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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

कोई काल नहीं जब नहीं था, वह

वह एक 
तब भी था
अब भी है
आगे भी रहेगा।
कोई काल नहीं जब 
नहीं था, वह
कोई काल नहीं होगा
जब वह नहीं होगा।
काल भी नहीं था,

तब भी था वह,
और तब भी जब
स्थान नहीं था। 
उस के बाहर नहीं था
कुछ भी 
न काल और न दिशाएँ
उस के बाहर आज भी नहीं 
कुछ भी।
न काल और न दिशाएँ 
और न ही प्रकाश
न अंधकार।
जो भी है सब कुछ 
है उसी के भीतर।
आप उसे सत् कहते हैं?
जो है वह सत् है जो था वह भी सत् ही था 
जो होगा वह भी सत् ही होगा।
असत् का तो 
अस्तित्व ही नही।
कोई नहीं उस का 
जन्मदाता,
वह अजन्मा है 
और अमर्त्य भी।
वही तेज भी 
और शान्त भी,
कौन मापेगा उसे? 
आप की स्वानुभूति।
वह मूर्त होगा
आप के चित् में।
क्या है वह? 
पुरुष? या 
प्रकृति?या 
प्रधान?

कुछ भी कहें 
वह रहेगा 
वही,
जो था 
जो है 
जो रहेगा।

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

जलझूलनी एकादशी और बाराँ का डोल ग्यारस मेला

मैंने गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक के समय को खेती से जुड़े लोक अनुष्ठानों का समय कहा था। जिस में गणपति पूजा, गौरी स्थापना और विसर्जन हो चुका है। कल राजस्थान में वीर तेजाजी और बाबा रामदेव के मेले हुए। आज डोल ग्यारस shreeji1s(जलझूलनी एकादशी) है। आज मेरे जन्म-नगर बाराँ में जो अब राजस्थान के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र का मध्यप्रदेश से सटा एक सीमावर्ती जिला मुख्यालय है, एक पखवाड़े का मेला शुरु हो चुका है। यूँ तो इस मेले का अनौपचारिक आरंभ एक दिन पहले तेजादशमी पर ही हो जाता है। दिन भर तेजाजी के मन्दिर पर पूजा के बाद मेले में दसियों जगह गांवों से आए लोग रात भर ढोलक और मंजीरों के साथ खुले हुए छाते उचकाते हुए वीर तेजाजी की लोक गाथा गाते रहते हैं। आज की सुबह होती है मेले के शुभारंभ से। 
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मथुरा में जन्मे कृष्ण, उसी दिन नन्द के घर जन्मी कन्या, जिसे कंस ने मार डाला। कन्या के स्थान पर पर कृष्ण पहुँचे तो नन्द के घर आनंद हो dolmela3s गया। अठारह दिन बाद भाद्रपद शुक्ल एकादशी को माँ यशोदा कृष्ण को लिए पालकी में बैठ जलस्रोत पूजने निकली। इसी की स्मृति में इस दिन पूरे देश में समारोह मनाए जाते हैं। राजस्थान में इस दिन विमानों में ईश-प्रतिमाओं को नदी-तालाबों के किनारे ले जाकर जल पूजा की जाती है।
इस दिन बारां के सभी मंदिरों में विमान सजाए जाते हैं और देवमूर्तियों को इन में पधरा कर उन्हें एक जलूस के रूप में नगर के बाहर एक बड़े तालाब के किनारे ले जाया जाता है। सांझ पड़े dolmela11sवहाँ देवमूर्तियोँ की आरती उतारी जाती है और फिर विमान अपने  अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। मेरे लिए इस दिन का बड़ा महत्व है। नगर के सब से बड़े एक दूसरे से लगभग सटे हुए दो मंदिरों में से एक भगवान सत्यनारायण के मंदिर में ही मैं ने होश संभाला, और बीस वर्ष की उम्र तक वही मेरे रहने का स्थान रहा। दादा जी इस मंदिर के पुजारी थे, हम उन के एक मात्र पौत्र। अभी दादा जी के छोटे भाई के पुत्र, मेरे चाचा वहाँ पुजारी हैं।
तेजा दशमी के दिन ही काठ का बना छह गुणा छह फुट का विमान बाहर निकाला जाता, उस की सफाई धुलाई होती और उसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता। यह वर्ष में सिर्फ एक दिन dolmela14s ही काम आता था। दूसरे दिन सुबह दस बजे से इसे सजाने का काम शुरू हो जाता। पहले यह काम पिताजी के जिम्मे था। 14-15 वर्ष का हो जाने पर यह मेरे जिम्मे आ गया, हालांकि मदद  सभी करते थे। विमान के नौ दरवाजों के खंबे सफेद पन्नियाँ चिपका कर सजाए जाते। ऊपर नौ छतरियों पर चमकीले कपड़े की खोलियाँ जो गोटे से सजी होतीं चढ़ाई जातीं। हर छतरी पर ताम्बे के कलश जो सुनहरे रोगन से रंगे होते चढ़ाए जाते। विमान के अंदर चांदनी तानी जाती। विमान के पिछले हिस्से में जो थोड़ा ऊंचा था वहाँ एक सिंहासन सजाया जाता जिस पर भगवान की प्रतिमा को dolmela15s पधराना होता। आगे का हिस्सा पुजारियों के बैठने के लिए होता। विमान के सज जाने के बाद नीचे दो लम्बी बल्लियाँ बांधी जातीं जिन के सिरे विमान के दोनों ओर निकले रहते। हर सिरे पर तीन तीन कंधे लगते विमान उठाने को।
दोपहर बात करीब साढ़े तीन बजे भगवान का विग्रह लाकर विमान में पधराया जाता। आगे के भाग में एक और मेरे दादा जी या पिता जी बैठते, दूसरी ओर मैं बैठता। लोग जय बोलते और विमान को कंधों पर उठा लेते। विमान शोभायात्रा में शामिल हो जाता। सब से पीछे रहता  भगवान श्री जी का विमान और उस dolmela13s से ठीक आगे हमारा भगवान सत्यनारायण का। इस शोभा यात्रा में नगर के कोई साठ से अधिक मंदिरों के विमान होते। तीन-चार विमानों के अलावा सब छोटे होते, जिन में पुजारी के बैठने का स्थान न होता। शोभा यात्रा में आगे घुड़सवार होते, उन के पीछे अखाड़े और फिर पीछे विमान। हर विमान के आगे एक बैंड होता, उन के पीछे भजन गाते लोग या विमान के आगे डांडिया करते हुए कीर्तन गाते लोग। सारे रास्ते लोग फल और प्रसाद भेंट करते जिन्हें हम विमान में एकत्र करते। अधिक हो जाने पर उन्हें कपडे की गाँठ बना कर नीचे चल रहे लोगों को थमा देते।
शाम करीब पौने सात बजे विमान तालाब पर पहुंचता। सब विमान तालाब की पाल पर बिठा दिए जाते। लोग फलों पर टूट dolmela9sपड़ते, और लगते उन्हें फेंकने तालाब में जहाँ पहले ही बहुत लोग  केवल निक्करों में मौजूद होते और फलों को लूट लेते। फिर भगवान की आरती होती। जन्माष्टमी के दिन बनी पंजीरी में से एक घड़ा भर पंजीरी बिना भोग के सहेज कर रखी जाती थी। उसी पंजीरी का यहाँ भोग लगा कर प्रसाद वितरित किया जाता।
फिर होती वापसी। विमान पहले आते समय जो रेंगने की गति से चलता, अब तेजी से दौड़ने की गति से वापस मन्दिर लौटता। बीच में dolmela2sअनेक जगह विमान रोक कर लोग आरती करते और प्रसाद का भोग लगा कर लोगों को बांटते। 
मेला पहले की तरह इस बार भी तालाब के किनारे के मैदान में ही लगा है और पूरे पन्द्रह दिन तक चलेगा। अगर मेले के एक दो दिन पहले बारिश हो कर खेतों में पानी भर जाए तो किसान फुरसत पा जाते हैं और मेला किसानों से भर उठता है।

शनिवार, 9 अगस्त 2008

हमारी चिंता का विषय, जीता जागता, मेहनत करता हुआ इन्सान हो

  • आत्माराम
इस सृष्टि में समाज और इन्सान से परे धर्म का कभी कोई अस्तित्व न पहले रहा था और न ही आज है। लेकिन इससे भी पहले इस बात को कबूल करने कि जरूरत है कि इन्सान और समाज की पैदाइश से पहले इस सृष्टि का अस्तित्व था और सौ फीसदी था। यह बात सुनते हुए आप मन ही मन मुझसे एक सवाल कर सकते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति किसने की? मैं कहूंगा मैं नहीं जानता। लेकिन इतना तो जरूर ही जानता हूँ कि मानव इस सृष्टि पर बहुत ही बाद में उत्पन्न हुआ जीव है। लेकिन मैं यह नहीं कहूंगा कि मानव को भगवान ने पैदा किया। क्योंकि मैं नहीं जानता कि यह बात सही है या गलत। मैं कहूंगा मुझे नहीं मालूम। इसी सिलसिले में मैं कहूंगा कि धर्म की उत्पत्ति तो समाज के बहुत कुछ विकसित हो जाने के बाद की बात है, और इस सच्चाई को बार बार दोहराने की जरूरत ही नहीं है कि धर्म को मानव ने ही पैदा किया है। उस वक्त तक मानव का दिमाग इतना विकसित हो चुका था कि वह अपने और प्रकृति के बीच के संबंधों को समझने की प्रक्रिया में से गुजरते हुए, अपने संबंधों को परिभाषित भी करने लगा था। अनजानी और रहस्यमयी चीजों को परिभाषित करते वक्त अपने विचारों को उन रहस्यों पर आरोपित भी करने लग गया था। हम सोच सकते हैं कि इसी प्रक्रिया में कहीं न कहीं मानव ने धर्म संबंधी बातें भी सोची होंगी। ऐसा समझा जाता है कि मानव समाज के विकास की प्रक्रिया में, नगरों के बसने और उनके विकसित होने के इतिहास में ही कहीं न कहीं धर्म की उत्पत्ति की बात भी छुपी हुई है।
एक मत यह भी है कि, धर्म की उत्पत्ति उस वक्त की बात है, जब आम जनता की मेहनत को लूटने वाला एक ताकतवर तबका जन्म ले चुका था और उसने आम जनता पर विधिवत राज करना भी प्रारंभ कर दिया था। अर्थात हमारा मानव समाज सीधे-सीधे दो हिस्सों में बंट चुका था। उनमें से एक मेहनत करने वालों का हिस्सा था और दूसरा मेहनत को लूटकर राज करने वालों का। अब यह अलग बात है कि धर्म ने समाज के दोनों हिस्सों को किस तरह प्रभावित किया, और दोनों हिस्सों ने किस-किस रूप में धर्म को अपनाया। हम यह तो नहीं जानते कि इसकी उत्पत्ति के पीछे किसी व्यक्ति या समाज विशेष का हाथ रहा होगा। लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि इसके उपयोग में निश्चित ही एक खास वर्ग का हाथ जरूर रहा है। वर्णों और जातियों में विभक्त हमारे समाज में धर्म की धारणा के अलग अलग पैमाने किस तरह तय हुए होंगे ? इसका इतिहास जानना बहुत ही दिलचस्प होगा।
हमारे लिए यह जानना भी बहुत दिलचस्प रहेगा कि हर नये धर्म की पैदाइश का आधार ही, साधारण जनता को पुराने समाज के जुल्मों से मुक्ति दिलाना रहा है। जैसे बौद्ध धर्म का आधार सनातनी ब्राह्यणी समाज-व्यवस्था में जकड़ी भारतीय जनता को मुक्ति दिलाना ही रहा था। यह अलग बात है कि ऐसा संभव नहीं हुआ। क्यों कि धर्म में एक सीमा के बाद मानव समाज के भविष्य की कोई साफ़ सुथरी अवधारणा ही नहीं रह जाती है। जहां तक मानव को दुःखों से मुक्ति मिलने का सवाल है- हम कहना चाहेंगे कि मानसिक गुलामी से मुक्ति की राह ढूंढे बिना सामाजिक मुक्ति के रास्ते पर चलना बहुत कठिन है।
आज तक समाज मुक्ति के परे मानव मुक्ति की कोई अलग अवधारणा नहीं देखी गयी। इस जगत को छोड़कर कोई हिमालय में जाकर बैठ जाय तो वह शख्स हमारी चिंता का विषय नहीं हो सकता। हमारी चिंता का विषय जीता जागता और मेहनत करता हुआ इन्सान ही हो सकता है। जैसे आप, जो पढ़ रहें हैं और मैं, जो लिख रहा हूँ।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

मानव की अनुपस्थिति में धर्म का कोई अस्तित्व नहीं

  • आत्माराम
आजकल धर्म पर बड़ी बातें हो रही है। हम भी इससे अछूते नहीं हैं। हमें भी इस दिशा में अपनी बात कहनी चाहिये। कहने का मतलब है-बहुजन समाज के हित की बात कहनी चाहिये। हमारी समझ में आता है कि धर्म को वही आदमी ठीक से समझ सकता है, जो इस बात पर यकीन करता हो कि, मनुष्य का जन्म इसी पृथ्वी पर हुआ है और वह सतत विकास करता हुआ, आज यहां तक पहुंचा है। विकास की इस यात्रा की दिशा क्या रही, उसकी प्रकृति कैसी रही और किन किन कष्टप्रद प्रक्रियों से मनुष्य समाज को गुजरना पड़ा? हम सोचते हैं कि यात्रा संबंधी इन बुनियादी बातों को जानना ही धर्म को सही अर्थों को जानना होगा। क्यों कि धर्म की यात्रा मानव समाज की यात्रा से अलग हो ही नहीं सकती। हम सब जानते हैं कि मानव की अनुपस्थिति में धर्म की कल्पना तक नहीं की जा सकती। अतः अगर कोई आदमी समाज विकास की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को मानने और जानने से इनकार करता है तो यह समझना चाहिये कि वह शख्स निश्चित ही समाजविरोधी सोच का शिकार हो चुका है। इसलिए अनिवार्य रूप से वह धर्म विरोधी भी है। हमें इस सच्चाई को भी कबूल करना चाहिये कि मानव समाज सतत गतिशील है और यह गतिशीलता, समाज के भीतर मौजूद आंतरिक द्वंद्व के कारण ही है। यही आंतरिक द्वंद्व समाज के विकसित की एक मात्र और बुनियादी वजह भी है। और बुनियादी षर्त भी है। जिस तरह इस समाज की गतिशीलता में ही उसकी विकास के बीज छुपे हुए हैं, उसी तरह उसकी विकास प्रक्रिया में ही उसके धार्मिक होने के बीज भी छुपे हुए हैं। अतः समाज विकास प्रक्रिया को समझने के साथ ही आप अनिवार्य रूप से धर्म और उसके प्रभाव के इतिहास को, इतिहास विकास की प्रक्रिया को भी समझ पायेंगे। क्यों कि हम फिर इस बात को दोहराना चाहते हैं कि मानव समाज के बाहर और मनुष्य जीवन के परे, जैसा कि हम अनुभव करते आये है- धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। 
आज मैं अपनी वकालत के सिलसिले में कोटा के बाहर हूँ, और आप के लिए प्रस्तुत है मेरे एक मित्र 'आत्माराम' का धर्म के विषय पर यह आलेख....
यह बात भी सौ फीसदी सही है कि, इस पृथ्वी पर इन्सान की पैदाइश से पहले, धर्म की पैदाइश ही नहीं हुई थी और यह बात भी शतप्रतिशत सही है कि धर्म को किसी अलौकिक शक्ति ने पैदा नहीं किया है। यह तो मनुष्य की पैदाइश ही है। मनुष्य समाज ने अपनी विकास यात्रा में अपनी सुविधा के लिए हजारों अच्छी-बुरी चीज़ें पैदा कीं। आप जानते ही हैं कि उनमें से करोड़ों चीजें अब व्यावहार में नहीं हैं, जो कल तक व्यवहार में थीं। इसी तरह धर्म भी है। आज उसका स्वरूप ठीक ठीक वही नहीं है जो कल तक था। लेकिन जब धर्म की उत्पत्ति का सवाल उठता है तो लोग तपाक से पूछ बैठते हैं- कि भाई आखिर इसका उत्स कहां है ? निश्चित ही इस सवाल का जवाब गणित के किसी प्रमेय को हल करने की तरह प्राप्त नहीं किया जा सकता। और न ही किसी वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपश्चर्या करने से। इस सवाल का जवाब मानव समाज की विकास प्रक्रिया के भीतर छुपा हुआ है। अतःधर्म को समझने की बुनियादी शर्त है-मानव समाज की विकास यात्रा को जानना-समझना। यह इसलिए भी जरूरी है कि धर्म का संबंध समाज से है इसलिए इन्सान से भी है। इस सृश्टि में समाज और इन्सान से परे धर्म का कभी कोई अस्तित्व न पहले कभी रहा था और न ही आज है। इसलिए जिसे धर्म की सांगोपांग जानकारी चाहिये, उसके लिए मानव समाज के विकास का इतिहास पढना अनिवार्य है।

धर्म के बारे में एक अत्यंत मार्मिक टिप्पणी के साथ इस बात को कभी आगे फिर से चालू रखने के लिए छोड़ देते हैं। कहा गया है कि - 
‘‘....धर्म का इतिहास केवल मानव मस्तिष्क की भटकनों अथवा भ्रांतियों का इतिहास नहीं है।.... अगर ऐसा होता तो मानव जाति के इतिहास में उसकी भूमिका बड़ी ही साधारण रही होती।’’ आप इस बात पर गौर कीजिये कि इस परिवर्तनशील सृष्टि और क्षण-क्षण बदलते हुए विश्व में आखिर धर्म के इस तरह अतिदीर्घजीवी होने के क्या कारण है? (जारी)

शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।

इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने  से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे।  इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?

हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।

अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।

किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (6) ... ज्ञान और श्रद्धा

दुकानदार 24-25 वर्ष का नौजवान था। यहां तो बहुत लोग आते हैं? मैं ने उस से पूछा।

-हाँ, मंगल और शनिवार तो बहुत लोग आते हैं। उन दो दिनों में दुकानदारी भी अच्छी होती है। यूँ कहिए कि सप्ताह भर की कमाई इन दो दिनों में ही निकलती है। कुछ लोग रविवार या किसी छुट्टी के दिन आते हैं। बाकी दिन तो घटी-पूर्ती के ही हैं।

-स्टेशन से यहाँ तक की सड़क तो कच्ची है, गड्ढे भी बहुत हैं। जीपें भी दो ही चल रही हैं। बड़ी परेशानी होती होगी?

नहीं उस दिन तो आस पास के स्टेशनों पर रुकने वाली सभी ट्रेनें बीच में, आश्रम के नजदीक खड़ी हो जाती हैं। लोग उतर कर पैदल आ जाते हैं, एक किलोमीटर से भी कम पड़ता है।

यह व्यवस्था रेल्वे प्रशासन स्तर पर है या मौखिक इसे पता करने का साधन मेरे पास नहीं था। लेकिन लोग कह रहे थे कि यह रेल चालकों के सहयोग से ही होता है और, यह कुछ वर्षों से स्थाई व्यवस्था बन गई है।

-आश्रम कब से है यहाँ?

अभी जो बाबा हैं उन के पिता जी ने ही बनाया था। मंदिर भी उन के ही जमाने का है। वे बहुत पहुँचे हुए थे। उन के पास बहुत लोग आते थे। उन के बाद से आना कम हो गया था। पर कुछ बरसों से अभी वाले बाबा पर भी बहुत लोगों का विश्वास जमने लगा है। लोगों का आना बढ़ता जा रहा है। मंदिर का तो कुछ खास नहीं, पर लोग बाबा से ही मिलने आते हैं।

इतनी बात हुई थी कि मेरा लिपिक जीतू वहाँ आ गया, बोला –भाई साहब आप की कॉफी तो बनेगी नहीं पर नीबू बहुत हैं, मैं शिकंजी बना देता हूँ। मैं उस के साथ लौट कर आ गया। उसी ने याद दिलाया कि मेरी जेब में विजय भास्कर चूर्ण के पाउच पड़े हैं। उसने पूछा –आप ने नहीं लिया। मैं ने कहा –नहीं।

मैं विजया लेने का अभ्यासी नहीं। पर कहीं पार्टी-पिकनिक में उस से मुझे कोई परहेज नहीं। शायद मेरा शरीर ही ऐसा है कि मुझ पर उस का कोई विपरीत असर नहीं होता। मैं ने एक पाउच चूर्ण निकाल कर खा लिया, वह कुछ हिंग्वाष्टक के जैसे स्वाद वाला था। थोड़ी देर में जीतू मेरी शिकंजी ले आया। उस के पीने के बाद मेरा टहलने का मन हुआ तो मैं परिक्रमा पद-पथ पर चल पड़ा। दूसरे छोर पर शिव-मंदिर के पीछे हो कर दूसरे कोने पर पहुँचा तो वहाँ निर्माणाधीन सड़क दिखाई दी तो आश्रम का मानचित्र पूरी तरह साफ हो गया। उधर आश्रम और मंदिर का प्रवेश द्वार बनना था। जिस ओर जीप ने हमें उतारा था वह बाद में पिछवाड़ा हो जाना था। इस निर्माणाधीन सड़क के पार कुछ सौ मीटर से पहाड़ी श्रंखला शुरू होती थी, जो दूर तक चली गई थी। पहाड़ियों के बीच से एक बरसाती नाला निकलता था, जो ठीक आश्रम के पास हो कर जा रहा था। आश्रमं के ऊपर सड़क के उस पार पहाड़ी के नीचे आसानी से एनीकट बनाया जा सकता था। जिस में बरसात का पानी रुक कर एक तालाब की शक्ल ले सकता था। ऊपर पहाड़ियों में भी एक-दो स्थानों पर पानी को रोक कर भूमि और क्षेत्र में पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती थी। पर यह सब जंगल क्षेत्र था और शायद इस खर्च को सरकार फिजूल समझ रही थी। पर यह काम तो आश्रम के भक्त एक श्रमदान योजना के तहत भी कर सकते थे। इस से आश्रम का पड़ौस सुन्दर तो हो ही सकता था। आश्रम की भूमि के लिए सिंचाई का साधन भी उपलब्ध हो सकता था। मैं ने यह सुझाव लौट कर आश्रम भक्तों को दिया भी। लेकिन उन की इस में कोई रुचि नहीं थी। आश्रम में ट्यूबवैल पानी के लिए उपलब्ध था ही। यदि आश्रम के नेतृत्व में वाकई ऐसा कुछ हो जाए और उस का क्षेत्र में अनुसरण हो, तो सवाई माधोपुर व करौली जिलों में पानी की जो कमी दिखाई देती है उस का कुछ हद तक हल निकाला जा सकता है।

मैं परिक्रमा पूरी कर वापस लौट आया। मुझे पूरे परिक्रमा पद-पथ पर सभी लोग उलटे आते हुए दिखे तो मुझे शंका हुई कि मैं ने कहीं विपरीत परिक्रमा तो नहीं कर ली है। मैं ने खुद को जाँचा तो मैं सही था। मैं ने पूछा भी तो वहाँ के एक साधू ने बताया कि यहाँ विपरीत दक्षिणावर्त परिक्रमा ही की जाती है। क्यों कि यहाँ केवल शिव और हनुमान के मंदिर हैं और हनुमान भी शिव के रुद्र रूप ही हैं। मैं इस का अर्थ नहीं समझा। मैं ने पहली बार विपरीत परिक्रमा करते लोगों को देखा था। वापस लौटा तो भोजन को तैयार होने में आधे घंटे की देरी थी। अब यहाँ भोजन और रवानगी के सिवाय कुछ बचा न था।

मैं सुबह देखे स्नानघर की ओर चल दिया। वहाँ शौचादि से निवृत्त हो स्नान किया तो दिन भर की गर्मी का अहसास धुल गया। स्नान से विजया ने अपना असर दिखाना प्रारंभ कर दिया था, भूख सताने लगी थी। भोजन के स्थान पर पहुँच मंदिर के लिए भोग की पत्तल तैयार करवाई और नन्द जी के भाई को लेकर मंदिर भेजा। इधर महिलाओं को भोजन कराने को बैठाया। दूसरी पंगत में हम बैठे और तीसरी में बाकी लोग निपटे। उधर जीप आ चुकी थी। एक ही होने से लोगों को कई किस्तों में स्टेशन पहुँचाया। मैं अन्तिम किस्त में स्टेशन पहुँचा। हमें रेल का अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा, कुछ ही देर में जोधपुर भोपाल गाड़ी आ गई और हम रात्रि को ग्यारह बजने तक अपने घर पहुँच गए।

इस यात्रा में एक कमी मुझे बहुत अखरी। मैं जब घर से निकला था तो मुझे विश्वास था कि इस आश्रम में मुझे कुछ तो आध्यात्मिक और दर्शन चर्चा का अवसर प्राप्त होगा। लेकिन वहाँ उस का बिलकुल अभाव था। अध्ययन-अध्यापन बिलकुल नदारद। उस के स्थान पर कोरी अंध-श्रद्धा का ही फैलाव वहाँ नजर आया। नगरीय वातावरण से दूर पर्वतीय वनांचल में स्थित ऐसे आश्रम में जिसे जन सहयोग भी प्राप्त हो, कम से कम संस्कृत और भारतीय दर्शन के अध्ययन का केन्द्र आसानी से विकसित किया जा सकता है। इसे किसी विश्वविद्यालय से मान्यता भी दिलाई जा सकती है। ज्ञान का वहाँ प्रवेश हो सकता है। लेकिन शायद वहाँ ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। मुझे आश्रम के वर्तमान विकास का प्रेरणा स्रोत अंध-श्रद्धा में दिखाई दिया, और जहाँ ज्ञान का प्रकाश फैलता है वहाँ अंध-श्रद्धा का कोई स्थान नहीं होता।

बुधवार, 23 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -2

आश्रम द्वार बहुत बड़ा था, इतना कि ट्रक आसानी से अंदर चला जाए। द्वार पर लोहे के मजबूत फाटक थे। द्वार के बाहर बायीँ और दो छप्पर थे। जिन में पत्थर के कातलों की बैंचें बनी थीं और चाय बनाने और कुछ जरूरी सामानों की दुकानें थीं। दायीँ ओर खुली जगह थी जहाँ आश्रम तक आने वाले वाहन खड़े थे। द्वार के बाहर एक सूचना चस्पा थी " अपने वाहन गेट के बाहर ही खड़े करें। द्वार के अन्दर घुसते ही एक चौक था, जिस में द्वार पर चस्पा सूचना को धता बताती एक जीप खड़ी थी। सामने ही एक इमारत थी। बाद में पता लगा वह आश्रम की भोजन शाला थी। दायीं ओर नीचे सीढ़ियाँ थीं और नीचे कुछ इमारतें बनी हुई थी। बगल में एक कच्ची गौशाला जैसी थी।
बायीं और एक और चौक था जिस में कुछ दुकानें जैसी बनी थीं। बाद में पता लगा उन में से एक बरतन स्टोर था जहाँ से हम ने खाना बनाने के लिए बरतन वगैरा किराए पर प्राप्त किए। एक में आश्रम का कार्यालय था। जिस में साधु वेषधारी दो लिपिक हिसाब-किताब कर रहे थे। कुछ दरी-पट्टियाँ रखी थीं। कार्यालय के बाहर एक सूचना लिखी थी, कि सुबह व शाम के भोजन के लिए निश्चित समय के पूर्व कूपन प्राप्त कर लें। पूछने पर पता लगा कि यात्रियों के कूपन प्राप्त कर लेने से भोजन शाला को पता लग जाता है कि कितने व्यक्तियों का भोजन तैयार करना है।
दुकानों के सामने भोजनशाला से कुछ दूरी पर ही एक बड़ा सा कुआँ था। जिस में गहरी बोरिंग थी और बिजली की मोटर लगी थी। अर्थात आश्रम में बिजली थी। दुकानों से सटा हुआ एक दुमंजिला मकान था। जिस में पीछे की ओर मकान में ऊपर जाने सीढ़ियाँ बनी थीं। इस मकान में बाबा का निवास था। बाबा यानी आश्रम के अधिष्ठाता महन्त। मकान और कुएँ के मध्य एक विशाल और स्वस्थ पीपल का वृक्ष था, जिस के नीचे एक नयी नवेली बिना नंबर की कार खड़ी थी। कार किसी धनिक ने खरीदी थी और पूजा कराने के लिए आश्रम ले कर आया था। अंदर खड़ी जीप आश्रम की ही थी।
पीपल का पेड़ अब तक दृष्टिगोचर हुई तमाम वस्तुओं में एक मात्र आकर्षण था। अपने पूरे व्यास में उस की शाखाएं इस तरह फैली हुई थीं कि कोई भी चार फुटा व्यक्ति बिना श्रम किए हाथ ऊंचे कर उस के पत्तों को छू सकता था। पीपल के पेड़ के बाद एक चार फुट चौड़ा पदपथ नजर आ रहा था। जो अब तक दिखाई दिए निर्माणों की सीमा था। यह पदपथ लगभग डेढ़ सौ फुट लम्बा था जिस के दोनों सिरों से 90 डिग्री मुड़ कर दो भुजाएँ निकल कर आगे दूर तक चली गई थीं। ये भुजाएँ भी चार फुट चौड़ी दीवारों पर थीं पदपथ वहाँ भी था। कोई पांच सौ फुट आगे जाने पर। दोनों भुजाएं फिर आपस में मिल गई थीं। इस तरह यह पदपथ एक आयत बनाता था। सारे जूते-चप्पल इस पदपथ की सीमा के पहले ही खुले हुए थे। इस आयत के अंदर दो मंदिर नजर आ रहे थे एक उस ओर, और एक इस और।
मैं ने सब से पहले कुएँ पर लगे नल पर अपनी प्यास बुझाई। बाद में देखा तो भोजन शाला और कुएँ के मध्य एक और इमारत थी जो अंदर दूर तक चली गयी थी। दूर वाला आधा हिस्सा अभी निर्माणाधीन था। जानकारी मिली कि ये अतिथि शालाएं थीं। एक पुरानी और एक निर्माणाधीन। इन का निर्माण किन्हीं धनिकों ने करवाया था। निर्मित अतिथिशाला की छत पर एक सिन्टेक्स की काली टंकी रखी थी, जिस से नलों में पानी आ रहा था।
मैं जूते पहने-पहने ही पदपथ पर चल पड़ा। पदपथ पर सीमेंट की बनी टाइलें जड़ी थीं। बायीं भुजा पर लगभग तिहाई से आगे पदपथ के बायीँ और ही नीचे कच्ची भूमि पर एक पेड़ की छाया में भोजन बनाने की सामग्री सजा कर रख दी गई थी, जिस से जरूरत पड़ने पर उचित सामग्री तक तुरंत पहुँचा जा सके। यह सजावट भोजन-पंडित का काम था। सहूलियत भी उसी को होनी थी। वह कंड़ों का जगरा लगा चुका था। एक और पत्थरों का चूल्हा था, जिस में उपले सुलग रहे थे, ब्रेड़ पैकेट खोल कर परात में रख ली गईं थीं, भोजन-पंडित एक भगोने में बेसन में मसाला मिला कर घोल बनाने में व्यस्त था। मैं समझ गया, कुछ देर में गर्मागरम ब्रेड-पकौड़े मिलने वाले हैं। हमारे साथ आए कुछ लोग पंडित की मदद कर रहे थे। मेरे लिपिक दुर्गेश के पिता राष्ट्रीयःउच्च-मार्ग पर ढाबा चलाते हैं, ढाबे में ही वह बड़ा हुआ। अपना कौशल दिखाने के मकसद से वह तुरंत पंडित की मदद को पहुँच गया।
मैं पदपथ पर ही बाहर की ओर, जिधर हमारी अस्थाई भोजन शाला सजी थी, पैर लटका कर बैठ गया। हमारी अस्थाई भोजन शाला से कुछ ही आगे पत्थर की दीवारों पर चद्दरों के छप्पर डाल कर दो-तीन कमरों का आवास बनाया हुआ था। पूछने पर पता लगा कि यहाँ आश्रम के साधु निवास करते हैं। पकौडे. तले जाने में अभी देर थी। मैं ने तब तक मन्दिर देखना उचित समझा। मैं जूते पहने-पहने ही वापस पीपल के पेड़ की और पदपथ पर चल पड़ा। सामने से एक साधु आ रहा था। साधारण मैली सी धोती और कपड़े की बनियान पहने, नंगे पैर ही चल रहा था। गले में रुद्राक्ष और तुलसी मालाएँ थीं। दाढ़ी और बाल बढ़े हुए। माथे पर चंदन का टीका लगा था। पास आने पर उसने मुझे जूते पहन कर पदपथ पर चलने से रोका। मेरे माथे पर प्रश्नवाचक पढ़ कर बताने लगा कि यह पदपथ मंदिरों की परिक्रमा है। इस पर जूते क्यों लाए जाएँ? मैं ने अपनी अनभिज्ञता जताते हुए क्षमा मांगी और जूते पदपथ की सीमा के बाहर खोल। मंदिर की और बढ़ चला।

सोमवार, 21 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में

कल रविवार था। रविवार? सब के लिए अवकाश का दिन, लेकिन मेरे लिए सब से अधिक काम का दिन। उसी दिन तो मेरे सेवार्थियों (मुवक्किलों) को अवकाश होता है और वे मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। लेकिन कल का रविवार हम ने कोटा के बाहर बिताया।
मेरे सहयोगी वकील नन्दलाल शर्मा, जिन्हें हम संक्षेप में नन्दजी कहते हैं, लम्बे समय से वनखंडी आश्रम जाने को कह रहे थे। वजह थी कि उन के बड़े भाई एक गंभीर अपराधिक मुकदमे में फँसाए गए थे और उस में जमानत भी नहीं हुई थी। नन्द जी ने संकल्प किया था कि यदि उन के भाई मुकदमे में बरी हो गए तो वे वनखंडी आश्रम में हनुमान जी को भोग लगायेंगे। उन्हें संकल्प पूरा करना था। मुकदमे में मैं ने पैरवी की थी। इस कारण वे मुझे भी वहाँ ले जाना चाहते थे। मेरे कारण ही वे तारीखें आगे बढ़ाते रहे। शुक्रवार को उन्हों ने पूछा -भाई साहब, इस रविवार को वनखंडी चलें? तो व्यस्तता होते हुए भी मैं ने चलने को हाँ कर दी।
वहाँ कारें नहीं जा सकती थीं। वैसे भी कोटा-सवाईमाधोपुर सड़क मार्ग को चौड़ा किए जाने का काम चल रहा होने के कारण परेशानी थी। तो हम ने कोटा से रेल द्वारा रवाँजना डूँगर स्टेशन, और वहाँ से जीपों से वनखंडी तक का 5 किलोमीटर की यात्रा जीप से करने का तय किया। कोई तेजगति गाड़ी रवाँजना रुकती नहीं, इस कारण से सुबह 7 बजे रवाना होने वाली कोटा-जमुना ब्रिज पैसेंजर से ही जाना था। रात काम करते हुए 1 बज गए थे। सुबह अलार्म 4 बजे का लगाया गया। अलार्म ने शोभा (मेरी पत्नी) को तो जागने में मदद की लेकिन मुझ पर उस का कोई असर नहीं हुआ। मुझे शोभा ने सुबह साढ़े पाँच पर जगाया। देर हो चुकी थी। मैं झटपट तैयार हुआ तो मेरे एक अन्य सहयोगी और क्लर्क भी आ गए। हम चारों अपनी गाड़ी में लद कर नन्द जी के घर से कुछ सामान लादते हुए समय पर स्टेशन पहुँचे। गाड़ी रवाना होने में अभी भी 15 मिनट थे। हम ने चैन की साँस ली। गाड़ी ने पूरे पौन घंटे देरी से स्टेशन त्यागा। हम एक साथ जाने वालों की संख्या 30 हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वर्षाकाल के वन विहार पर जा रहे हों।
बहुत दिनों में पैसेन्जर का सफर किया था। अनेक प्रकार के स्थानीय निवासियों से गाड़ी भरी थी और हर स्टेशन पर रुकती, सवारियाँ उतारती-चढ़ाती चल रही थी। गाड़ी में जहाँ मुझे बैठने को स्थान मिला वहाँ सब महिलाएँ थीं। उन में एक थीं लगभग साठ की उम्र की नन्द जी की विधवा जीजीबाई (बहिन)। वे बातें करने लगीं। कुछ देर बाद ही पता लग गया कि वे पक्की स्त्री समर्थक थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। सारा जीवन एक घरेलू महिला की तरह बिताया। उन के अध्ययन और जानकारियों का प्रमुख स्रोत उन के द्वारा बहुत से कथावाचकों से सुनी धार्मिक कथाएँ और उन के बीच-बीच सुनाए जाने वाली दृष्टान्त कथाएं थीं। काफी सारा धार्मिक साहित्य उन का पढ़ा हुआ था। वे लगातार बात करती रहीं। उन के स्वरों में जरा भी आक्रामकता नहीं थी, लेकिन वे एक-एक कर समाज की पुरुष प्रधानता पर आक्रमण करती रहीं। उन्हें इस का अवसर हमारे साथ ही जा रहे नन्द जी के बच्चों के ट्यूशन-शिक्षक के कारण मिल गया, जिन का अपनी पत्नी से विगत सात-आठ वर्षों से विवाद चल रहा था। उन की पत्नी उन के साथ आ कर रहने को तैयार नहीं थी। वे लगातार इस बात पर जोर देती रहीँ कि भाई अपनी पत्नी को मना कर ले आओ, उसी में जीवन का सार है। गन्तव्य स्टेशन तक का सफर उन्हीं की बातों में कब कट गया पता ही न चला।
इस बीच उस पण्डित की तलाश हुई जिस ने हमारा भोजन बनाना था। भोजन, यानी कत्त-बाफले। पण्डित कोटा स्टेशन तक तो आ चुका था। लेकिन ट्रेन पर चढ़ पाया था, या नहीं इस का पता नहीं चल रहा था। सोचा, चढ़ लिया होगा तो अवश्य ही उतरने वाले स्टेशन पर मिल जाएगा। नहीं मिला तो? लेकिन नन्द जी आश्वस्त थे।
गाड़ी पैसेंजर थी, लेट चली थी, तो किसी भी तेजगति गाड़ी या मालगाड़ी को निकालने के लिए उसे खड़ा कर दिया जाता। नतीजा सवा नौ के स्थान पर ग्यारह बजे स्टेशन पर उतरे। गाड़ी चली गई। हम ने भोजन-पंड़ित को तलाश किया तो वह नदारद था। खैर, तय हुआ कि वनखंडी में ही किसी की तलाश कर ली जाएगी या फिर खुद हाथों से बनाएंगे। स्टेशन के बाहर दो ही जीपें उपलब्ध थीं। पता लगासवारियों को पहुँचाने के लिए फेरे करेंगी। हम सब से पीछे वाले फेरे के लिए रुक गए। जीपें जब दूसरा फेरा कर रही थीं तब फोन आया कि पंडित किसी एक्सप्रेस ट्रेन को पकड़ कर सवाई माधोपुर पहुँच गया था, वहाँ से बस पकड़ कर पास के बस स्टेंड पहुँच गया है और वहां से वनखंड़ी की ओर रवाना हो चुका है। हमारी भोजन बनाने की चिन्ता दूर हो चुकी थी।
जीप के तीसरे और आखिरी फेरे ने हमें स्टेशन से मात्र पांच किलोमीटर दूर आश्रम तक पहुंचाया। बीच में केवल एक छोटा गाँव था। उसी गांव से कोई डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर आश्रम दो स्टेशनों के मध्य रेलवे लाइन से कोई पौन किलोमीटर दूर स्थित था। दो ओर खेत थे, तीसरी ओर जंगल और चौथी तरफ एक कम ऊंचा पहाड़ी श्रंखला। आदर्श स्थान था। मेरे मन में आश्रम की जो काल्पनिक छवि बनी थी उस के मुताबिक एक बड़े से घेरे में कुटियाएँ बनी होंगी, मन्दिर होगा, आश्रम में छोटा ही सही पर विद्यालय चलता होगा, जिस में संस्कृत अध्ययन होता होगा। निकट ही कहीं जल स्रोत के लिए कोई झरना होगा, जहाँ से निर्मल जलधारा निकल बह रही होगी। आश्रमवासी कुछ खेती कर रहे होंगे। लोग वहाँ आध्यात्म सीखने और अभ्यास करने जाते होंगे। आश्रम के महन्त अवश्य ही कोई ज्ञानी पुरुष होंगे, आदि आदि। लेकिन जैसे ही जीप से उतरे आश्रम का द्वार दिखाई पड़ा और उस के पीछे पक्के निर्माण देखते ही मन में निर्मित हो रहा काल्पनिक आश्रम तिरोहित हो गया। (जारी)

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

गति, प्रकृति का प्रथम धर्म

गति और जीवन प्रकृति के धर्म हैं। दोनों के बिना किसी का अस्तित्व नहीं। हम यह भी कह सकते हैं कि ये दोनों एक ही सिक्के के अलग अलग पहलुओं के नाम हैं। गति के बिना जगत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। संभवतः गति ही वह प्रथम धर्म है, जिसने इस जगत को जन्म दिया। हम इसे समझने का यत्न करते हुए जगतोत्पत्ति के आधुनिकतम सिद्धान्तों में से एक महाविस्फोट (बिगबैंग) के सिद्धान्त पर दृष्टिपात करें।
सब कुछ एक ही बिन्दु में निहित। क्या कहा जा सकता है उसे? पदार्थ? या कुछ और? सांख्य के प्रवर्तक मुनि कपिल ने नाम दिया है प्रधानम्। वे कहते हैं...
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्।।
अर्थात् अचेतन प्रधान ही स्वतंत्र रूप से जगत का कारण है। चाहे तो आप उसे ईश्वर, ब्रह्म, अक्षर, अकाल, खुदा या और कोई भी नाम दे सकते हैं। कोई भी सिद्धान्त हो। सब से पहले जिस तत्व की कल्पना की जाती है वही है यह। इसी से समूचे जगत (यूनिवर्स) की उत्पत्ति कही जाती है। कपिल कहते हैं वह अचेतन था, और महाविस्फोट का कारण? निश्चय ही गति।
पदार्थ जिसे कपिल ने प्रधानम् कहा। हम आद्यपदार्थ कह सकते हैं। अगर पदार्थ है, तो गुरुत्वाकर्षण भी अवश्य रहा होगा। संभवतः पदार्थ के अतिसंकोचन ने ही महाविस्फोट को जन्म दिया हो। मगर वह गति ही दूसरा तत्व था जिसने अचेतन प्रधान को जगत में रूपान्तरित कर दिया।
बाद के सांख्य में पुरुष आ जाता है। वह गति के सिवाय क्या हो सकता है? मगर कहाँ से? आद्यपदार्थ अथवा आद्यप्रकृति से ही न?
यह गति ही है, जो प्रकृति के कण कण से लेकर बड़े से बड़े पिण्ड का धर्म है। जो सतत है। गति है, तो रुपान्तरण भी सतत है। वह रुकता नहीं है। कल जो सूरज उदय हुआ था, वह आज नहीं, और जो आज उदय हुआ है वह कल नहीं होगा। हर दिन एक नया सूरज होगा। रूपान्तरित सूरज। हम जो आज हैं, वह कल नहीं थे। जो आज हैं वह कल नहीं रहेंगे। रुपान्तरण सतत है, सतत रहेगा।
फिर क्या है, जो स्थिर है? वह आद्य तत्व ही हो सकता है जो स्थिर है। उस का परिमाण स्थिर है। परिवर्तित हो रहा है तो वह केवल रूप ही है। हम वही होना चाहते हैं। स्थिर¡ हमारा मन करता है, स्थिर होने को। कहीं हम समझते हैं कि हम स्थिर हो गए। लेकिन रूप स्थिर नहीं। वह सतत परिवर्तनशील है।
फिर हम किसी को माध्यम बनाएँ या नहीं। रूपान्तरण चलता रहेगा। निरंतर और सतत्।
आज की इस पोस्ट के लिए प्रेरणा का श्रोत हैं, सम्माननीय ज्ञानदत्त जी पाण्डेय। जिन के आज के आलेख ने मेरे विचारबंध को तोड़ दिया, और यह सोता बह निकला। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।