाई गई कीमतें कम नहीं कर सकती। शायद दो बरस का समय बहुत लंबा होता है और जनता को इतने समय तक  कहाँ कुछ याद रहता है?

शुक्रवार, 25 मई 2012

थमा हुआ इंकलाब


 विचित्र दृश्य हैं।  रुपया गिर रहा है, लगातार गिर रहा है।  कब तक गिरेगा? किसी को पता नहीं है। प्रणब दा कहते हैं कि उधर यूरोप में किसी देश में जबर्दस्त आर्थिक संकट चल रहा है, उसे देख कर रुपया गिर रहा है। रुपया रुपया न हुआ कोई लड़की हो गई जो किसी लड़के को आते देख कर गिर जाए और इंतजार करे कि वह आएगा और उसे उठा लेगा।

सोना चढ़ रहा था कि रुपए की गिरावट को देख अचानक गिरा और लगातार तीन दिनों तक गिरा। लोगों ने सोचा डालर बेचो, रुपया खूब मिलेगा। मिले रुपए से सोना खरीद लो। लोग सोना खरीदने बाजार तक पहुँच भी न सके थे कि सोना एकदम चढ़ा और वापस अटारी पर जा पहुँचा।

चपन में मैं सोचता था कि जीव जंतु ही चढ़ते उतरते हैं। जैसे गिलहरी, तपाक से पेड़ पर चढ़ जाती है, उस का मन हुआ और उतर गई। फिर अखबार पढ़ने लगे तो पता लगा कि दूसरी चीजें भी चढ़ती उतरती हैं। किसी दिन तेल चढ़ता है तो किसी दिन मिर्च चढ़ जाती है। चीनी, तिलहन, दलहन, अनाज वगैरा सभी चढ़ते उतरते हैं। इस चढ़ने उतरने में सब से ज्यादा दुर्गति तिलहन,दलहन, अनाज और मसालों की होती है। जब जब फसल आती है ये गिर पड़ते हैं जैसे ही फसल मंडी से उठ कर गोदामों में पहुँचती है वे चढ़ने लगते हैं। लेकिन फसल आने के ठीक पहले फिर से गिर पड़ते हैं।

किसान सोचता है पिछले साल प्याज में अच्छी कमाई हुई थी। इतना चढ़ा, इतना चढ़ा कि सरकार तक बदल गई थी। वह सोचता है इस साल गेहूँ करने के बजाये प्याज करो। इतना प्याज कर डालता है कि प्याज जमीन पर आ जाता है। कोई खरीदने वाला नहीं मिलता। पिछले साल लहसुन ने चढ़ने में बाजी मार ली। लोगों ने प्याज को छोड़ा लहसुन कर डाला। अब लहसुन इतना हुआ कि रखने को जगह नहीं बची। बिचारा गिरने लगा तो हाल यह हो गया कि मंडी में दो रुपए किलो में कोई लेने वाला नहीं रहा। उधर अखबार में खबर पढ़ कर गृहणियाँ सोचने लगीं। कल वे जरूर दस किलो लहसुन ले कर घर में डाल लेंगी। पर जब सब्जी वाला आया तो दस रुपए किलो का भाव बोल रहा था। उस से बहस की तो कहने लगा साहब मंडी में दो रुपए किलो ही बिकता है, पर पूरा ट्रेक्टर खरीदना पड़ता है। वह न तो मैं खरीद सकता हूँ और न आप खरीद सकते हैं। हमें तो पाँच रुपए किलो खरीदना पड़ता है माशाखोर से। फिर उस में से अच्छा अच्छा छाँट कर आप के लिए लाते हैं उस में भी आप छाँट लेती हैं। अब दस रुपए किलो से कम में कैसे बेच सकते हैं।? श्रीमती जी लहसुन खरीदने के लिए बोरा लेकर गई थीं। प्लास्टिक की थैली में दो किलो लेकर घर में लौटीं।

स साल बरसात अच्छी हुई थी। खरीफ की फसल भी अच्छी हुई। फिर रबी की फसल पकी तो लगा कि धरती पर सोना ही सोना उग आया है।  दस-बीस साल पहले सोना उगता था तो पहले कटता था। फिर बैलों के पैरों तले रोंदा जाता था। फिर हवा में बरसाया जाता था तब गेहूँ का दाना तैयार होता था। पूरा महिने दो महिने यह चलता रहता था। अब वो सब नहीं होता। पंजाब के लोग कम्बाइन ले कर आते हैं हैं और एक दो सप्ताह में ही खेत के खेत काट कर गेहूँ निकाल कर चल देते हैं। कुछ ही दिनों में सारा सोना सिमट जाता है। किसान के पास सोना रखने की जगह नहीं। वह ट्रेक्टर ट्राली पर सोना लाद कर चलता है मंडी की और रुपया खरीदने। जिस से उसे बेटी-बेटे ब्याहने हैं, बैंक-साहूकार के कर्जे उतारने हैं। बच जाए तो छप्पर ठीक कराना है, फिर बच्चे पढ़ाने हैं.. आदि आदि।

मंडी अनाज से भरी है, मंडी के बाहर किलोमीटरों तक सड़कें सोने से भरी ट्रालियों से पट गई हैं, जाम लग गया है। व्यापारी के पास इतना पैसा ही नहीं कि खरीद ले। किसान के सोने का दाम गिरने लगता है। सरकार ने निर्धारित मूल्य पर खरीद का इंतजाम किया है। लेकिन कारकून कम हैं वे एकदम नहीं खरीद सकते उन्हें तौलना पड़ेगा, फिर बोरों में भरना पड़ेगा। किसानों को सड़क पर ट्रेक्टर लिए पड़े दो चार दिन हो गए हैं। जितना गेहूँ खरीदा जाता है उस से ज्यादा फिर आ जाता है। सरकारी खरीद केंद्र के कारकूनों के चेहरे खिल उठे हैं। सरकारी खरीद में दाम तो ऊँचे नीचे नहीं हो सकते लेकिन वे किसी का तुरन्त खरीद सकते हैं किसी को कुछ दिनों का इंतजार करा सकते हैं। वे किसानों से मोल भाव कर रहे हैं। गेहूँ बेचना है? एक ट्रॉली पर हमें कितना दोगे? दाम लगने लगे हैं। एक ट्रॉली पर हजार, दो हजार, तीन हजार, साढ़े तीन हजार ... किसान हिसाब लगा रहे हैं कि तीन दिन रुकेंगे तो कितना खर्चा होगा? कारकून को ले-दे कर तुलवा देंगे तो कितना नुकसान होगा? आखिर कारकून का भाव दो हजार तय होता है। दो दिन गेहूँ तुलता है। तीसरे दिन खबर आती है कि बोरे खत्म हो रहे हैं, उन के आने तक इंतजार करना पड़ेगा। कारकूनों का भाव दो हजार से तीन हजार हो जाता है।

लाल-पीले झंडे वाले आते हैं, बोलते हैं। बोरे ऐसे नहीं आएंगे, कलेक्ट्री पर जा कर इंकलाब जिन्दाबाद करना पड़ेगा। इधर राजस्थान में कलेक्ट्रियों पर दुरंगा इंकलाब हो रहा है तो मध्यप्रदेश की कलेक्ट्रियों पर तिरंगा इंकलाब हो रहा है। कलेक्टर बताता है कि वे बारदाने की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि बिना बोरों के भी गेहूँ खरीदा जाएगा। दुरंगा-तिरंगा इंकलाब थम जाता है। किसान वापस मंडी की तरफ लौटने लगते हैं। उधर डालर हँस रहा है।

देश के वित्तमंत्री बूढ़े हो चले हैं, थक गए हैं, कह रहे हैं अगली बार चुनाव नहीं लडेंगे। उन से पूछा जाता है कि राष्ट्रपति का चुनाव तो लड़ सकते हैं? वे जवाब नहीं देते, मुस्कुरा भर देते हैं।