@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: कहीं सर्दी कहीं वसंत

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

कहीं सर्दी कहीं वसंत

निवार को जोधपुर यात्रा के पहले की व्यस्तता का उल्लेख मैं ने पिछली पोस्ट में किया था। वह पोस्ट लिखने के उपरांत भी व्यस्तता जारी रही। यहाँ तक कि सोमवार को वापस कोटा पहुँचने के बाद भी  व्यस्तता के कारण यहाँ कोई पोस्ट नहीं लिख सका।  शनिवार को जोधपुर के लिए निकलने के पहले जल्दी से भोजन निपटाया और कॉफी पी। जल्दी से बस पकड़ने के लिए रिक्षा पकड़ा। बस जाने को तैयार खड़ी थी। अपने स्लीपर में घुस कर बाहर पैर लटका कर बैठा तो तेज शीत के बावजूद पसीना निकल रहा था। यह तीव्र गति से की गई भागदौड़ का नतीजा था। मैं कुछ देर वैसे ही बैठा रहा। पसीना सूखने के बाद जब कुछ ठंडी महसूस होने लगी तो स्लीपर में लेट गया तब तक बस कोटा नगर की सीमा से बाहर आ चुकी थी। बूंदी निकलने के बाद एक जगह बस रुकी। तब तक मुझे नींद नहीं आई थी। मैं ने लघुशंका से निवृत्त होने का अच्छा अवसर जान कर बस से नीचे उतरा। वहाँ बस के लगेज स्पेस में जोधपुर भेजे जाने के लिए ताजी कच्ची हल्दी के बोरे लादे जा रहे थे। लदान में करीब पंद्रह मिनट लगे। लेकिन वहाँ शीत महसूस नहीं हुई। पूरी तरह वासंती मौसम था। बस ने हॉर्न दिया तो फिर से बस में चढ़ कर स्लीपर में घुस लिया। इस बार नींद आ गई।
फिर बस के रुकने और अंदर के यात्रियों की हल चल से नींद खुली। बस किसी हाई-वे रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी थी। सवारियाँ नीचे उतरने लगीं। मैं भी उतर लिया। मेरे लिए यह नया स्थान था। पता करने पर जानकारी मिली कि यह स्थान नसीराबाद से कोई बीस किलोमीटर पहले है। बहुत से ट्रक और दो बसें और खड़ी थीं। कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ चाय बनने के इंतजार में थे। प्लास्टिक के बने कथित डिस्पोजेबल  लेकिन चरित्र में कतई अनडिसपोजेबल  गिलासों में चाय एक काउंटर से टोकन ले कर वितरित की जा रही थी। टोकन एक दुकान से पांच रुपए की एक चाय की दर से दिए जा रहे थे, वहाँ स्नेक्स उपलब्ध थे।  मैं ने कॉफी के टोकन के लिए पचास का नोट दिया तो ने पंद्रह रुपए काट लिए। मुझे यह कीमत बहुत अधिक लगी। मैं ने उस से पूछ लिया -ऐसा क्या है कॉफी में? उस ने कहा शुद्ध दूध में बनाएँगे। मुझे फिर  भी सौदा महंगा लगा। मैं ने टोकन लौटा कर पैसे वापस ले लिए। चाय पीना तो अठारह बरस पहले छोड़ चुका हूँ। फिर यह कॉफी पीने लगा। कुछ महंगी होती है लेकिन कम पीने में आती है। मैं सोचने लगा रात को एक बजे जब वापस बस में जा कर सोना ही है तो कॉफी क्यों पी जाए, वह भी इतनी महंगी। कोटा में हमें उतनी कॉफी के लिए मात्र चार या पांच रुपए  देने होते हैं।  ड्राइवर और बस स्टाफ एक केबिन में बैठे भोजन कर रहे थे। बस करीब तीस-पैंतीस मिनट वहाँ रुकने के बाद फिर चल पड़ी। इस स्थान पर भी शीत महसूस नहीं हुई। 
जोधपुर पहुँचने के पहले बस बिलाड़ा में रुकी। वहाँ भी शीत नहीं थी। जोधपुर में जैसे ही बस से उतरे शीत महसूस हुई। अजीब बात थी। कोटा में सर्दी थी और जोधपुर में भी लेकिन बीच में कहीं सर्दी महसूस नहीं हुई। बस में नींद ठीक से नहीं निकली थी। होटल जा कर कुछ देर आराम किया। फिर कॉफी मंगा कर पी और स्नानादि से निवृत्त हो कर होटल से निकलने को था कि बेयरे ने आकर बताया कि आप नाश्ता ले सकते हैं। मैं ने उसे एक पराठा लाने को कहा। तभी हरि शर्मा जी का फोन आ गया। कहने लगे ब्लागर बैठक अशोक उद्यान में रखी है। अधिक नहीं बस चार पाँच लोग होंगे।  वे बारह के लगभग मुझे लेने बार कौंसिल के ऑफिस पहुँचेंगे। मैं नाश्ता कर मौसम में ठंडक देख शर्ट पर एक जाकिट पहनी और बार कौंसिल के कार्यालय के लिए निकल लिया।

बार कौंसिल कार्यालय जोधपुर

17 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया वृतांत रहा..आगे इन्तजार रहेगा.

Neeraj Rohilla ने कहा…

बढ़िया वृतांत,
आख़िरी बार जब बस की सवारी की थी तो नोयडा से दिल्ली तक की थी और मन खुश नहीं था, हर २ मिनट चलने पर बस ५ मिनट रुक रही थी | इस वृतांत से हमको वोल्वो बस में पुणे से बंगलौर की बस यात्रा याद आ गयी| आगे क्या हुआ का इन्तजार रहेगा |

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर यात्रा का विवरण रहा, काफ़ी वाली बात भी बहुत अच्छी लगी हम तो गर्म पानी थर्मस मै ले चलते है साथ मै या फ़िर गेस का एक छोटा सा चुलहा, जिस का सेलेंडर एक दो घंटे आराम से चल जाता है, अगली कडी का इंतजार.
धन्यवाद

Abhishek Ojha ने कहा…

कॉफ़ी काफी सस्ते में मिल जाती है अआपके यहाँ तो ! बढ़िया है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

अरे वाह जोधपुर की बातें भी लिखिए ..

Kajal Kumar ने कहा…

आपकी या़त्रा वर्णन अच्छा लगा.

उम्मतें ने कहा…

बढ़िया

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

वर्णन अच्छा लग रहा..

Arvind Mishra ने कहा…

अरे हमारें नखलूओं में २५ की मिलती है -आगे ?

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

एक बार मेरे को 90 रुपये की एक काफ़ी पीनी पड़ी।
जब उंखली म्हे सिर दे दियों तो मुसळ सुं कांई डरणो।
खम्मा घणै सा।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत बढिया रहा ये यात्रा विवरण, आगे का इंतजार है.

गौतम राजऋषि ने कहा…

शीत-वसंत में उलझी एक दिलचस्प यात्रा। सुंदर वृतांत अगली कड़ी के लिये उत्सुकता बढ़ा देता है...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यात्रा को आनन्द रूप में मनाने से थकान नहीं चढ़ती है ।

सुशीला पुरी ने कहा…

आपके सफ़र में शरीक होकर अच्छा लगा .

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

अच्छा है। बाकी, हम तो इसी उहापोह में रह जाते हैं कि कोई बहाना निकले यात्रा टालने का! :)

Unknown ने कहा…

यात्रा विवरण बहुत बढिया किया. कौफ़ी महन्गी तो है पर उसे बस स्टाफ़ को कराये गये भोजन के पैसे भी तो निकालने होते है.

हमने सबसे महन्गी कौफ़ी ३७ रुपये की पी शायद मैसूर मे.

विष्णु बैरागी ने कहा…

हरि षर्माजी ने ठीक ही लिखा। चालक-परिचालक के भोजन का खर्च यात्री ही चुकाते हैं।
यात्रा वर्णन रोचक और प्रवहमान है।