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दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ !
लगभग सब के बाद, बहुत देरी से शुभकामनाएँ व्यक्त करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। अनवरत और तीसरा खंबा पर पिछली पोस्टें 3 नवम्बर को गई थीं, उसी में शुभकामना संदेश भी होना चाहिए था। लेकिन तब इरादा यह था कि 4 और 5 नवम्बर को नियमित पोस्टें जाएंगी और तभी शुभकामना संदेश भी उचित रहेगा। लेकिन अपना सोचा कहाँ होता है? परिस्थितियाँ निश्चित करती हैं कि क्या होना है, और हम कहते हैं "होहिही वही जो राम रचि राखा"। ये राम भी अनेक हैं। एक तो अपने राम हैं जो चाहते हैं कि दोनों ब्लाग पर कम से कम एक पोस्ट तो प्रतिदिन नियमित होना चाहिए, शायद पाठकों के राम भी यही चाहते हों। लेकिन परिस्थितियों के राम इन पर भारी पड़ते हैं। पर ऐसा भी नहीं कि मेरे राम की उस में कोई भूमिका न हो। परिस्थितियाँ इतनी भी हावी नहीं थीं कि कोई पोस्ट हो ही नहीं सकती थी। मेरे राम ने तीन दिनों में चाहा होता तो यह हो सकता था। कुल मिला कर लब्बोलुआब यह रहा कि परिस्थितियाँ निर्णायक अवश्य होती हैं, लेकिन परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर व्यक्तिगत प्रयास न हो तो इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं किया जा सकता। हम यूँ कह सकते हैं कि किसी इष्ट के लिए पहले परिस्थितियाँ अनुकूल होनी चाहिए और फिर इष्ट को प्राप्त करने का वैयक्तिक प्रयास भी होना चाहिए।
पिछले दो माह बहुत अजीब निकले हैं। एक तो मकान का बदलना रहा, जिस ने दिनचर्या को मथनी की तरह मथ डाला। दूसरे दो माह पहले एक निकटतम मित्र परिवार में ऐसा हादसा हुआ जिस के होने की संभावना थी हम रोकना चाहते थे, लेकिन चीजें प्रयास के बावजूद भी काबू में नहीं आ सकीं और घटना घट गई। कहानी लंबी है, लेकिन विस्तार के लिए अनुकूल समय नहीं। मित्र के पुत्र और पु्त्रवधु के बीच विवाद था, पुत्रवधु मित्र को लपेटने की कोशिश में थी। मित्र बचना चाहते थे। इस के लिए वे पुलिस के परिवार परामर्श केन्द्र भी गए। लेकिन एक रात पु्त्र के कमरे से आवाजें आई, मित्र वहाँ पहुँचे तो वह मृत्यु से जूझ रहा था। पुत्रवधु ने बताया कि उन के पुत्र ने फाँसी लगा कर आत्महत्या का प्रयास किया है, उस ने फाँसी काट दी इस लिए बच गया। अनेक प्रश्न थे, कि पुत्र-वधु ने अपने पति को फाँसी लगाने से क्यों न रोका? वह चिल्लाई क्यों नहीं? एक ही दीवार बीच में होने के बावजूद भी वह सहायता के लिए अपने सास ससुर के पास क्यों नहीं गई? फाँसी काट देने के बाद भी अपने अचेत पति को ले कर कमरे के दरवाजे की कुंड़ी खोल अकेले स्यापा क्यों करती रही? प्रश्नों का उत्तर तलाशने का समय नहीं था। मित्र अपने पुत्र को ले कर अस्पताल पहुँचे, दो दिनों में उस की चेतना टूटी। पुत्र बता रहा था कि उसे पहले कुछ खाने में दे कर अचेत किया गया और फिर पत्नी ने ही उसे गला घोंट कर मारने की कोशिश की। जब सब अस्पताल में थे तो अगली सुबह पुत्रवधु का पिता आया और पुत्रवधु को उस के सारे सामान सहित अपने साथ ले गया। घर पर पुत्रवधु अकेली थी तो मकान के ताला और लगा गया।
मेरे और मित्र के कुछ समझ नहीं आ रहा था। हमने अपने स्तर पर अन्वेषण किया तो जाना कि मित्र के पुत्र का बयान सही है। पुलिस को रिपोर्ट दी गई, लेकिन पूरे माह कोई कार्यवाही नहीं हुई। अदालत को शिकायत की गई, अदालत ने शिकायत पर मुकदमा दर्ज कर अन्वेषण आरंभ कर दिया। इस बीच पता लगा कि पुत्र-वधु ने भी उत्पीडन और अमानत में खयानत के लिए धारा 498-ए और 406 भा.दं.सं. का मुकदमा पुलिस में दर्ज करा दिया है। मित्र अपने सारे परिवार के साथ तीन बार अन्वेषण में सहयोग के लिए थाने उपस्थित हो गये। लेकिन पुलिस अन्वेषण अधिकारी टालता रहा। अचानक उस ने पिछले रविवार को उन्हें थाने बुलाया। दोनों पक्षों में समझौते का नाटक किया। दबाव यह था कि दोनों अपनी-अपनी रिपोर्टें वापस ले लें और साथ रहें। लेकिन पति इस के लिए तैयार नहीं था। उस का कहना था कि जिस पत्नी ने उस की जान लेने की कोशिश की उस के साथ वह किस भरोसे से रह सकता है? थाने में किसी सिपाही ने कान में कहा कि अन्वेषण अधिकारी ने पैसा लिया है वह आज गिरफ्तारी करेगा। पुलिस ने पति को गिरफ्तार कर लिया, बावजूद इस के कि स्वयं अन्वेषण अधिकारी यह मान रहा था कि उस पर आरोप मिथ्या हैं। लेकिन 498-ए का आरोप है तो गिरफ्तार तो करना ही पड़ेगा। मेरा उस से कहना था कि सब पिछले पन्द्रह दिनों से थाने आ रहे थे तो यह कार्यवाही एक सप्ताह पहले और दिवाली के एक सप्ताह बाद भी की जा सकती थी। लेकिन अभी ही क्यों की जा रही है? स्पष्ट था कि सिपाही द्वारा दी गई सूचना सही थी।
मित्र हमेशा मेरी मुसीबत में साथ खड़े रहे। मुझे साथ खड़े रहना ही था। मैं ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। लेकिन दीपावली का अवकाश आरंभ होने के पहले मित्र के पुत्र को जमानत पर बाहर नहीं ला सका। उस के अलावा परिवार के छह और सदस्यों का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में था। अन्वेषण अधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया था और कह रहा था कि उन के विरुद्ध मामला नहीं बन रहा है। लेकिन फिर किसी सिपाही ने सलाह दी की उन्हें घर छोड़ देना चाहिए। गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है। नतीजे में मित्र को घर छोड़ कर बाहर जाना उचित लगा और वे चले गए। घर दीवाली पर सूना हो गया। मेरा मन भी अवसाद से घिर गया। पिछले पूरे सप्ताह जिस भाग-दौड़ से पाला पड़ा उस ने थका भी दिया था।
इधर अवकाश आरंभ होते ही दोनों बच्चे घर आए। मेरा मन अवसाद से इतना भरा था कि कुछ करने का मन ही नहीं कर रहा था। दीवाली की रीत निभाने को श्रीमती शोभा रसोई में पिली पड़ी थीं। बच्चों ने घर को सजाया, और दीपावली मन गई। अभी भी अवसाद दूर नहीं हो पा रहा है, शायद इस से तब निजात मिले जब मित्र का पुत्र जमानत पर छूट जाए और शेष परिवार को अग्रिम जमानत का लाभ मिल जाए।
24 टिप्पणियां:
बहुत ही दुखद घटना है. सब कुछ कितना बदल गया है. मैं तो आपके सामने बच्चा ही हूँ पर मेरे देखते ही चीज़ें कितनी बिगड़ गईं.
अब ऐसे में कोई साथ में रहे भी तो कैसे रहे.
खैर, आपको दीपावली की बिलेटेड शुभकामनाएं.
सच मामला किसी सामन्य क्लाईंट का भी होता तो शायद आप इसी तरह का काम करते मित्र का होने से अधिक भावुक है निश्चित ही अवसाद भरी दीवाली रही होगी मेरी ओर से देर से ही सही शुभ कामनाएं
महाजन की भारत-यात्रा
इस तरह के काम मेरी समझ में कभी नही आते. यदि पति-पत्नी में नही निभ रही तो अलग रहने का विकल्प तो हमेशा ही खुला है न? फिर किसी की भी जान लेने या लेने की कोशिश करने का क्या मतलब?
बहुत दुखद घटना ...क़ानून बनते है सुविधा के लिए लेकिन स्वार्थवश उनका दुरुपयोग ज्यादा होता है ...
सारी सच्चाई सामने आये यही शुभकामना है
दिनेश जी..आप का लेख पढ कर दिल सच मे अवसाद से भर गया, एक तो मै पहले ही कुछ उदास था, बीबी ओर बच्चो के बिना भारत जो जा रहा हुं, ओर वो भी पांचवी बार, समझ मै नही आता लोगो का यह रवेया, सच हे अगर साथ नही रहना तो रिशते को तोड दो, तलाक ले लो क्यो अपनी ओर दुसरो की जिन्दगी को नरक बना देते हे ऎसे लोग, आप के दुख से मुझे भी दुख पहुचा.आप ओर उस परिवार को मेरी तरफ़ से सहानूभुति. धन्य्वाद
अक्सर अखबारों में इस तरह की घटनाएं पढ़ते रहते हैं, जिन पर बीतती है उनकी क्या हालत होती होगी। और इस तरह की घटनाएं निकट संबंधीयों या मित्रों में घट जांय तो परेशान होना स्वाभाविक है।
धारा 498-ए और 406 भा.दं.सं. का दुरुपयोग खुले आम हो रहा है। किसी की भी गलती हो ये धाराएं चेप दो। अगला धराशायी हो जाएगा।
जब किसी नजदीकी के साथ हादसा हुआ है तो उसकी सहायता करना भी फ़र्ज बनता है। पुलिस तो कलदार की खनक सुनती है। अगर उपर की पहुंच हो तो उनकी सुनती है,इस बीच किसी की भी नहीं सुनती।
ये आलम तब है जब पुलिसिया सब कुछ जानता था और आप अपने मित्र के साथ थे. आम आदमी का क्या होता होगा...
बेहद दुखद है आपका अनुभव। पिछले महीने आपने शिवराम जी खो दिया था। अब इधर दिवाली खराब हो गयी।
...खैर समय से सब ठीक हो जाएगा। ईश्वर (आपके राम) सब ठीक करेंगे। शुभकामनाएँ।
संसार बड़ा है और बिना लड़े भी ठौर पाया जा सकता है। आप लगे रहिये, जीवन की विडम्बनायें हैं ये, धाराओं का दुरुपयोग।
नानक दुखिया सब संसार
पाश्चात्य और पूर्वी जीवन मूल्यों की प्राणलेवा विसंगतियों से उपजनेवाली स्थितियों का यह तो एक छोटा सा मामला है। पूर्वी जीवन शैली में पाश्चात्य जीवन मूल्यों को निभाना असम्भवप्राय: है। आप तो विचारक हैं, पाएँगे कि इसके पीछे अन्तत: 'पूँजी' का ही प्रभाव है।
अभी तो हमें काफी-कुछ भोगना है। हम सब लोग तो किनारों पर बैठे दर्शक मात्र हैं। आपके और अपके मित्र परिवार के प्रति सम्वेदनाऍं जताने के अतिरिक्त शायद ही कुछ कर सकें।
दिन की शुरुआत आपकी इस पोस्ट से हुई है। मन दिन भर अवसादग्रस्त ही रहेगा।
बहुत ही दुखद घटना है...ज़िन्दगी में यह सब तो लगा ही रहता है...ख़ैर..
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
पढकर अफ़सोस हुआ !
आप अवसाद से बाहर आएं...
बात निकली है तो दूर तलक जाएगी...
ओह लगातार इतना कुछ होते जाने के बाद क्या होली क्या दीवाली । समझ में नहीं आता कि आखिर खुद उच्च न्यायालयों तक द्वारा ये माने जाने के बावजूद कि ४९८ ए सबसे अधिक दुरूपयोग किया जाने वाला कानून है कोई उपाय नहीं कर पाता और शासन , सरकार , पुलिस सब पंगु बने देख रहे हैं । पुलिस का वो निहायत ही पाश्विक चेहरा यूं ही तो न बना होगा ।
पता नहीं कि ये सब पढने देखने सुनने के बाद ..महिला अधिकारों के संरक्षण , सुरक्षा ,की लडाई लडी और उनके अनुसार जीती भी ....क्या महसूस कर पाती होंगी ...एक ऐसी प्रताडित बहू का दर्द या ....फ़िर ये दरिंदे साबित कर दिए गए इस परिवार का दर्द ...
मेरा मन भी दुखी हो गया ....
ओह लगातार इतना कुछ होते जाने के बाद क्या होली क्या दीवाली । समझ में नहीं आता कि आखिर खुद उच्च न्यायालयों तक द्वारा ये माने जाने के बावजूद कि ४९८ ए सबसे अधिक दुरूपयोग किया जाने वाला कानून है कोई उपाय नहीं कर पाता और शासन , सरकार , पुलिस सब पंगु बने देख रहे हैं । पुलिस का वो निहायत ही पाश्विक चेहरा यूं ही तो न बना होगा ।
पता नहीं कि ये सब पढने देखने सुनने के बाद ..महिला अधिकारों के संरक्षण , सुरक्षा ,की लडाई लडी और उनके अनुसार जीती भी ....क्या महसूस कर पाती होंगी ...एक ऐसी प्रताडित बहू का दर्द या ....फ़िर ये दरिंदे साबित कर दिए गए इस परिवार का दर्द ...
मेरा मन भी दुखी हो गया ....
ओह लगातार इतना कुछ होते जाने के बाद क्या होली क्या दीवाली । समझ में नहीं आता कि आखिर खुद उच्च न्यायालयों तक द्वारा ये माने जाने के बावजूद कि ४९८ ए सबसे अधिक दुरूपयोग किया जाने वाला कानून है कोई उपाय नहीं कर पाता और शासन , सरकार , पुलिस सब पंगु बने देख रहे हैं । पुलिस का वो निहायत ही पाश्विक चेहरा यूं ही तो न बना होगा ।
पता नहीं कि ये सब पढने देखने सुनने के बाद ..महिला अधिकारों के संरक्षण , सुरक्षा ,की लडाई लडी और उनके अनुसार जीती भी ....क्या महसूस कर पाती होंगी ...एक ऐसी प्रताडित बहू का दर्द या ....फ़िर ये दरिंदे साबित कर दिए गए इस परिवार का दर्द ...
मेरा मन भी दुखी हो गया ....
मन बहुत दुखी हो गया यह सब पढ़...सच में ऐसे में क्या दिवाली की खुशियाँ...आपके मित्र को न्याय मिले और मन की शान्ति भी
दुखद समाचार है। आपके साथ बहुत दिनो से ऐसी दुखदायी घटनायें हो रही हैं इस से मन और भी दुखी होगा। खुद को सम्भालें। शुभकामनायें।
सबसे दुखद बात यह है कि कलयुगी इंसान उसके भले के लिए बनाये गए कानून का ही दुरूपयोग कर इंसानियत क़ो कलंकित कर देता है । ऐसी एक घटना से जाने कितने ही लोग बदनाम हो जाते हैं ।
महिलाएं भी इस दुर्भाव से अछूती नहीं हैं ।
बहुत अफ़सोस की बात है , आपके मित्र के साथ ऐसा हुआ और आप मदद भी नहीं कर पा रहे ।
कभी कभी हम सभी ऐसी हालातों के शिकार हो जाते हैं ।
जब तक धारा 498A बह रही है तब तक शरीफ़ ऎसे ही डूबते रहॆंगे
अत्यंत दुख की बात है कि एक और हुआ इस एक पक्षीय कानून का शिकार्। भगवान करे कि आप के मित्र और उसके पुत्र को न्याय मिले और जल्दी मिले, जल्लाद बहू से छुटकारा मिले
यह कोई कहानी नहीं आपके मित्र और आपके साथ बीता निश्चित रूप से अवसादपूर्ण हादसा है, भले ही इसमें पुत्र और पुत्रवधू के अलावा पुलिस भी है जिसका रोल जैसा की अपेक्षित होना चाहिए, ऐसा ही होता है. लेकिन जैसा कि श्रीमान विष्णु बैरागी ने इशारा किया है कि आप तो विचारक हैं, इसलिए मैं इसे थोडा आगे बढ़ाना चाहता हूँ. भले ही मुश्किल ही सही, लेकिन थोडा अवसाद से निकलकर हमें अपने वामपंथी सरोकारों का भी निर्वाह कर ही लेना चाहिए.
इस विचार से विचार किया जाये तो वैवाहिक संबंध प्रेम पर तो आधारित होते नहीं. हो भी जाएँ तो रहना तो पूंजीवादी संबंधों में ही पड़ता है. जिस प्रकार पूंजीवादी समाज की इकाई जिन्स है, उसी प्रकार परिवार में इसका प्रतिनिधित्व एकल परिवार करता है. पत्नी और पति में प्रेम बुनियादी चीज है लेकिन पूंजी प्रधान है. दूसरे शब्दों में अगर पूंजी का मसला हल है तो प्रेम का मसला हल मान ही लिया जाता है. लेकिन अपवाद तो हैं ही. प्रेम का अपना महत्व है. बुनियादी चीज प्रधानता ग्रहण कर ले, तो भी परिवार के टूटने का खतरा तो है ही. इस केस में क्या-क्या बारीकियां है, कानून और वामपंथी विचारक होने के अलावा इस परिवार के निकट मित्र होने के कारण आप बेहतर समझ सकते हैं.
जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि यह कोई कहानी नहीं और ऐसी बहुत सी घटनाएँ हर शहर, हर कस्बे में दिन रात घट रही हैं. वे भी कहानियां नहीं है.यहाँ तक इस आलेख के टिप्पणीकारों का संबंध है, भले ही वे अलग अलग रंग में रंगे दिखें, लेकिन है तो वे मिडिल क्लास से. तमाम विभिन्ताओं के बावजूद वे सिनेमाई अंदाज में आंसू बहाते नजर आएंगे ही. दुःख कि बात यह है कि आपकी पेशकारी यथार्थवादी है जबकि आपसे अपेक्षा की जाती थी कि यह उसके आगे की अवस्था आलोचनात्मक यथार्थवाद को पार कर समाजवादी यथार्थवाद तक पहुंचे. लेकिन हमारे अधिकतर वामपंथी विचारक मिडिल क्लास साईकि के चौखटे को तोड़ नहीं पा रहे हैं.
इस सबके बावजूद आपने अपनी पीड़ा को प्रकाशित किया है जो कि अक्सर लोग नहीं करते. यह सकारात्मक बात है और जैसाकि रवि जी ने कहा है बात चली है तो दूर तक जाएगी ही.
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