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गुरुवार, 17 सितंबर 2009

स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाने और साथ खाने का आनंद

पिताजी को भोजन बनाने, खिलाने और खाने का शौक था। वे अक्सर नौकरी पर रहते और केवल रविवार या किसी त्यौहार के अवकाश के दिन घर आते।  अक्सर मौसम के हिसाब से भोजन बनाते। हर त्यौहार का भोजन भिन्न  होता। गोगा नवमी को कृष्ण जन्मोत्सव पर मालपुए बनते, कभी लड्डू-बाटी कभी कुछ और। हर भोजन में उन के चार-छह मित्र आमंत्रित होते। उन्हें भोजन कराते साथ ही खुद करते।

 श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन कराने का नियम है। लेकिन उस से अधिक महत्व इस बात का है कि उस के उपरांत आप को परिजनों और मित्रों के साथ भोजन करना चाहिए। इस से हम अपने पूर्वजों के मूल्यों व परंपराओं को दोहराते हुए उन का का स्मरण करते है। श्राद्ध के कर्मकांड को एक तरफ रख दें, जिसे वैसे भी अब लोग विस्मृत करते जा रहे है, तो मुझे यह बहुत पसंद है।  मामा जी अमावस के दिन नाना जी का श्राद्ध करते थे। दिन में ब्राह्मण को भोजन करा दिया और सांयकाल परिजन और मित्र एकत्र होते थे तो उस में ब्राह्मणों की अपेक्षा बनिए और जैन अधिक हुआ करते थे। मुझे उन का इस तरह नाना जी को स्मरण करना बहुत अच्छा लगता था। नाना जी को या उन के चित्र को मैं ने कभी नहीं देखा, लेकिन मैं उन्हें इन्हीं आयोजनों की चर्चा के माध्यम से जान सका। लेकिन मेरे मस्तिष्क में उन का चित्र बहुत स्पष्ट है। 

यही एक बात है जो मुझे श्राद्ध को इस तरह करने के लिए बाध्य करती है। आज पिताजी का श्राद्ध था। सुबह हमारे एक ब्राह्मण मित्र भोजन पर थे। शाम को मेरे कनिष्ट, मुंशी और मित्र भोजन पर थे। नाटककार शिवराम भी हमारे साथ थे। उन की याद तो मुझे प्रातः बहुत आ रही थी। यहाँ तक कि कल सुबह की पोस्ट का शीर्षक और उस की अंतिम पंक्ति उन्हीं के नाटक 'जनता पागल हो गई है' के एक गीत से ली गई थी। रविकुमार ने उस गीत के कुछ अंश इस पोस्ट पर उद्धृत भी किए हैं। उन्हों ने न केवल इस पोस्ट को पढ़ा लेकिन यह  भी बताया कि अब नाटक में मूल गीत में एक पैरा और बढ़ा दिया गया है। मेरा मन उसे पूरा यहाँ प्रस्तुत करने का था। लेकिन फिर इस विचार को त्याग दिया क्यों कि अब बढ़ाए गए पैरा के साथ ही उसे प्रस्तुत करना उचित होगा। वह भी उस नाटक की मेरी अपनी स्मृतियों के साथ।  उन्हों ने बताया कि उन के दो नाटक संग्रहों का विमोचन 20 सितंबर को होने जा रहा है। उन पुस्तकों को मैं देख नहीं पाया हूँ। शिवराम ने आज कल में उन के आमुख के चित्र भेजने को कहा है। उन के प्राप्त होने पर उस की जानकारी आप को दूंगा।
फिलहाल यहाँ विराम देने के पूर्व बता देना चाहता हूँ कि शोभा ने पूरी श्रद्धा और कौशल के साथ हमें गर्मागर्म मालपुए, खीर, कचौड़ियाँ, पूरियाँ खिलाईं। शिवराम अंत में कहने लगे आलू की सब्जी इन दिनों बढ़िया नहीं बन रही है लेकिन आज बहुत अच्छी लगी। केवल आलू की सब्जी खा कर भोजन को विश्राम दिया गया। स्वादिष्ट भोजन बना कर मित्रों को खिलाना और साथ खाने के आनंद का कोई सानी नहीं। नगरीय जीवन में यह आनंद बहुत सीमित रह गया है।

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

'सुनामी बच्ची' कविता 'यादवचंद्र'

दिवंगत श्रद्धेय  यादवचंद्र जी की एक कविता 'मेरी हत्या न करो माँ' आप अनवरत पर पहले पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए उन की एक और कविता ......

सुनामी बच्ची

  • यादवचंद्र
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना माँ-बाप, गाँव-घर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
अपना देश-जाति, धर्म-ईश्वर
नहीं जानती सुनामी बच्ची
राग-विराग, नेह-संवेदना
नहीं जानती सुनामी बच्ची
शुभ-अशुभ, सुन्दर-असुन्दर
उस के होठों पर चुपड़ी है
मौत-सी सख्त बर्फ
नहीं जानती सुनामी बच्ची
दूध और जहर का फर्क

जब गर्भ में थी-
भूडोल  के पालने पर डोलती रही
जब जानलेवा दरारों ने उगला....
तो दूध के लिए
ज्वार की छातियाँ टटोलती रही
भाई तस्करों के साथ रावलपिंडी के दौरे पर था
बाप डिस्टीलरी से 
वापस नहीं लौटा था
बहन होटलों में 
पर्यटकों के साथ लिपटी पड़ी थी
और नंगी लाशों पर सुनामी लहरें
मुहँ बाए खड़ी थीं
शेष कोई न था वहाँ
बची थी सिर्फ-
सुनामी बच्ची

और अब 
सब कुछ ठण्डा पड़ चुका है
गर्म हैं सिर्फ
भविष्यवक्ताओं की वाणियाँ
गर्म हैं सिर्फ
राष्ट्राध्यक्षों के तूफानी वक्तव्य
गर्म हैं सिर्फ
सिने तारिकाओं के 
नेकेड तूफानी कल्चरल प्रोग्राम
गर्म हैं सिर्फ
पर्यटक होटलों में
कहकहाँ की वापसी की शानदार मुहिमें
गर्म हैं सिर्फ 
थाई बेटियों के देह-व्यापार में
महताब फिट करने की लामिसाल कोशिशें

लेकिन याद रखो
कल सुनामी बच्ची की मुट्ठी में 
बन्दूक होगी
और तुम्हारे मुहँ पर थूकने के लिए
हर जुबान पर थूक होगी
आ...क.............थू !
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गुरुवार, 25 जून 2009

जीन्स, टॉप, ड्रेस कोड और महिलाओं की सोच

समय का पहिया कैसे घूमता है इस का नमूना हमने पिछले दिनों देखा गया जब  उत्तर प्रदेश में ड्रेस कोड का हंगामा बरपा होता रहा।   कानपुर  जिले  में  चार महिला कॉलेजों ने अपनी छात्राओं को कैंपस में जींस पहनकर आने पर पाबंदी लगा दी।  कॉलेजों ने  यह काम छात्राओं के साथ छेड़खानी रोकने का भला काम करने की कोशिश में किया।  बात यहीं तक न रुकी छात्राओं के जींस , टॉप , स्कर्ट के साथ साथ कानों में बड़े बड़े इयर रिंग्स , गले में हार , फैन्सी अंगूठी और ऊंची एड़ी के सैंडिल पहनने पर भी रोक लगा दी गई। जब कि छात्राओं का कहना था कि कॉलेज प्रशासन का फैसला बेतुका है। वे छेड़खानी रोकना ही चाहते हैं तो पुलिस की मदद क्यों नहीं लेते? कॉलेज छात्रों  के बीच जींस पहनना आम बात है। मिनी स्कर्ट और शॉर्ट टॉप जैसे कपड़ों पर रोक की बात समझ में आती है , पर जींस?
इस के बाद  पहिया आगे चला तो अध्यापिकाएँ भी इस की चपेट में आ गईं। कानपुर के महिला कॉलिजों की अध्यापिकाओं को सख्त निर्देश दिए गए कि वे स्लीवलेस ब्लाउज और भड़कीले सूट पहन कर कॉलिज आयें। मोबाइल लेकर कॉलिज आने की अनुमति है लेकिन उसे स्विच ऑफ रखना होगा।
आप तो जानते ही हैं, लेकिन इन कॉलेजों का प्रशासन यह नहीं जानता था कि इस देश में प्रेस और मीडिया भी है और स्त्री-स्वातंत्र्य का आंदोलन भी; और यह भी कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री भी एक स्त्री हैं।  मंसूबे धरे के धरे रह गए।  मायावती ने तुरंत कहा -कोई ड्रेस कोड नहीं चलेगा।  फिर सरकारी फरमान निकला कि  यूपी के किसी भी कॉलेज में ड्रेस कोड लगाने का समाचार मिला तो मामले की जांच की जाएगी और आरोप सही पाए जाने पर संबंधित कॉलेज के खिलाफ राज्य सरकार यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगी। इसके तहत मान्यता छिनने का खतरा पैदा हुआ ही, यूजीसी से मिलने वाली ग्रांट और दूसरी सरकारी सहायता भी खतरे में दिखाई दी।  नतीजा यह हुआ कि ड्रेस कोड लागू होने के पहले ही गुजर गया। 
यह तो हुआ ड्रेस कोड का हाल।  महिलाएँ जीन्स और टॉप के बारे में क्या सोचती हैं। उस का असली किस्सा।  एक प्रोजेक्ट में नई अफसर अक्सर जीन्स और टॉप पहनती है। उस से उम्र में कहीं बहुत बड़ी महिलाएँ वर्कर हैं जो उसे रिपोर्ट करती हैं।  अचानक अफसर एक दिन सलवार सूट में दिखाई दी तो  कुछ अच्छी वर्करों ने उसे सलाह दी कि -मैडम! आप इस सूट में उतनी अच्छी नहीं लगतीं।  आप इसे मत पहना कीजिए।  आप को जीन्स और टॉप ही पहनना चाहिए।  उस में आप स्मार्ट लगती हैं। अगर आप ने कुछ दिन सूट पहन लिया तो सारी वर्कर्स आप को ढीली-ढाली समझने लगेंगी और फिर काम का क्या होगा वह तो आप जानती ही हैं।