@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Birthday
Birthday लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Birthday लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

शिवराम को एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि !!!

नाटककार, रंगकर्मी, कवि, आलोचक, साहित्यकार, ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता, शीर्ष राजनैतिक नेता शिवराम के व्यक्तित्व के अनेक आयाम थे। लेकिन उन के सभी कामों का एक ही उद्देश्य था। जनता को सचेतन करना, शिक्षित करना और संगठित होने के लिए प्रेरित करना और संगठित होने में उन की मदद करना। उन की राय में श्रमजीवी जनता की मुक्ति का यही एक मार्ग था। उन के इस बहुआयामी व्यक्तित्व में रंगकर्म सब से पहले आता था। इसी से उन्हों ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का सफर आरंभ किया था और अंतिम दिनों तक वे इस से जुड़े रहे। पिछली पहली अक्तूबर को उन्हों ने हम से सदा सर्वदा के लिए विदा ली है। तीन माह भी नहीं गुजरे हैं कि 23 दिसंबर 2010 को उन का बासठवाँ जन्मदिन आ रहा है। 
शिवराम अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच (अनाम) कोटा के जन्मदाता थे। इस 23 दिसंबर को अनाम अपने जन्मदाता की अनुपस्थिति में उन्हें एक सृजनात्मक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पहली बार उन का जन्मदिन मनाएगा। इस दिन साँयकाल 6.30 बजे एलबर्ट आइंस्टाइन सीनयर सैकण्डरी विद्यालय, वसंत विहार, कोटा के रंगमंच पर, जहाँ शिवराम की उपस्थिति और उन के निर्देशन में अनाम ने पहले भी अनेक नाटकों का मंचन किया है, अनाम शिवराम के सब से उल्लेखनीय और शायद सब से अधिक मंचित नाटक 'जनता पागल हो गई है' और 'घुसपैठिए' का मंचन करने जा रहा है। इस अवसर पर शिवराम की एक शिष्या ऋचा शर्मा उन की कविताओं का सस्वर पाठ करेंगी और उन के पुत्र रविकुमार अपने कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी सजाएंगे। इस अवसर पर नगर के वयोवृद्ध पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी मुख्य अतिथि होंगे तथा गुरूकुल इंजिनियरिंग कॉलेज कोटा के प्राचार्य डॉ. आर.सी. मिश्रा विशिष्ट अतिथि होंगे। शिवराम के रंगकर्म और उन के  अन्य कार्यों के सहयोगी विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा, श्रमजीवी विचार मंच कोटा तथा एलबर्ट आइंस्टाइन सी.सै. विद्यालय, कोटा इस आयोजन में अनाम का सहयोग कर रहे हैं। 

  स आयोजन का निमंत्रण यहाँ प्रस्तुत है। आप सभी से अनुरोध है कि जो भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित हो सकता है वह इस अवसर पर अवश्य उपस्थित हों।

सोमवार, 8 नवंबर 2010

विजिटिंग कार्ड बनाम बर्डे का न्यौता

ह 1990 के साल के मार्च महिने की चौबीस तारीख थी। मैं अदालत से वापस लौटा ही था। अचानक पहले कॉलबेल बजी, फिर लोहे के मेनगेट के बजने की आवाज आई। मैं देखने बाहर की और लपका तो वहाँ पास ही सेना का एक ट्रक खड़ा था। वह उसी से उतरी लगती थी। एक 6-7 वर्ष की एक सुंदर सी लड़की सजी-धजी खड़ी थी। एक महिला ट्रक से नीचे झाँक रही थी। लड़की के हाथ में मेरा विजिटिंग कार्ड था। तभी ट्रक से एक फौजी अफसर उतरा।पूछने लगा वकील दिनेशराय द्विवेदी का मकान यही है? मैं ने हाँ में सिर हिलाया। लड़की पूछ रही थी -पूर्वा यहीँ रहती है? फौजी अफसर ने बताया कि वह लड़की उस की बेटी है, पूर्वा के साथ पढ़ती है, उसे छोड़ कर जा रहे हैं दो घंटे बाद लौटेंगे। तब तक पूर्वा भी बाहर आ कर अपनी सहपाठिन को ले कर घर में जा चुकी थी।
म अंदर लौटे। वह पूर्वा का जन्मदिन था। वह टॉफियाँ ले कर स्कूल गई थी और अपने सहपाठियों को वितरित की थीं। पर जन्मदिन मनाने के लिए इतना पर्याप्त कैसे हो सकता था। सभी सहपाठियों में से दोस्तों को तो किसी तरह अलग करना था। श्वेत आइवरी शीट पर छप कर आए मेरे नए विजिटिंग कार्ड्स में से कुछ वह अपने साथ स्कूल ले गई थी और अपने दोस्तों को दे कर उन्हें घर आने का न्यौता दे चुकी थी। एक दोस्त आ भी चुकी थी और हमें अब खबर हो रही थी। हम ने सोचा था शाम को बाजार जाएंगे पूर्वा के लिए उपहार खरीदेंगे और वहीं किसी रेस्तराँ में शाम का भोजन करेंगे। पर हमारी योजना तो ध्वस्त हो चुकी थी।तुरंत नयी योजना पर काम आरंभ करना था।
मुझे यह पता करने के लिए कि पूर्वा ने कितने मित्रों को आमंत्रित किया था, उस से जिरह करनी पड़ी। पता लगा कि वह करीब आठ-दस कार्ड दे कर आई है। हमारा अनुमान था कि आधे मित्र तो आ ही जाएंगे। पत्नी ने कहा यदि तीन-चार बच्चे ही हुए तो पार्टी का कोई आनंद नहीं रहेगा। मुहल्ले के कुछ बच्चों को और आमंत्रित किया गया। मैं नमकीन, मिठाइयाँ और केक लेने बाजार दौड़ा। वापस लौटा तो ड्राइंग रूम सजाने के लिए  गुब्बारे-शुब्बारे कर आया, एक-दो मददगारों को भी बोल कर आया कि वे जल्दी पहुँचें। उन दिनों आज के शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' तब शायर नहीं हुए थे और फोटोग्राफी का स्टू़डियो चलाते थे, उनसे कहता आया कि उन्हें फोटो लेने आना है।  कुछ देर बाद एक और दंपति अपनी दो बेटियों के साथ नमूदार हुए। ये श्री बोहरा थे, इंजिनियरिंग कॉलेज में गणित के अध्यापक। वे भी अपनी बेटियों को छोड़ कर चले गए।
मरे को सजाया गया, केक काटा गया और पार्टी आरंभ हुई और चलती रही। पहला झटका तब लगा जब फौज की गाड़ी पहली लड़की को लेने आ पहुँची। धीरे-धीरे सब चले गए। बाद में बोहरा परिवार से दोस्ती हुई जो आज तक कायम है और पूरे जीवन रहेगी। इस दोस्ती की नींव तो बच्चों ने रखी थी लेकिन उसे परवान चढ़ाया गृहणियों ने। गृहणियाँ सदैव परिवार की धुरी रही हैं। ऐसी ही दो धुरियों पर परिवारों की दोस्ती कायम हो जाए तो स्थायी बन जाती है।
बोहरा और द्विवेदी दंपति

सोमवार, 6 सितंबर 2010

छप्पन के बचपने का पहला दिन .....

ल का दिन अहम तो था ही। आखिर हम सुबह सवेरे जब पाँच बज कर उनचास मिनट में छह सैकंड शेष थे तब जिन्दगी के पचपन साल पूरे कर छप्पनवें में प्रवेश कर लिया था। हम ने घोषणा भी कर दी थी कि अब फिर से बचपन आरंभ हो रहा है। लेकिन बचपन को बचपन जैसे साथी भी तो मिलते। उन का अभी सर्वथा अभाव है। घर में तो हम दो प्राणी हैं। एक हम खुद और दूसरी हमारी अर्धांगिनी शोभा। हमारा जन्मदिन भले ही सुबह आरंभ छह बजे के करीब आरंभ हुआ हो, पर बधाइयाँ रात बारह के बारह के पहले ही आरंभ हो चुकी थीं। पाबला जी की जय हो। सब से पहले उन का फोन था। बात उन के सुपुत्र गुरुप्रीत से भी हुई। बहुत दूर था पार्टी चाह रहा था। हम ने कहा आ जाओ। उस ने जल्दी ही आने का वायदा किया। वह होता तो बचपन का आनंद मिलता। फिर सुबह बिस्तर से नीचे उतरता उस से पहले ही मोबाइल की घंटी बज उठी। दीपक मशाल थे। पूछ रहे थे कैसे मनाएंगे? मंदिर जाएंगे। हम ने कहा -सोचा नहीं है। पर हमारा घर मंदिर से कम थोड़े ही ना है।
कॉफी पी और आदत के मुताबिक कंप्यूटर संभाला। संदेशों का उत्तर दिया। तभी ताऊ जी का ब्लाग खुल गया। पहेली थी। हम जिद पर आ गए कि आज तो पहेली हमें ही जीतनी है। जन्मदिन का आरंभ इसी से क्यों न हो। हम पहेली का उत्तर तलाशने लगे। उत्तर मिला लेकिन जैसे ही जवाब लिखने लगे बिजली ने कंप्यूटर का बैंड बजा दिया। ठीक साढ़े आठ पर गई थी। नौ बजे तक नहीं लौटी। बिजली वालों से फोन कर के पूछते उस से पहले अखबार देख लेना उचित समझा। अखबार के पाँचवे पृष्ठ पर हमारी बस्ती का नाम उस सूची में शामिल था जिस की बिजली एक बजे तक बंद रहनी थी। अब देखिए, बिजली वालों को भी मेरी बस्ती की बिजली मरम्मत के लिए आज ही का दिन मिला था। तभी फोन आ गया। बेटा वैभव बधाई दे रहा था। अब बिजली नहीं थी। लेकिन मोबाइल और बेसिक दोनों फोन चालू थे। श्रीमती जी ने स्नान कर के स्नानघर हमारे लिए छोड़ दिया था। हम उसी की शरण मे  चले गए।
चपन याद आने लगा। तब तिथि पकड़ कर जन्मदिन मनाया जाता था। रक्षाबंधन के अगले दिन। उस दिन के कुछ मेहमान स्थायी होते थे। सुबह ही स्नान करा दिया जाता था। अम्माँ उस दिन जरूर हल्दी-आटे-चंदन का उबटन लगाती थीं। हमें हल्दी का रंग निकालने के लिए दो बार साबुन लगा कर नहाना होता था, जो हमेशा तकलीफदेह होता था। शायद ही कभी साबुन आँखों में न जाता हो। कल कई सालों के बाद सिर के बचे हुए 20 फीसदी बालों को शैम्पू किया। चांदी से बाल मुलायम हो गए। नहाने के लिए सिर को बचाते हुए इस्तेमाल किया। पर साबुन को भी हमारा बचपन याद आ गया और उस ने आँखों  से छेड़-छाड़ कर दी। बचपन का आरंभ हो चुका था। स्नान कर के बाहर निकला तब तक शोभा जी अपने शंकर जी की पूजा कर चुकी थीं। हम ने भी अपना श्रृंगार किया। शोभा जानती है कि हमारी भूख का स्नान से तगड़ा रिश्ता है। कहने लगी -आप को तो पार्टी में जाना है? पर वहाँ तो देर से भोजन होगा। अभी क्या बनाया जाए। पूर्व संध्या पर उस का भोजन बनाने का मन नहीं था। भूख भी कम ही थी। हम कहीं मिल कर लौटे थे तो घर में घुसने के बाद उस ने कहा था। रास्ते में याद नहीं रहा, वर्ना कचौड़ियाँ लेते आते। मैं ने कहा कचौड़ियाँ ले आता हूँ। उस ने सहमति मे सिर हिला दिया।
मैं
ने बेटे की बाइक निकाली। अभी मैं उस पर असहज होता हूँ। लेकिन एक किलोमीटर ही तो जाना था। कचौड़ियों की दुकान से कचौड़ियाँ लेते लेते बूंदाबांदी आरंभ हो गई। मैं रुका नहीं चलता रहा, भीगने का आनंद लेता हुआ। घर के नजदीक पहुँचा तो शोभा बाहर ही खड़ी थी। उस ने जल्दी से गेट खोल दिया। मैं ने भी भीगने से बचने के लिए बाइक को सीधे ही रैंप पर चढ़ा दिया। मुझे ख्याल नहीं रहा था कि बाइक चौथे गियर में है और रेंप की चढ़ाई नहीं चढ़ सकेगी। आधे रेंप पर चढ़ते ही बोल गई। हाथ क्लच पर चला गया। इंजन का पहिए से रहा सहा रिश्ता भी समाप्त होते ही वह दौड़ पड़ा। बाइक कटी पतंग की तरह पीछे लौटने लगी। ब्रेक लगाया तो फिसल पड़ी। तब तक एक पैर जमीन पर टिक चुका था। पर बाइक को पीछे लौटने से रोकना था। उस कोशिश में हेंडल घूम गया। बाएँ हाथ की कलाई और दायाँ कंधा दोनों मोच खा गए। एक बारगी लगा कि दायें बाजू की हड्डी कंधे में से निकल पड़ेगी। पर तब तक संभल चुका था। वह अपने स्थान पर जमी रह गई। इस में दोनों स्थानों की पेशियों ने अपनी महान भूमिका अदा की। लेकिन बेचारी घायल हो कर गान करने लगीं। बाइक को बंद हालत में ही धकिया कर घर में चढ़ाया गया। 
श्रीमती जी हमारी संगत में हम से भी पक्की होमियोपैथ हो गई हैं। उन्हों ने तुरंत आर्निका-200 की एक खुराक दे डाली। मैं निश्चिंत हो गया कि अब सूजन तो नहीं आएगी। वह आई भी नहीं। थैली में पाँच कचौड़ियाँ थीं। मुझे तो जीमने जाना ही था, दो ही खाईं, तीन शोभा को दीं। उस के खाने का किस्सा शाम तक का तमाम हो चुका था। बिजली एक के बजाए बारह बजे ही चालू हो गई। हमने तुरंत ताऊ पहेली का जवाब दिया। तभी वापस चली गई। हम समझ गए कि बिजली वाले अपनी कारगुजारियों की जाँच कर रहे हैं। एक बजे पड़ौसी जैन साहब ने आवाज लगा दी। चलना नहीं है क्या? एक पड़ौसी इकत्तीस को नौकरी से मुक्त हुए थे, उन की पार्टी में भीतरिया कुंड जाना था। हमने कार निकाली, चार और पडौसियों को ले कर भीतरिया कुंड पहुंच गए। तब तक वहाँ मेहमान कम थे। भोजन तैयार था। भीतरिया कुंड चम्बल के किनारे बना एक पुराना बगीचा है। जहाँ एक प्राचीन शिवमंदिर भी है मंदिर के सामने बारह मासी एक कुंड। पास ही चंबल, यहाँ से नदी पार का थर्मल पावर स्टेशन और बैराज एक साथ दिखाई देते हैं। मुझे दीपक मशाल की बात याद आई। मैं मंदिर की और चल दिया। मेजबान कहने लगे कहाँ चल दिए। मैं ने कहा शंकर जी से मिल आता हूँ। वरना शोभा से शिकायत करेंगे कि बहुत दिनों में बगीचे में आया और उन से मिला भी नहीं। अब सु्प्रीम कोर्ट की शिकायत से कौन न बचना चाहेगा? 
मंदिर के बाहर ही मालिनें बैठी थीं। अब इन का कारोबार मंदिरो पर ही रह गया है। शेष फ्लावर हाउस छीन ले गए। एक जमाने में ये मालिनें बहुत से कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हुआ करती थीं। पर अब फैशन बदल गया है। एक मालिन ने आवाज लगाई -बाबूजी आज ग्यारस है। आँकड़े की माला ले जाओ, पाँच रुपये में। मैं ने एक ले ली और मंदिर में पहुँच गया। शंकर जी को किसी ने नहलाया ही था। पूरी तरह श्रृंगारविहीन थे। मैं ने आँकड़े की माला उन्हें पहना दी। फिर उन के परिजनों की सुध लेने लगा। सब दिखाई दिए। माँ गौरी थीं, गणेश थे, नंदी था, साँप और चंद्र भी थे। पर कार्तिकेय नहीं दिखाई दिए। बहुत तलाशा पर नहीं मिले। जब से वे दक्षिण जा कर सुब्रह्मण्यम हुए हैं, उत्तर वाले उन्हें विस्मृत करने लगे हैं। हरिहर अयप्पा को तो शायद जानते भी नहीं यदि उत्तर में आ कर बस गए मलयालियों ने उन के मंदिर न बनवा दिए होते। वापस लौटा तो कलाई और कांधे की जुगलबंदी आरंभ हो चुकी थी। शोभा ने एक गोली किसी दर्दनिवारक की दी। मैं फिर बिस्तरशरण हो गया। थोड़ी देर बाद ही शोभा ने जगा दिया। दूध लेने चलना है। वहाँ गये तो  महिलाएँ कतार से बैठी थीं, भैस का खालिस दूध लेने के लिए। बराबर बाँट में दूध बस एक किलो मिला। अगले दिन बछारस जो थी। उस दिन गाय का दूध और गेहूँ का उपयोग महिलाओं के लिए वर्जित है। यह संभवतः उन दिनों की स्मृति है जब खेती के लिए गौवत्स निहायत आवश्यक हो उठे थे और उन का वंश बनाए रखने के लिए यह अनुष्ठान आरंभ हुआ होगा। इस की कथा कोई महिला ही कहे तो अच्छा लगेगा। 
खैर! छप्पनवें साल के बचपने ने पहले दिन ही रंगत दिखा दी। इस लिए आज सिर्फ आराम किया गया। हाथों और उंगलियों को भी करने दिया। शोभा सो गई है इसलिए इन्हें तकलीफ देने की हिमाकत की है। डर भी लग रहा है कि उठ गई तो डाँटेगी नहीं तो ताना तो कस ही देगी।
चंबल पार थर्मल प्लांट और दाएं बैराज

उद्यान में मंदिर और चंबल की ओर उतरती सीढ़ियाँ


चतुर्मुखी शिव और बीच में लिंग
शंकर अर्धांगिनी पार्वती

नंदी


सीढ़ियों से दिखाई देती चंबल

गणेश

अनवरत ताजा जल से भरा कुंड

शनिवार, 4 सितंबर 2010

एक पड़ाव यह भी.......

ज उम्र का वही पड़ाव है जिस पर आ कर पिता जी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए थे। सेवानिवृत्ति के अगले दिन से ही सेवानिवृत्ति की आयु तीन वर्ष बढ़ा दी गई थी। पर उन्हें कोई अफसोस नहीं था। वे प्रसन्न  थे कि उन्हें नौकरी से छुटकारा मिल गया है। जितनी उन्हें पेंशन मिली थी और जितना उन्हें ग्रेच्यूटी और भविष्यनिधि से मिली राशि के उपयोग से वे आय कर सकते थे वह उन के वेतन से कुछ ही कम थी। इस में भी नौकरी के स्थान पर किराए के मकान और आने जाने आदि में जो खर्च होता था वह बच गया था। कुल मिला कर उन की आय उतनी ही थी और नौकरी से पीछा छूटा था। वे बहुत प्रसन्न थे। उन पर तीन बेटों को योग्य बनाने और उन के विवाह की जिम्मेदारियाँ शेष थी। वे घर लौटे, लेकिन तब तक मैं घर छो़ड़ चुका था। कोटा आ कर वकालत करने लगा था। उन को घर पर मेरी अनुपस्थिति अवश्य अखरी थी। घर लौट कर उन्हों ने अपने स्वभाव के अनुसार चर्या आरंभ कर दी। सुबह उठना अंधेरे ही स्नानादि से निवृत्त हो मंदिर जा कर छोटे भाई की मदद करना। लौट कर आते कुछ पढ़ने लगते। फिर दस बजे मंदिर जा कर कथा पढ़ना। फिर भोजन और विश्राम। शाम को घूमने निकलना और अपने मित्रों के साथ उठना बैठना शाम घर लौट कर बच्चों की पढ़ाई का ख्याल करना। नगर में अधिकांश वयस्क उन के शिष्य थे। उन्हें पता लगा कि गुरुजी सेवा निवृत्त हो कर घर आ गए हैं तो अपनी बेटियों को ट्यूशन पढ़ाने का आग्रह करने लगे। जल्दी ही सुबह की कथा के पहले और बाद दो कक्षाएँ लड़कियों की लगने लगीं। घर में बेटियों की रौनक होने लगी। शाम के समय उन के पास लोग सलाह के लिए आने लगे। वे यह सब जीवन पर्यंत करते रहे। जिस रात उन्हों ने विदा ली उस से अगली सुबह पढ़ने आई बेटियों को वहीं आ कर पता लगा कि वे विदा ले चुके हैं। 
मेरे पास अपने पेशे से निवृत्ति का अवसर नहीं है। कहते हैं वकील की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वह युवा होता जाता है। पचपन का हो कर मैं अपने को बचपन में लौटा महसूस कर रहा हूँ। जिस के सामने पहाड़ जैसी दुनिया खड़ी होती है, ढेर सारी चुनौतियाँ होती हैं। वह उन से जूझने की तैयारी कर रहा होता है। मेरे लिए अभी अपनी सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों से जूझना शेष है। लगता है अभी जीवन आरंभ ही हुआ है। ठान बैठा हूँ कि जितनी क्षमता होगी काम करता रहूंगा बिना प्रतिफल की आशा के जैसा अब तक किया है। इस विश्वास के साथ कि ऐसे में कभी बचपना हो जाए तो इस पचपन पार को मित्रगण अवश्य क्षमा कर देंगे।
मित्रों के संदेश आरंभ हो चुके हैं। पाबला जी, उन के सुपुत्र गुरुप्रीत फुनिया चुके हैं, हाशमी साहब का बधाई ई-पत्र मिला है, और बहुत दिनों बाद अनिता जी के मेल में सिर्फ बधाई! लगता है कुछ नाराज हैं वे। अब दीदी से मैं तो नाराज हो नहीं सकता, और संदेश आ रहे हैं। मैं बहुत खुश हूँ, वैसा ही जैसा पचास बरस पहले कैमरे वाले चाचा चम्पाराम जी के इस अवसर पर आ कर एक फोटो अपने कैमरे में कैद कर लेने पर खुश होता था। सभी मित्रों को जो बधाई दे चुके हैं, धन्यवाद और उन्हें भी जो देने वाले हैं, अग्रिम धन्यवाद!!!

रविवार, 1 अगस्त 2010

राजा-रानी छू-मंतर, किसान को बनाया नायक मुंशी प्रेमचंद ने

मैं तो कल मुंशी प्रेमचंद जी की जयन्ती नहीं मना पाया। बस उन का आलेख 'महाजनी सभ्यता तलाशता रहा। लेकिन उधर प्रेस क्लब में 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच' ने मुंशी जी का जन्मदिन बेहतरीन रीति से मनाया। इस अवसर पर नगर के सभी जाने माने साहित्यकार और कलाकार एकत्र हुए, जी हाँ वहाँ कुछ ब्लागर भी थे, बस मैं ही नहीं जा सका था। इस अवसर पर "आज की कहानी और प्रेमचंद" विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गई। 
प्रोफेसर राधेश्याम मेहर
रिचर्चा में समवेत विचार यह निकल कर आया कि आज के कथाकारों को केवल परिवेश की अक्कासी ही नहीं अपितु मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों से प्रेरणा ले कर आम-आदमी के जीवन की सचाइयों आत्मसात करते हुए समाज को दिशा प्रदान करने वाली रचनाओं का सृजन करना चाहिए।
कवि ओम नागर
रिचर्चा को प्रारंभ करते हुए नगर के चर्चित कथाकार विजय जोशी ने कहा कि आज की कहानियों में भौतिक विकास तो दिखाई पड़ता है लेकिन आत्मिक विकास नदारद है। कवि ओम नागर ने कहा कि आज के गाँवों की स्थितियाँ प्रेमचंद के गाँव से अधिक त्रासद हैं, लेकिन कहानियों में वे प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो रही हैं। 
डॉ. अनिता वर्मा
वि, व्यंगकार और ब्लागर अतुल चतुर्वेदी ने आधुनिक समय की अनेक कहानियों के उदाहरण देते हुए बताया कि इन कहानियों में बाजारवाद तो है लेकिन मनुष्य की मुक्ति की राह दिखाई नहीं देती है। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र आज भी गाँव-गाँव में जीवन्त हैं। लेकिन आधुनिक कहानियों में अनुभव की वह आँच नहीं दिखाई देती जो प्रेमचंद की कहानियों में थी।  डॉ. अनिता वर्मा ने कहा कि मनुष्य और समाज से प्रेमचंद को गहरा लगाव था, आज का कथाकार उस गहराई को छू भी नहीं पाता है। 
श्याम पोकरा
विशिष्ठ अतिथि श्याम पोकरा ने कहा कि प्रेमचंद ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सभी समाज के कड़वे यथार्थ से उपजी हैं। लेखकों को कृत्रिमता से बचते हुए सहजता के साथ समाज के उत्पीड़ितों की गाथा लिखनी चाहिए।
कथाकार विजय जोशी
 रिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त ने कहा कि प्रेमचंद के पास समाज के प्रति गहरी निष्ठा, त्यागमय जीवन मूल्य, व प्रगतिशील दृष्टि थी। इसी कारण से वे आज तक बड़े लेखक बने हुए हैं। अध्यक्ष मंडल के ही सदस्य प्रोफेसर राधेश्याम मेहर ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्रेमचंद ने कहानियों  के केन्द्रीय पात्रों  राजा-रानी को किसान और मजदूर से प्रतिस्थापित कर दिया। वे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध स्वातंत्र्य चेतना जगाने वाले महत्वपूर्ण और प्रमुख साहित्यकार थे। समारोह के संचालक शिवराम ने इस में अपनी बात जोड़ी कि आज के साहित्यकारों को जन-स्वातंत्र्य की चेतना जगाने के लिए प्रेमचंद की ही तरह काम करने की आवश्यकता है। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।
कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन

ज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। वे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने भारतीय जन जीवन, उस की पीड़ाओं को गहराई से जाना और अभिव्यक्त किया। उन की कृतियाँ हमें उन के काल के उत्तर भारतीय जीवन का दर्शन कराती हैं। 
न का बहुत सा साहित्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। लेकिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख 'महाजनी सभ्यता' अभी तक अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है। मैं ने सोचा था कि उन के इस जन्मदिन पर मैं इसे अंतर्जाल पर चढ़ा दूंगा। लेकिन जब कल तलाशने लगा तो वह आलेख जिस पुस्तक में उपलब्ध था नहीं मिली। मुझे उस पुस्तक के न मिलने का भी बहुत अफसोस हुआ, मैं ने उसे करीब पिछले तीस वर्षों से सहेजा हुआ था। 
मुझे कुछ तलाशते हुए परेशान होते देख पत्नी शोभा ने पूछा -क्या तलाश रहे हो? मैं ने बताया कि कुछ किताबें और पत्रिकाएँ नहीं मिल रही हैं। रद्दी में तो नहीं दे दीं? तब उस ने कहा कि कोई किताब और पत्रिका रद्दी में नहीं दी गई है। हाँ, दीपावली पर सफाई के वक्त कुछ किताबें ऊपर दुछत्ती में जरूर रखी हैं। मैं तुरंत ही दुछत्ती से उन्हें निकालना चाहता था। लेकिन वहाँ पहुँचने का एक मात्र साधन स्टूल टूट कर चढ़ने लायक नहीं रहा है। खैर महाजनी सभ्यता को इस जन्मदिन पर अंतर्जाल पर नहीं चढ़ा पाया हूँ। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक मेरे पल्ले पड़ी इसे अविलंब चढ़ाने का काम करूंगा। प्रेमचंद जी के अगले जन्मदिन का इंतजार किए बिना।