मैं लॉबी से लौटा तो मुझे अपने बैग की चिंता हुई, कहीं कोई उसे न ले उड़े। लेकिन बैग हॉल में यथा स्थान मिल गया वहीं मुझे सिरफिरा जी मिल गए, अपने फोटो खींचने के यंत्रों को संभाल रहे थे। मैं भोजन के लिए बाहर गैलरी में आ गया। स्थान बहुत संकुचित था और लोग अपेक्षाकृत अधिक। भोजन के लिए पंक्ति बहुत लंबी थी। मैं पंक्ति के हलका होने तक बाहर आ गया। तब तक सिरफिरा बाहर आ गए थे। उन्हों ने मेरे बैग की जिम्मेदारी संभाल ली। मैं ने देखा मोहिन्द्र कुमार भी पंक्ति के कुछ छोटा होने की प्रतीक्षा में थे। सिरफिरा मुझ से आग्रह कर रहे थे कि मैं आज वापस न लौट कर उन के घर चलूँ। वे मुझे अगले दिन स्टेशन या बस जहाँ भी संभव होता छोड़ने को तैयार थे। एक बार तो मुझे भी लालच हुआ कि रुक जाऊँ। लेकिन फिर लालच पर नियंत्रण कर उन्हें कहा कि मैं अगली बार आउंगा तो उन के घर ही रुकूंगा। फिर वे उन की व्यक्तिगत और ब्लागरी की समस्याओं पर बात करने लगे।
परिकल्पना सम्मान ग्रहण करते आयोजक अविनाश वाचस्पति |
इस बीच कुछ और ब्लागरों से बात चीत होती रही। कोई पौन घंटे बाद जब भोजन के लिए पंक्ति कम हुई तो मैं ने अपना भोजन लिया। भोजन के प्रायोजक डायमंड बुक्स वाले प्रकाशक थे। भोजन में दाल बहुत स्वादिष्ट बनी थी। मुझ से नहीं रहा गया। मैं अंदर भोजनशाला में गया और पूछा कि दाल किसने बनाई है। तब वहाँ बैठे कारीगरों ने बताया कि सब ने मिल कर बनाई है। फिर बताया कि इस ने उसे चढ़ाया, इस ने छोंका आदि आदि। मुझे लगा कि यदि सब का समरस योगदान हो तो भोजन स्वादिष्ट बनता है। आम तौर पर कोई मेहमान इस तरह प्रशंसा करने भोजनशाला में नहीं जाता। अपनी प्रशंसा सुन उन्हें प्रसन्नता हुई। मुझे इस के प्रतिफल में वहाँ ताजा निकलती गर्म-गर्म पूरियाँ मिलीं। भोजन के दौरान सिरफिरा मेरे साथ बने रहे। जैसे ही भोजन से निवृत्त हुआ मोहिन्द्र कुमार जी ने इशारा किया कि अब चलना चाहिए। मैं अपना बैग लेने के लिए सिरफिरा की तरफ बढ़ा। उन्हों ने बैग न छोड़ा, वे मुझे कार तक छोड़ने आए। कुछ ही देर में कार फरीदाबाद की ओर दौड़ रही थी। मोहिन्द्र जी ने मुझे मथुरा रोड़ पर सैक्टर-28 जाने वाले रास्ते के मोड़ पर छोड़ा, वहाँ से मैं शेयर ऑटो पकड़ कर गुडइयर के सामने उतरा। यहाँ कोई वाहन उपलब्ध न था। अब मेरा गंतव्य केवल एक किलोमीटर था। मैं पैदल चल दिया। बिटिया के घर पहुँचने पर घड़ी देखी तो तारीख बदल रही थी।
अगली सुबह शाहनवाज से बात हुई तो पता लगा कि खुशदीप ने ब्लागरी छोड़ने की घोषणा कर दी है। मैं ने तुरंत बिटिया के लैपटॉप पर उन का ब्लाग देखा। बात सही थी। पर मैं जानता था कि यह भावुकता में लिया गया निर्णय है। मैं सोचने लगा कि कैसे खुशदीप को जल्दी से जल्दी ब्लागरी के मैदान में लाया जाए। अगले दो दिन इसी योजना पर काम भी किया और अंततः खुशदीप फिर से ब्लागरी के मंच पर हमारे साथ हैं। हम ने दोपहर बाद कोटा के लिए ट्रेन पकड़ी और रात को साढ़े आठ बजे हम कोटा में अपने घर थे। घर धूल से भरा हुआ था। चल पाना कठिन हो रहा था। जैसे तैसे हम ने स्नान किया। पत्नी ने बताया कि जरूरी में किचन का कुछ सामान लाना पड़ेगा। हम तुरंत कार ले कर बाजार दौड़े। सब दुकानें बन्द थीं। फिर याद आया कि आज तो बन्द ही होनी थी, रविवार जो था। फिर मुझे एक दुकान याद आई जो इस समय खुली हो सकती थी। सौभाग्य से वह खुली मिल गई। हम सामान ले कर घर लौटे। भोजनादि से निवृत्त हुए तो फिर तारीख बदल रही थी। घर की सफाई का काम अगले दिन के लिए छोड़ दिया गया।
रविन्द्र प्रभात |
23 टिप्पणियां:
द्विवेदी सर,
सौ में पहला नाम तो मेरा लिख लीजिए...
पिछले साल पांच नवंबर को ठीक दीवाली वाले दिन पिता का साया सिर से उठा था...
न जाने क्यों इस बार आपसे मिला तो पिता का वही हाथ सिर पर फिर महसूस किया...
जय हिंद...
सहकारी प्रकाशन का विचार तो अच्छा है जी.
सही विचार है - सौ पूंजी निवेशक होने का अर्थ है कि सौ आलेख और सौ खरीदार तो पक्के। इतने में पुस्तक की कीमत निकल आये तो बाहर होने वाली थोडी बिक्री भी मुनाफा ही मुनाफा है।
सही मायने में ब्लॉगिंग यही है - सम्पर्क के दायरे को बढ़ाना और उसकी वर्चुअल जगत से यथार्थ के जगत में इस प्रकार के समारोहों से पुष्टि करना।
आपकी पोस्ट अच्छी लगी।
सहकारिता की भावना अच्छी है। प्रयोग सफल हो तो अपने आप में एक मिसाल बन सकता है। पर ब्लॉगर को छपाई-किताब की जरूरत क्यों?
सहकारी प्रकाशन वाला विचार बहुत बढ़िया है १०० ब्लोगर्स में एक हमारा नाम लिख लीजिये अब सिर्फ ९८ नाम और चाहिए :)
मैंने सुना है कलकत्ता की एक संस्था हर पुस्तक के ३५० अंक प्रिंट मूल्य पर खरीदती है यदि ये सच है तो वहां जुगाड़ लगने के बाद लागत तो निकल ही सकती है |
'जैसे ही भोजन से निवृत्त हुआ'-
आपत्ति माई लार्ड!
भोजन से संतृप्त हुआ जाता है निवृत होने की प्रक्रिया तो उसके काफी बाद होती है!:)
प्रकाशन का धंधा शुरू किया जाय!
@Arvind Mishra
डॉ. साहब निवृत्त शब्द के लिए आप्टे का संस्कृत शब्दकोश कहता है-
निवृत्त= 1.संतृप्त,संतुष्ट,प्रसन्न,2. निश्चिंत, बेफ़िकर, आराम से 3. विश्रांत, समाप्त
kyaa baat hai dinesh bhaai saahb choke chhkke or an shtaabdi maar di hai . akhtar khan akela kota rajsthan
@मैंने तो लाईटर वीन में कहा था -मगर चलिए चर्चा हो ही जाय निवृत/निवृत्ति के समानार्थी अंगरेजी शब्द हैं -
-disencumberance,retirement, resignation (from mundane activity)freedom ,liberation, absence of occupation ,completion ,finishing termination
ये सारे शब्द शौचादि निवृत्ति की ओर ज्यादा संकेत करते हैं न कि भोजनोपरांत स्थिति को ..
शब्दों के कई अर्थ हो सकते है मगर उनके सटीक प्रयोग पर भावबोध निर्भर होता है -
भोजन में तो सदैव प्रवृत्ति का ही भाव होता है इससे निवृत्ति कहाँ ? जो भोजन से निवृत्त हो जाय वह कैसा भोजन भट्ट !
इस आयोजन पर आपकी रिपोर्ट की सभी कड़ियाँ आज पूरा पढ़ सका। बहुत अच्छी और तृप्त करने वाली रिपोर्ट है। आभार।
समय प्रबन्धन बहुत जरूरी है ऐसे कार्यक्रमों में।
कमाल है... द्विवेदी जी, बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ आपने पुरे के समारोह का शाब्दिक चित्रण किया है... लग रहा है कि हम दुबारा वहीँ पहुँच गए हैं....
sabki apni apni chahat hai... kyun khinchaai karna . her jagah kuch paane ke liye ganwana padta hai... jod ghataaw karen to dikkat hi hogi n
पुस्तकों की पहुँच और संग्रहणीयता पर एक बहस आवश्यक है अब।
@ " जुगाड़ लगाने और पटाने की कला में माहिर होना जरूरी है"
ऐसे कई कलाकार उपलब्ध हैं ....किराये पर ले लेंगे ! :-)
सौ में खुशदीप जी के साथ मेरा नाम भी लिखिए ...मैं आपके साथ हूँ :-)
दिवेदी जी खुशदीप का नही सब से पहले मेरा नाम लिख लीजिये। पुस्तक की सामग्री तो त्यार है। अग्रिम शुभकामनायें स्वीकार करें। धन्यवाद।
गुरुवर जी, आपका उपरोक्त लेख पढ़कर आपकी इच्छा जानने का अवसर प्राप्त हुआ.
सर्वप्रथम-आप जो-जो किताब नहीं खरीद पाए थें. मुझे उन किताबों की सूची भेजें. आपका नाचीज़ शिष्य डायमंड पाकेट बुक्स के साथ ही कई प्रकाशकों का बिक्री एजेंट है. आपनी सेवा करने का अवसर प्रदान करें. मुझे जो कमीशन प्राप्त होता है, उसी के माध्यम से आपको सबसे बेस्ट कोरियर सेवा से एक-दो दिन में किताबें पहुँचाने का मेरा पक्का और अटल वादा है.
गुरुवर :- इस पुस्तक के आगमन ने ब्लागरों में अपनी पुस्तक के प्रकाशन की क्षुधा को जाग्रत किया। अनेक ने वहीं प्रकाशकों से सम्पर्क भी किया। लेकिन वे तब सहम गए जब उन से कहा गया कि सौ पृष्ठ की पुस्तक के प्रकाशन के लिए स्वयं लेखक को कम से कम 20-22 हजार रुपयों का निवेश करना पड़ेगा। मुझे लगा कि इस तरह का लेखक होने से अधिक प्रकाशक होना फायदेमंद धन्धा हो सकता है। हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा आए। खुद लेखक के निवेश से पुस्तक प्रकाशित करो, उसे कोई लाभ हो न हो, प्रकाशक का धंधा तो चल निकलेगा। हो सकता है यह विचार कुछ और लोगों के मस्तिष्क में भी कौंध रहा हो। यदि ऐसा हुआ तो शीघ्र ही दो चार ब्लागर साल के अंत तक लेखक होते होते प्रकाशक होते दिखाई देंने लगेंगे। यदि ऐसा हुआ तो यह भी आयोजन की अतिरिक्त उपलब्धि होगी। मैं ने अनुमान लगाया कि यदि मैं इस तरह का प्रकाशक बनने की कोशिश करूँ तो कितना लाभ हो सकता है। कुछ गणनाएँ करने पर पाया कि इस में जुगाड़ लगाने और पटाने की कला में माहिर होना जरूरी है। मैं ने पाया कि अपने लिए वकालत ही ठीक है। हाँ सौ के करीब ब्लागर सहमत हो जाएँ तो आपसी सहयोग से एक सहकारी प्रकाशन अवश्य खड़ा किया जा सकता है।
सिरफिरा:- मैंने काफी समय पहले ही आपके ब्लॉग "तीसरा खम्बा" पर आपकी एक "क़ानूनी सलाह" पुस्तक प्रकाशित करने का प्रस्ताव रखा था. तब आपको कहा भी था कि-गुरु दक्षिणा(रोयल्टी) से वंचित नहीं करूँगा. तब किसी प्रकाशक को क्यों 20-22 हजार रूपये दिए जा रहे हैं. आज प्रकाशकों द्वारा लेखक इसी प्रकार शोषण करता है. मेरे पास किताबों को विक्री का अनुभव भी और मार्किटिंग को लेकर बहुत अच्छी योजना भी है. बस "रोयल्टी" पर थोडा-सा क़ानूनी ज्ञान नहीं है. अगर आप एक उपरोक्त विषय पर एक पोस्ट प्रकाशित कर दें. तब रोयल्टी को लेकर अपने प्रकाशन परिवार की रणनीति व नियम/शर्ते बनाने में आसानी हो जाये. आपके सौ के करीब ब्लागर सहमत हो जाएँ तो आपसी सहयोग से एक सहकारी प्रकाशन अवश्य खड़ा किया जा सकता है वाली बात पर 101 वें स्थान पर मुझे भी रख लें, क्योंकि 101 वां स्थान इसलिए मेरा ब्लॉग अभी "अजन्मा बच्चा" हैं. इसके साथ ही अगर सौ ब्लागर मुझे योग्य माने तब प्रत्येक पुस्तक पर केवल दो रूपये का लाभ पर प्रकाशित करने में सहयोग करने को तैयार हूँ. जैसे- श्री खुशदीप सहगल की किताब "देशनामा" की 1000 प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं. तब मुझे लाभ के केवल दो हजार रूपये दे दिए जाए. इससे काफी मेरी जानकारी का लाभ प्राप्त करके किताब बहुत सस्ती छप सकती हैं और पाठकों तक बहुत कम दामों में पहुंचाई जा सकती है. किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. अगर मेरे "प्रकाशन परिवार" के कोई भी किताब की पान्ठुलिपि मापदंड(समाज व देशहित और आमआदमी को जागरूक करने का उद्देश्य) को पूरा करती हैं और मेरे प्रकाशन परिवार द्वारा प्रकाशित होती हैं. तब लेखक को रोयल्टी देने को भी तैयार हूँ. मरे पास दस ISBN नं. भी है.
क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ. आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?
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दिनेश जी , बहुत अच्छा लगा आपका सुझाव।
और हाँ , उस स्वादिष्ट दाल को चखने के लिए मन तरस रहा है।
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सही विचार है| धन्यवाद|
सर जी,दाल का स्वाद बता सभी को लुभा रहें हैं आप.खुशदीप भाई की तबियत न खराब होती,तो शायद यह दाल उनके ब्लॉग जगत से बाहर जाने की दाल ही न गलने देती.पर फिर भी आपने उन्हें मना ही लिया और उन्होंने भी पितातुल्य आपका वरद हस्त पा ही लिया.यही सबसे बड़ी उपलब्धि है सम्मलेन की शायद.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
प्रकाशन व्यवसाय की इसी 'अच्छाई' के चलते मैंने न पुस्तक ख़रीदी और न ही ख़रीदने का इरादा रखता हूं, भले ही इसमें एक लेख मेरा भी है, संभव हुआ तो अविनाश जी से एक दिन मांग कर पढ़ लूंगा...बस्स्स :)
आपने दाल बनाने वाले रसोइयों से मिल कर उनकी कला की प्रसंशा की... आपने मेरा दिल जीत लिया. बहुत भला लगा यह पढ़ कर.
प्रकाशक की मजबूरी यह है कि नए लेखकों की किताबें बिक नहीं पातीं और अगर वह उनमें पैसा लगाएगा तो वह कभी वापस नहीं आएगा। जो लोग अपने ‘किताब वाला‘ होने का शौक़ पूरा करना चाहते हैं। ऐसे लोग उन्हें पैसा देते हैं और फिर वे लेखक अपनी किताबें अपने मिलने वालों को गिफ़्ट करते रहते हैं, आजीवन।
इसके बावजूद प्रकाशक ने ख़र्चा बताने के नाम पर अपना सेवा शुल्क भी जोड़ दिया है। हम आए दिन किताबें छपवाते रहते हैं। 32 पेज की किताब को एक हज़ार की संख्या में छपवाया जाए तो मात्र 3 हज़ार रूपये का ख़र्चा आता है। काग़ज़ की क्वालिटी को अगर थोड़ा और बेहतर भी किया जाए तब भी ख़र्च थोड़ा ही बढ़ता है। इन बिंदुओं को सामने रखकर कहीं भी छपवा लीजिए, किताब का ख़र्च सहने लायक़ हो जाएगा।
किताबें अगर 500 छपवाई जाएं तो मज़दूरी तो प्रेस वाला हज़ार किताब छापने के बराबर ही लेगा लेकिन काग़ज़ की लागत घट जाएगी।
धन्यवाद !
पोस्ट अच्छी है।
जुगाड़ लगाने और पटाने की कला में माहिर होना जरूरी है" अजी इस काम के लिये हमारे एक ब्लागर मित्र हे, जिन की बातो से बच पाना कठिन हे, यह काम उन के सहारे ही छोडा जायेगा, वैसे आप की जानकारी के लिये बता दुं वो आप के पेशे वाले ही हे ओर दिल्ली मे रहते हे, बहुत मिलन सार हे, आज कल बिना मुछॊं के पाये जाते हे:)प्रकाशन का काम तो अच्छा हे आज कल तो यह काम बहुत आसान हो गया हे पहले की तुलना मे अगर मुड हो तो जरुर बताये, मै यहां से नयी टेकनिक की पुरी जानकारी ले लूंगा, क्योकि यहां नेट से अगर हम एक किताब भी बुक करे तो, वो एक किताब भी छप जाती हे
प्रिंट ऑन डिमांड (पोथी डॉट कॉम) के जरिए न्यूनतम ५०० रुपए खर्च कर किताब छपवाई जा सकती है.
मेरी दो किताबें ऐसे ही प्रकाशित हुई हैं.
विवरण यहाँ दर्ज है-
http://raviratlami.blogspot.com/2008/08/blog-post_05.html
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