दो दिनों की व्यस्तता के बाद कल शाम भोजन करते हुए टीवी पर समाचार देखने का सुअवसर मिला। वहाँ भारतीय पुलिस का गुणगान हो रहा था। बड़ा अजीब दृश्य था। उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर के एक घर में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर अपनी पूरी यूनीफॉर्म में एक फोटो हाथों में लिए फफक-फफक कर रो रही थी। उस की बेटी अचानक गायब हो गई थी। पुलिस को रिपोर्ट कराई गई थी। लेकिन बावजूद इस के कि वह खुद एक पुलिस अफसर थी उसे यह पता नहीं लग पा रहा था कि पुलिस ने इस मामले में क्या किया है और क्या कर रही है?
फिर दिल्ली के ही किसी एक स्थान पर एक चैनल के परोपकारी पत्रकारों ने एक नाबालिग लड़की को किसी देहव्यापार अड़्डे से छुड़ाया था। पुलिस को सूचना थी लेकिन वह समय पर नहीं पहुँच सकी। इस काम में पत्रकारों को बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी। पुलिस पहुँची भी तो तब जब कि काम पूरा हो चुका था, बिलकुल फिल्मी स्टाइल में। पुलिस की देरी से पहुँचने की वजह अवश्य पता नहीं लगी। लेकिन जब उस की कहीं आवश्यकता थी तब वह क्या कर रही थी? इसी खबर के साथ चैनल पर पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी भी टिप्पणी करने के लिए मौजूद थीं। वे कह रही थीं कि यह काम पुलिस की प्राथमिकता में नहीं था। यदि होता तो पत्रकारों के पहले पुलिस वहाँ होती और निश्चित रूप से वह अड्डा सील कर दिया गया होता।
अब हम ये देखने की कोशिश करें कि पुलिस आखिर कहाँ थी। निश्चित रुप से उत्तरप्रदेश की पुलिस तो मायावती जी के किसी फरमान को बजा ला रही होगी। फरमानों से फुरसत मिली होगी तो किसी न किसी वीआईपी की सुरक्षा में रही होगी। यह भी हो सकता है कि इन दोनों कामों के स्थान पर किसी तीसरे काम में उलझी हो और अपनी ही पुलिस इंस्पेक्टर की खोई हुई बेटी की तलाश के लिए समय ही नहीं मिला हो। वैसे भी पुलिस के लिए यह काम सब से अंतिम प्राथमिकता का रहा होगा। इंसपेक्टर के पद तक के लोग ही तो हैं जो कुछ काम करते हैं। उस के बाद के तो सभी अफसर हैं। पहले अफसरों के हुक्म बजा लिए जाएँ तभी तो उन्हें कोई काम करने की फुरसत हो। अब एक सब इंस्पेक्टर की बेटी के मामले में काहे की प्राथमिकता?
दिल्ली पुलिस को तो इन दिनों वैसे भी फुरसत कहाँ है। बरसात के मारे जाम लग रहे हैं उन्हें हटाना है। कॉमनवेल्थ खेलों के लिए दिल्ली वालों को बहुत कुछ सिखाना है। वीआईपी सुरक्षा का काम दिल्ली के लिए छोटा-मोटा नहीं है। फिर वैसे ही थानों में अपराध कम दर्ज नहीं होते, आखिर उन से भी निपटना पड़ता है। अब ऐसे में कोई बुद्धू पुलिस अफसर ही होगा जो देहव्यापार के अड्डे पर किसी नाबालिग को छुड़ाने जैसे अपकारी काम में पड़ेगा। फिर इस के अलावा और भी तो काम हैं, पुलिस के पास।
एक व्यक्ति ने अपने छोटे भाई के नाम से प्लाट खरीद लिया। भाई बड़ा हुआ तो प्लाट पर अपना अधिकार जताने लगा। भाई को रुपया दे कर प्लाट अपनी पत्नी के नाम करवाया। अब छोटे भाई को फिर पैसों की जरूरत है। वह पैसा मांगता है। नहीं देने पर उस ने अदालत में शिकायत कर दी कि उस के भाई ने फर्जी कागज बनवा कर प्लाट हड़प लिया है। अदालत ने भाई के बयान ले कर मामला पुलिस जाँच के लिए भिजवा दिया। पुलिस को सिर्फ जाँच कर के रिपोर्ट अदालत को देनी है। पर पुलिस का जाँच अधिकारी एक दिन तो बड़े भाई को दिन भर थाने में बिठा चुका है। सुझाव दिया है कि वह आधा प्लाट भाई के नाम कर दे और बीस हजार पुलिस अफसर को दे दे तो वह उसे छोड़ देगा। वह रुपयों का इंतजाम करने के बहाने थाने से छूटा और गिरफ्तारी के भय से शहर छोड़ गया। पुलिस थाने से उस की पत्नी को फोन आ रहा है कि उसे थाने भेज दो वर्ना तुम्हें घसीटता हुआ थाने ले आऊंगा। अब बोलिए इस महत्वपूर्ण काम को छोड़ कर कौन पुलिस अफसर देहव्यापार अड्डे पर जाएगा।
फिर इलाके में आठ-दस नौजवान ऐसे भी हैं जो गलती से तैश में आ कर किसी के साथ मारपीट करने की गलती कर चुके हैं। एक बार पुलिस और अदालत के चंगुल में फँसे तो पनाह मांग गए। उन में से कई तो इलाका छोड़ गए और चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमाने में लगे हैं। अब पुलिस को यह कैसे बरदाश्त हो कि एक बार उन के चंगुल में जो व्यक्ति फँस जाए और फिर भी चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमा ले। यदा कदा उन्हें तलाश कर के उन्हें तड़ी मारनी पड़ती है, बिना नाम की एफआईआर दर्ज हुई है। हुलिया तेरे मिलता है। तीन हजार पहुँचा देना वर्ना अंदर कर दूंगा।
एक व्यक्ति ने अपने छोटे भाई के नाम से प्लाट खरीद लिया। भाई बड़ा हुआ तो प्लाट पर अपना अधिकार जताने लगा। भाई को रुपया दे कर प्लाट अपनी पत्नी के नाम करवाया। अब छोटे भाई को फिर पैसों की जरूरत है। वह पैसा मांगता है। नहीं देने पर उस ने अदालत में शिकायत कर दी कि उस के भाई ने फर्जी कागज बनवा कर प्लाट हड़प लिया है। अदालत ने भाई के बयान ले कर मामला पुलिस जाँच के लिए भिजवा दिया। पुलिस को सिर्फ जाँच कर के रिपोर्ट अदालत को देनी है। पर पुलिस का जाँच अधिकारी एक दिन तो बड़े भाई को दिन भर थाने में बिठा चुका है। सुझाव दिया है कि वह आधा प्लाट भाई के नाम कर दे और बीस हजार पुलिस अफसर को दे दे तो वह उसे छोड़ देगा। वह रुपयों का इंतजाम करने के बहाने थाने से छूटा और गिरफ्तारी के भय से शहर छोड़ गया। पुलिस थाने से उस की पत्नी को फोन आ रहा है कि उसे थाने भेज दो वर्ना तुम्हें घसीटता हुआ थाने ले आऊंगा। अब बोलिए इस महत्वपूर्ण काम को छोड़ कर कौन पुलिस अफसर देहव्यापार अड्डे पर जाएगा।
फिर इलाके में आठ-दस नौजवान ऐसे भी हैं जो गलती से तैश में आ कर किसी के साथ मारपीट करने की गलती कर चुके हैं। एक बार पुलिस और अदालत के चंगुल में फँसे तो पनाह मांग गए। उन में से कई तो इलाका छोड़ गए और चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमाने में लगे हैं। अब पुलिस को यह कैसे बरदाश्त हो कि एक बार उन के चंगुल में जो व्यक्ति फँस जाए और फिर भी चुपचाप अपनी रोजी रोटी कमा ले। यदा कदा उन्हें तलाश कर के उन्हें तड़ी मारनी पड़ती है, बिना नाम की एफआईआर दर्ज हुई है। हुलिया तेरे मिलता है। तीन हजार पहुँचा देना वर्ना अंदर कर दूंगा।
नई गाड़ी खरीदी, पूजा-शूजा करा के गाड़ी चलाना आरंभ किया। रजिस्ट्रेशन विभाग से नंबर मिले तो अस्थाई प्लेट उतरवा कर उसे नंबर लिखवाने डाला। तीन घंटे में प्लेट लग जाती। गाड़ी वाले ने सोचा तब तक एक दो काम निपटा लूँ। गाड़ी थाने के सामने से निकली तो रोक ली गई। हिदायत मिली, -नई गाड़ी ली और बिना पूजा के चलाने भी लगे, नंबर प्लेट भी नहीं लगाई। गाड़ी वाले ने कहा पूजा तो करवा ली, तो सुनने को मिला -मंदिर में करवाई होगी। इधर थाने का क्या? पाँच लाख की गाड़ी है, पाँच हजार पूजा के ले कर आ तब गाड़ी मिलेगी। वरना यहीं खड़ी है थाने पर।
अब आप ही बताइये पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि देहव्यापार के अड्डे से नाबालिग लड़की छुड़वाए और सब इंस्पेक्टर की लड़की को तलाश करे।
11 टिप्पणियां:
आपने सही कहा है.पुलिस की प्राथमिकतायें समाज की आवश्यकताओं से भिन्न हैं.
bilkul sahi adhnik bhgvan to chdhva chdhana hi pdega na ?
fir doosre kam me asha bhi nhi chdhve ki ?
प्राथमिकतायें निर्धारित करनी होंगी, पुलिस को। नये सिरे से सोचने होंगे अपने दायित्व।
पुलिस को बहुत काम होते हैं ...चलने से पहले अड्डे वालों को बताना होता है, लोकल नेता लोगों की मंजूरी लेनी होती है, बड़े साब लोगों को बताना होता है कि इस बार इस अड्डे से हफ़्ता वसूली नहीं हो पाएगी, पक्का करना पड़ता है कि पुलिस के पहुंचने से पहले अड्डे से सब साफ को किया जा चुका है न... आदि आदि...ऐसे में अगर पुलिस लेट पहुंचे तो बुरा नहीं मानना चाहिये.
ओह बेचारे पुलिस वाले हमारे ही बच्चे हैं उनको हमने घुट्टी में पिलाया है कि समरथ का काम है चढावा लेना और अपने से ज्यादा समरथ की सेवा टहल को प्राथमिकता देना !
वे इसी घूरे से उपजे हैं !
है राम यह पुलिस हमारी रखबाली के लिये है या हमे डराने के लिये???
....प्रसंशनीय पोस्ट!!!
पुलिस के बारे में तो क्या ही कहा जाय !
रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.
कुछ भी तो नया और अनूठा नहीं। यही सब करने के लिए तो पुलिस बनी है।
शर्म की बात है। अंग्रेज़ चले गये मगर अपनी भ्रष्ट और दमनकारी पुलिस छोड गये। जहाँ तक समस्या के मूल की बात है, अली जी की बात स से सहमत हूँ कि "बेचारे पुलिस वाले हमारे ही बच्चे हैं"
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