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शनिवार, 16 मई 2009

कौन चुनता है खेतपति? कौन बनाता है सरकारें? : जनतन्तर कथा (29)



हे, पाठक!
प्रातःकाल के नित्यकर्म से निवृत्त हो कर सूत जी और सनत यात्री आवास से बाहर बहुत गर्मी थी। अभी दोपहर होने में समय था लेकिन सूरज प्रखरता पर था हवा गर्म हो चुकी थी।  राजधानी में होने वाले खेतपतियों के ठेकेदारों की चहल-पहल बढ़ चली थी।  माध्यम  सुबह से ही उन की हलचलों की सूचनाओं के साथ अपनी अपनी आंकड़ेबाजी प्रदर्शित करने में लगे थे।  उधर महापंचायत में नेतृत्व के इच्छुक आँकड़ेबाजी में व्यस्त थे। कौन सी चिड़िया फाँसी जा सकती है? सूत जी ने कहा -सनत! हम दो माह से घूम रहे हैं।  आज हमारा तो मन दिन में यात्री आवास में ही विश्राम करने का है।  तुम क्या कर रहे हो?
सनत बोला -मैं जरा ठिकानों की टोह ले कर आता हूँ।  कैसे कैसे प्रहसन चल रहे हैं?
 दोनों ने एक अच्छे स्थान पर प्रातः कलेवा किया।  सूत जी को वापस यात्री आवास छोड़ सनत टोह में निकल लिया।

हे, पाठक!
सायँकाल सनत वापस लौटा, दिन भर के समाचार सुनाने लगा। ये वही समाचार थे जो सूत जी को दिन भर में  माध्यमों से प्राप्त हो चुके थे। कुछ नया नहीं था। सनत ने वही प्रश्न फिर सूत जी के सामने रखा।  महापंचायत पर किस का आधिपत्य होगा? जनता किसे चुनेगी? क्या कल वही परिणाम देखने को मिलेंगे जिन का अनुमान लगाया जा रहा है?
सूत जी बोले  -सनत परिणाम भी एक दिवस भर में आ लेंगे।  लेकिन वह महत्वपूर्ण नहीं है। मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ पर पहले तुम्हें मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा।

-गुरुवर पूछें। सनत बोला।
गणतंत्र बनने से ले कर आज तक अनेक चुनाव हुए हैं, सरकारें बनी हैं, बिगड़ी हैं, नयी आई हैं।  तुम बताओ कि सब से अधिक लाभ इन सरकारों से या व्यवस्था से किस को हुआ है?
 प्रश्न बहुत गंभीर था।  सनत  देर तक सोचता रहा।

हे, पाठक!
सनत सोच कर बोला -सब से अधिक लाभ तो देश के उद्योगपतियों ने उठाया है।  उस से कुछ कम लाभ उन लोगों ने उठाया है जो देश भर में कृषि भूमि और नगरीय भूमि पर आधिपत्य. रखते हैं।
-बस यही मैं तुम से कहलाना चाहता था।  वैसे  भारत में लगी विदेशी पूँजी के बारे में तुम्हारा क्या सोचना है? सूत जी ने फिर प्रश्न किया।
सनत फिर कुछ देर सोच कर बोला -विदेशी पूँजी भी देश से बहुत लाभ कमा कर ले जाती है।
-तो सर्वाधिक लाभ कमाने वाले हुए उद्योगपति, भू-स्वामी और विदेशी पूँजी के स्वामी। यही, यही तीनों अब तक महापंचायतें चुनते आए हैं और सरकारें बनाते आए हैं।  ये ऐसे लोगों को वे सारे साधन उपलब्ध कराते हैं जिस से चुनाव जीता जा सकता है।  चुनाव की प्रक्रिया को इतना महँगा और जटिल बना दिया है कि इन तीनों की कृपा के बिना कोई चुनाव जीत कर खेतपति बनने की कल्पना तक नहीं कर सकता।  इस लिए जो भी चुन कर खेतपति बनता है वह इन्हीं का होता है।  वे इस का भी पूरा ध्यान रखते हैं कि वे उसी के बने रहें।  इसलिए यह भ्रम है कि खेतपति को जनता चुनती है, खेतपति महापंचायत में एकत्र हो कर सरकार चुनते हैं और शासन जनता का है।  वास्तव में ये तीनों ही मिल कर सब कुछ चुनते हैं।
सनत यह सत्य सुन कर सकते में आ गया।

हे, पाठक!
-पर जनता तो इस भ्रम में है कि सब कुछ वही चुनती है।  वह तो समझती है कि यह जनतंत्र है। सनत बोला।  हाँ, वह प्रारंभ में यही समझती थी।  लेकिन जनता को बहुत काल तक भ्रम में नहीं रखा जा सकता। वह अब समझने लगी है।  जब वह इस सत्य को बिलकुल नहीं समझती थी या उस का केवल एक छोटा भाग ही इस सत्य को समझता था, तब लगातार बैक्टीरिया दल को बहुमत मिलता रहा।  लेकिन जब उस का भ्रम टूटने लगा तो उस ने बैक्टीरिया दल को कमजोर किया।  बहुत उथल-पुथल के उपरांत वायरस दल सामने आया।  इस दल का चेहरा भिन्न था इसलिए उस के बारे में जनता को भ्रम रहा।  फिर भ्रम टूटा तो उसे भी जनता ने मजबूत नहीं होने दिया वापस कमजोर किया।  विकल्पहीनता की स्थिति में बहुत से छोटे-छोटे दल अस्तित्व  में आ गए हैं।  इन तीनों का काम बढ़ गया है।  अब उन्हें इस तरह इन छोटे-छोटे दलों को एकत्र करना है कि महापंचायत और देश के शासन पर उन का अधिकार बना रहे।
सनत चुपचाप सुन रहा था।  सूत जी रुके तो बोला -गुरूवर आप ने तो आँखें खोल दीं।
सूत जी बोले बहुत रात हो गई है।  कल का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। असली आँकड़ेबाजी तो कल मतसंग्रह यंत्रों से बाहर निकलनी है।  तुम्हें बहुत व्यस्त रहना होगा।  अब शयन  करो।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 15 मई 2009

नीली, पीली, हरी लाल सब पर्चियों में एक ही नाम : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक!
जैसे वामन ने दो चरणों में ब्रह्मांड नाप दिया था, वैसे ही चुनाव आयोग ने पाँच चरणों में भारतवर्ष नाप दिया।  मतसंग्राहक यंत्रों में भारतवर्ष  के आने वाले वर्षों का वर्षफल लिख दिया गया है। परिणाम की प्रतीक्षा है। लेकिन जिन्हें आस लगी है वे अविलंब शुरू हो चुके हैं।  अपने बल पर कोई भी महापंचायत का मुखिया बनने लायक नहीं लग रहा है।  आंकड़ेबाजी और आंकड़े बाजी शुरू हो गई है। दूरभाष खड़काए जा रहे हैं।  पिछले दिनो जो लोग एक दूसरे के निन्दा रस का आनंद बरसा रहे थे, वे अब आपस में प्रेम की पींगें बढ़ा रहे हैं।  एक ओर पतंगें आसमान में उड़ने की तैयारी कर रही हैं, दूसरी ओर लोग मोटे मोटे धागों में पत्थर बांध कर डालने को लंगर तैयार कर रहे हैं।  किस रंग की पतंग पर लंगर डाला जाए? पतंग को हवा लगे उस से पहले ही लंगर डाल दिया जाए। कहीं कोई दूसरा न डाल ले।

हे, पाठक!
सनत और सूत जी ने संध्या विश्राम में बिताई।  प्रातः उठ कर सनत सूत जी की डाक देखते देखते जोर से बोला -गुरुवर, बरेली से किसी कायचिकित्सक अमर कुमार संदेसा है....
क्या? पढ़ कर सुनाओ!
सनत पढ़ने लगा ......
हे ज्ञानश्रेष्ठ, इन क्षणभँगुर आवत जावत नट व नटनियों पर आप पर्याप्त मसि व्यय कर चुके,
अब त्राहिमाम के असफ़ल जाप से दुःखार्त जन की सुधि लेय ।
उनकी पीड़ा का यदि कोई श्रवण भर कर ले, यही उनका सँतोष है ।
पीड़ा को सह , उपजे सँतोष व निराश आशाओं पर जीवित रहने के अनोखे सुख के प्रसँग का समावेश कर, हे ज्ञानश्रेष्ठ !

संदेसा सुन सूतजी मुसकाए, बोले - वाकई अमर है।  याज्ञवल्क्य का शिष्य ऐसी बात  कर सकता है।  अब इस ने कहा है तो बात माननी पड़ेगी।  शिष्य तैयार हो जाओ आज बस्ती चलते हैं।
शिष्य ने दूरभाष खड़काया, वाहन का प्रबंध किया।  प्रातःकालीन कर्मों से निवृत्त हो चल दिए बस्ती में।

हे, पाठक!
एक स्थान पर भीड़ लगी थी।  लोग पुराने, मैले कपड़े पहने खड़े थे।  वाहन रोका गया। यह इन्सानों की मंडी थी।  सैंकड़ों लोग दिन भर को बिकने को तैयार थे। खरीददारों की कमी थी।  इन में बेलदार, कुली थे, और औजार लिए राजगीर थे। लोग निकट आए, उन की आँखों में आस थी।
आप से मतदान किस किस ने किया।  कुछ पूछते ही वापस दूर हो लिए।
एक बोला -मैं ने किया है। काम बंद था। लोग घर बुलाने आए मैं चला गया मत दे आया।
बुलाने न आते तो? सनत ने पूछा।
-तो न जाता।  मत देने से हम को मिलता क्या है।  साल में दस पन्द्रह दिन की मजदूरी कोई भी खा जाता है।  मजदूरी दिला दे ऐसा तो कोई इंतजाम किसी पंचायत ने आज तक नहीं किया।
-ये लोग दूर क्यों चले गए? सनत ने पूछा।
-उन ने वोट नहीं डाला। उन का नाम यहाँ नहीं गाँव में है। अब मत देने कोई गाँव कैसे जाएगा?
काम कितने दिन मिलता है?
कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। कभी बीमारी-सीमारी से नहीं जा पाते। महीने में पन्द्रह-बीस दिन कर लेते हैं।
इस संक्षिप्त साक्षात्कार के उपरांत सनत और सूत जी आगे चल दिए।  एक बस्ती में पहुँचे। बस्ती में गंदगी में खेलते बच्चे थे और झुग्गियों के बाहर बैठे कुछ बूढ़े।  सनत ने एक वृद्ध से पूछा -जवान लोग नजर नहीं आ रहे। वृद्ध ने सनत को अजीब निगाहों से घूरा, फिर बोला  -सब काम पर गए हैं। 
-काम पर कहाँ गए हैं?
-जिन के पास काम है वे अपने अपने काम पर गए हैं। जिन के पास नहीं है वे तलाश करने गए हैं। कहीं सड़क किनारे भीड़ में दिख जाएंगे।
आप ने मत डाला?
क्यों न डालेंगे? हम हर बार मत डालते हैं।  उधर उस्ताद रहता है वही हर बार नेताओं से बात करता है। जिस को कहता है डाल देते हैं।  घंटा भर में डाल कर वापस आ जाते हैं।  कभी दो दिन की, कभी तीन दिन की मजूरी मिलती है।
-मत पैसा लेकर डालते हैं आप?
-सब डालते हैं। उस दिन कोई काम पर नहीं जाता।  काम पर सिर्फ एक दिन की मजूरी मिलती है। नेता मत के दिनों में ही आते हैं।  फिर कोई इधर नहीं आता।  काम होने पर हम जाते हैं तो सूरत नहीं पहचानते। उस्ताद हमारे हमेशा काम आता है।
सनत सूत जी आगे चल दिए।

हे, पाठक!
दोनों एक बहुमंजिला भवनों के पास एक पान की गुमटी पर रुके।  पान वाले से बात की  - इधर चुनाव का क्या हाल रहा?   
-कुछ खास नहीं। आधे लोग भी मत देने नहीं गए।  जो गए उन में दोनों तरफ के थे।  किस ने किस को मत डाला पता नहीं पर लगता है इधर का मामला 19-20 ही रहा होगा। सब डाल आते तब भी यही रहता।
दोनों दिन भर घूमते रहे।  साँझ को वापस लौटे तो नतीजा वही था।  लोग अनमने थे।  या तो मत देना नहीं चाहते थे, या फिर सोचते थे कि किसी को डाल दो क्या फऱक पड़ता है।  उन पर तो कोई फरक पड़ना नहीं है।  जीवन जैसे चल रहा है वैसे ही चलेगा।
हे, पाठक!
रात को भोजन कर विश्राम करने लगे तो सनत ने पूछा -गुरूवर,  मैं ने पूछा था, जनता किस को वरेगी तो आप हँस दिए थे कहा था कुछ दिन में पता लग जाएगा।  तो आप क्यों हँसे थे?  और आप का आशय क्या था?  आज तो बता दें।
सूत जी बोले -सनत! जनता किसी को नहीं वरती।  वरे तो तब जब वरने के लिए विकल्प हों।  नीली, पीली, हरी लाल सब पर्चियों में एक ही नाम लिखा है।  किसी को उठा लो चुना तो वही जाएगा।
-गुरुवर बात पल्ले नहीं पड़ी।
-बहुत रात हो गई, अब सो लो। कल बात करेंगे।
सूत जी कुछ ही देर में खर्राटे भरने लगे। सनत देर तक सोचता रहा कि गुरूवर क्या कहना चाहते हैं?
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

मंगलवार, 12 मई 2009

लालटेन भभका क्यों? मर्दुआ लपका क्यों? : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक! 
अगला दिन राजधानी में मतदान का दिन था।  सूतजी सनत के साथ दिन भर राजधानी में मतदान के नजारे करते रहे।  राजधानी में अधिक उत्साह दिखाई नहीं दिया।  राजधानी में अनेक महत्वपूर्ण राजनेता अपने अपने क्षेत्र छोड़ कर मतदान करने पहुँचे।  माध्यम दिन भर उन के चित्र दिखाते रहे।  बैक्टीरिया दल के मुखिया की बेटी जो सारे चुनाव परिदृश्य में जो साड़ी पहने भारतीय महिला की छवि परोसती रही,  मतदान के दिन अपने जीवनसाथी के साथ नए फैशन की पोशाक में दिखाई दी।   जैसे दौड़ में भाग लेने आई हो।  सूत जी ने सनत से कहा, "तुम्हारा मीडिया की मुख्य खबर आज यह पोशाक बनने वाली है।"   राजधानी का दूसरा बड़ा समाचार यह भी था कि चुनाव कराने कराने वाले विभाग के मुखिया का नाम ही मतदाता सूची से अन्तर्ध्यान हो गया।  हड़कम्प मचा तो तत्काल किसी दूसरी सूची में उन का नाम तलाश कर उन का मत डलवा दिया गया।  संभवतः उन्हें अहसास हुआ हो कि आम मतदाता का क्या हाल होता होगा?

हे, पाठक! 
उधर बैक्टीरिया दल के मुखिया के बेटे के श्री मुख से आपत्कालीन मसाला बत्ती की तारीफ सुनी तो दल के गायकों ने एक स्वर से राग दरबारी में कोरस आरंभ कर दिया।  राजकुमार तो मात्र जिन का साथ चाहता था उन्हें बताना चाहता था कि उन के पास बैक्टीरिया दल के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं है।  पर कोई पड़ोसी की मसाला बत्ती की तारीफ करे तो  घर की लालटेन को तो भभकना ही था।  उधर दो पत्तियों की तारीफ हुई तो दक्खिन में सूरज उगते उगते बादलों की ओट चला गया। रैली स्थगित हो गई।  मसाला बत्ती अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो उठी, उसने दाँत बर्राए और सफाई दी कि देखिए हमरी सरकार गठबंधन की हैं, उसे छोड़ कर कइसे जा सकत हैं।  अइसे तो हमरा घर बार ही बरबाद नहीं न हो जाई। हम कहीं नहीं जा रहे हैं।  इस से अभिनय से जिन की त्योरियाँ चढ़ी थीं वापस यथा स्थान आ गईं। उधर वायरस दल में भी हलचल हो चली  सारे छत्रप एक साथ एक ही यान में इकट्ठा किए।  घोषणा की गई कि हमारा यान भरा भरा है और अब चलने ही वाला है। हम चल ही देते जो पाँचवा दौर बीच में पहाड़ सा न खड़ा होता। मसाला बत्ती जिस से सब से अधिक दूर भागती थी उसी मरदुआ  ने उस का हाथ पकड़ कह दिया- जे हमरी साथी हैल देखो हम एकई सीट मैं धँसे हैं साथ साथ।  मसाला बत्ती ने वहाँ भी दाँत बर्रा दिए। फोटू खिंच गए।  क्या फोटू था?  बहुतों को तुरंत बरनॉल की जरूरत पड़ गई। वायरस दल में शीतलता की लहर दौड़ पड़ी।  लगा जैसे बहुत सारे वातानुकूलक एक साथ चला दिए गए हों।  मन फुदकने लगा,  पुष्पवर्षा  होने लगी, प्रशस्तिगान के स्वर ऊँचे हो गए।

हे, पाठक! 
मसाला बत्ती वापस घर पहुँची तो पड़ोसी पूछने लगे -यह क्या हुआ ?  तुम तो कहती थी जहाँ वह मरदुआ होगा तुम फटकोगी भी नहीं, जहाँ वह होगा हम उस देहरी पर नहीं चढेंगी।   मरदुआ ने सब के सामने तुम्हारा हाथ पकरा, तुमने सारी बत्तीसी दिखा दी।
मसाला बत्ती बोली -हम क्या करती? हमें थोड़े ना पता था, मरदुआ उधर जा धमकेगा। हम ने तो बुलाया नहीं था।   मरदुआ पिच्छे से आ धमका टप्प से बइठ गवा हमरी बगल में अउर हमरा हाथ पकर कै ऊँचा कर दीन,   ऊपर से फोटू भी खींच रहीन।  अब हम सब के सामने रोने तो बैठने से रहीं।  फिर रिस्तेदारी देखीं। हम कुछ कहतीं तो रिस्तेदारी न बिगड़ती।  हमरा घर ही दाँव पे न लग जाता।  मसाला बत्ती कहते कहते रुआँसी हुई तो
 देख कर लालटेन को तसल्ली हुई गई, उस का भभकना बंद हुआ गया।  वह फिर से  जलने लगी पर तब तक लालटेन का गोला काला पड़ गया था। रोशनी अंदर ही घुट रही थी।


हे, पाठक! 
इस सारे प्रहसन को देख सनत ने सूत जी से पूछा -इस का अर्थ क्या हुआ, गुरूवर?
सूत जी बोले  -इस का अर्थ यह हुआ कि न तो लालटेन को रोशनी करने से मतलब  है न मसाला बत्ती को अंधेरा मिटाने से।  इन्हें मतलब है सिर्फ खुद को अच्छी दुकान में सजे रहने से।
-गुरूवर! समझ गया, सब समझ आ गया।  दुकानों को मतलब है कि उन के पास इतना माल सजा रहे कि ग्राहक बाहर से न सटक ले।  पर इस बार समझ नहीं आ रहा कि कौन महापंचायत को वरेगा?  जनता किस को इस लायक समझेगी? -सनत ने फिर प्रश्न किया।   इस प्रश्न को सुन कर सूत जी को हँसी आ गई। बोले -एक दो दिन में इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें मिल जाएगा।  अभी कुछ प्रतीक्षा करो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 10 मई 2009

पादुका प्रहार का फैशन और नयी महापंचायत की चौसर : जनतन्तर कथा (27)

हे, पाठक!
यात्री-निवास पहुँच कर सूत जी ने स्नान-ध्यान किया।  भोजनशाला पहुँचे तब वहाँ भोजन का अंतिम दौर चल रहा था।  भोजन पा कर वापस अपने कक्ष पहुँचे तो अर्धरात्रि हो चुकी थी।  तभी चल-दूरभाष से आरती का स्वर उभरा  -जय जगदीश हरे....    दूसरी ओर सनत था।
-गुरुवर कहाँ हो? सूत जी ने बताया कि वे रात्रि विश्राम स्वामी पद्मनाभ की विश्राम स्थली तिरुवनंतपुरम में कर रहे हैं।
सनत-गुरुवर, समाचार देखे सुने?
सूत जी-नहीं आज तो समय नहीं मिला, कुछ विशेष है क्या?
सनत-चौथे दौर का प्रचार अभियान थमते ही महा पंचायत की चौसर शुरू हो चुकी है।  चाचा वंश के राज कुमार ने बैक्टीरिया दल की और से पासा फैंक दिया है।  लालटेन की प्रतिद्वंदी आपत्कालीन मसाला-बत्ती की प्रशंसा कर दी कि यह सीधे विद्युत से ऊर्जा प्राप्त करती है और उसे सहेज कर रखती है, जिसे आपत्काल में काम लिया जा सकता है।  यह कोसी की बाढ़ के बाद लोगों के बहुत काम आई।  यह भी कहा कि बैक्टीरिया दल लाल फ्रॉक का सहयोग प्राप्त कर सकता है।  इस से लालटेन भभक उठी  है, उस का कांच का गोला कभी भी तड़क सकता है। मैं  राजधानी पहुँच गया हूँ।   यहाँ का मतदान भी देख लेंगे और आगे का सारा खेल तो यहीं होना है।  आप राजधानी कब पहुँच रहे हैं?
सूत जी- बस, कल प्रातः स्वामी के दर्शन कर आगे की योजना को अंतिम रूप देता हूँ फिर भी कोशिश रहेगी कि मतदान आरंभ होते होते राजधानी पहुँच लूँ।
सनत- ठीक है गुरूवर आप विश्राम कीजिए।  मैं  राजधानी में  आप की प्रतीक्षा करूंगा।

हे, पाठक!  
सूत जी बुरी तरह थके हुए थे,  शैया पर जा लेटे।  सोचने लगे, सत्तावन वर्ष पूर्व आरंभ हुई भारतवर्ष के गणतंत्र की यह यात्रा आज कहाँ पहुँच चुकी है?   भारतीय गंणतंत्र यथार्थ में एक अनूठा प्रयोग स्थल हो गया है, जहाँ मानव समाज के विकास की कथा कुछ पृथक रीति से अंकित हो रही है।   वे  आज यहाँ केरल में आर्थिक विकास के स्तर और लोगों की सामाजिक-राजनैतिक चेतना के स्तर को देख कर बहुत प्रभावित हुए थे।  वे सोच रहे थे कि शायद पूरे भारतवर्ष मे ऐसा हो सकता था।  यदि गणराज्य और उस के दूसरे प्रान्तों की पंचायतों ने भी यहाँ की भांति भूमि सुधार और शिक्षा के मामलों में आजादी के आंदोलन के दौरान घोषित नीति को दृढ़ता से लागू करने  के लिए वैसी  प्रतिबद्धता दिखाई होती जैसी  केरल की पहली प्रान्तीय सरकार ने दिखाई थी।  यद्यपि उस प्रतिबद्धता  के कारण ही उस पहली पंचायत का ही वर्ष  में  जबरन अवसान कर दिया गया।  लेकिन पंचायत की प्रतिबद्धता ने जनता को उस स्तर तक शिक्षित कर दिया था कि आने वाली पंचायतें इन दोनों पक्षों की उपेक्षा नहीं कर पाई।  तब शायद देश में भी यहाँ की तरह दो ही राजनैतिक दल या ध्रुव होते। .... विचारते विचारते ही सूत जी निद्रामग्न हो चुके थे।

हे, पाठक!  
सूत जी दूसरे दिन साँयकाल राजधानी पहुँच गए।  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।  वह अकेला नहीं रह सकता।  सन्यास धारण कर लेने के उपरांत भी उसे किसी का साथ तो चाहिए ही।  सनत पहले ही राजधानी पहुँच चुका था।  उन्हों ने उसे भी अपने पास ही बुला लिया।  अब दोनों साथ हो लिए थे।  अगले दिन राजधानी के सभी खेतों के प्रतिनिधियों के लिए मतदान होना था।  यहाँ पिछले दिनों बहुत अनूठी घटनाएँ हुई थीं।  चुनाव के आरंभ में ही बैक्टीरिया दल के एक नेता पर पादुका प्रहार हुआ था।  जिस का असर ये हुआ कि राजधानी क्षेत्र में बैक्टीरिया दल ने अपने दो सशक्त उम्मीदवारों को बदल दिया था।  एक तरह से बैक्टीरिया दल ने अपने पूर्व अपराध की स्वीकारोक्ति कर ली थी।  सूत जी जानते थे कि मतदाता की स्मृति बहुत क्षीण होती है।  वे अवश्य ही इस स्वीकारोक्ति के उपरांत बैक्टीरिया दल को माफ कर देंगे और बैक्टीरिया दल माफी का लाभ  प्राप्त करने में सफल हो लेगा।   इस पादुका प्रहार ने फैशन की जगह ले ली थी।  अब तक के चुनाव प्रचार में उस के अनोखे उदाहरण सामने आए।  यहाँ तक कि महापंचायत के वर्तमान मुखिया और वायरस दल के घोषित मुखिया भी इस के प्रहारों से न बच सके।  पर पादुका प्रहार का यह फैशन अहिंसक ही बना रहा और उस ने किसी को भी भौतिक चोट नहीं पहुँचाई।  यद्यपि बहुत से मीमांसकारों ने इस पर चिंताएँ प्रकट करते हुए पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ रंग डाले।  पर सूत जी जानते थे कि पादुका प्रहार एक फैशन की तरह आया है और फैशन की तरह चला जाएगा।   एक फैशन और चला कि पहले पहल पादुका प्रहार के लक्ष्य बने नेताओं ने इसे अपनी अहिंसा की नीति के अंतर्गत प्रहारकों को क्षमा कर दिया।  लेकिन इस महानता का कार्य करने में वायरस दल के नेता पिछड़ गए।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 8 मई 2009

सूत जी पद्मनाभस्वामी की विश्रामस्थली में : जनतन्तर कथा (26)

हे, पाठक!

विचरण की थकान से निद्रा गहरी आई, उठने का मन नहीं था फिर भी सूत जी ने स्वभावगत् रुप से सूर्योदय पूर्व ही शैया त्याग दी।  प्रातःकालीन नित्यकर्म से निवृत्त हो छनी हुई तमिल कॉफी का आनंद लिया।  अब  चेन्नई में रुकना निरर्थक था।  सोचा, जब यहाँ तक आ ही गए हैं तो तिरुअनंतपुरम चल कर पद्मनाभस्वामी के दर्शन भी कर लिए जाएँ।  हालांकि वहाँ लोग बहुत पहले ही मतदान कर चुके थे।  लेकिन उस से क्या इस दक्षिणी तटखंड और उस के लोगों का साक्षात तो हो ही सकता था।  जानकारी की तो पता लगा दस बजे नित्य ही वहाँ के लिए विमान है, मात्र तीन-चार घड़ी की यात्रा।  सूत जी दोपहर होने के पहले ही पद्मनाभ स्वामी के विश्राम स्थल पहुँच गए। कहते हैं परशुराम के फरसे को समुद्र में डुबोने पर यह धरती जल से बाहर आ गई थी।  विमान से स्वामी का मंदिर देख कर ही मन प्रसन्न हो गया।

हे, पाठक! 
विश्राम के लिए मंदिर के निकट ही यात्री आवास भी मिल गया।  पहुँच कर भोजन किया, तनिक विश्राम और फिर स्वामी के दर्शन।  फिर निकले नगर भ्रमण को।  लोग काम में लगे थे।  विचित्र नगर था। स्त्रियाँ खूब दिखाई पड़ती थीं, लगभग पुरुषों के बराबर।  हर काम में और हर स्थान पर।  नगर का प्रत्येक प्राणी सजग दीख पड़ता था।  बहुत जानकारियाँ मिली। नगर शिक्षा का बड़ा केन्द्र है, प्राचीन काल से ही।  नगर में एक प्राचीन वेधशाला भी है।  सूत जी ने नगर और खंड के बारे में और जानना चाहा तो पता लगा उष्ण मौसम, समृद्ध वर्षा, सुंदर प्रकृति, जल की प्रचुरता, सघन वन, लम्बे समुद्र तट और चालीस से अधिक नदियाँ यहाँ की विशेषता हैं। सच ही यह अपने नाम की तरह ईश्वर का घर प्रतीत हुआ। आदिकालीन भारतीय द्रविड़ों के अतिरिक्त आर्य, अरबी, यहूदी, मिश्रित वंश तथा आदिवासी यहाँ की जनसंख्या का निर्माण करते हैं और लगभग सभी शिक्षित। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम,बौद्ध, जैन, पारसी, सिक्ख और बहाई धर्मावलम्बी यहाँ मिल जाएँगे।  अद्वैत के आचार्य आदिशंकर की जन्म स्थली।  शेष भारतवर्ष से ढाई गुना अधिक लगभग 819 जन प्रति वर्ग किलोमीटर की सघन जनसंख्या में स्त्री-पुरुष बराबर हैं अपितु कुछ स्त्रियाँ ही अधिक हैं।  स्त्री-प्रधान समुदाय आज भी हैं।  शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन में तृतीय विश्व का सब से अग्रणी खंड बना।  जनसंख्या की स्थिरता प्राप्त यह खंड आज विश्व के अग्रणीय देशों के साथ खड़ा है।  क्या नहीं था इस खंड में?
 हे, पाठक!
भारतवर्ष की स्वतंत्रता के दस वर्ष उपरांत पहली बार खंडीय पंचायत गठित हुई और पहली ही बार जन ने लाल फ्रॉक को राज्य चलाने का अधिकार दिया।  वे लाए तीव्र विकास के लिए तीव्र परिवर्तन।  महापंचायत को यह सब रास नहीं आया। लाल फ्रॉक की खंडीय पंचायत को हटा दिया गया।  लेकिन बीज नष्ट नहीं हो सका।  उस के बाद मिश्रित जन ने जो इतिहास रचा वह अद्वितीय है।  इसी से इस खंड को राजनीति की प्रयोगशाला का नाम मिला।  गठबंधनों का शासन जो आज पूरे भारतवर्ष का भाग्य है, वह इस खंड मे पहली बार हुआ और फिर एक परंपरा बन गया।  स्पष्ट रूप से दो मुख्य गठबंधन सामने आए।  यदि इन गठबंधनों को हम दल मान लें तो एक द्विदलीय प्रणाली यहाँ विकसित है। जब भी जन को कोई पाठ पढ़ाना होता है तो वह एक गठबंधन को अस्वीकार कर दूसरे को अवसर प्रदान करते हैं।  दोनों के मध्य प्रतियोगिता ने खण्ड को विश्व में मान दिलाया।


हे, पाठक! 
सूत जी को देर रात्रि तक यह सारी जानकारी मिली।  उन की रुचि वर्तमान महापंचायत के लिए हो रहे चुनाव के परिणामों की थी।  उन्हों ने अनेक लोगों से पूछताछ की।   सभी दलों के लोगों से मिले।  लेकिन आश्चर्य कि लगभग सभी लोग परिणाम के प्रति आश्वस्त और सब की राय एक जैसी।  ऐसा कहीं नहीं हुआ था।  सब स्थानों पर लोग अपने अपने दलों के बढ़चढ़ कर प्रदर्शन करने की आशा रखते थे, लेकिन यहाँ सब कुछ विपरीत था।  सब लोगों का एक ही मत था 19-20, अर्थात बहुत अंतर दोनों गठबंधनों के मध्य नहीं रहेगा।  या तो दो खेतपति इसके अधिक, या फिर दो खेतपति उस के अधिक।

 बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

गुरुवार, 7 मई 2009

माला के मनकों को जुड़ा रखने के लिए मजबूत धागे का सूत्र कहाँ मिलेगा : जनतन्तर कथा (25)

हे, पाठक!
अगली प्रातः सूत जी द्रविड़ चेतना के केन्द्र चैन्नई में थे।  सभ्यता विकसित होते हुए भी बर्बर आर्यों से पराजय की कसक को यहाँ जीवित थी। लेकिन उसे इस तरह सींचा जा रहा था जिस से इस युग में सत्ता की फसलें लहलहाती रहें।  प्रकृति के कण कण को मूर्त रूप से प्रेम करने वाला आद्य भारतीय मन उस पराजय को जय में बदलने को आज तक प्रयत्नशील है।  सब से पहले तो उस ने विजेता के नायक देवता को इतना बदनाम किया वह देवराज होते हुए भी खलनायक हो गया।   उस के स्थान पर लघुभ्राता तिरुपति को स्थापित करना पड़ा।  यहाँ तक कि जो थोडा़ बहुत सम्मान वर्षा के देवता के रूप में उस का शेष रह गया था उसे भी तिरुपति के ही एक अवतार ने अपने बचपन में ही गोवर्धन पूज कर नष्ट कर डाला।  पूरा अवतार चरित्र फिर से उसी मूर्त प्रेम को स्थापित करने में चुक गया।  वह मूर्त प्रेम आज भी इस खंड में इतना जीवन्त है कि अपने आदर्श को थोड़ी भी आंच महसूसने पर अनुयायी स्वयं को भस्म करने तक को तैयार मिलेंगे। 

हे, पाठक!
सुबह कलेवा कर नगर भ्रमण को निकले तो सूत जी को सब कहीं चुनाव श्री लंकाई तमिलों के कष्टों के ताल में गोते लगाता दिखाई दिया।  दोनों प्रमुख दल तमिलों के कष्ट में साथ दिखाई देने का प्रयत्न करते देखे।  लेकिन यहाँ भी स्वयं कर्म के स्थान पर विपक्षी का अकर्म प्रदर्षित करने वही चिरपरिचित दृष्य दिखाई दिया जो अब तक की भारतवर्ष यात्रा में सर्वत्र दीख पड़ता था।  दोनों ही दलों में सब तरह से घिस चुका वही पुराना नेतृत्व था।  जिस में अब कोई आकर्षण नहीं रह गया था।  कोई नया नेतृत्व जो द्रविड़ गौरव में फिर से प्राण फूँक दे, दूर दूर तक नहीं था।  हर कोई पेरियार और अन्ना का स्मरण करता था।  लेकिन वह ज्ञान और सपना दोनों अन्तर्ध्यान थे।  सूत जी दोनों दलों के मुख्यालय घूम आए।  सारी शक्ति यहाँ भी मुख्यतः निष्प्राण प्रचार में लगी थी।  दोनों ही अपनी जीत के प्रति आश्वस्त और हार के प्रति शंकालु दिखे। आत्मविश्वास  नाम को भी नहीं था।

हे, पाठक! 
जहाँ सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धियाँ गिना रहा था वहीं विपक्षी उन की कमियों को नमक मिर्च लगा कर बखान कर रहे थे।  पर जनता? वह स्तब्ध थी, तय ही नहीं कर पा रही थी कि वह किसे चुने और किसे न चुने?  सभी राशन की दुकान पर रुपए किलो का चावल देने का वायदा कर रहे थे।  एक मतदाता कह रही थी कि चावल तो हम रुपए किलो राशन दुकान से ले आएंगे, लेकिन नमक का क्या? वही सात रुपए किलो? और एक कप चाय तीन रुपए की? क्यूँ नहीं कोई ऐसी व्यवस्था करने की कहता कि जितना दिन भर में कमाएँ उस से दो दिन का घर चला लें।  कम से कम कुछ तो जीवन सुधरे।  उस औरत के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था।  नगर और औद्योगिक बस्तियों में मतदान के लिए कोई उत्साह नहीं था।  मतसूची में दर्ज आधे लोग भी मतदान केन्द्र तक पहुँच जाएँ तो ठीक वरना जो मत डालेंगे वे ही आगे का भविष्य लिख देंगे।

हे, पाठक!  
सूत जी, आस पास के कुछ ग्रामों में घूम-फिर अपने यात्री निवास लौटे तो बुरी तरह थक चुके थे।  भोजन कर सोने को शैया पर आए तो दिन भर की यात्रा पर विचार करते रहे।  ग्रामों में चुनाव के प्रति तनिक उत्साह तो था।   लेकिन निराशा वहाँ भी दिखाई दी।  स्थानीय समस्याओं के हल और विकास के प्रति राजनेताओं की उदासीनता की कथाएँ हर स्थान पर आम थीं।  सूत जी भारतवर्ष में अब तक जहाँ जहाँ गए थे वहाँ यह एक सामान्य बात दिखाई दे रही थी कि विकास की भरपूर आकांक्षाएँ लोगों के मन में थीं।   लेकिन उस के लिए मौजूदा राजनैतिक ढ़ाँचे पर विश्वास उतना ही न्यून था।  विश्वास की हिलोरें भारतवर्ष को किस ओर ले जाएंगी इस का संकेत तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।  सब कहीं जनता की आकांक्षाएँ एक जैसी थीं।  लेकिन उन आकांक्षाओं को कहाँ दिशा और राह मिलेगी?  यह कहीं नहीं दिखाई देता था।  लगता था पूरा भारतवर्ष अब भी खंड खंड में बंटा हुआ था।  वे सोचने लगे।  इस माला का धागा इतना कमजोर है कि कहीं टूट न जाए।  किस तरह वह सूत्र मिलेगा जिन से एक नया मजबूत धागा बुना जा सके, जिस में  इस माला के धागे के टूटने और बिखर जाने के पहले  माला के मनकों को फिर से एक साथ पिरो दे।  सोचते सोचते निद्रा ने उन्हें आ घेरा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

मंगलवार, 5 मई 2009

लाल फ्रॉकों को वायरस-बैक्टीरिया विहीन मंडल की आस : जनतन्तर कथा (24)


हे, पाठक!
प्रातः सनत की निद्रा टूटी तो देखा गुरूवर कक्ष में नहीं हैं।  घड़ी में सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे।   यह विजया का असर था जो वह देर तक सोया रहा।  कई दिनों से प्रातः उठने पर भी वह थका थका सा महसूस करता था।  लेकिन आज थकान बिलकुल गायब थी।  यह सब विजयारानी का असर था।  पर गुरूवर कहाँ गए?  शायद स्नानघर में हों? पर उस का द्वार खुला था और वहाँ कोई नहीं था। वह शैया से उतरा तो देखा जलपात्र के नीचे एक पत्र लगा है। वह पढ़ने लगा......

वत्स!   
चिरजीवी हो!
तुम्हारे साथ सायंकाल और रात्रि अच्छी बीती।  लेकिन कर्म का मोह से नाता ठीक नहीं। प्रातः विमान उपलब्ध है उसी से बंग देश जा रहा हूँ।  यात्रीआवास में नगर में रहो तब तक रह सकते हो। वहाँ का भुगतान नैमिषारण्य करेगा।  दूरभाष का क्रमांक तुम्हारे पास है।  वार्तालाप करते रहना।  ..... सूत

हे, पाठक! 
उधर सूत जी लाल फ्रॉक वाली बहनों के क्षेत्र में पहुँच चुके थे।  विमानपत्तन से यात्री आवास की राह में देखा तो यहाँ वैसी ही रौनक थी, जैसी पिछले पच्चीस वर्षों से चली आ रही थी।  नयापन कुछ नहीं दिखा।  केवल यह दिखाई दिया कि बैक्टीरिया दल से नाता तोड़ चुकी बहना फिर से बैक्टीरिया दल के साथ कंधा भिड़ा रही थी।  चुनाव प्रचार में वही पुराने लटके-झटके थे।  सूत जी जानते थे कि सब परेशान हैं लेकिन लाल फ्रॉकों का यह किला नहीं टूट रहा है।  इस बार कुछ जरूर कुछ बातें ऐसी हो गई हैं कि जिन के चलते उन के किले में सेंध लगने की संभावना कही जा रही है।  लेकिन ऊपर से तो नहीं लगा कि बहुत अधिक अंतर आएगा।  यात्री आवास पहुँचते ही वहाँ का प्रबंधक उन के कक्ष में आ गया।  प्रणाम कर बोला -महाराज आप के लिए श्रेष्ठतम व्यवस्था जो हम से हो सकती थी कर दी है, फिर भी हमें महसूस हो रहा है कि कुछ कमी जरूर है।  लेकिन अब चुनाव के इस समय में हम अधिक कुछ नहीं कर पाए हैं।  आप को कुछ कमी लगे तो बताइयेगा, हम उसे दूर करने का प्रयत्न करेंगे। 

हे, पाठक!

सूत जी तुरंत समझ गए, अब प्रबंधक मस्का लगा रहा है।  बोले -भैया थकान तो कल शिष्य उतार चुके हैं, हमें मालिश की आवश्यकता नहीं है।  तुम तो यह बताओ चुनाव का माहौल कैसा है?
- कोई बड़ा अंतर तो नहीं लग रहा है पर एक उद्योग लगते-लगते चला गया उस का मलाल जरूर है, पर उस के लिए तो ममता ब्हेन को ही दोषी माना जा रहा है। 
-पर नन्दीग्राम?
-हाँ, वह बदनामी जरूर हाथ लगी है पर उस का असर वहीं रहेगा, अन्यत्र नहीं।  और वहाँ भी ताकत बराबर की लग रही है।  फिर इस बार जो छोटे दलों के साथ मोर्चा लगाया है, उस से लाल बहनें बहुत उत्साहित हैं, उन के बच्चे भी।  उन को लगता है कि पिछली बार की संख्या में कुछ वृद्धि कर लें।
- तुम भी लाल फ्राक के दल में तो नहीं?
प्रबंधक खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला।  -महाराज! आप तो अन्तर्यामी हैं।  सब जानते हैं।  हम इधर यात्री आवास के प्रबंधक हैं हमें अपना आवास गृह चलाना है।
सूत जी समझ गए, इस तिल से तेल नहीं निकलेगा। बोले - ठीक है, ठीक है।   किसी दिन लाल फ्रॉक को हटना पड़ेगा तो तुम्हारे जैसे लोगों का उस में सर्वाधिक योगदान होगा।  हमें स्नान, ध्यान से निवृत्त होने में दो घड़ी समय लगेगा, फिर कलेवा करेंगे और नगर भ्रमण के लिए निकलेंगे।
-जो, आदेश महाराज! प्रबंधक करीब करीब पैरों तक झुक आया था, फिर पीछे मुड़ कर कक्ष के बाहर निकल गया।

हे, पाठक! 
सूत जी कलेवा कर यात्री आवास से निकले तो सीधे बड़े दल के कार्यालय पहुँचे।  दल के किसी वरिष्ठ से मिलना चाहते थे।  लेकिन सब वरिष्ठ चुनाव प्रचार में लगे थे। मुख्यालय में केवल प्रवक्ता मिला।  उस ने सूत जी का स्वागत किया।
-महाराज! बहुत दिनों में पधारे।  हम से कोई भूल हुई जो बिसर ही गए?
-नहीं वत्स! हम न किसी को बिसरते हैं और न ही किसी को स्मरण करते हैं।  जब जन को जैसी आवश्यकता होती है वैसी कथाएँ लिखते हैं, छापते हैं और सुनाते हैं।  तुम यह बताओ कि कैसा चल रहा है?
-हम अपने कार्यक्रम पर आगे बढ़ रहे हैं, जैसा हमने दल के 1964 के राजनैतिक कार्यक्रम में निश्चित किया था और बाद के प्लेनमों में जैसा उसे आगे बढ़ाया है।  हम ने पहले समान विचार वालों का मोर्चा बनाया, उस की शक्ति बढ़ाई, अब नजदीकी साथियों को अपने साथ खड़ा करने की राह पर हैं।
-पर तुम्हारे ही बंधु कहते हैं कि राजनैतिक कार्यक्रम तो डब्बे में बंद कर दिया गया है।  कोई न तो जनवादी क्राँति को स्मरण करता है और न ही जनता के जनवाद को।  वे कहते हैं प्लेनम से कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ाया है, अपितु संशोधित कर दिया है और दल संशोधनवाद के रास्ते जा कर पूरी तरह संसदवादी हो गया है।  क्या अब यह समझ बन चुकी है कि संसदीय रीति से क्राँति होगी?
-महाराज! अब आप मुझे संकट में डाल रहे हैं। इतने गंभीर प्रश्नों का उत्तर मेरा जैसा साधारण प्रवक्ता कैसे दे सकेगा? इन का उत्तर देने के लिए तो पॉलित ब्यूरो की बैठक करनी होगी।  वैसे भी अभी क्राँति का विषय स्थगित है। अभी तो चुनाव के माध्यम से संसद में ही अपनी शक्ति वृद्धि करनी है।  उस के लिए भूमि तैयार है।
-लेकिन, जो दल साथ लगे हैं, उन से कैसे लाभ होगा?
 -होगा क्यों नहीं? देखिए, इन सब दलों का हमारे खंड में कुछ न कुछ प्रभाव तो है ही।  बूंद बूंद से सागर भरता है। हम खंड में आगे न भी बढ़ पाए तो भी जो प्रभाव ममता ब्हेन और बैक्टीरिया दल के अवसरवादी गठबंधन से हुआ है, वह तो नष्ट हो ही लेगा। हम वर्तमान स्थिति को तो बनाए रख सकते हैं। उधर इन स्थानीय दलों के प्रभाव से उन के राज्यों में कुछ पंच हमारे ले आएँगे।  हमें पूरा विश्वास है कि इस बार हमारी शक्ति पहले से अधिक होगी।  साथी दलों को मिला कर हमारी संख्या बैक्टीरिया और वायरस दलों से अधिक नहीं तो बराबर तो हो ही सकती है।  फिर प्वाँर जी से डेटिंग चल रही है, चुनाव उपरांत साइकिल, लालटेन और बंगला भी हमारे साथ आने को ललचाएगा।  हमें पंचायत प्रधानी का शौक है नहीं, किसी को भी प्रधानी देंगे तो बात बन सकती है। वायरस-बैक्टीरिया विहीन मंडल बनाने का अवसर तो है ही। 
- अच्छा हम चलेंगे, हमें दक्खिन भी जाना है। सूत जी उठने लगे तभी एक कार्यकर्ता रसगुल्ले और गन्ने का रस ले कर आ पहुँचा।

हे, पाठक! 
प्रवक्ता ने सूत जी को फिर से बिठा लिया।  रसगुल्ले चखने का लालच तो उन्हें भी था।  रसगुल्ले पा कर वे पुनः यात्री आवास पहुँचे।  कक्ष में ही भोजन मंगवाया और सायँ सूर्यास्त पूर्व जगाने के लिए प्रबंधक को आदेश दे विश्राम करने लगे।  रात्रि को ही दक्षिण के लिए जो निकलना था।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 3 मई 2009

सूत-सनत का रात्रि विश्राम, चाचा वंश और विकल्प की चर्चा : जनतन्तर कथा (23)

हे, पाठक! 
मन भर कर रबड़ी छक लेने के बाद भोजन मात्र औपचारिकता रह गई थी।  भोजनशाला में अधिक देर नहीं लगी।  सूत जी, सनत और उस का शिष्य तीनों भोजन कर बाहर आए तो अर्धरात्रि में अभी भी पाँच घड़ी समय शेष था।  सनत के शिष्य को तो घर जाना था।   तीनों पैदल ही टहलने निकले।  सनत शिष्य को दूर तक छोड़ आए।   बात करते करते वापस  सितारा पहुँचे।   बातें करने के लालच में सनत रात सूत जी के साथ ही रुक गया।  सनत बता रहा था कि इस बार पता ही नहीं लग रहा है कि जनता क्या करेगी?  सूत जी चाचा वंशजों के बारे में जानना चाहते थे।

हे, पाठक!
दोनों गुरू चेले शैयासीन हो कर बतियाने लगे।  सनत बता रहा था।  चाचा वंश के माँ बेटे तो संसद में पहुँच ही रहे हैं।  पर इधर विद्रोही ने भी नाटक कम नहीं किया।  पर माया ने उसे खूब अन्दर पहुँचाया।  कोई दूसरा दल होता तो शायद इतनी साहस नहीं दिखाता।  सूत जी ने सहमति व्यक्त की -हाँ, यह तो सही है कि वह महिला यदि सही रास्ते पर चले तो साहसी तो बहुत है।   दलित उस के पीछे चल भी पड़े हैं, लेकिन उन में भी दल में वही लोग उच्च स्थान हथियाये हुए हैं जिन्हों ने गलत तरीकों से पैसा बना लिया है।   इसी से उस के जीते हुए प्रत्याशी अवसर मिलने पर कहीं भी खिसकने को तैयार मिलते  हैं।  उस ने कुछ सवर्णों को अवश्य आकर्षित किया है।  लेकिन दल में धनिक दलितों और गरीब दलितों का द्वैत भी बन चला है, सत्ता और आरक्षण का लाभ धनिक ही उठा रहे हैं, यह द्वैत माया को अवश्य ही ले डूबेगा।   -गुरूदेव आप सच कहते हैं, ऐसा ही हो रहा है।   सनत सूत जी की हाँ में हाँ मिलाता जा रहा था।   -पर जिस तरह बहुत सारे दल खंड में मैदान में आ गए हैं उस में बैक्टीरिया दल को कुछ अतिरिक्त लाभ मिल सकता है।

हे, पाठक!
सनत बोला तो इस बार सूत जी ने भी हाँ भर दी कि हो सकता है पहले की अपेक्षा कुछ बढ़त मिल जाए।  लेकिन बैक्टीरिया दल के पास अब आगे बढ़ने को कुछ रह भी नहीं गया है। वह यथास्थिति में फँस कर रह गई है।  गरीबों के लिए उस के पास कुछ भी नया नहीं है।  वह केवल और केवल वर्तमान अर्थव्यवस्था की गति को तेज करने का प्रयत्न करती है।  अर्थव्यवस्था की गति तेज होती है तो आम लोगों को उस का तनिक लाभ मिलता ही है।  उसी के भरोसे यह जनता में विश्वास बनाए हुए है। जिस दिन यह टूटेगा।  तब लोग इसे छोड़ भागेंगे।   सूत जी की इस बात पर सहमति व्यक्त करते हुए सनत कहने लगा  -छोड़ तो अभी भी भाग लें, यदि कोई दूसरा विकल्प हो।  इस समय कोई विकल्प खड़ा होने ले तो जनता के बीच काम कर सब को किनारे कर सकता है।  लेकिन हालात ऐसे हैं, कोई विकल्प सामने आ ही नहीं रहा है।  लोग जनतंतर से ऊबने लगे हैं, मत डालने से कतराने लगे हैं।  सोचते हैं, मत देने से कुछ बदल तो रहा नहीं है। दे कर भी क्या करें? वैसे लाल फ्राक वाली बहनें कोशिश में लगी तो हैं।

हे, पाठक! 

इस अंतिम बात पर सूत जी सनत से सहमत न हो सके।  कहने लगे -पिटे पिटाए स्वयंभुओं को एकत्र करने भर से विकल्प नहीं खड़े होते।  स्थाई और दीर्घकालीन विकल्प पीड़ित जनता के संगठनों को एक साथ एक लक्ष्य के साथ एकत्र करने से ही खड़ा हो सकता है।   जो भी इन्हें एकत्र कर लेने का कठोर श्रम करेगा और अपने नेतृत्व में विश्वास पैदा कर सकेगा वही इन का नेतृत्व कर सकता है।  सनत ने एक आह भरी  - न जाने कब ऐसा होगा?  सूत जी ने सनत में विश्वास जगाया -होगा अवश्य होगा।  परिस्थितियों से जनता सीख रही है।  जब दाल पकने लगेगी देगची का ढक्कन स्वयमेव ही भाप को बाहर निकलने को सरक लेगा।  सूत जी बोले अब रात बहुत हो चली है।   कुछ निद्रा भी ले लें।  सुबह फिर आगे की योजना भी बनानी है।  दोनों गुरू-शिष्य शीघ्र ही खर्राटे लेने लगे।   सनत शिष्य बुद्धिमान था जो यहाँ से सरक लिया।  वरना इधर रुक जाता तो उसे तो खर्राटों में सारी रात जागना ही पड़ता।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 1 मई 2009

बंगला, साइकिल, लालटेन एकता जिन्दाबाद! ... : जनतन्तर कथा (22)

हे, पाठक!
माया बहन जी की सभा से तेजी से लौट कर सूत जी अपने ठिकाने पहुँचे।  चाहते थे इस प्रदेश में आए हैं तो बैक्टीरिया पार्टी के राजकुमार, महारानी या राजकुमारी किसी से तो मुलाकात हो या उन का भाषण ही सुनने को मिल जाए।  तभी उन के चल-दूरवार्ता यंत्र ने आरती आरंभ कर दी, जय जगदीश हरे ........। कोई बात करना चाहता था।  उन्हों ने यंत्र के दृश्य पट्ट पर दृष्टिपात किया तो क्रमांक अनजान था।  फिर भी उन्हों ने बटन दबा कर उसे सुना।  प्रणाम,  गुरूवर! स्वर परिचित था।  शिष्य, कौन हो? स्वर नहीं पहचाना।  कैसे पहचानेंगे गुरूवर? स्वर सुने दिन बहुत हो गए।  मैं सनत बोल रहा हूँ।  मैं ने आप को बहनजी की रैली में देखा था। आप के नजदीक आना चाहता था, लेकिन  तब तक आप सरक लिए।  नैमिषारण्य से आपके यंत्र का क्रमांक प्राप्त किया है,  आप से मिलना चाहता हूँ।  सनत का स्वर पहचानते ही सूत जी के मुख पर चमक आ गई बहुत दिनों से किसी अपने वाले से न मिले थे।  सनत से पूछा, तुम भी यहीं डटे हो? क्या समाचार हैं?  -गुरूवर क्यूं न डटें?  समाचारों की सारी सम्पन्नता यहीं तो  है।  पूरे चाचा खानदान की चकल्लस यहीं है,  बंगले में साइकिल और लालटेन मुस्तैद हैं, माया महारानी है, राम मंदिर के सैनानी हैं, चौधरी साहब की विरासत इधर है।  आप के लिए सुंदर संवाद है मेरे पास,  साथ में विजया घोंट कर छानने वाला एक चेला भी है।  सूत जी को लगा पिछले पूरे सप्ताह की कमी आज ही पूरी हो जानी है।  सनत को बोल दिया- अविलम्ब चेले समेत आ जाओ।  सूत जी को संध्या अच्छी गुजरने का विश्वास हो गया था।  चेले आएँ तब तक कमर सीधी करने लेट गए।

हे, पाठक!
 दो घड़ी बीतते बीतते चेले ने अपने चेले समेत दर्शन दिए।  आते ही कहने लगा गुरुवर देर हो गई।  लेकिन विजया वहीं पिसवा लाया हूँ।  यहाँ सितारा में सिल-बट्टा मिलना नहीं था।  आप तो कोई अच्छा सा शीतल रस मंगाइए जिस से छानने की कार्यवाही आगे बढ़े।  खस का शरबत और आम का रस मंगाया गया। विजया छनी और बम भोले के नाम से उदरस्थ की गई।  तीनों बारी बारी से टेम बना आए।  फिर तीनों ने बारी बारी से स्नान किया।  तब तक रंग चढ़ चुका था।  भोजन तो हो लेगा, लेकिन उस से पहले तीनों को शीतल रबड़ी स्मरण हो आई।  सनत ने चेले को दौड़ाया।  वह आधी घड़ी में वापस लौटा।  केशर और बादाम से संस्कारित शीतल रबड़ी कण्ठ से उतरते ही रंग और दुगना हो गया। सनत बोला- गुरूवर अपना जंघशीर्ष दो, एक चक्रिका सुननी है।  क्या है इस में? सूत जी की जिज्ञासा बोली। -बस तिलंगों का संवाद है।

हे, पाठक!
 चक्रिका को जंघशीर्ष पर चलाया गया।  आवाजें आने लगी...... देखिएगा जब से भारतबर्ष बना है। चरचा है किसी दलित को पंचायत का मुखिया बनना चाहिए।  इस बार तो यह अवसर चूकना मूर्खता होगी। आप लोगों का साथ मिले तो यह संभव हो सकता है। मेरे अलावा इस योग्य और कोई नहीं।  -यह निकटवान का स्वर था।   ........ हमने पाँच बरस तक रैलें दौड़ाई हैं, सारी दुनिया को दिखा दिया, कैसे दौड़ाई जाती हैं? मौका तो हमारे लिए भी यही है, अब कोई सारी उमर रेल थोड़े ही चलाते रहेंगे .......  बात समाप्त होती उस से पहले ही तीसरी आवाज आई........देखिए आप दोनों ने तो पाँच बरस राजसुख भोगा है। हम ही बीच में बनवासी भए। हमने तो अपने दूत को भेजा भी था कि समर्थन  देने को तैयार हैं।  पर घास तक डाली गई।  बाद में हम ही सरकार बचाने के काम आए।  दावा तो हमारा कउन सा कच्चा है।  अब महारानी जाने क्यों फिर से वही पुराना नाम उछाल रही हैं।

हे, पाठक!
पर तीनों की कैसे मुराद पूरी हो? इस का कोई सूत्र निकलना चाहिए। तभी निकटवान बोल पड़े  -उस में कउन बरी बात है। हम तीनों को एक एक बरस बिठाय दें।   फिर भी दो बरस बच रहें।  उसमें महारानी किसी अउर को बिठाय के तमन्ना पूरी कर लेय।  तो फिर डील पक्की रही।  दोनों बोले पक्की। फिर साथ लड़ेंगे। बंगला, साइकिल, लालटेन एकता जिन्दाबाद! ... .... .... जिन्दाबाद! ....जिन्दाबाद! .....
इस के आगे चक्रिका रिक्त थी।
कैसा संवाद है? गुरूवर!
अतिसुंदर, सूत जी बोले- नैमिषारण्य में तो आनंद छा जाएगा।  कथा सुन लोग झूम उट्ठेंगे।  चलो अब समय हो चला है, भोजन शाला चलते हैं।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

बहन जी की रैली : जनतन्तर कथा (21)

हे, पाठक! 
यात्रा की थकान से निद्रा देर से खुली,वातायन पर लटक रहे पर्दे के पीछे से बाहर की रोशनी अंदर झांक रही थी। द्वार के नीचे से कुछ अखबार अंदर प्रवेश कर गए थे। सूत जी उठे, स्नानघर में घुस लिए। स्नान हुआ, ध्यान हुआ, फिर सुबह के कलेवे का आदेश दे अखबार बाँचने बैठे।  मुखपृष्टों पर सब जगह  इस चुनाव के नायक नायिका जूते-चप्पल छाए थे।  एक ही नगर में वर्तमान और प्रतीक्षारत प्र.मुखियाओं के सामने निकल आए थे वर्तमान ने चलाने वाले को माफ कर दिया और प्रतीक्षारत ने क्या किया? पता नहीं चला। चुनाव का अवसर है, संसद बंद है। सारी गतिविधियाँ सड़कों और मैदानों में हो रही हैं तो संसद का ये स्थाई निवासी रौनक देखने वहाँ चले आए तो चलाने वाले का क्या दोष? उन्हें माफ किया ही जाना चाहिए।   कल से वापस संसद में चलेंगे तब भी तो माफ करना पड़ेगा न?

हे, पाठक! 
अखबारों से ही नगर की दिन भर की गतिविधियों की खबर मिली।  नगर में साइकिल सवारी का महत्वाकांक्षी न्यायालय से स्वीकृति न मिलने पर साइकिल दुकान पर मिस्त्री गिरी कर रहा था और बहन जी की पप्पी-झप्पी लेने का महत्वाकांक्षी हो चला था।  नगर के आस पास ही चक्कर लगा रहा था।   वायरस दल की ओर से तीन बार महापंचायत के मुखिया रहे  इस बार नगर से चुनाव न लड़ने से नगर में हलचल नहीं थी। पप्पी-झप्पी वाले को अदालत ने रोक दिया था।   दो-दो कलाकारों के बाहर हो जाने से दर्शकों को चित्रपट में रुचि नहीं रह गई थी और केवल पोस्टर देख-देख लौट रहे थे।    वायरस दल का स्थानापन्न अभिनेता मुखिया जी से चिट्ठी लिखा कर लाया था।  अब आज कल चिट्ठी सिफारिश पर कौन चित्रपट देखता है? बैक्टीरिया दल नगरों के स्थान पर ग्रामों में सेंध लगाने में व्यस्त था।   रात में भी चल सके इस लिए साइकिल पर लालटेन टांग ली गई थी फिर भी रास्ता नहीं सूझ रहा था।  बहन अकेले पिली पड़ी थी, उसे अपनी अभियांत्रिकी पर भरोसा था, कहती थी खंड पंचायत की मुखिया बन सकती हूँ तो महापंचायत की क्यों नहीं? नगर में उस की सभा शाम को थी।  कलेवा कर सूत जी नगर का भ्रमण पर निकल पड़े।
हे, पाठक!
नगर में पैदलों और दुपहिया वालों की मुसीबत हो गई थी।  रात से ही चौपायों की संख्या यकायक बढ़ गई थी और वे इधर-उधर आ-जा रहे थे।  बढ़े हुओं में तिहाई तो पुलिस के थे जो नगर में व्यवस्था बनाने में लगे थे, विशेष रूप से उस मैदान के आसपास जहाँ बहन जी शाम को भाषण पढ़ने वाली थीं।  चोरी-चकारी, लूट-डकैती, तस्करी वगैरा की गुंजाइश पूरे खंड में न्यूनतम रह गई थी।  इन के प्रायोजक किसी न किसी दल के प्रचार में लगे थे।  पुलिस निश्चिंत हो कर बहन जी की सेवा में लगी थी।  इस में वे भी थे जिन्हें बहन जी ने हटा दिया था और अदालत ने फिर से बिठा दिया था।  बढ़े हुए शेष दो तिहाई चौपाए सार्वजनिक परिवहन में लगे निजि वाहन थे जो श्रोताओं और दर्शकों को गाँवों से ला रहे थे।  परिवहन विभाग का निरीक्षक वाहनों के नंबर नोट कर रहा था जिन के परमिट पक्के करने थे।  सूत जी मैदान के नजदीक पहुँचे वहाँ अभी भी तैयारियाँ चल रही थीं।  ग्रामीण लोग सजावट देख देख उस और जा रहे थे, जहाँ सरकारी अभियंताओं की निगरानी में ठेकेदारों ने भोजन-पानी की भोजन-पानी की पर्याप्त से अधिक व्यवस्था कर रखी थी।  सब देख कर सूत जी वापस लौट पड़े।
हे, पाठक!
सूत जी ने दोपहर का भोजन कर तनिक विश्राम किया और ठीक समय से मैदान पहुंच गए मैदान में बना पांडाल तमाम कोशिशों के भी भर नहीं पा रहा था।  कुछ दूर अभी भी वाहन आए जा रहे थे, पर उन में से उतरे लोग कुछ ही लोग पांडाल की ओर आ रहे थे, कुछ कहीं और जा रहे थे।   बहन जी के आने का समय हो चला था। पांडाल भर नहीं पा रहा था, कोशिशें जारी थीं।  एक घड़ी गुजरी, दूसरी गुजर गई।  बहन जी पूरे पांच घड़ी देरी से आई।  पांडाल फिर भी खाली था।  मंचासीन होते ही उन्हों ने पांडाल पर दृष्टिपात किया।  चौपायों के मालिकों के अंदर एक शीत लहर विद्युत धारा की तरह दौड़ गई।  उन्हें वर्तमान परमिट कैंसल होते प्रतीत हो रहे थे।  माल्यार्पण और स्तुति गान के बाद बहन जी माइक पर आ गईं।

हे, पाठक!
बहन जी आते ही आयोग पर बरस पडीं।  वह उन्हें महापंचायत का मुखिया नहीं बनने देना चाहता इस लिए बैक्टीरिया दल के इशारे पर बहुत रोड़े अटका रहा है।  आज की इस सभा में बहुत लोग उन के इशारे पर आने से रोक दिए गए।  फिर आया पप्पी-झप्पी के महत्वाकांक्षी को आड़े हाथों लिया।  हम इस तरह के लोगों को सीधे अंदर कर देते हैं।  या तो सीधे सीधे हमारे तम्बू में आ जाओ या फिर हम बड़े घर पहुँचा देंगे, मुकदमे हम ने दर्ज करवा दिए हैं।  फिर सब पर एक साथ बरस पड़ीं, बहुजन एक हो रहा है तो लोगों की आँख की किरकिरी हो गया है। ये साइकिल, हाथ, फूल वाले और भी सब लोग बहुजन को बिखेरने में लगे हैं।  पर उन को पता नहीं है कि इस बार मेरा ही नंबर है और कोई है ही नहीं जिस पर चुनाव के बाद सहमति बने।  इस के बाद कागज समाप्त हो गया।  लोगों ने बीच बीच में बहुत तालियाँ बजाईं।  बहन जी पढ़ने के बाद वापस सिंहासन पर नहीं बैठी मंच से उतर कर सीधे अपने वाहन में बैठीं और चल दीं।  इस के साथ ही सब लोग दौड़ पड़े।  सूत जी भी तेजी से वापस लौटे।  थोड़ी देर में रास्ते में जाम लगने वाला था।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

माया नगरी में सूत जी महाराज : जनतन्तर कथा (20)

हे, पाठक!
सूत जी को पहली बार तापघात हुआ था इसलिए उन्हें कष्ट भी बहुत हुआ।  विचार किया तो संज्ञान हुआ कि यह दो दिन वातानुकूलन का सुख-भोगने का परिणाम था।  सूत जी ने प्रण कर लिया कि वे कभी इस तरह वातानुकूलन का सुख नहीं लेंगे। ऐसा सुख किस काम का जो बाद में जीवन  ही संकट में डाल दे।  इस के साथ ही उन्हों ने चुनाव के इस काल में किसी नेता का साक्षात्कार करने की इच्छा भी त्याग दी।  अपने पत्र के लिए गतिविधियों के आधार पर ही समाचार भेजने का निर्णय किया।  वायरस दल की गतिविधियाँ तो वे देख ही चुके थे।  इस के बाद अन्य दलों की गतिविधियों का जायजा लेने का क्रम था।   सूत जी ने एक वाहन भाड़े पर लिया और निकल पड़े दिल्ली के राजनैतिक गलियारों की ओर।  जहाँ बारहों मास देस भर के नेताओं और जनता की रहती है, उन सब गलियारों में सन्नाटा पसरा मिला।  सब स्थानों से नेता अन्तर्ध्यान थे तो जनता कहाँ होती।  पता लगा सब अपनी अपनी जनता के शक्ति प्राप्त करने गए हैं।  अब राजधानी में रुकना व्यर्थ था।

हे, पाठक! 
उसी रात सूत जी उत्तर प्रांत में प्रवेश कर गए।  यह देश का सब से बड़ा प्रांत था।  सब से अधिक खेत भी यहीं थे।  यहाँ नाना प्रकार के दल चुनाव मैदान में थे।  कोई हाथी पर सवार था तो कोई साइकिल पर था।  वायरस और बैक्टीरिया दल भी यहाँ भिड़े हुए थे।  एक जमाना था जब प्रधानमंत्री इसी प्रांत का हुआ करता था।  आज यहायहा जिधर देखो हाथी का बोल बाला था।  इस प्रांत में जनता की बहुसंख्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की थी जो  कभी भी सत्ता का समीकरण बदल सकते थे।  बैक्टीरिया दल को यहाँ से बहुमत हासिल होता था। उस ने इन संबंधों में हेरफेर को उचित न समझा।  जैसे कोई भी बनिया कभी भी चलती दुकान में ग्राहकों को नयी सुविधाएं नहीं देता।  जब तक कि कोई प्रतियोगी मैदान में न आ जाए।  वायरस दल मैदान में आया भी तो उस ने बहुमत के धर्म  को अपना आधार बनाया।  उस का लाभ उठा कर खंड पंचायत पर कब्जा भी किया। पर उस में जिस कमजोरी का लाभ उठा कर सत्ताधीश धर्म परिवर्तन करा कर राज करते रहे वही भेदभाव उस की भी कमजोरी बन गया।

हे, पाठक। 
इस प्रांत में  अल्पसंख्यक कम नहीं थे उन के एक मुश्त मत किसी को भी राजा या रंक बना सकते थे।  उन की भलाई का ढोंग करते हुए बैक्टीरिया दल पहले विजयी होता रहा।  लेकिन यह तिलिस्म कभी तो टूटना था।  आखिर उस की यह  मतजागीरदारी टूट गई,  जब साइकिल वालों ने उस में सेंध लगाई।  उन्हीं दिनों एक नया दल बहुसंख्या दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की एकता के नाम पर पनप रहा था।  कुछ बचा खुचा था वे छीन ले गए।  एक बार तो इस नए दल की नेत्री ने वायरस दल के कंधे पर चढ़ कर सांझे का झांसा दे कर सत्ता की सवारी भी की। जब सवारी ढोने का अवसर आया तो साफ मुकर गई।  धीरे धीरे उस ने सब को पीछे छोड़ दिया और अब प्रदेश में हाथी की सवारी कर रही थी। 

हे, पाठक! 
अर्ध रात्रि को सूत जी महाराज जिस माया नगर में पहुँचे वहाँ एक विशाल मैदान में जोर शोर से मंच बनाने की तैयारियाँ चल रही थीं।  बहुत से वाहन आ जा रहे थे।  नीली पताकाएँ सजाई जा रही थीं।  पता लगा कि प्रान्त की मुख्यमंत्री कल यहाँ अपने दल के प्रत्याशी के समर्थन में सभा को संबोधित करने वाली हैं।  सूत जी ने इस  माया के कभी दर्शन नहीं किए थे।  उन्हों ने इसी नगर में एक ठीक-ठाक सा सितारा विश्रामालय देखा और वहीं रात्रि विश्राम के लिए रुक गए। 


बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

जनता के लिए क्या है, आप के पास? : जनतन्तर कथा (19)

हे, पाठक!
भारत वर्ष की महापंचायत के एक प्रतीक्षारत मुखिया के साक्षात्कार का अवसर मिल जाने से सूत जी अति-प्रसन्न थे।   दो दिन रिक्त रहने की सारी उदासी अन्तर्ध्यान हो गई।  वे तुरंत तैयारियों में जुट गए।  अपने यंत्रों की सार संभाल की कि साक्षात्कार कैसे अच्छा से अच्छा  अंकित किया जा सकता है।  वैमानिक कोलाहल में भी इस की जाँच करना चाहते थे। इस के लिए एक ऐसे कमरे की आवश्यकता थी जिस में आवाज करने वाला यंत्र हो।  इस भवन में ध्वनिरहित वातानुकूलक बहुत थे,  पर कोलाहल कहीं नहीं,,  वे बहुत चिंतित हुए।  अचानक उन्हें स्मरण आया कि वे अपने जंघशीर्ष पर जाल के माध्यम से विमान ध्वनि  पैदा कर सकते हैं। उन्हों ने विमान ध्वनि उत्पन्न कर अपने यंत्र जाँच लिए।  संध्याकाल में सूचना आई कि प्रातः पाँच बजे ही उन्हें उस वाहन में बैठना है जो प्रेस को ले कर विमान पत्तन के लिए जाएगी।

हे, पाठक!
अगले दिन सूत जी को ले कर वाहन निकला तो पूरे नगर में न जाने कहाँ कहाँ चक्कर लगाता हुआ विमानपत्तन पहुँचा।  इस बीच वाहन में अनेक लोग स्थान-स्थान से सवार हुए।  पत्तन पर वहाँ विशेष विमान तैयार था, सब को विमान पर चढ़ा दिया गया।  सब से अंत में सात बजे जो अंतिम व्यक्ति विमान पर चढ़ा, वह प्रतीक्षारत मुखिया था।  उसने सब पर दृष्टिपात किया और अपने निर्धारित आसन पर जा बैठा।  फिर अपने सहायक से सूत जी की ओर इशारा कर उन के बारे में जाना।  विमान चल पड़ा।  जैसे ही विमान व्योम में पहुंचा और कमरबंद खोले गए,  सहायक सूत जी के पास आया और प्रतीक्षारत मुखिया जी के पास वाले आसन पर जा कर अपना काम निपटा लेने को कहा, इस चेतावनी के साथ कि आप के पास मुश्किल से आधा घंटा है, इतने में काम पूरा कर लेना होगा।  सूत जी तुरंत  प्र. मुखिया जी के पास वाले आसन पर पहुँचे, अपना परिचय देने लगे, तो प्र. मुखिया जी खुद ही बोल पड़े - महाराज, आप को कौन नहीं जानता? आप की कथाएँ पढ़-पढ़ कर ही तो हम यहाँ तक पहुँचे हैं।  आप की कथाएँ नहीं होतीं तो हम न जाने कहाँ होते?  आप श्रीगणेश कीजिए।  सूत जी आरंभ हुए।

हे, पाठक!
सूत जी ने पूछा- इस बार तो इस महापंचायत चुनाव में आप का दल अकेला हैं जो कह रहा हैं कि आप निर्विवादित रूप से दल की ओर से मुखिया के प्रत्याशी हैं, क्या आप के दल इस बारे में कोई विवाद नहीं है?
प्र. मुखिया जी बोले- वायरस दल में मुखिया के लिए कभी विवाद  के जन्म की कोई संभावना ही उत्पन्न नहीं होने दी जाती है।  हम वरिष्ठता से चलते हैं। जो हम से वरिष्ठ हैं, उन के टायर घिस गए थे।  चाल बाधित हो गई थी, दल ने टायर भी बदलवाए, वे चले भी, लेकिन समय के साथ नहीं चल सकते थे, इस लिए दल ने उन्हें अवकाश दे दिया।  तत्पश्चात मेरा ही क्रम था, विवाद कैसे जन्म लेता।
सूत जी- क्या यह सही नहीं कि दल के युवाओं ने गुर्जर खंड के नेता के पक्ष में ध्वनियाँ की हैं?
प्र.मुखिया-  सही है, किन्तु केवल यह कहा जाता है कि वे मुखिया के योग्य हैं।  ध्वनि तीव्र होती उस से पहले ही दल ने मुझे आगे कर दिया।  प्रचार आरंभ हो गया।  अब ध्वनियाँ होती रहें, उन के परिपक्व  होने की संभावना समाप्त हो गई।
सूत जी- क्या यह नहीं कहा जाना चाहिए कि एक जन्म लेने की संभावना को गर्भ में ही समाप्त कर दिया गया जो अमानवीय था?
प्र. मुखिया-  नहीं, संभावना कोई जीव नहीं होती।  उसे कहीं भी समाप्त किया जा सकता है।
सूत जी- क्या आप के दल को बहुमत प्राप्त होने की संभावना है?
प्र.मुखिया- हमने ऐसा कभी नहीं कहा, हम ने कहा हमारा दल महापंचायत का सब से बड़ा दल होगा।  हम बहुमत जुटाएंगे।
सूत जी- यह तेरह दिवस, मास का खेल तो पहले भी असफल हो चुका है?
प्र. मुखिया- नहीं, अब नहीं होने देंगे।  कुछ दल हमारे साथ हैं, शेष हम जुटा लेंगे।
सूत जी- उन में से किसी ने आप के मुखिया होने पर आपत्ति हुई तो?
प्र. मुखिया- नहीं होगी, यही तो एक कारण है कि दल मुझे पहले ही मैदान में ले आया।  वरना जवानों की ध्वनियाँ गुर्जरखंड नेता के लिए तीव्र हो जातीं तो दल को साथ मिलना कठिन हो जाता।
सूत जी- पन्द्रहवीं महापंचायत के लिए आप के दल का मुख्य नारा क्या है?
प्र. मुखिया- यही कि हमारे पास मुखिया के लायक नेता है,  किसी और के पास नहीं।
सूत जी- यह तो आप के दल के लिए हुआ, जनता के लिए क्या है?
प्र. मुखिया- जनता के लिए किस के पास क्या है? किसी के पास कुछ नहीं, हम से ही क्यों अपेक्षा की जाती है। फिर जनता के लिए बहुत कुछ है।  दल ने घोषणा की है। राम मंदिर बनाएंगे,  समान नागरिक संहिता बनाएंगे, भारतवर्ष को आतंकवाद हीन कर देंगे, गरीबों को सस्ता चावल देंगे, बहुत कुछ है .... आप ने हमारा घोषणा-पत्र नहीं पढ़ा?
प्र. मुखिया- राम मंदिर और समान नागरिक संहिता तो आप आप के दल के बहुमत की स्थिति में बनाएँगे जिस के लिए आप खुद स्वीकार करते हैं कि वह नहीं आ रहा है। आतंकवाद के लिए विपक्षी आप को आतंकवादियों को कैकय छोड़ देने का स्मरण करवा चुके हैं। सस्ता चावल गरीबों को तब मिलेगा जब रोजगार मिलेगा। उस के लिए कुछ है आप के घोषणा पत्र में .....

सूत जी का प्रश्न पूरा होता उस से पहले ही विमान में घोषणा हुई कि यात्री अपने-अपने कमरबंद कस लें विमान उतरने वाला है।  सूत जी को अपने आसन पर आना पड़ा।  साक्षात्कार अधूरा ही रह गया।  दिन भर में विमान अनेक स्थानों पर गया।  प्र. मुखिया जी ने सब स्थानों पर भाषण किया। सूत जी को उन के प्रश्नों के उत्तर न मिले।  पर मुखिया जी जब भाषण दे कर वापस आने लगते तो विपक्षी का चुनाव चिन्ह जरूर दिखाते। सायंकाल जब विमान पत्तन पर उतरा तो यान की ठंडक और बाहर की गर्मी में आते जाते सूत जी तापघात के शिकार हो लिए।  सूत जी पत्तन से बाहर आए तो सहायक सूत जी को एक कागजी थैला दे कर बोला- इस में प्र. मुखिया जी के छाया चित्र  हैं इन्हें साक्षात्कार के साथ जरूर छापिएगा।  तीन दिनों से कोई पत्र उन के चित्र नहीं छाप रहा है और इस वाहन में बैठिएगा यह आप को आप के आवास पर छोड़ देगा।  सूत जी पहले ही अपना आवास छोड़ चुके थे।  वहीं वापस पहुंचे तो वहाँ कोई स्थान खाली न था। सूत जी ने पुराना ग्राहक होने की दुहाई दी तो उन्हें बताया गया कि अर्धरात्रि को एक स्थान रिक्त होगा तब वे वहाँ जा सकते हैं। तब तक वे प्रतीक्षागृह में प्रतीक्षा करें।  वे प्रतीक्षागृह आए जहाँ और भी लोग थे।  उन्हों ने कागजी थैला खोला तो उस में चित्रों के साथ एक विज्ञापन था और साथ में शुल्क का एक चैक भी।  तापघात से पीड़ित सूत जी दो दिनों तक अपने कक्ष में ही रहे।  साक्षात्कार तीसरे दिन छपा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....