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बुधवार, 21 जनवरी 2009

बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है

"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."  .....



यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है।  यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए।   पूंजी का अपना चरित्र है।  वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती।  पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।

शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है।  अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है।  बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है।  यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता।  वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है।  फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है।  यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।

वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."


"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"

"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."


"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके." 

"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."

अमरीका के 44वें राष्ट्रपति  की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी।  बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

बीस साल बाद? लौट रहा है उस का प्रेत

बीस साल पहले जिसे दफ़्न कर दिया गया था। नगर के बीच की दीवार गिरा दी गई थी और उस के मलबे के ढेर के नीचे उस की कब्र को दबा दिया गया था। कभी न खुल सके उस की कब्र। कोई भूले से भी उसे याद न करे। वह अच्छे बुरे सपनों में भी न आए। लेकिन अब उसी कब्र में प्रेत अब लौट रहा है। दुनिया के मशहूर खबरची रॉयटर ने यही खबर दी है।

बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।

पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।

एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।

पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद  उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।

लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।

खुश खबरी, जेट की छंटनी वापस, लोग चटनी न हुए

अभी अभी खबर मिली है कि जेट एयरवेज की छंटनी प्रबंधकों  ने वापस ले ली है। मेरे लिए इस से अच्छी खबर कोई नहीं हो सकती। मैं ने कोटा के जे.के. सिन्थेटिक्स लि. में 1983 जनवरी में हुई 2400 स्थाई कर्मचारियों की छंटनी और 5000 अन्य लोगों का बेरोजगार होना देखा है। उस छंटनी का अभिशाप कोटा नगर आज तक झेल रहा है। उस के बाद 1997 में जे. के. सिन्थेटिक्स के कोटा और झालावाड़ के सभी कारखानों का बंद होना और आज तक उन का हिसाब कायदे से नहीं देना भी देखा। उन कर्मचारियों और उन के परिवारों में से डेढ़ सैंकड़ा से अधिक को आत्महत्या करते भी देखा है। आज तक वे परिवार नहीं उठ पाए हैं।

जिस समस्या के हल के लिए छंटनी की जा रही थी। छंटनी उसे और तीव्र करती है। मंदी का मूल कारण था मुनाफे का लगातार पूंजीकरण और आम लोगों तक प्रगति का लाभ नहीं पहुँचना। जब आम लोगों तक धन पहुँचेगी ही नहीं तो बाजार में खरीददार आएगा कहाँ से? छंटनी से तो आप आम लोगों तक धन की पहुँच आप और कम कर रहे हैं। सीधा सीधा अर्थ है कि आप बाजार के संकुचन में वृद्धि कर रहे हैं। आग में घी ड़ाल रहे हैं।

इसी को कहते हैं, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। अपनी कब्र खुद अपने हाथों खोद डालना। पूँजीवाद यही करता है और कर रहा है। सदी पहले मंदी का दौर 15-16 वर्ष में आता था। सदी भर में यह 6-8 वर्ष रह गया। अब हालात है कि विश्व एक मंदी से उबर ही रहा होता है कि अगली मंदी की आगाज हो जाता है। सपने अंत तक देखें जाएँ उस के पहले ही टूट रहे हैं।

हम ने मार्क्सवाद और इतिहास के अंत की घोषणाएँ सुनी और उस पर विश्वास भी किया। समाजवाद को दफ्न कर दिया ताकि मनुष्यों को रौंदता पूँजीवाद अमर हो जाए। पर अमृत की तलाश तो सभी को थी। दास-युग, सामंतवाद को भी। वे अमर नहीं हो सके। कोई अमर नहीं है, सिवाय इस दिशा-काल-पदार्थ-ऊर्जा की इस शाश्वत व्यवस्था के। यह पूँजीवाद भी अमर नहीं। सोचना तो पड़ेगा कि मनुष्य समाज आगे किस व्यवस्था में प्रवेश करने वाला है?

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है

समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज  है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह,  न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।

समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ  जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)

इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।

इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र  ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

क्या कहता है गणपति का सिंदूरी रंग और उन की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ?

बात गणपति से आरंभ हुई थी। फिर बीच मैं गौरी आ गईं, और कुछ लोकोत्सव। अब फिर गणपति के पास चलते हैं। आज पांडालों में गणपति प्रतिमाएँ सजी हैं, उन्हें चतुर्दशी तक विदा कर दिया जाएगा। लेकिन गणपति की प्राचीन प्रतिमाएँ मौजूद हैं। उन से पूछें वे क्या कहती हैं? वे अनेक रूप की है और प्रत्येक 2 का अपना अलग नाम है। इन में उन्मत्त उच्चिष्ठ गणपति और नृत्य गणपति, बल गणपति, भक्ति विघ्नेश्वर गणपति, तरुण गणपति, वीर विघ्नेश्वर गणपति, लक्ष्मी गणपति, प्रसन्न गणपति, विघ्नराज गणपति, भुवनेश गणपति, हरिद्र गणपति आदि हैं। इन सब के हाथों में पाश और अंकुश दो आयुध हैं। ये दोनों आयुध हाथी के शिकार और नियंत्रण  के लिए उपयोगी हैं और शिकार युग की स्मृति दिलाते है। दूसरी और उन के हाथों में आम, केला, बेल, जंबू फल, नारियल, गुड़ की भेली, अनार, कमल, कल्प लता और धान की बाली आदि देखते हैं।

इस से ऐसा प्रतीत होता है कि एक शिकार और पशुपालन से संबद्ध देवता अब कृषि से संबंध स्थापित कर रहा है। इस में भी अनार एक ऐसा फल है जिस का संबंध रक्त के रंग से है और जो स्त्रियों से भी संबद्ध है। ऐसा लगता है कि एक पुरुष देवता गणपति स्त्रियों के मामले में उलझ रहा है। "शंकर विजय" ग्रंथ का लेखक स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि गणपति के  अनुयायियों के धार्मिक अनुष्ठानों में मासिक धर्म के रक्त की भूमिका निर्णायक थी। गणपति के साथ विभिन्न रूप से संबंध रखने वाला लाल रंग इसी का प्रतीक था। यदि इस रंग का 503035784_62f9d94b03 असली महत्व यही था, तो एक पुरुष देवता का लाल रंग से अभिषेक करना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। लेकिन इस का एक अर्थ यह हो सकता है कि वह स्त्रियों का आश्रय ले रहा था।  यहाँ तक कि गणेश की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ भी बनाई गई। यहाँ उड़ीसा की एक प्रतिमा का चित्र प्रदर्शित है। मैं ने भोपाल में बिरला मंदिर के पास के संग्रहालय में भी ऐसी ही एक प्रतिमा देखी है। गणेश की उत्पत्ति की कथा भी रोचक है, जिस में पुरुष का कोई योगदान नहीं है। गणपति को विभिन्न तरीकों से रक्त के रंग से सम्बद्ध किया गया है। मंत्र महार्णव ग्रंथ कहता है गणपति की प्रतिमा का रंग रक्त के रंग जैसा होना चाहिए। तंत्रसार में हमें सिंदूर जैसे रंग के कपड़े पहने हुए जैसे वाक्य मिलते हैं। सिंदूर गणपति का प्रसाधन है, और गुडहल का फूल उन्हें प्रिय। पूजा में प्रयोग लाए जाने वाले पाँच तरह के पत्थरों में लाल रंग का पत्थर गणपति का है। नर्मदा किनारे गणेश कुंड पर लाल रंग के पत्थर को गणेश प्रस्तर कहा जाता है। इस तरह यह लाल रंग के साथ गणपति का गहरा संबंध स्थापित  है। स्त्री देवताओँ के साथ तो सिंदूर और लाल रंग का संबंध है लेकिन गणपति के साथ लाल रंग का क्या महत्व है?

imagesहमने देखा कि चतुर्थी को गणपति की पूजा के दूसरे दिन ही गौरी ने प्रमुखता हासिल कर ली थी। जिस का  एक अर्थ यह हो सकता है कि गणपति ने गौरी का आश्रय लिया। ऐलोरा की गुफा में गणेश सात माताओं के अधीनस्थ प्रदर्शित हैं। अनेक स्थानों पर शक्ति उन की गोद में बैठी हैं, ये प्रतिमाएँ शक्ति गणेश के नाम से प्रसिद्ध हैं। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि खाद्य सामग्री एकत्र करने का काम स्त्रियों का था। इसलिए कृषि की खोज उन्हीं ने की थी। और वे यह काम तब तक करती रहीं जब तक बैल द्वारा हल चलाने या जुताई की विधि का आविष्कार नहीं हो गया। इस संबंध में जे डी बरनाल, गिलिस, ब्रिफो आदि के संदर्भ देखे जा सकते हैं। इस तरह कृषि की खोज ने स्त्री के महत्व को पुरुष नेतृत्व वाले समाज में स्थापित किया था और शिकार और पशुपालन के युग के पुरुष देवता को इस युग में भी मह्त्वपूर्ण बने रहने के लिए स्त्री प्रतीकों के माध्यम की आवश्यकता थी। कृषि उत्पादन पर आधारित सिंधु सभ्यता के धर्म में देवियों की प्रमुख भूमिका थी। सिन्धु सभ्यता में ही नहीं प्राचीन सभ्यताओं के सभी केन्द्रों में मातृ देवियों की मूर्तियाँ दबी पड़ी हैं। सभी स्थानों पर यह देखने को मिलता है कि सभी सभ्यताओं की संपदा धरती से उपजती थी। इस का संबंध स्त्रियों द्वार कृषि की खोज से ही हो सकता है।

Ganesh Tantraभारत में सिन्धु सभ्यता के अंत के साथ इन ग्राम देवियों का अंत नहीं हुआ।  वे उत्पादकता की जन्मदात्री हैं। आज के सभी ग्राम देवता उन्हीं का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारी जनजातियों में देवी उपासना प्रमुख है। भारतीय किसानों का बहुत बड़ा अंश आज जनजातियों में नहीं रहता लेकिन उन के समाजों में पुरुष  देवताओँ का स्थान गौण है वास्तविक प्रभाव देवियों का ही है। आज भी सवर्ण कही जाने वाली जातियों में आश्विन और चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को परिवार के सभी सदस्य एक स्थान पर एकत्र हो कर देवी पूजा, जिसे कुल देवी या दियाड़ी भी कहते हैं, की पूजा अवश्य ही की जाती है।

Tantraकृषि की खोज मनुष्य के जीवन में एक महान खोज थी। जिस ने मनुष्य को स्थायित्व दिया था, ग्राम सभ्यता और उन की उपज पर आधारित नगर सभ्यता को जन्म दिया था। उसी की स्मृति यह देवी पूजा है, जिस में गणपति देवा ने एक प्रमुख स्थान तो हासिल किया लेकिन देवी प्रतीकों को अपना कर ही। आगे हम कृषि अनुष्ठानों, जादू, टोटकों और तंत्रवाद पर बात करेंगे।

शनिवार, 6 सितंबर 2008

समृद्धि घर ले आई गई।

रोट अनुष्ठान, जिस का विवरण मैं ने पिछले दो आलेखों में किया,  उस में अनेक बातें हो सकती हैं, जो आज के समय के अनुकूल नहीं हों। लेकिन यह अनुष्ठान  मानव इतिहास की, पूर्वजों की एक स्मृति है और मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवनकाल तक तो वह अवश्य ही सुरक्षित रहे। कल पूजा के उपरांत यह प्रार्थना की गई थी कि हमें और हमारे परिवार को समृद्धि प्राप्त हो और जैसा भोजन हमने आज अपने कुल देवता को समर्पित किया वैसा ही हमेशा हमें उपलब्ध होता रहे। भौतिक समृ्द्धि की कामना सदैव से ही मनु्ष्य किसी न किसी रूप में करता रहा है।

आज शोभा ने कहा कि कल भोजन निर्माण से बचा हुआ जल बचा है उसे नदी में डाल कर आना है। हम उन के साथ गए और जल नदी में डाल कर आए। पत्नी ने वहाँ से कुछ मिट्टी उठाई और घर आ कर कुछ पूरे घर में बिखेरी और कुछ तुलसी गमले में डाल दी। जिस का अर्थ है कि अनुष्टान को पूरा कर लिया गया है और मिट्टी के रूप में समृद्धि घर ले आयी गई। पूरे अनुष्ठान का अर्थ था समृद्धि घर लाई गई। इस समृद्धि का आशय मानव समाज के विकास की पशुपालन की विकसित अवस्था में कृषि के आविष्कार से जो अन्न उपजने लगा वह एक संग्रह करने लायक भोजन संपत्ति से था। जो आपदा के समय मनुष्य के काम आती थी। अब खेती ने वर्ष भर संग्रह करने लायक की व्यवस्था कर दी थी और भोजन की रोज-रोज की चिंता से उन्हें मुक्त करना शुरू कर दिया था। जिस गण के पास जितनी मात्रा में संग्रहीत खाद्य पदार्थों की यह संपत्ति होती थी, वही सब से शक्तिशाली गण हो जाता था।

कल के विवरण से आप जान ही गए होंगे कि इस पूरी परंपरा में मेरी और मेरे बेटे की अर्थात् पुरुषों की भूमिका नहीं के बराबर थी। चाहे वह गेहूँ साफ करना हो, उसे पीसना हो, सामान एकत्र करना हो, आटे को तौल कर संकल्प करना हो, रोटों का निर्माण हो, या कोई और अन्य बात सब कुछ स्त्रियों के हाथ था। पूरे अनुष्ठान में हम पुरुषों की आवश्यकता मात्र एक पुरोहित जितनी थी। आटे के तीन हिस्से, जिन में पुरुषों के हिस्से पर किसी का अधिकार नहीं वह भी कुल देवता के नाम पर। हाँ, बेटियों के भाग पर केवल उन का अधिकार कुछ समझ में आता है क्यों कि यदि वे परिवार में होती तो उन का भी इस अनुष्ठान में अन्य स्त्रियों जितना ही योगदान होता। पर परिवार की स्त्रियों/बहुओं का जो हिस्सा है, उस पर उन के साथ पूरा परिवार पलता है, पूरे परिवार का अधिकार है।

इसी तरह के अनुष्ठान देश भर में अलग-अलग रूपों में लगभग सभी परिवारों में प्रचलित हैं, यदि उन्हें तिलांजलि न दे दी गई हो। इसी तरह के एक लोक-अनुष्ठान का और उल्लेख यहाँ करना चाहूँगा। जिस का वर्णन गुप्ते के हवाले से देवीप्रसाद चटोपाध्याय ने किया है।

लेकिन वह अगले आलेख में ... ... ...


ममता जी और अग्रज डॉ. अमर कुमार जी से ...


ममता जी ने रोट की फोटो लगाने के लिए दबे स्वरों में कहा। उन की शिकायत वाजिब है। लेकिन अभी तो वह रोट समाप्त हो चुका। फिर भी यह बात नहीं कि उसे दिखाने की मनाही है। बल्कि इस लिए कि चित्रांकन में मैं ही फिसड्डी हूँ। कैमरा संभालना बस का नहीं। मोबाइल भी साधारण प्रयोग करता हूँ जिस से सिर्फ फोन सुने और किए जा सकेंगे। पर अब लगता है कि ब्लागिंग में बने रहना है तो कैमरा संभालना भी सीखना ही पड़ेगा।

यदि कोई अग्रज यह कहे कि मैं मुहँ देखी बात नहीं करता और कुछ कहूँगा तो आप नाराज हो जाएंगे। एक बार पहले भी हो चुके हैं,  तो इस का मतलब है कि अग्रज को भारी नाराजगी है। अब समस्या यह है कि अग्रज हमारी किसी गुस्ताखी से नाराज हो जाएं और हमें बताए ही नहीं कि किस बात से तो हमें पता कैसे लगे। अग्रज से थोड़ी बहुत विनोद का रिश्ता भी हो और कभी विनोद में कोई गुस्ताखी हो जाए तो हमें तो पता भी न लगे कि हुआ क्या है? डाक्टर अमर कुमार जी हमारे अग्रज हैं, वैसे अग्रज जिन की डाँट भी भली लगती है। पर इतना नाराज कि हम से खफा भी हैं और डाँट भी नहीं रहे हैं तो मामला कुछ गड़ बड़  है भाई। हम ने उन से अनुरोध तो कर दिया है। भाई अकेले में नहीं सरे राह डाँट लें। हम डाँट खाने को तैयार खड़े हैं और वे हैं कि डाँट भी नहीं रहे हैं। खैर हैं तो अग्रज ही, जब उन्हें फुरसत हो, तब डाँट लें साथ में हमारी गुस्ताखी भी जरूर बताएँ, हम एडवांस में कान पकड़ कर दस बैठकें लगा चुके हैं अब तक। जब तक न बताएंगे ये सुबह शाम दस-दस चलती रहेंगी। जब भी कोई अग्रज हमें डाँटता है, शुभ शकुन होता है, हमारी उम्र बढ़ जाती है। अब देखिए हमारी उम्र कब  बढ़ती है?

बुधवार, 3 सितंबर 2008

गणपति का आगमन और रोठ पूजा


ज गणेश चतुर्थी है।  विनायक गणपति मंगलमूर्ति हो कर पधार चुके हैं।  पूरे ग्यारह दिनों तक गणपति की धूम रहेगी। गणपति के आने के साथ ही देश भर में त्योहारों का मौसम आरंभ हो गया है जिसे देवोत्थान एकादशी तक चलना है। उस के उपरांत गंगा से गोदावरी के मध्य रहने वाले और हिन्दू परंपरा का अनुसरण करने वाले लोगों को शादी-ब्याह और सभी वे मंगलकाज, जो चातुर्मास के कारण रुके पड़े थे को सम्पन्न करने की छूट मिल जाएगी।  प्रारंभ तो कल हरितालिका तीज से ही हो चुका है। वैसे भी गणपति के आने के पहले शिव और पार्वती का एक साथ होना जरूरी भी था। इसलिए यह पर्व एक दिन पहले ही हो लिया।  इस दिन मनवांछित वर की कामना के लिए कुमारियों ने निराहार निर्जल व्रत रखे और जिन परिवारों में किसी अशुभ के कारण श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन नहीं हुआ वहाँ रक्षाबंधन मनाया गया।

ये ग्यारह दिन पूरी तरह व्यस्त होंगे। हर नए दिन एक नया पर्व होगा। चार सितम्बर को ऋषिपंचमी होगी, पाँच को सूर्य षष्ठी, छह को दूबड़ी सप्तमी और गौरी का आव्हान, सात को गौरी पूजन, आठ को राधाष्टमी और गौरी विसर्जन, आठ को नवमी व्रत, नौ को दशावतार व्रत और राजस्थान में रामदेव जी और तेजाजी के मेले होंगे, दस को जल झूलनी एकादशी होगी, ग्यारह को वामन जयन्ती और प्रदोष व्रत होगा और तेरह को अनंत चतुर्दशी इस दिन गणपति बप्पा को विदा किया जाएगा। अगले दिन से ही पितृपक्ष प्रारंभ हो जाएगा जो पूरे सोलह दिन चलेगा। तदुपरांत नवरात्र जो दशहरे तक चलेंगे। फिर चार दिन बाद शरद पूर्णिमा, कार्तिक आरंभ होगा और  दीपावली आ दस्तक देगी। दीपावली की तैयारी, मनाने के बाद उस की थकान उतरते उतरते देव जाग्रत हो उठेंगे और फिर शुरू शादी ब्याह तथा दूसरे मंगल कार्य।

इस पूरी सूची से आप को अनुमान लग गया होगा कि भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक पंचांग कितना व्यस्त है। यदि सभी पर्वों को मनाने लगें तो दो-दो तीन-तीन एक दिन में मनाने पड़ें और पूरे बरस में एक भी दिन खाली न छूटे। भारतीय संस्कृति ऐसी ही है। इस ने सभी को अपनाया और उन्हें भारतीय रूप देदिया। अब महाराष्ट्र गणपति उत्सव जोर-शोर से मनाता है तो गुजरात-बंगाल नवरात्र को अधिक महत्व देते हैं। इसी तरह पूरा भारत वर्ष अपने अपने त्योहारों को अधिक महत्व देता है। लेकिन दूसरे भागों के त्योहारों को भी सभी स्थानों पर पूरा मान प्राप्त होता है।

बात कहीं की कहीं चली गई है। मैं बात करना चाहता था इस पखवाड़े के महत्व की। हमारे यहाँ हाड़ौती-मालवा क्षेत्र में इस पखवाड़े में रोठ बनना शुरू हो जाते हैं। पिछले पखवाड़े की चतुर्दशी से प्रारंभ हो कर अनंत चतुर्दशी तक का कोई एक दिन हर परिवार के लिए निश्चित है, जिस दिन रोठ पूजा और कुलदेवता की पूजा होगी। यह पर्व जैन धर्मावलम्बी भी मनाते हैं। रोठ की यह परंपरा धर्म से कुछ अलग सोचने को विवश करती है। आखिर इस परंपरा का आरंभ कहाँ है? जिस से यह जैन धर्मावलम्बियों में भी समान रूप से प्रचलित है। निश्चित ही इस का मूल धर्म में नहीं है। इस का मूल खोजने, चलें  उस से पहले यह जान लिया जाए कि इस दिन होता क्या क्या है?

इस दिन के लिए पहले से ही अनाज (गेहूँ) के दानों को निश्चित मात्रा में साफ कर घर की हाथ चक्की को अच्छी तरह धोकर पीसा जाता है। इस से जो आटा प्राप्त होता है। वह महीन न हो कर कुछ मोटा और दानेदार होता है। आज कल नगरों में घर की चक्कियों ने परिवारों से विदा ले ली है। इस कारण रोठ का यह आटा चक्की पर भी पिसवा लिया जाता है।  जिस के लिए चक्की वाले पहले से घोषणा कर देते हैं कि फलाँ दिन रोठ का आटा पीसा जाएगा। उस दिन चक्की वाला उस की चक्की को साफ कर धो कर आटा पीसता है और केवल रोठ के लिए उपयुक्त मोटा आटा पीसता है। आजकल बिजली से चलने वाली छोटी चक्कियाँ भी आ गई हैं। जिन लोगों के घरों में वे चक्कियाँ हैं वे उन्हें साफ कर, धो कर यह आटा तैयार  कर लेते हैं और पड़ौसियों के लिए भी कुछ लोग यह सेवा मुफ्त कर देते हैं। मेरे यहाँ ऋषिपंचमी के दिन रोठ पूजा होती आई है। इस दिन रोठ बनते हैं, साथ बनती है चावलों की खीर और, और बस कुछ नहीं। रोठ की पूजा होती है, कुल देवता की पूजा होती है। फिर सब मिल कर खीर-रोठ खाते हैं। और हाँ इस दिन हम कोई चीज नहीं खरीदते। सब चीजें पहले ही घर में आ चुकी होती हैं। इस दिन किसी को एक पैसा भी नहीं देना है, पूर्वज ऐसा नियम क्यों बना गए, यह खोज का विषय है।  इस पूजा का संबंध मानव विकास की उस अवस्था से है जिस में कृषि का आरंभ हुआ था और जिस में स्त्रियों की मुख्य भूमिका थी। उत्पादन और पारिवारिक समृद्धि के इस पर्व को सहजते सहजते वह इस हाल में आ पहुँचा है। यदि इस पखवाड़े में आप के यहाँ भी किसी तरह की पारंपरिक पूजा होती हो तो उस में भी स्त्रियों द्वारा कृषि जैसे मनुष्य जीवन को बदल डालने वाले आविष्कार की महत्ता के चिन्ह देखने के प्रयास करें शायद आप को मिल जाएँ।

विवरण लम्बा हो रहा है। आज इतना ही बाकी बातें कल।  कि रोठ क्या है? कैसे बनता है? दूसरी बातों से इस का क्या संबंध है?  कल तक तो प्रतीक्षा करनी ही होगी। और एक राज की बात और कि कल चार सितम्बर है, मेरा जन्म दिन। कल मैं पूरे तिरेपन का हो रहा हूँ और चौपनवाँ वर्ष प्रारंभ हो जाएगा।