इस बार मैं 5 दिसंबर से 13 दिसंबर तक यात्रा पर रहा। इस यात्रा में जयपुर, मेरी ससुराल जो राजस्थान के झालावाड़ जिले के अकलेरा कस्बे में है, सीहोर (म.प्र.) और भोपाल जाना हुआ। जयपुर यात्रा तो रूटीन की कामकाजी यात्रा थी। लेकिन ससुराल और सीहोर मेरी साली के बेटे की शादी थी। इस बीच बहुत लोगों से मिलना हुआ। कुछ ब्लागर साथियों से भी मुलाकात हुई। उन सब के बारे में लिखना भी चाहता हूँ। लेकिन अभी कुछ तारतम्य ही नहीं बन पा रहा है। चलिए उन के बारे में फिर कभी। यात्रा से वापस लौटने के तीसरे दिन 15 दिसंबर को ही हमारी कोटा की अभिभाषक परिषद के चुनाव थे। उस के एक दिन पहले सिम्पोजियम हुआ, जिस में सभी उम्मीदवारों ने अपना-अपना घोषणा पत्र घोषित किया। सिम्पोजियम में भाग लेने के लिए उम्मीदवारों से अच्छा खासा शुल्क लिया जाता है। इस तरह एकत्र राशि से शाम को वकीलों का भोज आयोजित किया जाता है। इस बार 1300 के लगभग मतदाता थे। तो कोटा की परंपरागत कत्त-बाफला के स्थान पर बफे-डिनर आयोजित किया गया। जैसा कि सब का विश्वास था, डिनर में सब से पहले एक मिठाई समाप्त हो गई, फिर दूसरी और धीरे-धीरे अंत में केवल चपाती, पूरी और दाल ही शेष रह गई। देरी से आने वालों को इन से ही संतुष्ट होना पड़ा। जब डिनर का अंतिम दौर चल रहा था तो मौज-मस्ती आरंभ हो गई और नौजवान लोग संगीत पर नृत्य करने लगे। इस बीच मुझे एक कहानी सूझ पड़ी, जिसे मैं ने भोज के दौरान और दूसरे दिन जब मतदान हो रहा था तो चार-पाँच लोगों के तकरीबन पच्चीस से तीस समूहों को सुनाया। हर बार कहानी में कुछ कुछ सुधार (improvisation) होता रहा। आज वही लघु-कथा आप के सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ .....
'लघुकथा'
चिड़ियाघर
- दिनेशराय द्विवेदी
इधर इंसानों की आबादी बढ़ती रही और जंगल कटते रहे। इंसानों ने नदियों पर बांध बना लिए, नतीजे के तौर पर नदियाँ बरसात के बाद विधवा की सूनी मांग होने लगीं। जंगल के पोखर भी जल्दी ही सूखने लगे। इस से सब से अधिक परेशानी जंगल के जानवरों को हुई। खाने को वनस्पति कम पड़ने लगी। शिकारी जानवरों को शिकार की कमी होने लगी। पीने को पानी तक नहीं मिलता। उस के लिए भी उन्हें मीलों भटकना पड़ता। जानवरों का जंगल में जीना मुहाल हो गया। एक दिन यह खबर जंगल में पहुँची कि निकटवर्ती कस्बे में एक चिड़ियाघर बनाया जा रहा है। अब ये चिड़ियाघर क्या होता है यह जंगल में कौन समझाता। पर तभी वहाँ चिड़ियाघर में अधिक हो जाने के कारण वापस जंगल में छोड़े गए एक रीछ ने उन की ये मुश्किल आसान कर दी। उस ने कुछ जानवरों को बताया कि यह एक छोटे जंगल जैसा ही बनाया जाता है। जिस में जानवरों को रखा जाता है। वहाँ गुफा बनाई जाती है। पीने और नहाने के लिए ताल बनाया जाता है। सब से बड़ी बात तो ये कि वहाँ भोजन के लिए भटकना नहीं पड़ता। खुद इंसान उन के लिए भोजन का इंतजाम करते हैं। यहाँ तक कि जिस जानवर को जैसा भोजन माफिक पड़ता है वैसा ही दिया जाता है। बस एक ही कमी होती है वहाँ कि घूमने फिरने को स्थान कम पड़ता है। सुनने वालों को बहुत आश्चर्य हुआ कि जो इंसान उन का शिकार करता है या पकड़ कर ले जाता है वह इस तरह जंगल के प्राणियों के लिए चिड़ियाघर भी बनाता है।
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एक दानिशमंद ने सवाल उठाया कि ये तो गलत पद्धति है, इस से तो ये होता है कि जो एक बार कहीं रहने चला गया वह हमेशा ही वहाँ रहता रहेगा, शेष लोग ताकते रह जाएंगे। तभी रीछ ने पलट कर जवाब दिया कि, नहीं ऐसा नहीं होता। ये लोग केवल कुछ साल के लिए चुने जाते हैं। अवधि समाप्त होते ही वापस लौट आते हैं। फिर से नए लोग चुने जाते हैं। नए चुने जाने वाले लोगों में पुराने भी हो सकते हैं। यह बात जानकर दानिशमंदों ने तय किया कि वे भी चिड़ियाघर जाने वाले जानवरों का चुनाव मतदान से कराएंगे और यह भी मुनादी करा दी गई कि यह चुनाव साल भर के लिए ही होगा। साल भर बाद अभी के चुने हुए जानवर वापस लौट आएंगे सालभर बाद फिर से चिड़ियाघर जाने वालों का चुनाव होगा। दानिशमंदों की इस मुनादी के जंगल में झगड़े रुक गए और जानवर अपना अपना समर्थन जुटाने में जुट गए।
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रीछ की बात सुन कर चिडियाघर का अधिकारी सोच में पड़ गया कि अब रीछ न जाने क्या शर्त सामने रखेगा। -आप अपनी शर्त बताइए। रीछ ने तुरंत शर्त बताई -आप को ये जानवर साल भर बाद जंगल में वापस भेजने पड़ेंगे। साल भर बाद हम जंगल वाले उन्हीं किस्मों के उतने ही जानवर आप को नए चुन कर देंगे जिन को आप फिर साल भर चिडियाघर में रख सकेंगे। इस तरह हर साल आप को चिड़ियाघर के जानवर बदलते रहना होगा।
सुनने वालों ने इस कहानी को खूब पसंद किया। दोस्तों, आप की क्या राय है?
20 टिप्पणियां:
हमें भी ये कहानी काफी पसंद आई.
:) baddhiya hai..
बहुत अच्छी कहानी है...
एक आधुनिक बोध कथा -बहुत सुन्दर !
मैं कहानी चिड़ियाघर की पढ़ रहा था और तस्वीर संसद की उभरती जा रही थी। जाहिर है पसंद करने वालों ने भी इसी लिए तालियाँ बजायी होंगी।
बहुत सुंदर जी..... काश दिल्ली के चिडिया घर(सांसद) मे भी हर साल नये से नये जानवरो को लाया जाये ओर जिन्हे दर्शक ( जनता) पसंद करे उन्हे रखा जाये, बाकी सब को सचमुच के जंगल मे छोड दिया जाये, क्योकि वो दर्शको के नकारे होंगे इस लिये वो शहर मे या इंसानो मे रहने के काबिल नही होंगे
हमें भी खूब पसंद आई। कुछ क़िरदार अपने आसपास पहचाने जा सकते हैं:)
यह तो सच है सुरक्षित व आराम जीवन के लिये हम भी तो गुलामी स्वीकार कर रहे है
धीरू भाई ने सही कहा है लेकिन जानवर इन्सान से अधिक स्याने हैं केवल कुछ समय के बदलाव के लिये ही गुलामी स्वीकार की है मगर इन्सान तो ऐसी गुलामी सदियों तक स्वीकारता रहता है। दूसरी बात स्वार्थ के लिये जानवर भी लडाई करते हैं लेकिन समझाने पर और अपना भाईचारा बनाये रखने पर विचार विमर्श से ही झगडे सुलझा लेते हैं लेकिन इन्सान तो रास्ते मे आने वालों को मारने मे भी संकोच नही करता। बहुत अच्छी लगी कहानी। बधाई।
अच्छी कथा - जो शायद उतनी लघु नहीं रही :)
अफसोस रहा कि इस यात्रा में आपसे मुलाकात नहीं हो सकी.
हम तो चिड़ियाघर में हैं और नहीं मालुम कब जंगल नसीब होगा! :(
जंगल के जानवर ज्यादा समझदार हैं ...इतनी शांति प्रियता से चुनाव कर लिया ...
काश देश के चिड़ियाघर में भी ऐसे ही चुनाव हो और हर बार उसमें रहने वाले लोग बदल दिए जाएँ ...
अच्छी प्रस्तुति ..यह कहानी अलग अलग ढंग से परिभाषित की जा सकती है ...
अभिभाषक परिषद के बारे में ऐसे विचार :)
कथा और विचार अच्छा है लेकिन लघुकथा नहीं है।
` धीरे-धीरे अंत में केवल चपाती, पूरी और दाल ही शेष रह गई।'
तभी तो कहते है कि जो सोया सो खोया... :)
और एक साल बाद वे जानवर चिडियाघर से लौटने को तैयार नहीं हुए तो? और कभी चिडियाघरवाले ही उन्हें छोडने को तैयार नहीं हुए तो?
ये कौनसी पॉलिटिक्स है कॉमरेड?
जानवरों में अधिक समझदारी होती है।
दुनिया का सबसे भयंकर जानवर मनुष्य ही है.
बहुत बढ़िया कहानी है, किन्तु विष्णु बैरागी जी की चिंता से सहमत हूँ.
घुघूती बासूती
हाँ- हाँ -हाँ- हाँ
कहीँ तीर कहीँ निशाना।
.....
http://yuvaam.blogspot.com/2013_01_01_archive.html?m=0
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