विचित्र दृश्य हैं। रुपया गिर रहा है, लगातार गिर रहा है। कब तक गिरेगा? किसी को पता नहीं है। प्रणब दा कहते
हैं कि उधर यूरोप में किसी देश में जबर्दस्त आर्थिक संकट चल रहा है, उसे
देख कर रुपया गिर रहा है। रुपया रुपया न हुआ कोई लड़की हो गई जो किसी लड़के
को आते देख कर गिर जाए और इंतजार करे कि वह आएगा और उसे उठा लेगा।
सोना
चढ़ रहा था कि रुपए की गिरावट को देख अचानक गिरा और लगातार तीन दिनों तक
गिरा। लोगों ने सोचा डालर बेचो, रुपया खूब मिलेगा। मिले रुपए से सोना खरीद
लो। लोग सोना खरीदने बाजार तक पहुँच भी न सके थे कि सोना एकदम चढ़ा और वापस
अटारी पर जा पहुँचा।
बचपन
में मैं सोचता था कि जीव जंतु ही चढ़ते उतरते हैं। जैसे गिलहरी, तपाक से
पेड़ पर चढ़ जाती है, उस का मन हुआ और उतर गई। फिर अखबार पढ़ने लगे तो पता
लगा कि दूसरी चीजें भी चढ़ती उतरती हैं। किसी दिन तेल चढ़ता है तो किसी दिन
मिर्च चढ़ जाती है। चीनी, तिलहन, दलहन, अनाज वगैरा सभी चढ़ते उतरते हैं।
इस चढ़ने उतरने में सब से ज्यादा दुर्गति तिलहन,दलहन, अनाज और मसालों की
होती है। जब जब फसल आती है ये गिर पड़ते हैं जैसे ही फसल मंडी से उठ कर
गोदामों में पहुँचती है वे चढ़ने लगते हैं। लेकिन फसल आने के ठीक पहले फिर
से गिर पड़ते हैं।
किसान
सोचता है पिछले साल प्याज में अच्छी कमाई हुई थी। इतना चढ़ा, इतना चढ़ा कि
सरकार तक बदल गई थी। वह सोचता है इस साल गेहूँ करने के बजाये प्याज करो।
इतना प्याज कर डालता है कि प्याज जमीन पर आ जाता है। कोई खरीदने वाला नहीं
मिलता। पिछले साल लहसुन ने चढ़ने में बाजी मार ली। लोगों ने प्याज को छोड़ा
लहसुन कर डाला। अब लहसुन इतना हुआ कि रखने को जगह नहीं बची। बिचारा गिरने
लगा तो हाल यह हो गया कि मंडी में दो रुपए किलो में कोई लेने वाला नहीं
रहा। उधर अखबार में खबर पढ़ कर गृहणियाँ सोचने लगीं। कल वे जरूर दस किलो
लहसुन ले कर घर में डाल लेंगी। पर जब सब्जी वाला आया तो दस रुपए किलो का
भाव बोल रहा था। उस से बहस की तो कहने लगा साहब मंडी में दो रुपए किलो ही
बिकता है, पर पूरा ट्रेक्टर खरीदना पड़ता है। वह न तो मैं खरीद सकता हूँ और
न आप खरीद सकते हैं। हमें तो पाँच रुपए किलो खरीदना पड़ता है माशाखोर से।
फिर उस में से अच्छा अच्छा छाँट कर आप के लिए लाते हैं उस में भी आप छाँट
लेती हैं। अब दस रुपए किलो से कम में कैसे बेच सकते हैं।? श्रीमती जी लहसुन
खरीदने के लिए बोरा लेकर गई थीं। प्लास्टिक की थैली में दो किलो लेकर घर
में लौटीं।
इस साल
बरसात अच्छी हुई थी। खरीफ की फसल भी अच्छी हुई। फिर रबी की फसल पकी तो लगा
कि धरती पर सोना ही सोना उग आया है। दस-बीस साल पहले सोना उगता था तो
पहले कटता था। फिर बैलों के पैरों तले रोंदा जाता था। फिर हवा में बरसाया
जाता था तब गेहूँ का दाना तैयार होता था। पूरा महिने दो महिने यह चलता रहता
था। अब वो सब नहीं होता। पंजाब के लोग कम्बाइन ले कर आते हैं हैं और एक दो
सप्ताह में ही खेत के खेत काट कर गेहूँ निकाल कर चल देते हैं। कुछ ही
दिनों में सारा सोना सिमट जाता है। किसान के पास सोना रखने की जगह नहीं। वह
ट्रेक्टर ट्राली पर सोना लाद कर चलता है मंडी की और रुपया खरीदने। जिस से
उसे बेटी-बेटे ब्याहने हैं, बैंक-साहूकार के कर्जे उतारने हैं। बच जाए तो
छप्पर ठीक कराना है, फिर बच्चे पढ़ाने हैं.. आदि आदि।
मंडी
अनाज से भरी है, मंडी के बाहर किलोमीटरों तक सड़कें सोने से भरी ट्रालियों
से पट गई हैं, जाम लग गया है। व्यापारी के पास इतना पैसा ही नहीं कि खरीद
ले। किसान के सोने का दाम गिरने लगता है। सरकार ने निर्धारित मूल्य पर खरीद
का इंतजाम किया है। लेकिन कारकून कम हैं वे एकदम नहीं खरीद सकते उन्हें
तौलना पड़ेगा, फिर बोरों में भरना पड़ेगा। किसानों को सड़क पर ट्रेक्टर लिए
पड़े दो चार दिन हो गए हैं। जितना गेहूँ खरीदा जाता है उस से ज्यादा फिर आ
जाता है। सरकारी खरीद केंद्र के कारकूनों के चेहरे खिल उठे हैं। सरकारी
खरीद में दाम तो ऊँचे नीचे नहीं हो सकते लेकिन वे किसी का तुरन्त खरीद सकते
हैं किसी को कुछ दिनों का इंतजार करा सकते हैं। वे किसानों से मोल भाव कर
रहे हैं। गेहूँ बेचना है? एक ट्रॉली पर हमें कितना दोगे? दाम लगने लगे हैं।
एक ट्रॉली पर हजार, दो हजार, तीन हजार, साढ़े तीन हजार ... किसान हिसाब
लगा रहे हैं कि तीन दिन रुकेंगे तो कितना खर्चा होगा? कारकून को ले-दे कर
तुलवा देंगे तो कितना नुकसान होगा? आखिर कारकून का भाव दो हजार तय होता है।
दो दिन गेहूँ तुलता है। तीसरे दिन खबर आती है कि बोरे खत्म हो रहे हैं, उन
के आने तक इंतजार करना पड़ेगा। कारकूनों का भाव दो हजार से तीन हजार हो
जाता है।
लाल-पीले
झंडे वाले आते हैं, बोलते हैं। बोरे ऐसे नहीं आएंगे, कलेक्ट्री पर जा कर
इंकलाब जिन्दाबाद करना पड़ेगा। इधर राजस्थान में कलेक्ट्रियों पर दुरंगा
इंकलाब हो रहा है तो मध्यप्रदेश की कलेक्ट्रियों पर तिरंगा इंकलाब हो रहा
है। कलेक्टर बताता है कि वे बारदाने की मांग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री कह
रहे हैं कि बिना बोरों के भी गेहूँ खरीदा जाएगा। दुरंगा-तिरंगा इंकलाब थम
जाता है। किसान वापस मंडी की तरफ लौटने लगते हैं। उधर डालर हँस रहा है।
देश के
वित्तमंत्री बूढ़े हो चले हैं, थक गए हैं, कह रहे हैं अगली बार चुनाव नहीं
लडेंगे। उन से पूछा जाता है कि राष्ट्रपति का चुनाव तो लड़ सकते हैं? वे
जवाब नहीं देते, मुस्कुरा भर देते हैं।
2 टिप्पणियां:
गरीब के पक्ष में तो वातावरण कभी नहीं बनेगा..
कुर्सी मरते दम तक अच्छी लगती है ....
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