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रविवार, 2 मई 2010

यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा

ल एक मई, मजदूर दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत में बहुत आलेख इस विषय पर या मजदूरों से संबंधित विषयों पर पढ़ने को मिले। अखबारों और पत्रिकाओँ की यह रवायत बन गई है कि किसी खास दिवस पर उस से संबंधित आलेख लिखें जाएँ और प्रकाशित किए जाएँ।  टीवी चैनल भी उन का ही अनुसरण करते हैं और यही सब अब ब्लाग जगत में भी दिखाई दे रहा है। जैसे ही वह दिन निकल जाता है लोग उस विषय को विस्मृत कर देते हैं और फिर अगले खास दिन पर लिखने में जुट जाते हैं। इस दिवस पर लिखे गए अधिकांश आलेखों के साथ भी ऐसा ही था। सब जानते हैं कि मई दिवस क्यों मनाया जाता है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं।
डेढ़ सदी से अधिक समय हो चला है उस दिन से जब 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' जारी किया गया था जिसे पिछली सदी के महान दार्शनिकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगेल्स ने लिखा था। इस घोषणा पत्र में 'प्रोलेटेरियट' शब्द का प्रयोग किया गया था और उस का अर्थ स्पष्ट किया गया था, यह इस तरह था - 
By proletariat, the class of modern wage labourers who, having no means of production of their own, are reduced to selling their labour power in order to live. [Engels, 1888 English edition]
हिंदी में इसी प्रोलेटेरियट को सर्वहारा कहा गया। आज सर्वहारा शब्द को सब से विपन्न व्यक्ति का पर्याय मान लिया जाता है। जब कि मूल परिभाषा पर गौर किया जाए तो सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
हाँ जिस 'श्रमशक्ति' का तात्पर्य केवल मनुष्य की शारीरिक ताकत से ही नहीं है। काम के दौरान या शिक्षा के फलस्वरूप मनुष्य जो कुशलता प्राप्त करता है वह भी उसी श्रमशक्ति का एक हिस्सा है। इस तरह कोई व्यक्ति जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को मुद्रा या वस्तुओं के बदले बेचने को बाध्य है तो  वह सर्वहारा ही है, उस से अलग नहीं।
दि हम अब पुनः सर्वहारा की परिभाषा पर गौर करें तो पाएंगे कि बहुत से लोग इस दायरे में आते हैं। मसलन इंजिनियर, डाक्टर, वकील, तमाम वैज्ञानिक, प्रोफेशनल्स और दूसरी क्षमताओं वाले लोग जो कि किसी न किसी संस्थान के लिए काम करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं वे सभी उजरती मजदूर यानी सर्वहारा हैं। दुनिया में जो कुछ भी मानव द्वारा निर्मित है उन के द्वारा निर्मित हैं संचालित है। बस एक चीज है जो उन के पास नहीं  है और वह यह कि  उस का इन दुनिया नियंत्रण नहीं है। क्यों कि जो कुछ वे उत्पादित करते हैं वह पूंजी की शक्ल में रूपांतरित किया जा कर किसी और के द्वारा अपने अधिकार में कर लिया जाता है और फिर वे लोग पूंजी में रूपांतरित श्रम की ताकत पर दुनिया के सारे व्यापारों को नियंत्रित करते हैं। वे लोग जो दुनिया के मनु्ष्य समुदाय का कठिनाई से दस प्रतिशत होंगे इस तरह शेष नब्बे प्रतिशत लोगों पर नियंत्रण बनाए हुए हैं। 
मस्या यहीं है, इस सर्वहारा के एक बड़े हिस्से को पूंजी पर आधिपत्य जमाए लोगों ने यह समझने पर बाध्य किया हुआ है कि वे वास्तव में सर्वहारा नहीं अपितु उस से कुछ श्रेष्ठ किस्म के लोग हैं,  वे श्रमजीवी नहीं, अपितु बुद्धिजीवी हैं, और चाहें तो वे भी कुछ पूंजी पर अपना अधिकार जमा कर या दुनिया के नियंत्रण में भागीदारी निभा सकते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों के सामने यह जो चारा लटका हुआ है वे उस की चाह में उस की ओर दौड़ते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि यह चारा खुद उन के सर पर ही बांधा हुआ है जो उन के दौड़ने के साथ ही लगातार आगे खिसकता रहता है। इस बात से अनजान यह तबका लगातार चारे की चाह में दौड़ता रहता है। चारा लटके रहने का यह भ्रम जब तक बना हुआ है तब तक दुनिया की यह विशाल सर्वहारा बिरादरी चंद लोगों द्वारा हाँकी जाती रहेगी। जिस दिन यह भ्रम टूटा उस दिन उसे नहीं हाँका जा सकता। वह खुद हँकने को तैयार नहीं होगी। 
म जानते हैं कि भ्रम हमेशा नहीं बने रहते, दुनिया के सभी भ्रम एक दिन टूटे हैं। यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

शून्य से नीचे के तापमान पर 39000 बेघर रात बिताने को मजबर लोगों के शहर में कंपनियों ने जानबूझ कर कपड़े नष्ट किए

मरीका का न्यूयॉर्क नगर जहाँ आज का रात्रि का तापमान शून्य से चार डिग्री सैल्सियस कम रहा है और इस शीत में नगर के लगभग 39000 लोग घरों के बिना रात बिताने को मजबूर हैं वहाँ एच एण्ड एम और वालमार्ट कंपनियों ने अपने पूरी तरह से पहने जाने योग्य लेकिन बिकने से रह गए कपड़ों को नष्ट कर दिया।


स समाचार को न्यूयॉर्क टाइम्स को छह जनवरी के अंक में एक स्नातक विद्यार्थी सिंथिया मेग्नस ने उजागर किया। उस ने कचरे के थैलों में इन कपड़ों को बरामद किया जिन्हें जानबूझ कर इस लिए पहनने के अयोग्य बनाया गया था जिस से ये किसी व्यक्ति के काम में नहीं आ सकें। दोनों कंपनियों एच एण्ड एम और वालमार्ट के प्रतिनिधियों ने न्युयॉर्क टाइम्स को बताया कि उन की कंपनियाँ बिना बिके कपड़ों को दान कर देती हैं और यह घटना उन की सामान्य नीति को प्रदर्शित नहीं करती।
लेकिन अमरीका की पार्टी फॉर सोशलिज्म एण्ड लिबरेशन की वेबसाइट पर सिल्वियो रोड्रिक्स ने कहा है कि मौजूदा मुनाफा  कमाने वाली व्यवस्था की यह आम नीति है कि वे पहनने योग्य कपड़ों को नष्ट कर देते हैं, फसलों को जला देते हैं और आवास के योग्य मकानों को गिरने के लिए छोड़ देते हैं। यह सब तब होता है जब कि लोगों के पास पर्याप्त कपड़े नहीं हैं, खाने को खाद्य पदार्थ नहीं हैं और आश्रय के लिए आवास नहीं हैं।
रोड्रिक्स का कहना है कि एक उदात्त अर्थ व्यवस्था में इन चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन वर्तमान पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक उदात्त व्यवस्था नहीं है। इस व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन मुनाफे के लिए होता है और वह उत्पादकों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करता है। जिस से अराजकता उत्पन्न होती है और उत्पादन इतना अधिक होता है कि जिसे बेचा नहीं जा सकता। जब किसी उत्पादन में मुनाफा नहीं रह जाता है तो उत्पादन को नष्ट किया जाता है, फैक्ट्रियाँ बंद कर दी जाती हैं, निर्माण रुक जाते हैं, खुदरा दुकानों के शटर गिर जाते हैं और कर्मचारियों से उन की नौकरियाँ छिन जाती हैं।

स तरह के संकट इस व्यवस्था में आम हो चले हैं। समय के साथ पूंजीपति उत्पादन से अपने हाथ खींच लेता है और संकट को गरीब श्रमजीवी जनता के मत्थे डाल देता है। माल को केवल तभी नष्ट नहीं किया जाता जब मंदी चरमोत्कर्ष पर होती है, अपितु छोटे संकटों से उबरने के लिए कम मात्रा में उत्पादन को निरंतर नष्ट किया जाता है। रोड्रिक्स का कहना है कि इस तरह उत्पादन को नष्ट करना मौजूदा व्यवस्था का मानवता के प्रति गंभीर अपराध है। अब वह समय आ गया है जब मौजूदा मनमानी और मुनाफे के लिए उत्पादन की अमानवीय व्यवस्था का अंत होना चाहिए और इस के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था स्थापित होनी चाहिए जिस में केवल कुछ लोगों के निजि हित बहुसंख्य जनता के हितों पर राज न कर सकें। 

सोमवार, 29 जून 2009

बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम ....... पर "समय" की टिप्पणी

कल के आलेख बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा?  में मैं ने बताने की कोशिश की थी कि एक ओर लोग सेवाओं के लिए परेशान हैं और दूसरी ओर बेरोजगारों के झुंड हैं तो बच्चे और महिलाएँ भिखारियों में तब्दील हो रहे हैं।  कुल मिला कर बात इतनी थी कि इन सब के बीच की खाई कैसे पूरी होगी? उद्यमी ( ) तो रातों रात कमाने के लालच वाले धंधों की ओर भाग रहे हैं। सरकार की इस ओर नजर है नहीं। होगी भी तो वह पहले आयोग बनाएगी, फिर उस की रिपोर्ट आएगी।  उस के बाद वित्त प्रबंधन और परियोजनाएँ बनेंगी।  फिर अफसर उस में अपने लाभ के छेद तलाशेंगे या बनाएंगे।  गैरसरकारी संस्थाएँ, कल्याणकारी समाज व समाजवाद का निर्माण करने का दंभ भरने वाले राजनैतिक दलों का इस ओर ध्यान नहीं है।

आलेख पर बाल सुब्रह्मण्यम जी ने अपने अनुभव व्यक्त करते हुए एक हल सुझाया - "जब हम दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे, हमें घर का चौका बर्तन करने, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने आदि के लिए सहायकों की खूब आवश्यकता रहती थी, पर इन सबके लिए कोई स्थायी व्यवस्था हम नहीं करा पाए। सहायक एक दो साल काम करते फिर किसी न किसी कारण से छोड़ देते, या हम ही उन्हें निकाल देते। मेरे अन्य पड़ोसियों और सहकर्मियों की भी यही समस्या थी। बड़े शहरों के लाखों, करोड़ों मध्यम-वर्गीय परिवारों की भी यही समस्या है। यदि कोई उद्यमी घर का काम करनेवाले लोगों की कंपनी बनाए, जैसे विदेशी कंपनियों के काम के लिए यहां कोल सेंटर बने हुए हैं और बीपीओ केंद्र बने हुए हैं, तो लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों को अच्छी नौकरी मिल सकती है, और मध्यम वर्गीय परिवारों को भी राहत मिल सकती है। इतना ही नहीं, घरेलू कामों के लिए गरीब परिवारों के बच्चों का जो शोषण होता है, वह भी रुक जाएगा। घरेलू नौकरों का शोषण भी रुक जाएगा, क्योंकि इनके पीछे एक बड़ी कंपनी होगी।"

लेकिन बड़ी कंपनी क्यों अपनी पूंजी इस छोटे और अधिक जटिल प्रबंधन वाले धन्धे में लगाए?  इतनी पूँजी से वह कोई अधिक मुनाफा कमाने वाला धन्धा क्यों न तलाश करे?  बड़ी कंपनियाँ यही कर रही हैं।  मेरे नगर में ही नहीं सारे बड़े नगरों में सार्वजनिक परिवहन दुर्दशा का शिकार है। वहाँ सार्वजनिक परिवहन में बड़ी कंपनियाँ आ सकती हैं और परिवहन को नियोजित कर प्रदूषण से भी किसी हद तक मुक्ति दिला सकती हैं। लेकिन वे इस क्षेत्र में क्यों अपनी पूँजी लगाएँगी?  इस से भी आगे नगरों व नगरों व नगरों के बीच, नगरों व गाँवों के बीच और राज्यों के बीच परिवहन में बड़ी निजि कंपनियाँ नहीं आ रही हैं। क्यों वे उस में पूँजी लगाएँ? उन्हें चाहिए कम से कम मेनपॉवर नियोजन, न्यूनतम प्रबंधन खर्च और अधिक मुनाफे के धन्धे।

ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने कहा कि एम्पलॉएबिलिटी सब की नहीं है।  एक आईआईटीयन बनाने के लिए सरकार कितना खर्च कर रही है?  क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? पर क्यों चलाएँ?  तब तो उन्हें काम देने की भी परियोजना साथ बनानी पड़ेगी।  फिर इस से बड़े उद्योगों को सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे?  वे तो तभी तक मिल सकते हैं जब बेरोजगारों की फौज नौकरी पाने के लिए आपस में ही मार-काट मचा रही हो।  इस प्रश्न पर कल के आलेख पर बहुत देर से आई समय की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। सच तो यह कि आज का यह आलेख उसी टिप्पणी को शेष पाठकों के सामने रखने के लिए लिखा गया।  समय की टिप्पणी इस तरह है-

"जब तक समाज के सभी अंगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रमशक्ति का समुचित नियोजन समाज का साझा उद्देश्य नहीं बनता तब तक यही नियति है।

अधिकतर श्रमशक्ति यूं ही फुटकर रूप से अपनी उपादेयता ढूंढ़ती रहेगी और बदले में न्यूनतम भी नहीं पाने को अभिशप्त रहेगी।  दूसरी ओर मुनाफ़ों के उत्पादनों में उद्यमी उनकी एम्प्लॉयेबिलिटी को तौलकर बारगेनिंग के तहत विशेष उपयोगी श्रमशक्ति का व्यक्तिगत हितार्थ सदुपयोग करते रहेंगे।

बहुसंख्या के लिए जरूरी उत्पादन, और मूलभूत सेवाक्षेत्र राम-भरोसे और विशिष्टों हेतु विलासिता के उद्यम, मुनाफ़ा हेतु पूर्ण नियोजित।

अधिकतर पूंजी इन्हीं में, फिर बढता उत्पादन, फिर उपभोक्ताओं की दुनिया भर में तलाश, फिर बाज़ार के लिए उपनिवेशीकरण, फिर युद्ध, फिर भी अतिउत्पादन, फिर मंदी, फिर पूंजी और श्रमशक्ति की छीजत, बेकारी...........उफ़ !

और टेलर (दर्जी) बारह घंटे के बाद भी और श्रम करके ही अपनी आवश्यकताएं पूरी कर पाएगा। लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त श्रमशक्ति के नियोजन की, मध्यम-वर्गीय परिवारों के घरेलू कार्यों के लिए कितनी संभावनाएं हैं। सभी नियमित कार्यों के लिए भी अब तो निम्नतम मजदूरी पर दैनिक वेतन भोगी सप्लाई हो ही रही है, जिनमें आई टी आई, डिप्लोमा भी हैं इंजीनियर भी। नौकरी के लिए ज्यादा लोग एम्प्लॉयेबिलिटी रखेंगे, लालायित रहेंगे तभी ना सस्ता मिल पाएंगे। अभी साला विकसित देशों से काफ़ी कम देने के बाबजूद लाखों के पैकेज देने पडते हैं, ढेर लगा दो एम्प्लॉयेबिलिटी का, फिर देखों हजारों के लिए भी कैसे नाक रगडते हैं। ...............उफ़ !

मार्केट चलेगा, लॉटरियां होंगी, एक संयोग में करोडपति बनाने के नुस्खें होंगे। बिना कुछ किए-दिए, सब-कुछ पाने के सपने होंगे। पैसा कमाना मूल ध्येय होगा और इसलिए कि श्रम नहीं करना पडे, आराम से ज़िंदगी निकले योगा करते हुए। उंची शिक्षा का ध्येय ताकि खूब पैसा मिले और शारीरिक श्रम के छोटे कार्यों में नहीं खपना पडे। और दूसरों में हम मेहनत कर पैसा कमाने की प्रवृत्ति ढूंढेंगे, अब बेचारी कहां मिलेगी। .................उफ़ !

उफ़!...उफ़!.....उफ़!
और क्या कहा जा सकता है?




("मैं समय हूँ" समय का अपना ब्लाग है )


शनिवार, 27 जून 2009

बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा?

पिछले आलेख में मैं ने चार-चार बच्चों वाली औरतों और लाल बत्ती पर कपड़ा मारने का नाटक कर के भीख मांगने वाले बच्चों का उल्लेख किया था।  अनेक बार इन से व्यवहार करने पर लगा कि यदि इन्हें प्रेरित किया जाए और इन्हें अवसर मिले तो ये लोग काम पर लग सकते है। यह भी नहीं है कि समाज में इन के लिए काम उपलब्ध न हो।  लेकिन यह तभी हो सकता है जब कोई इस काम उपलब्ध कराने की परियोजना पर काम करे।

वकालत में आने के पहले जब मुझ पर पत्रकारिता के उच्च स्तर में प्रवेश का भूत सवार हुआ तो मुम्बई जाना हुआ था। वहाँ मैं जिन मित्र के घर रुका वे प्रतिदिन कोई 9 बजे अंधेरी के घर से अपने एयरकंडीशन मार्केट ताड़देव स्थित अपने कार्यालय निकलते थे और कोई दो किलोमीटर की दूरी पर एक पार्किंग स्थान पर रुकते थे। वहाँ एक पान की थड़ी से अपने लिए दिन भर के लिए पान लिया करते थे। जब तक उन का पान बनता तब तक एक लड़का आ कर उन की कार को पहले गीले और फिर सूखे कपड़े से पोंछ देता था। उस के लिए 1978 में एक या दो रुपया प्रतिदिन उस लड़के को मिल जाता था।  इसी तरह अभी फरवरी में जब मुझे फरीदाबाद में पाँच-छह दिन रुकना पड़ा था तो वहाँ सुबह सुबह कोई आता था और घरों के बाहर खड़े वाहनों को इसी तरीके से नित्य साफ कर जाता था।  प्रत्येक वाहन स्वामी से उसे दो सौ रुपये प्राप्त होते थे।  यदि यह व्यक्ति नित्य बीस वाहन भी साफ करता हो तो उसे चार हजार रुपए प्रतिमाह मिल जाते हैं जो राजस्थान में लागू न्यूनतम वेतन से तकरीबन दुगना है।

बाएँ जो चित्र है वह बाबूलाल की पान की दुकान का है जो मेरे अदालत के रास्ते में पड़ती है।  बाबूलाल इसे सुबह पौने नौ बजे आरंभ करते हैं। दिन में एक बजे इसे अपने छोटे भाई को संभला कर चले जाते हैं। शाम को सात बजे आ कर फिर से दुकान संभाल लेते हैं।  दुकान इतनी आमदनी दे देती है कि दो परिवारों का सामान्य खर्च निकाल लेती है। लेकिन बाबूलाल के दो बेटियाँ हैं, जिन की उन्हें शादी करनी है एक बेटा है जो अजमेर में इंजिनियरिंग पढ़ रहा है।  उस ने अपनी सारी बचत इन्हें पढ़ाने में लगा दी है।  नतीजा भी है कि बेटियाँ नौकरी कर रही हैं।  लेकिन शादी बाबूलाल की जिम्मेदारी है और उस के लिए उस के पास धन नहीं है। उसे कर्जा ही लेना पड़ेगा।  मैं ने बाबूलाल से अनेक बार कहा कि उस की दुकान पर कार वाले ग्राहक कम से कम दिन में बीस-तीस तो आते ही होंगे। यदि उन्हें वह अपना वाहन साफ कराने के लिए तैयार कर ले और एक लड़का इस काम के लिए रख ले तो पाँच छह हजार की कमाई हो सकती है।  लड़का आराम से 25-26 सौ रुपए में रखा जा सकता है जो बाबूलाल के उद्यम का छोटा-मोटा काम भी कर सकता है।  लेकिन बाबूलाल को यह काम करने के लिए मैं छह माह में तैयार नहीं कर सका हूँ।


मुझे ज्ञानदत्त जी का उद्यम और श्रम आलेख स्मरण होता है जिस में उन्हों ने कहा था कि उद्यमी की आवश्यकता है।  उन का कथन सही था।  श्रम तो इस देश में बिखरा पड़ा है उसे नियोजित करने की आवश्यकता है।  इस से रोजगार भी बढ़ेगा और मजदूरी मिलने से बाजार का भी विस्तार होगा।  लेकिन इस काम को कौन करे।  जो भी व्यक्ति उद्यम करना चाहता है वह अधिक लाभ उठाना चाहता है और इस तरह के मामूली कामों की ओर उस का ध्यान नहीं है।  सरकारों पर  देश  में रोजगार बढ़ाने का दायित्व है वह पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है जो कोई भी परियोजना आरंभ होते ही पहले उस में अपने लिए काला धन बनाने की जुगत तलाश करने लगते हैं।  यह काम सामाजिक संस्थाएँ कर सकती हैं।  लेकिन शायद इन कामों से नाम  श्रेय नहीं मिलता। संस्था के पदाधिकारियों को यह और सुनने को मिलता है कि इस धंधे में उस ने अपना कितना रुपया बनाया। इसी कारण वे भी इस ओर प्रेरित नहीं होते।  न जाने क्यों समाजवाद लाने को उद्यत संस्थाएँ और राजनैतिक दल भी इसे नहीं अपनाते।  जब कि इस तरह वे अपनी संस्थाओं और राजनैतिक दलों के लिए अच्छे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर सकते हैं।

बुधवार, 21 जनवरी 2009

बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है

"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."  .....



यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है।  यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए।   पूंजी का अपना चरित्र है।  वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती।  पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।

शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है।  अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है।  बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है।  यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता।  वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है।  फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है।  यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।

वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."


"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"

"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."


"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके." 

"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."

अमरीका के 44वें राष्ट्रपति  की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी।  बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद

जब हम चाय पीने केन्टीन पहुँचे तो सर्दी की धूप में बाहर की कुर्सियों पर दो वरिष्ठ वकील चाय के इंतजार में मूंगफलियाँ छील कर खा रहे थे। हम भी पास की कुर्सियों पर बैठे और चाय का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर में हमने पाया कि मूंगफलियों की थैली सज्जनदास जी मोहता के हाथों में है और वे दो मूंगफली निकालते हैं एक जगदीश नारायण जी को देते हैं और एक खुद खाते हैं। फिर इसी क्रिया को दोहराते हैं।

मुझे यह विचित्र व्यवहार लगा। मैं ने पूछा ये क्या है भाई साहब?

जवाब मोहता जी ने दिया। यह सर्वहारा का अधिनायकवाद है याने के समाजवाद।

मैं ने पूछा- वो कैसे?

मोहता जी ने जवाब दिया - मूंगफली की थैली मेरे हाथ में है इस लिए मैं इस में से दो निकालता हूँ, एक इसे देता हूँ और एक खुद खाता हूँ। मैं समाजवादी हूँ।


यह काँग्रेसी है, पूँजीपति! थैली इस के हाथ होती तो सारी मूंगफलियाँ ये खुद ही खा जाता।


मुझे उस दिन पूँजीवाद और समाजवाद का फर्क समझ आ गया।