@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: वे सवारियाँ !

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

वे सवारियाँ !


सवारी के बिना आज के जमाने में गुजारा नहीं है। जीवन के पहले पच्चीस बरस मैंने अपने गृह नगर बाराँ में बिताए। वहाँ सारा नगर  हर कोई पैदल ही घूमा करता था। चाहे स्टेशन जाना हो, अस्पताल जाना हो या स्कूल-कॉलेज, बस यह प्रकृति प्रदत्त ग्यारह नंबर की बस ही सब जगह काम आती थी। पैदल चलने का लाभ यह था कि जितना भी खाओ पच जाता था। बीमारियाँ दूर भागती थीं। पहली साइकिल घर में आई तब, जब हम नवीं क्लास में पढ़ते थे।  वह भी इस लिए कि पिताजी स्कूल इंस्पेक्टर हो गए थे और उन्हें गावों में स्कूलों का निरीक्षण करने जाना होता था। वे कभी पैडल से साइकिल पर चढ़ना नहीं सीख पाए। हमेशा किसी ऊंची जगह से साइकिल पर चढ़ते थे।  जब तक ऐसी जगह न मिलती थी ,साइकिल को पैदल ही लुढ़काते रहते थे। मैं यह काम दो दिनों में सीख गया था।


घर बाजार में दुमंजिले पर था। सायकिल सुबह घऱ से उतारी जाती और देर रात को वापस चढ़ाई जाती। बीच में जब भी उसे फुरसत होती, वह बाजार में मांगीलाल नाई की दुकान से टिक कर खड़ी रहती थी। एक बार रात को साइकिल को वहाँ से उठा कर घर पर चढ़ाना भूल गए। सुबह साइकिल की जरूरत पड़ी तो तलाश आरंभ हुई। कहीं नहीं मिली। किसी ने सुझाव दिया कि थाने में जा कर देखो। हम गए तो वह वहाँ आराम फरमा रही थी। पता लगा रात को गश्त करने गए सिपाही उठा लाए थे।  इस के बाद उसे थाने जाने की आदत पड़ गई। जब भी हम भूल जाते वह वहाँ चली जाती। हम भी सुबह याद आते ही उसे थाने से बड़े प्यार से उठा लाते। वह जब तक रही अक्सर थाने की सैर करती रही। किसी की बुरी नजर तक उस पर नहीं पड़ी थी।


साइकिलें उन्हीं लोगों के  पास थीं, जिन का नगर से बाहर जाने-आने का काम पड़ता था। उन के अलावा कोई और साइकिल खरीदता तो उसे लक्जरी समझा जाता। नगर में मोटर साइकिलें गिनती की थीं। कहीं जीप नजर आती तो वह जरूर सरकारी होती। नगर का सर्वप्रिय यातायात साधन हाथ ठेला हुआ करता। ट्रेन आने के समय उन की आधी से अधिक आबादी स्टेशन के बाहर खड़ी होती। लोग उन में अपना सामान लदवाते और साथ पैदल चलते। फिर पहले पहल साइकिल रिक्शे चले। तो वे बीमारों को अस्पताल पहुँचाने या वृद्धों को ढोने के काम आने लगे। जवान आदमी उन में बैठ जाता तो लोग दिन भर उस से पूछते रहते -तबीयत तो ठीक है न? कोई अधिक संवेदनशील होता तो बेचारा शाम तक जरूर बीमार पड़ जाता। मेरे मन में भी बहुत हुमक उठती कि कभी मैं भी रिक्शे में बैठूँ। पर लोगों की पूछताछ और उस से बीमार होने के डर से नहीं बैठता। एक बार पत्नी को ले कर स्टेशन पर उतरा और उस के आग्रह पर रिक्शे में बैठ गया। रिक्शा बाजार में हो कर निकला तो सारे नगर को पता लग गया कि हम स्टेशन से घर तक रिक्शे से गए थे। मुझे खुद को ऐसा लग रहा था जैसे मेरी झाँकी निकल रही हो। उस के बाद अब तक अपने शहर में रिक्शे में बैठने की हिम्मत नहीं हुई।  पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों के न होने का असर था कि सुबह नदी गए। एक डुबकी लगाई, किनारे आ कर पूरे बदन को हाथों से रगड़ा और दूसरी डुबकी में बदन साफ। साबुन का उपयोग तो हफ्ते में एक दिन होता था। अंदर के वस्त्रों को छोड़ दें तो कपड़े भी दो-तीन दिन आसानी से चल जाते थे।  दादा जी के मुताबिक तो साबुन और नील के उपयोग से वस्त्र अपवित्र हो जाते थे। इन दोनों का उपयोग किया हुआ वस्त्र पहन कर वे कभी मंदिर के गर्भ-गृह नहीं गए।


जिस साल नगर के कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई और जिला मुख्यालय के पीजी कॉलेज में वकालत की पढ़ाई पढ़ने गए उसी साल दोनों शहरों के बीच एक शटल ट्रेन चलने लगी। बड़ी आसानी हो गई। शाम को कॉलेज लगता। मैं सुबह दस बजे ट्रेन में चढ़ता और बारह पर उतरता। दिन भर इधर-उधर मटरगश्ती करता और शाम को कॉलेज कर के रात को शटल से वापस। दिन भर की मटरगश्ती के लिए वाहन जरूरी था। जिला मुख्यालय का नगर बड़ा था और लंबाई में फैला था। स्टेशन भी नगर से दूर था। साइकिल वहीं स्टेशन के साइकिल स्टेंड पर डाल दी गई जिस से मटरगश्ती में आसानी हो गई।

13 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत खूब याद किया कि हमें न जाने क्या क्या याद आ गया. आभार.

Khushdeep Sehgal ने कहा…

जब पहली बार आदमी साइकिल सीखता है और बिना किसी सहारे के पहली बार खुद ही संतुलन बनाते हुए साइकिल चलने लगती है तो जिस आनंद की अनुभूति होती है, वो अलौकिक ही होती है...आपकी पोस्ट से बचपन में स्कूल में पढ़ी कहानी..साइकिल की सवारी...याद आ गई...

एक बार और बताना चाहता हूं कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न तो कभी इंसान के चलाए जाने वाले रिक्शे पर खुद कभी बैठे हैं और न ही उन्होंने कभी पत्नी को बैठने दिया है...यही है इंसान को इंसान समझने का फर्क जो मनमोहन सिंह जी को दूसरे नेताओं से अलग कर देता है...

रंजू भाटिया ने कहा…

सही में साईकल की सवारी याद आ गयी :) रोचक यादे हैं

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

आज तो सवारी ही मनुष्य के पैर बने है..घर से बाहर निकले नही की सवारी अब तो मॉर्निग वॉक और सब्जियाँ खरीदने भी लोग सवारी से ही जाते है....क्या जमाना आ गया एक कदम भी नही चल पाते लोग
बहुत बढ़िया संस्मरण....बधाई

निर्मला कपिला ने कहा…

दो तीन दिन नेट से दूर रही आज आते ही सवारी मिल गयी तो आज इसी सवारे पे सब के घर हो आती हूँ आभार अपनी दहेज की साईकिल अभी भी सम्भाल कर रखी है। जिसे पिता जी ने बडे शौक से दिया था ।

गौतम राजऋषि ने कहा…

बचपन में पढ़ी "साइकिल की सवारी" याद आ गयी।
कितने किस्से, कितनी यादें...इस साइकिल के संग जुड़ी हुई...सब-की-सब उभर कर इधर इस हास्पिटल के बेड पे मुझे घेरे हुये हैं...

आभार आपका द्विवेदी जी और आपकी तमाम शुभकामनायें दवाओं के संग बुस्टर डोज का काम कर रही हैं। शुक्रिया...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कभी सवारी सवारी के लिए होती है परंतु आज तो स्टेटस सिम्बल के लिए भी है!!!!

Ashok Kumar pandey ने कहा…

हाय कितना बिलखे थे हम साईकिल के लिये तब जा के मिली थी एक पुरानी सी…

Arvind Mishra ने कहा…

अनवरत यात्रा !बढियां सिंहावलोकन यात्रा के साधन की !

Abhishek Ojha ने कहा…

वे सवारियां तो अभी भी है, अभी भी कई जगह और वर्ग इनका इस्तेमाल करता है. अभी पिछले रविवार ही एटीएम से पैसे निकाल रहा था तो अन्दर से जो सज्जन निकले वो यही एक कॉलेज में हेल्पर हैं. अपना उस कॉलेज में कुछ गेस्ट लेक्चर के सिलसिले में जाना हुआ था. मुस्कराहट का आदान प्रदान हुआ फिर वो अपनी साइकिल लेकर चले गए. ये घटना जिस इलाके में हुई वहां साइकिल कभी-कभार ही दिखती है. उनको जाते देख मैं भी साइकिल के बारे में सोचता रहा बचपन में साइकिल हर घर में हुआ करती. कुछेक स्कूटर वालों को छोड़ दे तो हर घर से लोग साइकिल से निकलते ऑफिस जाने के लिए ! हमारा घर हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन के पास था जिसमें हजारो लोग काम करते और जब शिफ्ट बदलता तो साइकिलों की कतार लगता कभी ख़त्म ही नहीं होगी. बड़ी चौडी सड़कें थी फैक्टरी के अन्दर... और उस समय साइकिलों से पट जाती !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मुझे तो आज भी यह लगता है कि २ किमी तक ११ नम्बर बस का प्रयोग, ५ किमी तक के लिये साइकिल का प्रयोग और उसके ऊपर ही वाहन का प्रयोग करना चाहिये । यह नहीं कर के स्वास्थ्य और पर्यावरण का बंटाधार कर रहे हैं हम सब ।

राज भाटिय़ा ने कहा…

आप ने तो हमे हमारी कहानी ही याद दिला दी, पिता जी के पास होती थी एटलस साईकिल, जिसे हाथ लगाना की हमारी हिम्मत नही होती थी, ओर पिता जी उसे खुब चमका कर रखते थे, सर्सो के तेल मै कुछ मिट्टी का तेल मिला कर उस की खुब मालिस करते थे, फ़िर हमारे हाथ लगी साईकिल तो दो महीने मै ही खराब हो गई, शायद आज भी कही घर मै पडी होगी.
हम भी खुब पेदल चलते थे, ओरआज दुध लेने भी कार से जाते है:(
धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

मुझे खुद को ऐसा लग रहा था
जैसे मेरी झाँकी निकल रही हो।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ये वाक्य पढ़ कर ,
खूब हंसी आयी --
पूरा संस्मरण अच्छा लगा
- लावण्या