कोटा शहर की एक बस्ती संजय गांधी नगर में कल शाम पाँच बजे एक हादसा हुआ ......
शहर में छोटी सी जगह। उस पर किसी तरह मकान बनाया। जैसे तैसे गुजारा चल रहा था। सोचा ऊपर भी दो कमरे डाल लिए जाएँ किराया आ जाएगा तो घर खर्च में आसानी हो लेगी। बमुश्किल बचाए हुए रुपए और कुछ कर्जा ले कर काम शुरु कर दिया। जुगाड़ था कि कम से कम पैसों में काम बन जाए। सस्ते मजदूरों से काम चलाया। दीवारें खड़ी हो गईं। आरसीसी की छत डालने का वक्त आ गया। सारे ठेकेदार बहुत पैसे मांगते थे। बात की तो एक ठेकेदार सस्ते में काम करने को तैयार हो गया। छत पर कंक्रीट चढ़ने लगा। शाम हो गई। काम बस खत्म होने को ही था कि न जाने क्या हुआ मकान का आगे का हिस्सा भरभराकर गिर गया।
एक मजदूरिन नीचे दब गई। पति भी साथ ही काम करता था। दौड़ा और लोग भी दौड़े। तुरत फुरत मलबा हटा कर मजदूरिन को निकाला गया। तब तक वह दम तोड़ चुकी थी। पति, एक छह माह की बच्ची और एक तीन साल का बालक वहीं थे। तीनों रोने लगे। परिवार का एक अभिन्न अंग जो तीनों को संभालता था जा चुका था। पुलिस आ गई। पुलिस ने पति रो रहा था। रोते रोते कह रहा था। इस के बजाए मैं क्यों न दब गया? अब हम तीनों को कौन संभालेगा? बच्चों का क्या होगा?
पुलिस ने शव को पोस्ट मार्टम के लिए अस्पताल पहुँचा दिया और मुकदमा दर्ज कर लिया। अब जाँच की जा रही है कि कहीं मकान निर्माण में हलका माल तो इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था, कहीं तकनीकी खामी तो नहीं थी और कहीं निर्माण कर रहे मजदूर तकीनीकी रूप से अदक्ष तो नहीं थे। उधर मकान की मालकिन अपने कई सालों की बचत को यूँ बरबाद होते देख दुखी थी। न जाने कितनी रातें उस ने कम खा कर गुजारी होंगी। वह भी रो रही थी। लोगों के समझाते भी उस की रुलाई नहीं रुक रही थी। उस की एक चार साल की बच्ची उसे चुप कराने के प्रयास में लगी थी। कह रही थी -अम्मी मत रो! सब ठीक हो जाएगा।
19 टिप्पणियां:
वकील साहब इसे कहते है वक्त की मार
डा कुबर बेचैन कहते है
मौत के मारे हुए को तो कई कान्धे मिले
ल्या कभी बैहे हो पल भर वक्त के मारे के साथ
बैठे
चार वर्ष की बच्ची को क्या पता .. अम्मी मत रो! सब ठीक हो जाएगा .. कैसे ठीक हो जाएगा .. बिगडने में थोडा भी समय नहीं लगता .. पर ठीक होना इतना आसान भी नहीं !!
क्या कहें..सच वक्त बड़ा बेहरम हो उठता है कभी.
सच कहा समीर जी नें वक्त बहुत ही बेहरम होता है ।
वक्त तो लगता है...पर सचमुच सब कुछ ठीक मान लेना पड़ता है। कुछ हालात समझा देते हैं, कुछ हम ही समझदार हो जाते हैं।
बेहद अफसोसजनक .
बहुत दुखद -उफ़
शायद इसीलिये कहते हैं "दुबली और दो आषाढ". सारी उम्र पेट काट काट कर एक छत के लिये पैसा इकट्ठा किया और नतिजे मे यह दारुण दुख. बहुत अफ़्सोसजनक.
रामराम.
:(
दुखद !
अत्यंत दुखद !
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vakt ka har shai pe raj.isi vakt ke aage sab bebas hai.sachmuch dukhad.
वक्त की मार तो है ही, लेकिन एक बात समझ में आई कि कभी भी निर्माण सम्बन्धी मसलों में सस्ता-माल इस्तेमाल न किया जाये. शोक की घटना तो है ही.
बेहद दुखद घटना है कसूर किसी का भी हो भुगतना कितनों को पडता है। मगर जिस के उपर उस हाद्से की मार पडी है वो तो उसी को भोगनी पडेगी। । वक्त की मार बहुत बुरी है
बेहद तकलीफदेह पोस्ट है यह ! भगवान् की तरफ निगाहें उठती हैं कि ऐसा क्यों किया तुमने ! और हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं !
marmik :(
आपकी यह पोस्ट दिल को छू गई....
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