@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पत्रकार
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रविवार, 12 सितंबर 2010

अखबारों में खबरें अधूरी क्यों होती हैं?

दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण ने स्थानीय नगर निगम के बारे में खबर प्रकाशित की है, " तंगी में भी बदहाली" । यह किसी घटना से उपजा समाचार नहीं, अपितु नगर निगम कोटा की कार्य प्रणाली से संबद्ध कुछ सूचनाओँ से उत्पन्न की गई एक रिपोर्ट है। जिस का निष्कर्ष यह है कि नगर निगम के पास अपने कामों के लिए पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं। उसे बहुत सारे कर्मचारियों को ठेकेदारों के माध्यम से नियोजित करना पड़ता है। ठेकेदार दो तरह के हैं एक तो वे जिन्हें नगर निगम द्वारा निविदा के माध्यम से ठेका दिया गया है। दूसरी बहुद्देशीय सहकारी समितियाँ हैं जिन्हें बिना निविदा आमंत्रित किए काम दिया जा सकता है। समाचार कहता है कि निविदा ठेकेदारों को प्रत्येक कर्मचारी के लिए नगर निगम को 100 से 115 रुपए प्रतिदिन मजदूरी देनी होती है, जब कि बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से नियोजित 132 कर्मचारियों के निए नगर निगम को 172 से 178 रुपए प्रति कर्मचारी प्रतिदिन भुगतान करना पड़ता है। इस से नगर निगम को 29 लाख रुपए वार्षिक चूना लग रहा है। यह हालात तब हैं जब नगर निगम आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। समाचार एक तरह से यह कह रहा है कि नगर निगम बहुद्देशीय सहकारी समितियों के माध्यम से कर्मचारी जुटा कर गलती कर रहा है और उसे यह काम भी निविदा के माध्यम से ठेकेदारों को देना चाहिए। इस समाचार में गलती से एक पंक्ति यह भी अंकित हो गई है कि " निगम में कार्यरत सफाई ठेका कर्मचारियों को न्यूनतम मजदूरी 100 रुपए रोजाना हासिल करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।"
स समाचार का शीर्षक ही भ्रामक है, जिस मे तंगी और दरियादिली शब्दों का उल्लेख किया गया है, समाचार की जमीनी हकीकत बिलकुल भिन्न है। आज से पचास वर्ष पहले नगरपालिका में एक भी ठेका कर्मचारी या दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं हुआ करता था। केवल स्थाई या मासिक रुप से वेतन प्राप्त करने वाले कर्मचारी होते थे। सफाई व्यवस्था आज के मुकाबले  बहुत अच्छी हुआ करती थी। गलियोँ और बाजारों की नालियों को साफ करने के लिए भिश्ती और झाड़ू वाला आया करता था। अन्य कामों  में भी इसी तरह के कर्मचारी नियुक्त थे। जनता पर टैक्सों की इतनी भरमार भी नहीं थी। नगर निगम के पास धन की कमी भी होती थी तो उस का प्रदर्शन नहीं किया जाता था अपितु पार्षद उस का मार्ग तलाश करते थे। लेकिन अब स्थिति बिलकुल बदल गई है। सफाई दिखाने भर की नजर आती है। नगरपालिकाएँ स्थाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं करती हैं। वे इन्हें ठेकेदारों से प्राप्त करती है। ठेकेदार का काम सिर्फ कर्मचारी उपलब्ध कराना और उन्हें मजदूरी देना होता है। उन से काम लेना और उन पर नियंत्रण रखना नगरपालिकाओं का काम है। व्यवस्था में यह परिवर्तन क्यों आया यह एक बड़ा प्रश्न है। 
वास्तविकता यह है कि तब पार्षद और नगरपालिकाएँ नगर के प्रति अपना दायित्व समझती थीं। आज वह स्थिति नहीं है। आज जिस तरह चुनाव होते हैं उन में चुने जाने के लिए उम्मीदवारों को अत्य़धिक धन खर्च करना होता है। जिस पद के लिए वे चुने जाते हैं उसी के प्रभाव से वे उस धन से कई गुना धन की वसूली करते हैं।  वस्तुतः चुनाव में धन खर्च करना एक तरह का निवेश हो गया है जो सर्वाधिक लाभप्रद है। जो उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। उन में से एक ही जीतता है बाकी हार जाते हैं। हारने वाले उम्मीदवारों का धन व्यर्थ चला जाता है। ठीक जुए की मेज की तरह जहाँ बैठने वाले जुआरियों में से एक सब का धन समेट कर चल देता है। दूसरे दिन भिर जुए की मेज लग जाती है। वस्तुतः चुनाव लड़ने का धन्धा दुनिया का सब से बड़ा जुआ बन गया है और यह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की देन है।
जदूरी के बारे में हम यह पढ़ते हैं कि यह अनेक प्रकार की होती है। एक न्यूनतम मजदूरी होती है जिसे सरकार यह मान कर चलती है कि यह व्यक्ति के जीवन निर्वाह के लिए केवल न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। अनेक बीच के स्तरों को पार करते हुए एक उचित मजदूरी होती है जो कि कर्मचारी को जीवन निर्वाह के सभी साधन उपलब्ध कराती है और उन के भविष्य का ख्याल भी रखती है। एक सरकारी या सार्वजनिक संस्था को अपने सभी कर्मचारियों को उचित मजदूरी देनी चाहिए। लेकिन हुआ यह है कि इन संस्थाओं के लिए काम करने वाले मजदूरों को उचित वेतन तो क्या न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। हो यह रहा है कि कर्मचारी उपलब्ध कराने के लिए ठेके उठा दिए जाते हैं जिन का मूल्य न्यूनतम मजदूरी के बराबर या उस से कुछ अधिक होता है। उन दरों को देखें तो पता लगेगा कि ठेकेदार अपनी जेब से कुछ पैसा लगा कर मजदूर उपलब्ध करवा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जितने मजदूर कागजों पर उपलब्ध कराए जाते हैं उन से आधे ही वास्तव में काम कर रहे होते हैं। वास्तव में उपलब्ध न कराए जाने वाले मजदूरों के लिए जो पैसा नगरपालिकाओं से उठाया जाता है उस में ठेकेदारों, पार्षदों, नगरपालिकाओं के अधिकारियों और पदाधिकारियों का हिस्सा शामिल होता है। 
सी व्यवस्था से देश चल रहा है। नगरपालिकाएँ तो उन का नमूना मात्र हैं, पंचायतें, राज्य और केंद्र सरकारें इसी तरह चल रही हैं। सारा देश और जनता इस बात को जानती है। लेकिन मौन रहती है। पर कब तक वह मौन रह सकेगी? शायद पाप का घड़ा फूटने तक या फिर पानी सर से गुजर जाने तक? मेरा मकसद यहाँ जनतंत्र के चौथे खंबे के काम की ओर ध्यान दिलाना था। यह समाचार लिखने वाले पत्रकार का क्या यह कर्तव्य नहीं था क्या कि वह ठेकेदारों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले कर्मचारियों की वास्तविक संख्या का भी पता लगाता और पार्षदों, ठेकेदारों, पदाधिकारियों और अफसरों के अंतर्सबंधों की खोज  करता औऱ उस के परिणामों को अपनी कलम के माध्यम से सब के सामने रखता। वह रखना भी चाहता तो शायद ऐसा नहीं कर सकता था। क्यों कि अखबार विज्ञापनों से चलते हैं। विज्ञापन इन्हीं ठेकेदारों, अफसरों, पदाधिकारियों और पार्षदों के माध्यम  से प्राप्त होते हैं और अखबार का मालिक इसी कारण से अपने पत्रकारों को इस से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दे सकता। एक प्रश्न यह हो सकता है कि ये खबरें छापी ही क्यों जाती हैं? अब ठेकेदारों को ज्यादा काम चाहिए वे चाहते हैं कि सहकारी समितियों के माध्यम से काम कर रहे लोगों के बजाय उन्हें काम मिले। तो इस तरह की खबरें बनती हैं, बनवाई और बनाई जाती हैं। 

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

अनिल पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और पाबला जी के साथ दोपहर का भोजन

 त्रयम्बक जी के जाने के पहले ही एक फोन पुसदकर जी के पास आया।  फोन पर उत्तर देते हुए पुसदकर जी ने  कहा कि वे किसी मेहमान के साथ प्रेस क्लब में व्यस्त हैं, अभी नहीं आ सकते हाँ मिलना हो तो वे खुद प्रेस क्लब आ जाएँ।  खुद पुसदकर जी ने बताया कि यह रायपुर के मेयर का फोन था।  मुझे बुला रहा था, मैं ने उसे यहाँ आने के लिए कह दिया है।  कुछ देर में ही रायपुर के नौजवान मेयर सुनील सोनी अपने एक सहायक के साथ वहाँ विद्यमान थे।  पुसदकर जी ने मेरा व पाबला जी का मेयर से परिचय कराया और फिर मेयर को कहने लगे कि वे प्रेस क्लब और पत्रकारों के लिए उतना नहीं कर रहे हैं जितना उन्हें करना चाहिए।  उसी समय उन्हों ने संजीत त्रिपाठी को कुछ लाने के लिए कहा।  संजीत जो ले कर आए वह एक खूबसूरत मोमेण्टो था।  उन्हों ने मेयर को कहा कि प्रेस क्लब द्विवेदी जी के आगमन पर उन्हें मोमेंटो देना चाहता था।  अब जब आप आ ही गए हैं तो यह आप के द्वारा ही दिया जाना चाहिए।  आखिर मेयर ने मुझे प्रेस क्लब की वह मीठी स्मृति मोमेंटो भेंट की।  कॉफी के बाद मेयर वहाँ से प्रयाण कर गए।

तब तक दो बजने को थे।  पुसदकर जी ने हमें दोपहर के भोजन के लिए चलने को कहा।  हम सभी नीचे उतर गए।  पुसदकर जी की कार में हम तीनों के अलावा केवल संजीत त्रिपाठी थे। पुसदकर जी  खुद वाहन ड्राइव कर रहे थे।  वे कहने लगे अगर समय हो तो भोजन के बाद त्रिवेणी संगम है वहाँ चलें, यहाँ से तीस किलोमीटर दूर है।  मैं ने और पाबला जी ने मना कर दिया इस में रात वहीं हो जाती।  मैं उस दिन रात का खाना अपने भाई अवनींद्र के घर खाना तय कर चुका था, यदि यह न करता तो उसे खास तौर पर उस की पत्नी को बहुत बुरा महसूस होता।  मैं पहले ही उसे नाराज होने का अवसर दे चुका था और अब और नहीं देना चाहता था। अगले दिन मेरा दुर्ग बार में जाना तय था और कोटा के लिए वापस लौटना भी।  रास्ते मे पुसदकर जी रायपुर के स्थानों को बताते रहे, यह भी बताया कि जिधर जा रहे हैं वह वही क्षेत्र है जहाँ छत्तीसगढ़ की नई राजधानी का विकास हो रहा है।  कुछ किलोमीटर की यात्रा के बाद हम एक गेस्ट हाऊस पहुंचे जो रायपुर के बाहर था जहाँ से एयरपोर्ट और उस से उड़ान भरने वाले जहाज दिखाई दे ते थे। बीच में हरे खेत और मैदान थे।  बहुत सुंदर दृश्य था।  संजीत ने बताया कि यह स्थान अभी रायपुर से बाहर है लेकिन जैसे ही राजधानी क्षेत्र का विकास होगा यह स्थान बीच में आ जाएगा।

किसी ने आ कर बताया कि भोजन तैयार है। बस चपातियाँ सेंकनी हैं।  हम हाथ धोकर अन्दर सजी डायनिंग टेबुल पर बैठ गए।  भोजन देख कर मन प्रसन्न हो गया। सादा सुपाच्य भोजन था, जैसा हम रोज के खाने में पसंद करते हैं।  सब्जियाँ, दाल, चावल और तवे की सिकी चपातियाँ।  पुसदकर जी कहने लगे भाई कुछ तो ऐसा भी होना चाहिए था जो छत्तीसगढ़ की स्मृति बन जाए, लाल भाजी ही बनवा देते।  पता लगा लाल भाजी भी थी।  इस तरह की नयी खाद्य सामग्री में हमेशा मेरी रुचि बनी रहती है।  मैं ने भाजी के पात्र में हरी सब्जी को पा कर पूछा यह लाल भाजी क्या नाम हुआ।  संजीत ने बताया कि यह लाल रंग छोड़ती है।  मैं ने अपनी प्लेट में सब से पहले उसे ही लिया।  उन का कहना सही था। सब्जी लाल रंग छोड़ रही थी।  उसे लाल के स्थान पर गहरा मेजेण्टा रंग कहना अधिक उचित होगा।  संजीत ने बताया कि यह केवल यहीं छत्तीसगढ़ में ही होती है, बाहर नहीं।  सब्जी का स्वाद बहुत कुछ हरी सब्जियों की ही तरह था। सब्जी अच्छी लगी।  उसे खाते हुए मुझे अपने यहाँ के विशेष कट पालक की याद आई जो पूरी सर्दियों हम खाते हैं। बहुत स्वादिष्ट, पाचक और लोह तत्वों से भरपूर होता है और जो हाड़ौती क्षेत्र में ही खास तौर पर होता है, बाहर नहीं। हम उसे देसी पालक कहते हैं। दूसरी चीज जिस की मुझे याद आई वह मेहंदी थी जो हरी होने के बाद भी लाल रंग छोड़ती है।

भोजन के उपरांत हमने करीब दो घंटों का समय उसी गेस्ट हाउस में बिताया।  बहुत बातें होती रहीं।  छत्तीसगढ़ के बारे में, रायपुर, दुर्ग और भिलाई के बारे में, बस्तर और वहाँ के आदिवासियों के बारे में माओवादियों के बारे में और ब्लागिंग के बारे में, ब्लागिंग के बीच समय समय पर उठने वाले विवादों के बारे में।  माओवादियों के बारे में पुसदकर जी और संजीत जी की राय यह थी कि वास्तव में ये लोग किसी वाद के नहीं है, उन्हों ने केवल माओवाद और मार्क्सवाद की आड़ ली हुई है, ये पड़ौसी प्रान्तों के गेंगेस्टर हैं और यहाँ बस्तर के जंगलों का लाभ उठा कर अपने धन्धे चला रहे हैं।  इन का आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं है।  आदिवासी भी एक हद तक इन से परेशान हैं।  इन का आदिवासियों के जीवन और उत्थान से कोई लेना देना नहीं है।  पुसदकर जी कहने लगे कि कभी आप फुरसत निकालें तो आप को बस्तर की वास्तविकता खुद आँखों से दिखा कर लाएँ।  ब्लागिंग की बातों के बीच संजीत ने छत्तीसगढ़ में एक ब्लागर सम्मेलन की योजना भी बनाने को पुसदकर जी से कहा।  उन्हों  ने कोशिश करने को अपनी सहमति दी। 

चार बजे के बाद कॉफी आ गई जिसे पीते पीते हमें शाम के वादे याद आने लगे।  मैंने चलने को कहा।  हम वहाँ से प्रेस क्लब आए तब तक सांझ घिरने लगी थी।  हमने संजीत और पुसदकर जी से विदा ली। वे बार बार फुरसत निकाल कर आने को कहते रहे और मैं वादा देता रहा।  मुझे भी अफसोस हो रहा था कि मैं ने क्यों रायपुर के लिए सिर्फ आधे दिन का समय निकाला।  पर वह मेरी विवशता थी। मुझे शीघ्र वापस कोटा पहुँचना था।  दो फरवरी को बेटी पूर्वा के साथ बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) जो जाना था।   हम संजीत और पुसदकर जी से विदा ले कर पाबला जी की वैन में वापस भिलाई के लिए लद लिए।

कल के आलेख पर आई टिप्पणियों में एक प्रश्न मेरे लिए भारी रहा कि मैं ने संजीत के लिए कुछ नहीं लिखा।  इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मेरे लिए आज भी कठिन हो रहा है।  मुझे पाबला जी के सौजन्य से जो चित्र मिले हैं उन में संजीत एक स्थान पर भी नहीं हैं।  वे रायपुर में छाया की तरह हमारे साथ रहे।  वार्तालाप भी खूब हुआ। लेकिन? पूरे वार्तालाप में व्यक्तिगत कुछ भी नहीं था।  उन के बारे में व्यक्तिगत बस इतना जाना कि वे पत्रकार फिर से पत्रकारिता में लौट आए हैं और किसी दैनिक में काम कर रहे हैं जिस का प्रतिदिन एक ही संस्करण निकलता है।  वास्तव में उन के बारे में मेरी स्थिति वैसी ही थी जैसे किसी उस व्यक्ति की होती जो वनवास के समय राम, लक्ष्मण से मिल कर लौटने पर राम का बखान कर रहा होता और जिस से लक्ष्मण के बारे में पूछ लिया जाता।  मिलने वाले का सारा ध्यान तो राम पर ही लगा रहता लक्ष्मण को देखने, परखने का समय कब मिलता? और राम के सन्मुख लक्ष्मण की गतिविधि होती भी कितनी? मुझे लगता है संजीत को समझने के लिए तो छत्तीसगढ़ एक बार फिर जाना ही होगा।  हालांकि संजीत खुद अपने बारे में कहते हैं कि वे जब से जन्मे हैं रायपुर में ही टिके हुए हैं।  उन्हों ने अपना कैरियर पत्रकारिता को बनाया।  उस में बहुत ऊपर जा सकते थे।  लेकिन? केवल रायपुर न छोड़ने के लिए ही उन्हों ने पत्रकारिता को त्याग दिया और धंधा करने लगे।  मन फिर पत्रकारिता की ओर मुड़ा तो वे किसी छोटे लेकिन महत्वपूर्ण समाचार पत्र से जुड़ गए।  उन की विशेषता है कि वे स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज हैं और आज भी उन्हीं मूल्यों से जुड़े हैं।  खुद खास होते हुए भी खुद को आम समझते हैं।  आप खुद समझ सकते हैं कि उन्हें समझने के लिए खुद कैसा होना होगा?

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

वेबोल्यूशन्स की लेब और रायपुर के प्रेस क्लब में पुसदकर जी, संजीत त्रिपाठी और त्रयम्बक शर्मा से भेंट

पाबला जी के यहाँ पहली रात थी, फिर भी थके होने से नीन्द जल्दी ही आ गई।   सुबह 5-6 बजे के बीच खटपट से नींद खुली तो देखा मोनू कुछ कर रहा था।  मुझे उठा देख उस ने पूछा, अंकल आप के लिए कॉफी बनाऊँ?  मैं ने  आश्चर्य व्यक्त किया कि, तुम जाग भी गए! बोला, अंकल मैं तो कॉफी पी कर दस पन्द्रह मिनट काम करुंगा फिर सोने जाउंगा, मेरा तो यह रूटीन है।  मैं इसी वक्त सोता हूँ और 11-12 बजे तक उठता हूँ।  सारी रात तो मेरा काम ही चलता रहता है।  वह webolutions.in के नाम से वेबसाइट डिजाइन करने और उन्हें संचालित करने का काम करता है।  मैं भी अपनी वेबसाइट उसी से डिजाइन कराने का इरादा रखता था।  मैं ने उसे कहा कि हम अपनी तीसरा खंबा के लिए कब बैठेंगे? अंकल आज शाम तो मेरे पास काम है हाँ आधी रात के बाद बैठ सकते हैं।  मैं ने उसे हाँ कह दिया।   तब तक उस ने मुझे कॉफी दे दी, वह अपना कप ले कर अपनी लेब में चला गया, वही उस के सोने का स्थान भी है। इसी लेब के साथ का टॉयलट मैं ने कल दिन भर प्रयोग किया था।  इस लेब में एक पीसी और एक लेपटॉप था। पीसी पर मोनू का सहायक और लेपटॉप पर खुद मोनू काम करते थे।  पूरे घर में ऐसी व्यवस्था थी कि किसी भी कंप्यूटर या लैपटॉप पर बिना कोई तार के इंटरनेट एक्सेस किया जा सकता था।   
संजीव तिवारी, मैं अभिभाषक वाणी के ताजा अंक हाथ में लिए, 
शकील अहमद सिद्दीकी और बी.एस. पाबला
मेरी सफर और नए शहर की थकान नहीं उतरी थी कॉफी से भी आलस गया नहीं। मैं ने फिर से चादर ओढ़ ली और जल्दी ही नींद फिर से आ गई।  अब की बार पाबला जी ने जगाया तब तक सात से ऊपर समय हो चुका था, वे घोषणा कर रहे थे कि हमें 10 बजे रायपुर के लिए निकलना है।  मुझे तुरंत तैयार होना था।  वे नाश्ते की पूछते इस से पहले ही मैं ने उन से उस के लिए माफी चाही, एक दिन पहले खाए-पिए से ही निजात नहीं मिल सकी थी।  पाबला जी ने कुछ ना नुकर के साथ मुझे माफ कर दिया।  कुछ देर बाद ही पता लगा कि साढ़े नौ बजे संजीव तिवारी के साथ दुर्ग के वकील शकील जो अधिवक्ता संघ दुर्ग के मासिक पत्र अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी साहब आ रहे हैं।  मैं और वैभव शीघ्रता से तैयार हो गए।  उन्हें आते आते 10 बज गए।  मैं दोनों से पहली बार मिला।  वे ऐसे मिले जैसे बिछड़े परिजन मिले हों।  बीसेक मिनट उन से बात चीत हुई और 30 जनवरी को 2 बजे दुर्ग बार एसोसिएशन पहुँचने का कार्यक्रम तय हो गया।

रायपुर के लिए पाबला जी के घर से निकलते निकलते साढ़े दस बज गए थे।  पाबला जी को वैन में एलाइनमेंट की समंस्या नजर आई। वैन को टायर वाले के यहाँ ले गए।  पाबला जी के कहने पर उसने एलाइनमेंट का काम पन्द्रह मिनट में पूरा कर दिया।  वैन बाहर आई तो अचानक ऐक्सीलेटर ने जवाब दिया।   उसे  दुरुस्त करा कर हम रायपुर के लिए रवाना हुए।  मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि भिलाई से रायपुर तक सड़क के दोनों ओर उद्योगिक इकाइयाँ और खाली भूमि नजर आई लेकिन खेती का नामोनिशान तक न था।  लगता  था दुर्ग से ले कर रायपुर तक सब जगह केवल उद्योग हैं या बस्तियाँ।  भिलाई में जरूर सघन वृक्षावली नजर आती हैं लेकिन वह भिलाई स्टील प्लाण्ट और टाउनशिप के निर्माताओं के प्रारूपण का कमाल है।  भिलाई 52 कारखाने और उन का प्रदूषण होते हुए भी उस का असर इस वृक्षावली के कारण ही कम नजर आता है।  पता नहीं कब नगर नियोजकों को यह गुर समझ आएगा कि नगर में भी बीच बीच में खेती और बागवानी के लिए भूमि आरक्षित की जाए तो प्रदूषण का मुकाबला करना कितना आसान हो सकता है?

 कार्टून वॉच का जनवरी अंक मेरे हाथ में, अनिल पुसदकर, त्रयम्बक शर्मा और वैभव
रायपुर प्रेसक्लब पहुँचे तो एक बज चुके थे।  अनिल पुसदकर जी और संजीत त्रिपाठी कुछ अन्य पत्रकार साथियों के साथ बाहर ही प्रतीक्षा करते मिले।  पुसदकर जी जैसे चित्र में लगते हैं, उस से  कहीं कम उम्र के लगे।  पहले उन्हों ने हमें प्रेस क्लब की पूरी इमारत का अवलोकन कराया।  भूतल के एक हॉल में प्रेस कान्फ्रेंस चल रही थी। पूरी इमारत दिखाने के बाद प्रथम तल के एक बड़े कॉन्फ्रेन्स हॉल में मंच के दाहिनी और हम सब बैठे बतियाने लगे।  सब से परिचय हुआ।  वे बताने लगे कि कैसे उन्हों ने अपने पत्रकारिता जीवन में अनेक समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के लिए पत्रकारिता का कार्य किया है।  पूरे विवरण में जो जरूरी बात नोट की जिसे वे छिपा रहे वह यह कि उन का छत्तीसगढ़ से बहुत लगाव रहा है।  उन्हों ने छत्तीसगढ़, वहाँ की जनता और पत्रकारों के हितों के लिए अनेक बार अपने रोजगार को भी दाँव  पर लगाया मुख्यमंत्री और उस स्तर तक के नेताओं से कभी समझौता नहीं किया।  आज मोतीबाग के बीच प्रेस क्लब की जो शानदार और सुविधाजनक इमारत खड़ी है।  उस में उन का योगदान सर्वोपरि है।

ब्लागरी के बारे में बात चली तो अनिल जी कहने लगे कि यह एक ऐसा माध्यम है जहाँ अपने विचार बिना किसी संकोच, दबाव और प्रभाव के स्वतंत्रता पूर्वक रखे जा सकते हैं।  वहाँ हाजिर सभी व्यक्ति  सहमत थे। वहीं कार्टून वॉच के संपादक त्रयम्बक शर्मा आ गए और चर्चा में सम्मिलित हो गए।  उन्हों ने मुझे और पाबला जी को पत्रिका के जनवरी अंक की एक-एक प्रति भेंट की।  कार्टून वॉच को इंटरनेट पर भी देखा है। लेकिन पत्रिका के रूप में देखना बहुत अच्छा लगा। मुझे बरसों पहले प्रकाशित होने वाली एक मात्र पत्रिका शंकर्स वीकली का स्मरण हो आया।  जिस का मैं नियमित ग्राहक था। यहाँ तक कि उस में प्रकाशित होने वाले कार्टूनों की नकल कर के अपने कार्टून बनाने के प्रयास भी किए।  लेकिन कुछ समय बाद वह पत्रिका बन्द हो गई और हमारे कार्टूनिस्ट कैरियर का वहीं अंत हो गया।  मैं ने त्रयम्बक जी ने बताया कि पत्रिका 12 वर्षों से लगातार निकल रही है और देश की एकमात्र कार्टून पत्रिका है।  मैं इस तथ्य से ही रोमांचित हो उठा। मैं ने त्रयम्बक जी को उसी समय वार्षिक शुल्क दिया।  उन्होंने उस की रसीद देने में असमर्थता जताई।  लेकिन रसीद के रूप में पत्रिका का फरवरी अंक मुझे समय पर मिल गया।  मेरी सोच यह है कि ब्लागरों को इस पत्रिका का शुल्क दे कर इस का ग्राहक बनना चाहिए।  जिस से इस एकमात्र कार्टून पत्रिका को आगे बढ़ने का अवसर मिले। त्रयंबक जी को कहीं और काम होने से वे जल्दी ही चले गए।  ...........आगे अगली कड़ी में
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