@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: राजनीति
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शनिवार, 12 जून 2010

साँप सालों पहले निकल गया, लकीर अब तक पीट रहे हैं

साँप तो निकल कर जा चुका है, और जिसे मौका लग रहा है वही लकीर पीट रहा है। जब मामले में अदालत का निर्णय आया तो न्यायपालिका को कोसा जा रहा था, साथ ही दंड संहिता की खामियाँ गिनाई जा रही थीं। निश्चित ही न्यायपालिका का इस में कोई दोष नहीं। उस का काम सरकार द्वारा उस के सामने अभियोजन (पुलिस) द्वारा लाए गए सबूतों और कानून के अनुसार आरोप विरचित करना, मुकदमे की सुनवाई करना और सबूतों के अनुसार दोषी पाए जाने पर अपराधियों को देश के दंड कानून के मुताबिक निर्णय और दंड प्रदान करना है। निश्चित ही न्यायालय ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। उस के माथे पर केवल एक कलंक मंढ़ा जा सकता है कि उस ने फैसला करने में 23 साल क्यों लगाए? इस के लिए भी न्यायालय या न्यायपालिका को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह सर्वविदित तथ्य है कि देश में आवश्यकता के चौथाई अधीनस्थ न्यायालय भी नहीं हैं। जिस मामले में 25000 लोगों की मौत हुई हो और उन से कई गुना अधिक बीमार हुए हों, जिस से देश भर की जनता की संवेदनाएँ जुड़ी हों उस मामले में  एक विशेष अदालत का गठन किया जा सकता था, जो केवल इसी मुकदमे की सुनवाई करती। केवल और केवल एक वर्ष में यह निर्णय हासिल किया जा सकता था। इसी तरह एक दो वर्ष में अपील आदि की प्रक्रिया पूर्ण कर दोषियों को दंड दिया जा सकता था। पर लगता है कि सरकार की नीयत ही ठीक नहीं थी। शायद वह चाहती थी कि मामले को जितना हो सके लंबा किया जाए। इतने महत्वपूर्ण मामले को देश में चल रहे लाखों सामान्य फौजदारी मुकदमों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। यदि कोई पत्रकार चाहे तो इस मुकदमे के प्रारंभ से ले कर अभी तक की सभी पेशियों की आदेशिकाओं की नकल प्राप्त कर दुनिया को बता सकता है कि 25000 हजार मौतों के लिए जिम्मेदार अभियुक्तों के विरुद्ध मुकदमा किस साधारण तरीके चलाया गया था। 
स फैसले ने साबित किया है कि हमारे देश की संसद और विधानसभाएँ, देश की जनता की सुरक्षा के लिए कितनी चिंतित हैं? उन की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून इतने खोखले हैं कि किसी को इस बात का भय ही नहीं है कि वे उन सुरक्षा नियमों की पालना करें। लेकिन वे क्यों बनाएँ ऐसे कानून जो किसी उद्योगपति को मुनाफा कमाने में रोड़ा पैदा करते हों? आखिर वे ही तो हैं जो सांसदों और विधायकों को चुने जाने के लिए धन उपलब्ध कराते हैं। पूरे पाँच वर्षों तक उन्हें हथेलियों पर बिठाते हैं। फिर क्यों न सांसद और विधायक उन की रक्षा करें। जनता का क्या उस के पास पाँच बरस में एक वोट की ताकत भर है। जिसे किसी भी तरह खरीदा जा सकता है। अब तो उस की भी उतनी जरूरत नहीं है। हालात यह हैं कि किसी पार्टी का उम्मीदवार विधायक बने उन का तो चाकर ही होगा न? यही है हमारे जनतंत्र की हकीकत। यही है हमारा जनतंत्र। देशी-विदेशी पूंजीपतियों और भूपतियों का चाकर। 
क्या था एंडरसन? एक अमरीकन कंपनी का सीईओ ही न। कहते हैं तीस से अधिक कमियाँ पायी गई थी भोपाल युनियन कार्बाइड कारखाने में जो जनहानि के लिए जिम्मेदार हो सकती थीं, इन सब की सूचना एंडरसन साहब को थी। यही कमियाँ इसी कंपनी के अमरीका स्थित कारखाने में भी थीं। अमरीका स्थित कारखाने की कमियों को दूर किया गया लेकिन भारत स्थित कारखाने पर इन कमियों को दूर करने की कोशिश तक नहीं की गई। करे भी क्यों। भारतीय जनता अमरीकी थोड़े ही है, आखिर उस की कीमत ही क्या है? दुर्घटना के बाद एंडरसन भारत आया पकड़ा गया, उसी दिन उस की जमानत भी हो गई और फिर ....... राज्य सरकार के विमान में मेहमान बन कर दिल्ली पहुँचा और वहाँ से अमरीका पहुँच गया। अमरीका ने उसे मुकदमे का सामना करने के लिए भारत भेजने से इनकार कर दिया। अमरीका इनकार क्यों न करे? आखिर एंडरसन का कसूर ही क्या था? 
मरीका की सरकार में इतनी ताकत थी कि उस ने एंडरसन से कारखाने की कमियों को दूर करवा लिया। लेकिन हमारे देश की सरकार और व्यवस्था में इतनी ताकत कहाँ कि वह एंडरसन से यह सब करा सकता। और करा लेता तो शायद 25000 जानें नहीं जातीं और हजारों आजीवन बीमारी से लड़ने को अभिशप्त न होते। यदि एंडरसन रत्ती भर भी जिम्मेदार है तो हमारी सरकारें सेर भर की दोषी हैं, भोपाल हादसे के लिए। 
आज कांग्रेस पर उंगलियाँ उठ रही हैं, उठनी भी चाहिए, वह इस के दोष से नहीं बच सकती। लेकिन उस के बाद की सरकारें और मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। दो बार से मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। उस ने क्या किया इस मुकदमे में जल्दी निर्णय कराने के लिए? क्यों नहीं वह एक विशेष अदालत इस काम के लिए गठित कर सकती थी। उस ने क्या किया एंडरसन को भारत लाने के लिए। एंडरसन के लिए अदालत ने स्थाई वारंट जारी किया था। मध्यप्रदेश सरकार ने एंडरसन को ला कर अदालत के सामने पेश करने के क्या प्रयास किए? 
म यूँ लकीर पीटते रहे तो कभी जान नहीं सकते कि हमारे उन 25000  भाई-बहनों की मौत और हजारों को जीवन भर बीमार कर देने के लिए कौन जिम्मेदार था। हमें जान लेना चाहिए कि वास्तविक अपराधी कौन है। वास्तविक अपराधी हमारी यह व्यवस्था है जो जनता की सुरक्षा की परवाह नहीं करती। वह उन लोगों की  चिंता करती है जो पूंजी के सहारे जनता की बदहाली और जानों की कीमत पर मुनाफा कूटते हैं, वे चाहे देशी लोग हों या विदेशी। यह व्यवस्था उन की चाकर है। हमें वह व्यवस्था चाहिए जो जनता की परवाह करे, और इन मुनाफाखोरों और उस में अपना हिस्सा प्राप्त करने वाले लोगों पर नियंत्रित रखे।

गुरुवार, 10 जून 2010

श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

ज भास्कर में श्रवण गर्ग की विशेष टिप्पणी  "डर त्रासदी का नहीं भरोसा उठ जाने का है", मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। आप इस टिप्पणी को उस के शीर्षक पर चटका लगा कर पूरा पढ़ सकते हैं। यहाँ उस का अंतिम चरण प्रस्तुत है--

हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एंडरसन को भोपाल छोड़ने के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।
मुझे लगता है कि श्रवण जी ने अपनी बात कहने में बहुत कंजूसी बरती है। क्या इतने सारे तथ्य जनता के सामने आ जाने पर भी भरोसा कायम रह सकता है?  जनता का भरोसा तो बहुत पहले ही उठ चुका है। वह जानती है कि सरकारें उन की रत्ती भर भी परवाह नहीं करती हैं। जब भी बड़े पूंजीपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहीं उद्योग लगाती हैं तो वे केन्द्र और राज्य सरकारों से पहले अपनी शर्तें तय कर लेती हैं। सरकारें ये सब शर्तें इसलिए मानती हैं कि उन्हें चुनाव के पहले अपने इलाके के लोगों को एक तोहफा देना है। जिस से जनता में भ्रम रहे कि उद्योग लगेगा तो क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों को रोजगार मिलेंगे, उन पर आधारित धंधों में वृद्धि होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार तरक्की और रोजगार के आभासी पैकिंग में जनता को मौत और वर्षों की बीमारी बांट रही होती है। भोपाल हादसे के प्याज की जिस तरह परत दर परत खुलती जा रही है, देखने वालों की आँखें उसी तरह लाल होती जा रही हैं, कुछ अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्मों को देख कर और कुछ क्रोध से। बदबू फैल रही है, इतनी की नाक खुली रखना संभव नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस के सिवा दूसरे दलों के नेता खुश हैं कि हादसे के वक्त राज्य या केंद्र में उन की सरकार नहीं थी। वे इस की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के मत्थे मढ़ देना चाहते हैं। कुछ गली कूचे के राजनीति करने वाले विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि, और दो कांग्रेस को वोट, देख लिया उस का नतीजा। पर क्या केवल कांग्रेस ही इस के लिए जिम्मेदार है। क्या विपक्षी दलों का यह दायित्व नहीं था क्या कि वे शासन में बैठी कांग्रेस पर ठीक से निगरानी रखते। एक जिम्मेदार विपक्ष के होते ऐसा कदापि नहीं हो सकता था कि एक हजारों जानों के लिए घातक कारखाना सुरक्षा इंतजामों की परवाह किए बिना एक प्रदेश के राजधानी क्षेत्र के मध्य चल रहा था। हो सकता हो कि विपक्षी राजनेता इस से अनभिज्ञ रहे हों। लेकिन जब उसी शहर का एक सजग पत्रकार राजकुमार केसरवानी चाहे छोटे अखबारों में ही सही कारखाने की सचाई उजागर कर रहा था तो विपक्ष चुप क्यों बैठा था? उस ने आवाज क्यों नहीं उठाई। विपक्ष में इतना दम था कि वह सरकार को मजबूर कर सकता था कि कारखाने को सुरक्षा इंतजामत कर लेने तक बंद कर दिया जाए। बाद में जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय अखबार में भी वे रिपोर्टें छपीं लेकिन किसी पर उस का असर नहीं हुआ। वे रिपोर्टें तो केवल हादसे का इंतजार कर रही थीं। 
विपक्षी राजनैतिक दलों का यह चरित्र यूँ ही नहीं बन गया है। वास्तविकता यह है कि चाहे सरकार में बैठा दल हो या फिर विपक्ष में बैठे राजनेता। सभी जानते हैं कि सरकार तक पहुँचने के लिए यूनियन कार्बाइड के मालिकों जैसे उद्योगपति ही उन्हें सत्ता में पहुँचा सकते हैं। जनता के वोट का क्या उसे तो खरीदा जा सकता है जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता उन्हें बहकाया जा सकता है। यही हमारे लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। हम रोज देख रहे हैं कि नरेगा में पैसा आ रहा है। फर्जी मस्टररोलों के माध्यम से सरपंच उसे हड़प रहे हैं। पकड़े भी जा रहे हैं। उन में केवल सत्ताधारी दल के ही लोग नहीं हैं विपक्षी दलों के भी हैं और विपक्षी दलों के नेतृत्व उन्हें बचा रहे हैं। विपक्षी जानते हैं कि देश में निजि क्षेत्र के शायद ही किसी उद्योग में सुरक्षा इंतजामात पूरी तरह सही हैं। लेकिन किसी की सरकार हो उन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती। जब कारखाने के मजदूर या क्षेत्र की जनता आवाज उठाती है तो उन की आवाजों को दबा दिया जाता है। 1983 में छंटनी हुए कारखाना मजदूरों के मामलों में मजदूर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ कर जीत चुके हैं। अंतिम फैसला हुए आठ बरस हो चुके हैं। लेकिन उद्योगपति इस बीच अपना कारोबार समेट कर कंपनी को घाटे की दिखा कर उन के हक देने को मना कर रहे हैं और कंपनी के बची खुची संपत्ति को ठिकाने लगा कर उस से अपनी जेबें गरम करने में लगे हैं। इस की खबर विपक्षी को है। विपक्ष की सरकार रही है बीच में पाँच साल पर उस ने इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया। अब वह विपक्ष में है तो आवाज उठा रही है। जो आज सरकार में हैं वे पहले विपक्ष में थे तो वे आवाज उठा रहे थे। ये सरकार भोग रहे थे।  
तने पर भी जनता भरोसा करे तो किस पर करे? कोई तो दूध का धुला नहीं दिखाई देता है। वह असमंजस में है उस व्यक्ति की तरह जो किसी के भरोसे परदेस में आ गया है और वही उसे छोड़ कर गायब हो गया है। श्रवण जी!  भरोसा तो उठ चुका है, और किसी एक सरकार या राजनैतिक दल पर से नहीं। अब समूची व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है। आप को दिखाई नहीं देता, तो देख लें किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं, आदिवासी  नक्सलियों के साथ हथियार बंद हो, एक दल को नहीं समूचे मौजूदा भारतीय राज्य को चुनौती दे रहे हैं। यह भरोसे का उठ जाना नहीं तो क्या है?
वाल उठता है कि जब राजनीति में कीचड़ के सिवा कुछ न बचे तो कपड़े कैसे बचाएँ जाएँ, दलदल से कैसे बचा जाए?  मौजूदा राजनीति से कुछ निकलेगा यह संभव भी नहीं लगता। हमें राजनीति को परखते परखते साठ बरस होने को आए। हर बार भरोसा किया जाता है और हर बार भरोसा टूटता है। अब तो जनता के पास सिर्फ और सिर्फ अपना भरोसा शेष रहा है, उसे ही अपने भरोसे कुछ करना होगा। व्यवसायों के स्थान पर और मुहल्ला मुहल्ला अपने जनतांत्रिक संगठन खड़े करने होंगे। दगाबाज नेताओं को ठुकरा कर अपने नेता खुद खड़े करने होंगे। मौजूदा व्यवस्था से एक लंबी लड़ाई की शुरूआत करनी होगी। जनतांत्रिक संगठनों की लड़ाई ही इस कीचड़ में से हीरे निकाल कर वापस ला सकती है।
2. ब्लागवाणी पंसद लगाया या न लगाया?

शनिवार, 5 जून 2010

मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें उस के विचारों को संचालित करती हैं।

विगत आलेख जनता तय करेगी कि कौन सा मार्ग उसे मंजिल तक पहुँचाएगा पर आई टिप्पणियों ने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं, और मैं महसूस करता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर बात किया जाना चाहिए।  लेकिन पहले बात उन टिप्पणियों की जो विभिन्न ब्लागों पर की गईँ। लेकिन अपने सोच के आधार वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती हैं और बहुत मूल्यवान हैं। मैं 'समय' के ब्लाग "समय के साये में" की बात कर रहा हूँ। उन्हों ने दूसरे ब्लागों पर की गई कतिपय टिप्पणियों को अपने ब्लाग पर एकत्र कर एक नई पोस्ट लिखी है  - "टिप्पणियों के अंशों से दिमाग़ को कुछ ख़ुराक - ४" आप चाहें तो वहाँ जा कर इन्हें पढ़ सकते हैं। वास्तव में दिमाग को कुछ न कुछ खुराक अवश्य ही प्राप्त होगी। 

डॉ. अरविंद मिश्र की टिप्पणी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए, उन की टिप्पणी इस प्रकार है-

 Arvind Mishra,  4 June 2010 6:11 AM
मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं ,दूसरे मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है (मैंने कुछ कुछ समय स्टाईल के शब्द लिए हैं आशा है आप तो समझ ही लेगें )
न की टिप्पणी की पहली पंक्ति ही इस प्रकार है -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
स का अली भाई ने उत्तर देने का प्रयास करते हुए अपनी टिप्पणी में कहा -    किसी भी 'वाद' ( दर्शन ) बोले तो? धर्म वाद पे तो चल ही रहे हैं हजारों सालों से :)
ली भाई ने वाद को पहले दर्शन और फिर धर्म से जोड़ा है। अब यह तो डॉ. अरविंद जी ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं कि उन का वाद शब्द का तात्पर्य क्या था। लेकिन वाद शब्द का जिस तरह व्यापक उपयोग देखने को मिलता है उस का सीधा संबंध दर्शन और धर्म से है। दर्शन इस जगत और उस के व्यवहार को समझने का तार्किक और श्रंखलाबद्ध दृष्टिकोण है। हम उस के माध्यम से जगत को समझते हैं कि वह कैसे चलता है। उस की अब तक की ज्ञात यात्रा क्या रही है? क्या नियम और शक्तियाँ हैं जो उस की यात्रा को संचालित करती हैं? इन सब के आधार पर जगत के बारे में व्यक्ति की समझ विकसित होती है जो उस की जीवन शैली को प्रभावित करती है। धर्म का आधार निश्चित रूप से एक दर्शन है जो एक विशिष्ठ जीवन शैली उत्पन्न करता है। लेकिन व्यक्ति की अपनी स्वयं की समझ विकसित हो उस के पहले ही, ठीक उस के जन्म के साथ ही उस का संबंध एक जीवन शैली से स्थापित होने लगता है जो उस के परिवेश की जीवन शैली है। उसी जीवन शैली से वह अपनी प्रारंभिक समझ विकसित करता है। लेकिन एक अवस्था ऐसी भी उत्पन्न होती है जब वह अनेक दर्शनों के संपर्क में आता है, जो उसे यह विचारने को विवश करते हैं कि वह अपने परिवेश प्राप्त समझ में परिवर्तन लाए और उसे विकसित करे। यह विकसित होने वाली जीवन शैली पुनः व्यक्ति के विचारों को प्रभावित करती है। इस तरह जीवन शैली और दर्शन के मध्य एक द्वंदात्मक संबंध मौजूद है।
डॉ. अरविंद मिश्र ने आगे पुनः कहा है - -इसके मेरे विचार से दो प्रमुख कारण हैं -एक तो राजनीतिक सोच से उद्भूत अभियान कालांतर में अपने सोच और उद्येश्यों से भटक जाते हैं। 
पहले उन्हों ने कहा था -मनुष्य किसी भी वाद और प्रायोजित नीतियों पर लम्बे समय नहीं चल सकता।
मेरे विचार में वे दोनों स्थान पर एक ही बात कह रहे हैं। उन्हों ने यहाँ दो प्रकार की नीतियों का उल्लेख उल्लेख किया है, और जिस तरह किया है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि नीतियों के और भी प्रकार हो सकते हैं। उन के बारे में तो डॉ. अरविंद जी ही बता पाएँगे। लेकिन यहाँ जिस वाद शब्द का प्रयोग किया है उस का अर्थ कोई भी विचारधारा हो सकती है जिसे व्यक्तियों के समूहों ने अपनाया हो। वह धर्म भी हो सकता है और राजनैतिक विचारधारा भी। वस्तुतः धार्मिक और राजनैतिक विचारधाराओं में भेद करना कठिन काम है। ये दोनों एक दूसरे से नालबद्ध दिखाई पड़ते हैं। जहाँ तक राजनैतिक सोच और वाद का प्रश्न है ये दोनों एक ही हैं। उन पर आधारित अभियान या उन नीतियों पर चलने में कोई भेद नहीं है। भटकने और लंबे समय तक नहीं चल पाने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता। ये दोनों वाक्य इस बात को उद्घाटित करते हैं कि समय के साथ बदलती दुनिया में पुरानी विचारधारा अनुपयुक्त सिद्ध होती है और व्यक्ति और उन के समूह उस में परिवर्तन या विकास चाहते हैं।
डॉ. अरविंद जी ने यहाँ प्रायोजित शब्द का भी प्रयोग किया है। इस का अर्थ है कि कुछ व्यक्ति या उन के समूह अपने हित के लिए ऐसे अभियानों को प्रायोजित करते हैं। राजनैतिक शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी इस बात को बहुत आसानी से समझता है कि सारी की सारी राजनीति वस्तुतः व्यक्तियों के समूहों के प्रायोजित अभियान ही हैं। प्रश्न सिर्फ उन समूहों के वर्गीकरण का है। कुछ लोग इन समूहों का वर्गीकरण धर्म, भाषा, लिंग आदि के आधार पर करते हैं, हालांकि हमारा संविधान यह कहता है कि इन आधारों पर राज्य किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन यह संविधान की लिखित बात है, पर्दे के पीछे और पर्दे पर यह सब खूब दिखाई देता है। एक दर्शन, विचारधारा और राजनीति वह भी है जो इन समूहों को आर्थिक वर्गों का नाम देती है। समाज में अनेक आर्थिक वर्ग हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति है, अंतराष्ट्रीय और विदेशी पूंजीपति है। जमींदार वर्ग है, औद्योगिक श्रमिक वर्ग है, एक सफेदपोश कार्मिकों का वर्ग है। किसानों में पूंजीवादी किसान है, साधारण किसान है और कृषि मजदूर हैं।  भिन्न भिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पृथक-पृथक राजनीति भी है। सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक विचारधारा या दल नहीं हो सकता। क्यों कि विभिन्न वर्गों के स्वार्थ एक दूसरे के विपरीत हैं। स्वयं को सारी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सब के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल वस्तुतः मिथ्या भाषण करते हैं, और जनता के साथ धोखा करते हैं। वे वास्तव में किसी एक वर्ग या वर्गों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि जनता उन के झूठ को नहीं पहचानती है। इस झूठ का उद्घाटन भी व्यक्तियों को अपने विचार में परिवर्तन करने के लिए प्रभावित करता है।
डॉ. अरविंद जी ने आगे जो बात कही है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं - मनुष्य अपने जैवीय वृत्तिओं का ही दास होता है और वह अपना भला बुरा एक सहज बोध के जरिये भी समझ लेता है -जब तक उसकी मूलभूत जरूरतें किसी विचार पथ पर संपूरित होती रहती हैं वह उस पर रहता है और जैसे ही उसे लगता है की उसकी मूलभूत जैवीय जरूरतें पूरी होने में बाधाएं आ रही हैं वह उस रास्ते को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। 
हाँ, उन से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है। किसी भी मनुष्य की मूलभूत जैवीय जरूरतें ही वे मूल चीज हैं जो उस के विचारों और उन पर आधारित अभियानों को संचालित करती हैं। लेकिन अभियान एक व्यक्ति का तो नहीं होता। वास्तव में एक आर्थिक वर्ग के सदस्यों की ये मूलभूत जैवीय जरूरतें एक जैसी होती हैं जो उन में विचारों की समानता उत्पन्न करती हैं, एक दर्शन और एक राजनैतिक अभियान को जन्म देती हैं। इस तरह हम पाते हैं कि समूची राजनीति का आधार वर्ग  हैं, उस का चरित्र वर्गीय है। जब तक समाज में शासक वर्ग ही अल्पसंख्यक शोषक वर्गों से निर्मित है वह शोषण को बरकरार रखने के लिए उस का औचित्य सिद्ध करने वाली विचारधारा को प्रायोजित करता है। उस का यह छद्म अधिक दिनों तक नहीं टिकता और उसे अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए विचारधारा के विभिन्न रूप उत्पन्न करने होते हैं।
डॉ अरविंद जी की टिप्पणी पर बात इतनी लंबी हो गई है कि शेष मित्रों की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर बात फिर कभी।

रविवार, 10 जनवरी 2010

राजनीति और कूटनीति के सबक सीखती जनता

सुबह ग्यारह बजे कोर्ट परिसर के टाइपिस्टों की यूनियन के चुनाव थे। मुझे चुनाव में सहयोग करने के लिए ग्यारह बजे तक क्षार बाग पहुँच जाना था। लेकिन कई दिनों से टेलीफोन में हमिंग आ रही थी। दो दिनों से शाम से ही वह इतनी बढ़ जाती थी कि बात करना मुश्किल हो जाता था।  इसी लाइन पर ब्रॉडबैंड के पैरेलल एक टेलीफोन और था। जिस का उपयोग करने पर ब्रॉडबैंड का बाजा बज जाता था जो आसानी से बंद नहीं होता था। कल रात ही मैं ने शिकायत दर्ज करवा दी थी। सुबह साढ़े दस बजे जब क्षारबाग जाने के लिए निकलने वाला था तो टेलीफोन विभाग वालों का फोन आ गया। मैं ने यूनियन से अनुमति ली कि यदि मैं देरी से आऊँ तो चलेगा? उन्हों ने अनुमति दे दी। मैं ने दस वर्ष पहले मकान में बिछाई गई छिपी हुई लाइन का मोह छोड़ अपनी टेलीफोन लाइन टेलीफोन तक सीधी खुली प्रकार की लगवा दी और दोनों फोन उपकरण ब्रॉडबैंड के फिल्टर के बाद लगवा दिए।  दोनों उपकरण काम करने लगे। टेलीफोन को चैक किया तो हमिंग नहीं थी। मैं क्षार बाग चल दिया।

हाँ मत डालने का काम आरंभ हो चुका था। तीन बजे तक मत डालने का समय था। इस बीच आमोद-प्रमोद चलता रहा। पकौड़ियाँ बनवा कर खाई गईं। कुल 65 मतदाता थे। ढाई बजे तक सब ने मत डाल दिए। तो मतों की गिनती को तीन बजे तक रोकने का कोई अर्थ नहीं था। हमने मत गिने। तो जगदीश भाई केवल पंद्रह मतों से जीत गए। वे कम से कम पैंतालीस मतों से विजयी होने का विश्वास लिए हुए थे। वे कई वर्षों से अध्यक्ष चले आ रहे हैं। पर परिणाम ने बता दिया था कि परिवर्तन की बयार चल निकली है। 25 और 40 मतों का ध्रुवीकरण अच्छा नहीं था। किसी बात पर मतभेद यूनियन को सर्वसम्मत रीति से चलाने में बाधक हो सकता था। सभी मतदाताओं में राय बनने लगी कि 25 मत प्राप्त करने का भी कोई तो महत्व होना चाहिए। कार्यकारिणी में एक पद वरिष्ठ उपाध्यक्ष का और सृजित किया गया जिस पर सभी 65 मतदाताओं ने स्वीकृति की मुहर लगा दी। मैं चकित था कि अब राजनीति के साथ साधारण लोग भी कूटनीति को समझने लगे हैं।
स घटना ने समझाया कि कैसे किसी संस्था को चलाया जाना चाहिए। इस तरह अल्पमत वाले 25 लोग भी संतुष्ट हो गए थे। जिस से यूनियन के मामलों में सर्वसम्मति बनाने में आसानी होगी। क्षार बाग  किशोर सागर सरोवर की निचली ओर है। इस विशाल बाग के एक कोने में कोटा के पूर्व महाराजाओं की अंतिम शरणस्थली है जहाँ उन की स्मृति में कलात्मक छतरियाँ बनी हैं। यहीं कलादीर्घा और संग्रहालय हैं। इसी में  एक कृत्रिम झील  बनी है जो सदैव पानी से भरी रहती है। हम लोगों का मुकाम इसी झील के इस किनारे पर बने एक मंदिर परिसर में था जो बाग का ही एक भाग है। झील में पैडल बोटस्  थीं, बाग में घूमने वाले लोग उस का आनंद ले रहे थे। झील में 15 बत्तखें तैर रही थीं। कि किनारे पर एक कुत्ता आ खड़ा हुआ बत्तखों को देखने लगा। उसकी नजरों में शायद खोट देख कर सारी बत्तखें किनारे के नजदीक आ कर चिल्लाने लगीं। कुत्ता कुछ ही देर में वहाँ से हट गया। बत्तखें फिर से स्वच्छन्द तैरने लगीं। सभी इन दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि भोजन तैयार हो गया। मैं ने भी सब के साथ भोजन किया और घर लौट आया।

र लौट कर फोन को जाँचा तो वहाँ फिर हमिंग थी और इतनी गहरी कि कुछ भी सुन पाना कठिन था।  साढ़े चार बजे थे। मैं ने टेलीफोन विभाग में संपर्क किया तो पता लगा अभी सहायक अभियंता बैठे हैं। कहने लगे फोन उपकरण बदलना पड़ेगा। यदि संभव हो तो आप आ कर बदल जाएँ। कल रविवार का अवकाश है। मैं पास ही टेलीफोन के दफ्तर गया और कुछ ही समय में बदल कर नया उपकरण ले आया। उसे लाइन पर लगाते ही हमिंग एकदम गायब हो गई। उपकरण को देखा तो  प्रसन्नता हुई कि यह मुक्तहस्त भी  है। अब मैं काम करते हुए भी बिना हाथ को या अपनी गर्दन को कोई तकलीफ दिए टेलीफोन का प्रयोग कर सकता हूँ। शाम को कुछ मुवक्किलों के साथ कुछ वकालती काम निपटा कर रात नौ बजे दूध लेने गया तो ठंडक कल से अधिक महसूस हुई। वापसी पर महसूस किया कि कोहरा जमने लगा है। स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला कि शायद कल लगातार तीसरी सुबह फिर  अच्छा कोहरा देखने को मिलेगा। सुखद बात यह है कि कोहरा दिन के पूर्वार्ध में छट जाता है और शेष पूर्वार्ध में धूप खिली रहती है। जिस में बैठना, लेटना, खेलना और काम करना सुखद लगता है। आज की योजना ऐसी ही है। कल दोपहर के भोजन के बाद छत पर सुहानी धूप में शीत का आनंद लेते हुए काम किया जाए, और कुछ आराम भी।

चित्र  1- किशोर सागर सरोवर में बोटिंग, 2- क्षार बाग की छतरियाँ

शनिवार, 28 नवंबर 2009

वादा पूरा न होने तक प्रमुख की कुर्सी पर नहीं बैठेगी ममता

यात्रा की बात बीच में अधूरी छोड़ इधर राजस्थान में स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम की बात करते हैं। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत से कुछ स्थान कम मिले थे। लेकिन उस कमी को पूरा  कर लिया गया। राजस्थान में कांग्रेस के बाद दूसरी ताकत भाजपा है, लेकिन उस में शीर्ष स्तर से ले कर तृणमूल स्तर तक घमासान छिड़ा है। नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने बढ़त बना ली। अब राजस्थान के आधे स्थानीय निकायों के चुनाव हुए हैं और जो परिणाम  आए हैं उन से कांग्रेस को बल्लियों उछलने का मौका लग गया है। कोटा में पिछले 15 वर्षों से भाजपा का नगर निगम पर एक छत्र कब्जा था। भाजपा चाहती तो इस 15 वर्षों के काल में नगर को एक शानदार उल्लेखनीय नगर में परिवर्तित कर सकती थी। लेकिन नगर निगम में बैठे महापौरों और पार्षदों ने अपने और अपने आकाओं के हितों को साधने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।

स चुनाव की खास बात यह थी कि आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित थे। लेकिन कोटा के मामले में कुछ ऐसा हुआ कि 60 में से 29 महिलाओं के लिए आरक्षित हो सके और 31 पुरुषों के पास रह गए। महापौर का स्थान महिला के लिए आरक्षित था। चुनाव जीतने की पहला नियम होता है कि आप पार्टी का उम्मीदवार ऐसा चुनें जिस से घरेलू घमासान पर रोक लगे। इस बार कांग्रेस ने यहीं बाजी मार ली। वह नगर की एक प्रमुख गैर राजनैतिक महिला चिकित्सक को महापौर का चुनाव लड़ने के लिए मैदान में लाई जिस पर किसी को असहमति  नहीं हो सकती थी। अधिक से अधिक यह हो सकता था कि जिन नेताओं के मन में लड्डू फूट रहे होंगे वे रुक गए। उम्मीदवार उत्तम थी, जनता को भी पसंद आ गई।


भाजपा यह काम नहीं कर पाई। उस ने एक पुरानी कार्यकर्ता को मैदान में उतारा तो पार्टी के आधे दिग्गज घर बैठ गए चुनाव मैदान में प्रचार के लिए नहीं निकले। वैसे निकल भी लेते तो परिणाम पर अधिक प्रभाव नहीं डाल सकते थे। कांग्रेस की डॉ. रत्ना जैन  321 कम पचास हजार मतों से जीत गई। पार्षदों के मामले में भी यही हुआ। भाजपाइयों ने आपस में तलवारें भांजने का शानदार प्रदर्शन किया और 60 में से 9 पार्षद जिता लाए, कांग्रेस ने 43 स्थानों पर कब्जा किया बाकी स्थान निर्दलियों के लिए खेत रहे। जीते हुए पार्षदों में एक सामान्य स्थान से महिला ने चुनाव लड़ा और जीत गई। इस तरह 30-30 महिला पुरुष पार्षद हो गए। अब निगम में महापौर सहित 31 महिलाएँ और 30 पुरुष हैं। कहते हैं महिलाओं घर संभालने में महारत हासिल होती है। देखते हैं ये महिलाएँ किस तरह अगले पाँच बरस तक अपने नगर-घऱ को संभालती हैं।

कोटा, जयपुर, जोधपुर और बीकानेर चार नगर निगमों के चुनाव हुए।  चारों में मेयर का पद कांग्रेस ने हथिया लिया है। यह दूसरी बात है कि जयपुर में भाजपा के 46 पार्षद कांग्रेस के 26 पार्षदों के मुकाबले जीत कर आए हैं। एक वर्ष बाद मेयर के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव लाने का अधिकार है। देखते हैं साल भर बाद जयपुर की मेयर किस तरह अपना पद बचा सकेगी। यदि अविश्वास प्रस्ताव पारित होता है तो चुनाव तो फिर से जनता ने सीधे मत डाल कर करना है, वह क्या करती है।  कुल 46 निकायों में 29 में कांग्रेस, 10 में भाजपा, 6 में  निर्दलीय और एक में बसपा के प्रमुखों ने कब्जा किया है। भाजपा को मिली तगड़ी हार के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी का कहना है कि परिणाम निराशाजनक नहीं हैं। जहाँ कांग्रेस के 716 पार्षद विजयी हुए वहीं भाजपा ने भी अपने 584 पार्षद इन निकायों में पहुँचा दिए हैं। इन निकायों ने एक दार्शनिक का यह कथन एक बार फिर साबित किया कि जब दो फौजे युद्ध करती हैं तो हर फौज के सिपाही आपस में मार-काट करते हैं नतीजा यह होता है कि जिस फौज के सिपाही आपस में कम मारकाट करते हैं वही विजयी होती है।



ब से चौंकाने वाला परिणाम चित्तौड़गढ़ जिले की रावतभाटा नगर पालिका से आया है। जहाँ कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशी पालिका प्रमुख के चुनाव में अपनी लुटिया डुबो बैठे। यहाँ की जनता ने पालिका प्रमुख के पद के लिए एक किन्नर ममता को चुना है।  रावतभाटा नगर में सब से बड़ी समस्या यह है कि यहाँ भूमि स्थानांतरण पर बरसों से रोक है। किसी भी भूमि के क्रयविक्रय का पंजीयन नहीं हो पाता है। यह बात नगर आयोजना और विकास में बाधा बनी हुई है। ममता ने शपथ लेते ही घोषणा कर दी है कि जब तक भूमि स्थानांतरण पर से रोक नहीं हटती वह मेयर की कुर्सी पर नहीं बैठेगी, अलग से कुर्सी लगा कर या स्टूल पर बैठ कर अपना काम निपटाएगी।

सोमवार, 16 नवंबर 2009

किस ने दिया कीचड़ उछालने का अवसर?


चिन तेंदुलकर के ताजा बयान से  निश्चित रूप से शिवसेना  और मनसे  की परेशानी बढ़नी  थी। दोनों ही दलों की  राजनीति जनता  को किसी भी रूप में बाँटने  उन में एक  दूसरे  के प्रति  गुस्सा पैदा कर अपने हित साधने  की  रही है। दोनों दल इस  से कभी बाहर नहीं निकल सके, और न ही कभी निकल पाएँगे। बाल ठाकरे का  सामना में लिखा  गए  आलेख  से सचिन का तो क्या बनना बिगड़ना है? पर उन का यह आकलन तो सही सिद्ध  हो ही गया कि  पिटी हुई शिवसेना को  और ठाकरे को  इस  से मीडिया बाजार में कुछ भाव मिल जाएगा। मीडिया ने  उन्हें यह भाव दे  ही  दिया।  इस बहाने मीडिया काँग्रेस और कुछ अन्य  दलों के जिन जिन नेताओं  को भाव देना चाहती थी उन्हें भी उस का अवसर मिल गया। लेकिन जिन कारणों से तुच्छ  राजनीति करने वाले लोगों को  अपनी राजनीति  करने का अवसर मिलता है, उन पर मीडिया चुप ही रहा।
  
भारत  देश, जिस के पास अपार प्राकृतिक संपदा है, दुनिया के  श्रेष्ठतम  तकनीकी लोग हैं, जन-बल  है, वह अपने इन साधनों के सुनियोजन से दुनिया की किसी भी शक्ति को चुनौती दे सकता  है।  वह पूँजी के लिए दुनिया की तरफ कातर निगाहों से देखता है। क्या देश के अपने साधन दुनिया  की पूँजी का मुकाबला नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं। आजादी के 62 वर्षों के बाद  भी हम अपने लोगों के लिए पर्याप्त  रोजगार उपलब्ध  नहीं करा सके। वस्तुतः हमने इस ओर ईमानदार प्रयास ही नहीं किए। अब पिछले 20-25 वर्षों  से तो हम ने इस काम को पूरी तरह से निजि पूँजी और बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर दिया  है। यदि हमारे कथित राष्ट्रीय दलों ने जो केंद्र की सत्ता  में भागीदारी कर चुके हैं और आंज भी भागीदार  हैं, बेरोजगारी की समस्या को हल करने में अपनी पर्याप्त रुचि दिखाई होती तो देश को बाँटने वाली इस तुच्छ राजनीति का  कभी का पटाक्षेप  हो गया होता। यह देश में  बढ़ती बेरोजगारी  ही है जो देश की जनता को जाति, क्षेत्र, प्रांत,  धर्म  आदि के आधार पर बाँटने का अवसर  प्रदान  करती है।

चिन जैसे व्यक्तित्वों पर कीचड़ उलीचने की जो हिम्मत  ये तुच्छ राजनीतिज्ञ कर पाते हैं उस के लिए काँग्रेस और भाजपा जैसे हमारे कथित  राष्ट्रीय दल अधिक जिम्मेदार  हैं।

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

नूरा कुश्ती!

उद्धव ठाकरे!
भाग्यशाली हैं!

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अनपेक्षित असफलता ने उन्हें बे-काम कर दिया था।
'जमीयत उलेमा ए हिंद' द्वारा वंदेमातरम् को इस्लाम के खुदा के अतिरिक्त किसी की वंदना न करने के सिद्धांत के विपरीत घोषित करने के निर्णय ने उन्हें काम दे दिया है। 

अब महाराष्ट्र में वंदे मातरम् के बोर्ड लगेंगे।

वंदे मातरम् तो मराठी भाषा में नहीं है।

राज ठाकरे कैसे बर्दाश्त कर पाएँगे?

फिर नूरा कुश्ती की तैयारी है,
देखते हैं आगे आगे होता है क्या?