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रविवार, 13 दिसंबर 2009

एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद


ड़ताल 105 दिन पूरे कर चुकी है। इधर अभिभाषक परिषद के चुनाव जोरों पर है। उम्मीदवार सभी मतदाताओं से मिलने के प्रयत्न कर रहे हैं। अध्यक्ष और सचिव पद के उम्मीदवारों का घर-घर जाना पुरानी परंपरा बन चुका है। इस बार उपाध्यक्ष, पुस्तकालय सचिव और कार्यकारिणी सदस्य के उम्मीदवार भी घरों पर आए। अब पंद्रह दिसंबर तक, जब तक मतदान होगा, हड़ताल को शायद ही कोई स्मरण करे। हाँ, उस का इतना उल्लेख जरूर होगा कि कम से कम आने वाली कार्यकारिणी ऐसी अवश्य आए जो हड़ताल से जुड़े हाईकोर्ट की बैंच कोटा में खोले जाने के मामले को इस तरह से आगे बढ़ाए कि जल्द से जल्द हड़ताल से छुटकारा मिल सके। सब के अवचेतन में यह बात कहीं न कहीं अवश्य है और मतदान का बिंदु भी यही होगा। परिणाम बताएँगे कि लोग किसे योग्य पाते हैं। इस बार कोई भी, और बात चुनाव को प्रभावित नहीं कर सकेगी। न ग्रुप, न राजनैतिक संबद्धता, न रिश्तेदारी और न गुरूचेले का संबंध। यही होता है, जब पूरी बिरादरी एक संक्रमण में हो तो फैसले गुणावगुण पर होने लगते हैं।
ह अंदेशा तो है ही कि अब हड़ताल का अंत कुछ ही दिनों में होगा। हमें नए सिरे से अदालतों में काम के लिए तैयार होना  होगा, उस के लिए आवश्यक है कि हमारे दफ्तर तैयार रहें। उन में जो काम पिछड़ गया है वह लाइन पर ले आया जाए। सब पत्रावलियाँ यथास्थान हों। डायरी पूरी तरह से तैयार हो, उस में जो भी कमियाँ हैं पूरी कर ली जाएँ। जिन पत्रावलियों में मुतफर्रिक काम करने हैं, उन्हें कर लिया जाए। कल रात को जब तीसरा खंबा की पोस्ट शिड्यूल कर के उठा तो निश्चय यही था कि  ये सब काम  शनिवार को निपटा लिए जाएँ, जिस से रविवार पूरी तरह से आजाद रहे। लेकिन शुक्रवार का सोचा सब गड़बड़ हो जाता है, यदि उस के बाद  का दिन महीने का दूसरा शनिवार हो। सुबह की चाय पीते-पीते हुए अखबार देखने और उस के बाद नैट पर ब्लाग पढ़ने,कुछ टिप्पणियाँ करने में घड़ी ने नौ बजा दिए। स्नानादि से निपटा तब तक साढ़े दस बज रहे थे। दफ्तर में आ कर डायरी को कुछ ठीक किया ही था कि भोजन तैयार होने की आवाज आ गई। इस आवाज के बाद कुछ भी बर्दाश्त के बाहर होता है।
बैंगन के भर्ते और बथुई की कढ़ी के साथ गरम गरम चपातियाँ थीं। बस गुड़ की डली की कसर शेष थी। पता लगा वह रात ही समाप्त हुआ है। हमने चैन की सांस ली। पिछली बार जो गुड़ लाए थे। वह देसी तो था, पर दाने में कस र थी। वो मजा नहीं आ रहा था। उस से पीछा छूटा। सोचा चाहे दस दुकानें क्यों न छाननी पड़ें। आज दानेदार देसी गुड़ ढूंढ कर लाया ही जाएगा। भोजन कर के फिर से दफ्तर में आ कर बैठा तो पेट ने बदन के सारे लहू को भोजन पचाने में लगा दिया था। दिमाग को लहू की सप्लाई कम मिली तो वह ऊंधने लगा। आज धूप कुनकनी थी और हवा में ठंडक। चटाई-तकिया,अखबार और किताब ले कर छत पर गया। धूप में लेटे-लेटे सुडोकू हल करने लगा। आज की पहेली बहुत खूबसूरत थी। उसने अन्तिम दो अंकों तक छकाया। उसे पूरी करते-करते कुछ भी पढ़ने की हालत नहीं रही। आँखे बंद कीं तो नीन्द ने आ दबोचा। बीच में आ कर शोभा छत पर सुखाई गई मंगोड़ी संभाल गई। बदन गर्म होते ही धूप चुभने लगी। मैं ने डोर पर सूख रहा चादर अपने ऊपर डाल लिया। धूप की चुभन से बचाव हो गया। लेकिन कुछ ही देर में चादर के अंदर की हवा गरम हो गई। इस बार नींद टूटी तो बदन से भरपूर पसीना निकल रहा था। मैं ने चटाई समेटी और नीचे कमरे में आ लेटा। फिर नींद लग गई। आखिर दो बजे मोबाइल की घंटी ने उठाया।
प्रेमकुमार सिंह का फोन था। वे अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। जब भी कभी मुझे किसी फौजदारी मुकदमे में जरूरत होती है तो वे मेरे वकील होते हैं। सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन से तय था कि मेरे मुहल्ले के वकीलों से वे मेरे साथ मिलेंगे। तीन बजे का समय तय हुआ। मैं ने शोभा को बताया कि तीन बजे वे आ रहे हैं, कॉफी  उन के सात पियूँगा। उस ने तुरंत ही बना दी, क्या पता चुनावी जल्दी में हों और मुझे भी न पीने दें। खैर हुआ भी यही। उन के आते ही हम चल दिए। इलाके के कोई पच्चीस-तीस वकीलों के यहाँ घूम-मिल वापस अपने घर पहुँचते पहुँचते  साढ़े पाँच हो गए। उसी समय मेरी साली की बेटी श्रद्धा रविवार का अवकाश हमारे साथ बिताने आ गई। वह यहीं आईआईटी की कोचिंग कर रही है। उस का आना अच्छा लगा। मैं ने दीवान पर अधलेटे हो कर टीवी खोला, तो ट्वंटी-ट्वंटी आरंभ हो चुका था। मैं और श्रद्धा मैच देखने लगे। शोभा ने आ कर पूछा -खाने में क्या बनेगा? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा प्रश्न होता है। ..... तुम्हारे पास क्या है? .... जवाब आया -मैथी।. ... तो पराठे बना लो, श्रद्धा ने भी मेरे मत का समर्थन किया। मैच के इंटरवल में अमिताभ कमेंट्री करने आते तब तक पराठे तैयार हो कर टेबल पर हाजिर थे।
राठों से निपटने के बाद मैच पूरा देखा। आखिर भारत ने मैच जीत  लिया। कंमेंटेटर बल्लेबाजों  की तारीफों के पुल बांधने लगे। हार जाता तो उन का पुलंदा बांधते। तभी कुछ और उम्मीदवार मिलने आए। इस बीच बेटे वैभव और बेटी पूर्वा से फोन पर बात हुई।  इस के बाद मैं दफ्तर में नहीं बैठ सका। फिर से जा कर सारेगामा का 1000वीं प्रस्तुति देखी।  अभी उठ कर वापस आया तो सोचा आज मैं ने क्या किया? जो कल सोचा था वह  काम तो आज बिलकुल नहीं कर पाया। बहुत दिनों बात एक पूरा दिन छुट्टी मनाई।  अब सोच रहा हूँ। शनिवार का काम कल जरूर निपटा दूंगा। शनिवार का सोचा रविवार को तो करना ही पड़ता है, वरना उस के पीछे एक नया सोमवार खड़ा होता है।


तेरी  मुक्ति   के  लिए,   कर  तू  ही   संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश विमर्श
  • शिवराम

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

दुल्हन ले आए, ताऊ-ताई को छोड़ आए




भारतीय विवाह एक बहुत जटिल और संष्लिष्ट समारोह है। इस में बहुत से सूत्र इस तरह एक दूसरे से गुंथे होते हैं कि अनेक गुत्थियों को समझना बहुत कठिन होता है। एक मित्र के पुत्र का विवाह था। मित्र के पिता तो बहुत वर्ष पहले गुजर गए। मित्र के काका अभी मौजूद हैं। हालांकि वृद्ध हो चुके हैं। मित्र जब भी गांव जाता हमेशा उन से कहता कि बेटे की शादी है, काकाजी आप को उस की बारात में चलना है।  शादी में काका जी दो दिन पहले ही आ गए। परिवार में सब से बड़ी उम्र के पुरुष। परिवार और मित्र जो भी जिस जिस समारोह में पहुँचा उन से मिल कर प्रसन्न होता। वे अधिक चल फिर नहीं रहे थे, लेकिन वे एक स्थान पर बैठे सब का अभिवादन स्वीकार करते और आशीर्वाद देते। 

बारात 350 किलोमीटर बसों से जानी थी। कुछ कारें भी साथ थीं। दस घंटे जाने का सफर और इतना ही आने का भी। और करीब बारह से चौदह घंटे का ठहराव. काका जी की अवस्था देख मित्र के मन में आया कि उन्हें बारात में बहुत कष्ट होगा। उन्हें आराम न मिलेगा, कहीं सर्दी में उन का स्वास्थ्य खराब न हो जाए। मित्र ने उन से अपने मन की बात कह दी। वे नाराज हो गए। कहने लगे मेरे पहले पोते का ब्याह है औऱ मैं ही न जाऊँ बारात में यह कैसे हो सकता है। कुछ देर बाद मैं पहुँचा तो मित्र ने बताया कि काकाजी मान नहीं रहे हैं। उन से बारात के कष्ट बता कर न जाने को कहा तो नाराज हो गए, बोल ही नहीं रहे हैं। मैं ने कहा सही बात है, उन्हें नहीं ले जाओगे तो बारात का क्या आनंद होगा। उन की तीन बेटियाँ, दामाद, एक बेटा-बहू साथ जा रहे हैं सब संभाल लेंगे। तुम उन से जा कर कहो कि मैं तो मजाक कर रहा थाष आप के बिना कोई बारात कैसे जा सकती है। यह बात मित्र ने कही तो काका जी खुश हो गए और बारात में गए और सकुशल वापस भी लौट आए। एक जरा सी बात ने काकाजी को नाराज किया और शादी में कुछ घंटों के लिए ही सही प्रसन्नता के स्थान पर अवसाद आ गया था वह दूर हो गया।

बारात जिस दिन जाना था उस से पहली रात मेरा हाजमा खराब हो गया। रात को अम्लता ने बहुत कष्ट दिया। मैं किसी तरह बारात में जाने से बच गया था। आज जब दुल्हन के लिए आशीर्वाद समारोह में पहुँचा तो वहाँ एक और विचित्र घटना पता लगी। बारात की एक बस रात को 12 बजे ही रवाना हो गई और करीब आधे बाराती उस से वापस रवाना हो गए। चार घंटे बाद जब दुल्हन की विदाई हुई तो बारात की फाइनल खेप वहाँ से रवाना हुई। दुल्हे के ताऊ भाँवर के बाद आ कर होटल के कमरे में कुछ आराम करने के लिए लेटे और उन्हें नींद लग गई। उसी कमरे में कुछ देर बाद ताई वहाँ आई तो बिस्तर खाली देख वह भी कुछ देर आराम के लिए लेट गई। होटल में और कोई बाराती था नहीं, तो उन्हों ने कमरे को अंदर से बंद कर दिया। बारात की दूसरी बस रवाना हो गई और ताऊ-ताई सोते रह गए। जब बस आधी दूर आ गई होटल वालों ने कमरे संभालना आरंभ किया तो एक कमरा बंद पाया। ताऊ-ताई को जगा कर कमरा खुलवाया गया। बारात को मोबाइल से खबर भेजी गई। ताऊ-ताई को दुल्हन के पिता ने बस में बिठा कर विदा किया। वे सकुशल वापस पहुँच भी गए। पर नाराज तो वे हो ही गए थे कि आखिर बारात उन्हें छोड़ कर कैसे आ गई। वे गुस्से के मारे या लज्जा के कारण आशीर्वाद समारोह में नहीं आए। अब उन्हें मनाने में मित्र को कई महिने लगेंगे, हो सकता है साल भी लगें। मुझे ही जा कर मनाना होगा। वैसे ताऊ-ताई थोड़ा साहस जुटाते और आशीर्वाद समारोह में इस विचित्र दुर्घटना का आंनंद ले कर शामिल होते तो समारोह का आनंद कुछ और ही होता।

स दूल्हे के पिता और बारात व्यवस्थापक यदि बारात की फाइनल खेप रवाना होते समय होटल के कमरे ठीक से चैक कर लेते तो यह घटना नहीं होती। उन की इस एक गलती ने समारोह का मजा खराब कर दिया। हालांकि पुराने जमाने की शादियाँ इसी तरह की विचित्र घटनाओं के लिए अविस्मरणीय बन जाती थीं और बार बार स्मरण की जाती हैं।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी

दि कोई पूछे कि भारत में सब से अधिक क्या होता है? तो सब से आसान उत्तर है, जी चुनाव!
बिलकुल सही है यहाँ चुनाव ही सब से अधिक होते हैं। शायद सब से मजबूत जनतंत्र की यही निशानी है, या फिर जनतंत्र है, यह साबित करने को यह सब करना होता है। अब देखिए ना, अभी मई में देश भर में लोकसभा के चुनाव हुए ही थे। पूरे दो माह तक देश इन की चपेट में रहा।  ये चुनाव निपटे ही  थे कि फिर से चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में संशोधन का काम आरंभ हो गया। नवम्बर में नगर निगम के चुनाव जो होने थे। इस बार इस चुनाव में बहुत कुछ बदला गया। वार्डों का पुनर्सीमांकन किया गया। नए सिरे से पर्चियाँ डाल कर तय किया गया कि किस वार्ड से किस-किस तरह का आरक्षण रहेगा। ऐन वक्त पर यह भी तय हुआ कि इस बार मेयरक का चुनाव वार्ड पार्षद के स्थान पर सीधे जनता ही करेगी। इस जरा सी बात ने बहुत कुछ बदल दिया। पन्द्रह वर्ष से नगर निगम पर काबिज भाजपा को जनता ने विदा किया और मेयर कांग्रेसी चुन दिया। साथ में तीन चौथाई से अधिक वार्ड पार्षद भी कांग्रेस के चुन दिए।

स बीच कोटा के वकील 29 अगस्त को हड़ताल पर चले गए। हड़ताल एक सौ दस दिन पूरे कर के भी जारी है।  बून्दी और झालावाड़ जिलों के वकील भी इस हड़ताल में शामिल हैं। चाहते हैं कि कोटा में हाईकोर्ट की एक अदद बैंच स्थापित की जाए। एक चौथाई साल  हड़ताल चलते हो चुका है, लेकिन कोई नतीजा ही सामने नहीं है। जिस दिन नगर निगम के चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होनी थी उस के ठीक पहले मुख्यमंत्री ने बुलाया, बात की। वे सभी मांगें मानने को तैयार थे। लेकिन हाईकोर्ट के मामले में आश्वासन तो दूर मुहँ से कुछ भी निकालने को मना कर दिया। वे जोधपुर से हैं जहाँ हाईकोर्ट की मुख्य पीठ है। वहाँ के लोग जयपुर में स्थापित की गई बैंच को ही पिछले 32 साल में बर्दाश्त नहीं कर पाए तो एक और बैंच को कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। यह बात मुख्यमंत्री के मुहँ से निकले तो कैसे? आखिर उन्हें अगली बार फिर वहीं से चुनाव जो लड़ना है। मुख्यमंत्री और तमाम राजनेता चुनाव में व्यस्त हो गए। इधर हड़ताल जारी रही। 

चुनाव के दौरान ही केन्द्रीय विधि मंत्री से दिल्ली में प्रतिनिधि मंडल ने भेंट की उन्हें सब कुछ बताया। उन के मुख से केवल इतना ही निकला कि 2010 में हाईकोर्टों की बैंचें खोलने के प्रस्ताव हैं। इन में एक बैंच राजस्थान में स्थापित की जाएगी।  स्थापना कहाँ हो? इस के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार रिपोर्ट करेगी तब निर्णय हो सकेगा। वकीलों का आंदोलन फिर से वहीं आ गया था। गेंद फिर से राज्य सरकार के पाले में थी। चुनाव संपन्न हो गए।  उसी दौर में कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य और कोटा  ही विधायक चुने गए राजस्थान के विधिमंत्री से बात हुई तो कहने लगे अभी चुनाव में व्यस्त हूँ, चुनाव नतीजे निकलते ही आप लोगों से आ कर मिलता हूँ। हड़ताल चलती रही। जब हड़ताल आरंभ हुई थी तो  बार काऊंसिल के चुनाव  की तैयारी आरंभ हो चुकी थी और कहा जा रहा था कि हड़ताल तो चुनाव की वजह से हो रही है जिस से उम्मीदवारों को  प्रचार का अवसर मिल जाए। हड़ताल के बीच ही राजस्थान की बार कौंसिल के चुनाव हो लिए। डेढ़ माह बाद  ठीक दो दिन पहले उस के नतीजे भी आ चुके हैं। हड़ताल फिर भी जारी है।

ब अभिभाषक परिषद के चुनाव आ गए हैं। सब चुनाव टल सकते हैं लेकिन अभिभाषक परिषद के नहीं। विधान में लिखा है कि दिसम्बर की 15 तारीख तक किसी भी हाल में चुनाव संपन्न किए जाएंगे और जनवरी की 3 तारीख तक हर हाल में नयी कार्यकारिणी को कार्यभार सोंप दिया जाएगा। तब से ये दो तारीखें पत्थर की लकीर हो गई हैं। लोगों ने अपने अपने नामांकन भर दिए हैं। परिषद के अध्यक्ष के लिए नौ और सचिव के लिए ग्यारह उम्मीदवार मैदान में हैं। कल नामांकन वापसी का दिन है। उस के बाद ही पता लगेगा कि कितने उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं। जिन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ना ही है, उन्हों ने प्रचार आरंभ कर दिया है।  वकील जब शाम को घर लौटते हैं और पत्नियाँ उन की जेब तलाशी करती हैं तो वहाँ रुपयों की जगह उम्मीदवारों द्वारा याद्दाश्त के लिए दी गई पर्चियाँ  निकलती हैं। उन्हें भी पता लग चुका है कि चुनाव आ गया है। वे पूछती हैं। इस चुनाव के बाद तो कोई चुनाव नहीं है न? जवाब मिलता है  -नहीं, अब कम से कम एक-दो माह तो कोई चुनाव नहीं है, तो वे कहती हैं तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

वादा पूरा न होने तक प्रमुख की कुर्सी पर नहीं बैठेगी ममता

यात्रा की बात बीच में अधूरी छोड़ इधर राजस्थान में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम की बात करते हैं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत से कुछ स्थान कम मिले थे। लेकिन उस कमी को पूरा  कर लिया गया। राजस्थान में कांग्रेस के बाद दूसरी ताकत भाजपा है, लेकिन उस में शीर्ष स्तर से ले कर तृणमूल स्तर तक घमासान छिड़ा है। नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बढ़त बना ली। अब राजस्थान के आधे स्थानीय निकायों के चुनाव हुए हैं और जो परिणाम  आए हैं उन से कांग्रेस को बल्लियों उछलने का मौका लग गया है। कोटा में पिछले 15 वर्षों से भाजपा का नगर निगम पर एक छत्र कब्जा था। भाजपा चाहती तो इस 15 वर्षों के काल में नगर को एक शानदार उल्लेखनीय नगर में परिवर्तित कर सकती थी। लेकिन नगर निगम में बैठे महापौरों और पार्षदों ने अपने और अपने आकाओं के हितों को साधने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।

स चुनाव की खास बात यह थी कि आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित थे। लेकिन कोटा के मामले में कुछ ऐसा हुआ कि 60 में से 29 महिलाओं के लिए आरक्षित हो सके और 31 पुरुषों के पास रह गए। महापौर का स्थान महिला के लिए आरक्षित था। चुनाव जीतने की पहला नियम होता है कि आप पार्टी का उम्मीदवार ऐसा चुनें जिस से घरेलू घमासान पर रोक लगे। इस बार कांग्रेस ने यहीं बाजी मार ली। वह नगर की एक प्रमुख गैर राजनैतिक महिला चिकित्सक को महापौर का चुनाव लड़ने के लिए मैदान में लाई जिस पर किसी को असहमति  नहीं हो सकती थी। अधिक से अधिक यह हो सकता था कि जिन नेताओं के मन में लड्डू फूट रहे होंगे वे रुक गए। उम्मीदवार उत्तम थी, जनता को भी पसंद आ गई।


भाजपा यह काम नहीं कर पाई। उस ने एक पुरानी कार्यकर्ता को मैदान में उतारा तो पार्टी के आधे दिग्गज घर बैठ गए चुनाव मैदान में प्रचार के लिए नहीं निकले। वैसे निकल भी लेते तो परिणाम पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकते थे। कांग्रेस की डॉ. रत्ना जैन  321 कम पचास हजार मतों से जीत गई। पार्षदों के मामले में भी यही हुआ। भाजपाइयों ने आपस में तलवारें भांजने का शानदार प्रदर्शन किया और 60 में से 9 पार्षद जिता लाए, कांग्रेस ने 43 स्थानों पर कब्जा किया बाकी स्थान निर्दलियों के लिए खेत रहे। जीते हुए पार्षदों में एक सामान्य स्थान से महिला ने चुनाव लड़ा और जीत गई। इस तरह 30-30 महिला पुरुष पार्षद हो गए। अब निगम में महापौर सहित 31 महिलाएँ और 30 पुरुष हैं। कहते हैं महिलाओं घर संभालने में महारत हासिल होती है। देखते हैं ये महिलाएँ किस तरह अगले पाँच बरस तक अपने नगर-घऱ को संभालती हैं।

कोटा, जयपुर, जोधपुर और बीकानेर चार नगर निगमों के चुनाव हुए।  चारों में मेयर का पद कांग्रेस ने हथिया लिया है। यह दूसरी बात है कि जयपुर में भाजपा के 46 पार्षद कांग्रेस के 26 पार्षदों के मुकाबले जीत कर आए हैं। एक वर्ष बाद मेयर के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव लाने का अधिकार है। देखते हैं साल भर बाद जयपुर की मेयर किस तरह अपना पद बचा सकेगी। यदि अविश्वास प्रस्ताव पारित होता है तो चुनाव तो फिर से जनता ने सीधे मत डाल कर करना है, वह क्या करती है।  कुल 46 निकायों में 29 में कांग्रेस, 10 में भाजपा, 6 में  निर्दलीय और एक में बसपा के प्रमुखों ने कब्जा किया है। भाजपा को मिली तगड़ी हार के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी का कहना है कि परिणाम निराशाजनक नहीं हैं। जहाँ कांग्रेस के 716 पार्षद विजयी हुए वहीं भाजपा ने भी अपने 584 पार्षद इन निकायों में पहुँचा दिए हैं। इन निकायों ने एक दार्शनिक का यह कथन एक बार फिर साबित किया कि जब दो फौजे युद्ध करती हैं तो हर फौज के सिपाही आपस में मार-काट करते हैं नतीजा यह होता है कि जिस फौज के सिपाही आपस में कम मारकाट करते हैं वही विजयी होती है।



ब से चौंकाने वाला परिणाम चित्तौड़गढ़ जिले की रावतभाटा नगर पालिका से आया है। जहाँ कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशी पालिका प्रमुख के चुनाव में अपनी लुटिया डुबो बैठे। यहाँ की जनता ने पालिका प्रमुख के पद के लिए एक किन्नर ममता को चुना है।  रावतभाटा नगर में सब से बड़ी समस्या यह है कि यहाँ भूमि स्थानांतरण पर बरसों से रोक है। किसी भी भूमि के क्रयविक्रय का पंजीयन नहीं हो पाता है। यह बात नगर आयोजना और विकास में बाधा बनी हुई है। ममता ने शपथ लेते ही घोषणा कर दी है कि जब तक भूमि स्थानांतरण पर से रोक नहीं हटती वह मेयर की कुर्सी पर नहीं बैठेगी, अलग से कुर्सी लगा कर या स्टूल पर बैठ कर अपना काम निपटाएगी।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

भाजपा की गुटबाजी और अंतर्कलह के कारण के कारण काँग्रेस की पौ-बारह

ल जैसे ही नामांकन का दौर समाप्त हुआ। मौसम बदलने लगा। अरब सागर से उत्तर की ओर बढ़ रहे तूफान का असर कोटा तक पहुँच ही गया। बादल तो सुबह से थे ही, शाम को बूंदा-बांदी आरंभ हो गयी। रात को भी कम-अधिक बूंदा-बांदी होती रही। सुबह उठा तो बाहर नमी और शीत थी, साथ में हवा थी। मैं अखबार ले कर दफ्तर में बैठा तो दरवाजा खुला रख कर बैठना संभव नहीं हुआ। उसे बंद करना ही पड़ा। मेरे अपने वार्ड से एक वकील साथी ज्ञान यादव को काँग्रेस से टिकट मिला है। मैं ने अखबार में नाम देखना चाहा तो वहाँ मेरे  वार्ड से पर्चे भरने वाले काँग्रेस प्रत्याशी का उल्लेख ही नहीं था। और भी कुछ वार्डों के प्रत्याशियों के नाम गायब थे। इतने में ज्ञान टपक पड़े। मुझ से मोहल्ले की स्ट्रेटेजी समझने के लिए। मैं  ने अपने हिसाब से उन्हें सब कुछ बताया। मैं ने उन से सोलह तारीख तक मुक्ति मांग ली कि मैं बाहर रहूँगा।

सबूतों पर चटका लगाएँ
महापौर के लिए अरूणा-रत्ना मैदान में

अंतिम दिन के पहले तक सब से बड़ा सस्पैंस इस बात का रहा कि महापौर पद की उम्मीदवार कौन होंगी। आखिर सुबह के अखबारों से खबर लगी कि घोषणा करने की पहल काँग्रेस ने की। उस ने नगर की एक महिला चिकित्सक रत्ना जैन को अपना उम्मीदवार बनाया। उम्मीदवार होने तक वह पार्टी की साधारण सदस्या भी नहीं थी। जब उसे बताया गया कि उसे चुनाव लड़ना है तो वह अपने अस्पताल में मरीज देख रही थी। कोई पूर्व राजनैतिक जीवन नहीं होने के कारण उस की छवि स्वच्छ है। अपना स्वयं का अस्पताल होने से प्रशासन का अनुभव भी है। अस्पताल सस्ता है और निम्न से मध्यम वर्ग के लोगों को उत्तम चिकित्सा प्रदान करता है। स्वयं उन के और उन के बाल रोग विशेषज्ञ पति के लोगों के प्रति विनम्र और सहयोगी व्यवहार के कारण वे नगर में लोकप्रिय हैं। काँग्रेस ने अपने सदस्यों के स्थान पर उन्हें महापौर का प्रत्याशी बना कर पहले ही लाभ का सौदा कर लिया है। भाजपा ने अपनी बीस वर्षों से सदस्या रही अरुणा अग्रवाल को अपना प्रत्याशी बनाया है। लोग उन्हें जानते हैं। लेकिन राजनैतिक जीवन के अतिरिक्त उन की कोई अन्य उपलब्धि नहीं रही है। वे बीस वर्षों में अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं बना सकीं। इस कारण वे डॉ. रत्ना जैन से उन्नीस ही पड़ती हैं। यदि उन्हें जीतना है तो उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। इन दो उम्मीदवारों के अलावा चार और भी महापौर के पद के लिए उम्मीदवार हैं जिन में एक बसपा की हैं।

गता है कि इस बार भाजपा राष्ट्रीय स्तर से ले कर स्थानीय स्तर तक गुट युद्ध की शिकार है। अंतिम समय पर महापौर और पार्षदों के प्रत्याशी चुने जाने का नतीजा यह हुआ कि भाजपा प्रत्याशी की चुनावी रैली फीकी रही। बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्ति उन की रैली से गायब रहे और गुटबाजी का सार्वजनिक प्रदर्शन हो गया। प्रमुख नेताओं ने यहाँ तक कह दिया कि जिन ने टिकट दिया है वही प्रत्याशी को जिता ले जाएंगे। 
सबूतों पर चटका लगाएँ 



पैदल निकाली नामांकन रैली, बडे नेता रहे गायब
चतुर्वेदी समर्थकों का वर्चस्व
 इस सारी परिस्थिति ने काँग्रेस को उत्साह से भर दिया है। उन के सांसद ने भाषण दिया कि 'जीत के लिए करें पूरी मेहनत' लेकिन फिर भी नहीं थमा बगावत का दौर  दोनों दलों के कुल मिला कर 79 बागी चुनाव मैदान में उतर ही गए। लेकिन भाजपा के बागी तो लगभग हर एक वार्ड में मौजूद हैं, जब कि काँग्रेस के केवल सोलह में।
चुनाव प्रचार का आरंभ आज से हो जाना था। लेकिन सुबह से हो रही बरसात ने उस को बाहर न आने दिया। अदालत में जिस तंबू में वकीलों का क्रमिक भूख हड़ताल करने वालों का दल बैठता था वह बरसात में तर हो गया। भूख हड़तालियों को अदालत के अंदर जा कर टीन शेड के नीचे शरण लेनी पड़ी। एक तो हड़ताल और ऊपर से बरसात। अदालत में कोई नजर नहीं आया। हमने अपने मित्रों को अदालत में न पाकर फोन किए तो पता लगा वे घरों से आए ही नहीं थे। दिन भर की बरसात ने सरसों और गेहूँ की खेती करने वालों के चेहरों पर रौनक पैदा कर दी है। मैं सोच रहा हूँ कि कल सुबह तक तो बरसात रुकेगी और सुबह घनी धुंध हो सकती है। पर दोपहर तक धूप निकल आए तो अच्छा है। परसों सुबह आरंभ होने वाली मेरी यात्रा ठीक से हो सकेगी।

चित्र में डॉ. रत्ना जैन अपने समर्थकों के बीच, चित्र  दैनिक भास्कर से साभार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कोटा निगम में महिलाओं का बाहुल्य होगा





वैसे तो कोटा संभाग के वकील हड़ताल पर हैं, लेकिन अदालत तो रोज ही जाना होता है। कोटा में स्टेशन से नगर को जाने वाले मुख्य मार्ग के एक और जिला अदालत परिसर है और दूसरी ओर कलेक्ट्रेट परिसर। बहुत सी अदालतें कलेक्ट्रेट परिसर में स्थित हैं। रोज हजारों लोगों का इन दोनों परिसरों में आना जाना लगा रहता है। पिछले 75 दिनों से वकीलों की हड़ताल के कारण लोगों की आवाजाही बहुत कम हो गयी है। आकस्मिक और  अत्यंत आवश्यक कामो के अतिरिक्त कोई नया काम नहीं हो रहा है। पुराने मुकदमे जहाँ के तहाँ पड़े हुए हैं। यहाँ तक कि सुबह 10.30 बजे से दोपहर 2.00 बजे तक तो जिला अदालत परिसर के दोनों द्वार आंदोलनकारी बंद कर उन पर ताला डाल देते हैं और एक तीसरे दरवाजे के सामने उन का धरना लगा होता है। जिस से कोई भी न तो अदालत परिसर में प्रवेश कर पाता है और न ही बाहर निकल पाता है। वकील धरने पर होते हैं या फिर सड़क पर या कलेक्ट्रेट परिसर की चाय-पान की दुकानों पर। दोपहर दो बजे के बाद ही अदालतें आकस्मिक और आवश्यक कामों का निपटारा कर पाती हैं। इस से पहले वे पुराने मुकदमों की तारीखें बदलने का काम करती हैं। इन 75 दिनों में पेशी पर हाजिर न हो पाने के लिए किसी मुलजिम की जमानत जब्त नहीं की गई है और न ही कोई वारंट जारी हुआ है। नए पकड़े गए मुलजिमान की जमानतें अदालतें अपने विवेक और कानून के मुताबिक ले लेती हैं या नहीं लेती हैं। न्यायिक प्रशासन ठप्प पड़ा है, लेकिन सरकार को कोई असर नहीं है। उस के लिए समाज में न्याय न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता।

स क्षेत्र में हडताल के कारण छाए इस सन्नाटा पिछले तीन दिनों से टूटा है। अब यहाँ सुबह 10 बजे से ढोल बजते सुनाई देते हैं। लोग गाते-नाचते, नारे लगाते प्रवेश करते हैं। एक तरह का हंगामा बरपा है। लगता है जैसे नगर में कोई उत्सव आरंभ हो गया है। राजस्थान के 46 नगरों में आरंभ हुआ यह उत्सव नगर के स्थानीय निकायों के चुनाव का है। इन में राज्य के 4 नगर निगम, 11 नगर परिषद एवं 31 नगर पालिकाएँ सम्मिलित हैं।  जिन के लिए 1 हजार 612 पार्षद चुने जाएँगे। अब तक किसी भी निकाय के लिए चुने गए पार्षद ही उन के महापौर या अध्यक्ष का चुनाव करते थे लेकिन नगरपालिका कानून में संशोधन के उपरांत अब महापौर और अध्यक्ष को सीधे जनता चुनेगी। इस तरह  के लिए चुनाव कराए जाएंगे। राज्य में जयपुर के अतिरिक्त कोटा, जोधपुर, एवं बीकानेर के नगर निगमों के चुनाव होने जा रहे हैं।


कोटा में 60 वार्डों के लिए पार्षदों के पदों के लिए नामांकन भरना परसों आरंभ हुआ था। लेकिन दोनों प्रमुख दलों काँग्रेस और भाजपा द्वारा प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं किए जाने के कारण पहले दिन कोई तीन-चार लोगों ने ही नामांकन दाखिल किया। दूसरे दिन भी सुबह तक प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं हुई इस कारण गति कम ही रही। लेकिन तीसरे और अंतिम दिन तो जैसे ज्वार ही आ गया था। इन तीन दिनों के लिए शहर से स्टेशन जाने वाली मुख्य सड़क पर यातायात पूरी तरह रोक दिया गया था। सारा  यातायात पास वाली दूसरी सहायक सड़क से निकाला जा रहा था। लेकिन आज तो स्थिति यह थी कि उस सड़क को भी दो किलोमीटर पहले के चौराहे से यातायात के लिए बंद कर दिया था। केवल छोटे वाहन जा सकते थे। शेष यातायात एक किलोमीटर दूर तीसरी समांनान्तर सड़क से निकाला जा रहा था। वैसे इस मार्ग के लिए नगर में चौथी कोई सड़क उपलब्ध भी नहीं है।
 भीड़-भाड़ वाले माहौल को देख कर मैं एक बजे घर से रवाना हुआ था। लेकिन मुझे तीन चौराहों पर रोका गया और यह जानने के बाद ही कि मैं वकील हूँ और अदालत जाना चाहता हूँ मेरे वाहन को उस ओर जाने दिया गया। अदालत पहुँचा तो वहाँ चारों ओर कान के पर्दे फाड़ देने की क्षमता रखने वाले ढोल बज रहे थे। हर ढोल के साथ माला पहने कोई न कोई प्रत्याशी या तो पर्चा दाखिल करने जा रहा था या भर कर वापस लौट रहा था। रौनक थी, भीड़ थी और शोर था। इस बार नगर निकायों के चुनाव में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण मिला है इस कारण से तीस पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित हैं ही, कोटा में तो महापौर का पद भी महिला करे लिए आवश्यक है। इस तरह चुनी जाने वाला नगर निगम महिला बहुमत वाला होगा जिस में 31 महिलाएँ और 30 पुरुष होंगे। महिलाएँ तो अनारक्षित वार्डों से भी चुनाव लड़ सकती हैं। ऐसे में यह भी हो सकता है कि महिलाओं की संख्या और भी अधिक और पुरुष और भी कम हो जाएँ। हालांकि यह हो पाना अभी संभव नहीं है।
पर्चा दाखिल करने आई प्रत्येक महिला के साथ कम से कम पन्द्रह बीस महिलाएँ जरूर थीं। जिन में घरेलू महिलाओं की संख्या दो तिहाई से अधिक ही दिखाई दी। वे समूह में इकट्ठा चल रही थीं और पुरुषों की तरह भीड़ नहीं दिखाई दे रही थीं। वे अनुशासित लगती थीं। लगता था किसी समारोह के जलूस की तरह हों। जैसे विवाह में वे बासन लेने या माता पूजने के लिए समूह में निकलती हैं। महिलाएँ कम ही इस तरह सार्वजनिक स्थानो पर आती जाती हैं। लेकिन जब भी जाती हैं वे सुसज्जित अवश्य होती हैं। इन की उपस्थिति ने अदालत परिसर और कलेक्ट्रेट परिसर के बीच की चौड़ी सडक को रंगों से भर दिया था। तीन बजे बाद पर्चा दाखिल होने का समय समाप्त होने के बाद रौनक कम होती चली गई। चार बजते बजते तो वहाँ वही लोग रह गए जो रोज रहा करते हैं।

दोनों ही दलों के प्रत्याशियों की घोषणा से जहाँ कुछ लोगों को प्रसन्नता हुई थी वहीँ बहुत से लोग नाराज भी थे कि जम कर गुटबाजी हुई है। भाजपा में अधिक असंतोष नजर आया। भाजपा का नगर कार्यालय उस रोष का शिकार भी हुआ। वहाँ कुछ नाराज लोग ताला तोड़ कर घुस गए और सामान तोड़ फोड़ दिए जिन में टीवी, पंखे आदि भी सम्मिलित हैं। आज शाम को जब मैं दूध लेने बाजार गया तो पता लगा कि भाजपा के असंतुष्ट गुटों ने साठों वार्डों में अपने समानान्तर प्रत्याशी खड़े कर दिए हैं। अब नगर पन्द्रह दिनों के लिए चुनाव उत्सव के हवाले है। इन पन्द्रह दिनों में बहुत दाव-पेंच सामने आएँगे। आप को रूबरू कराता रहूँगा।