वर्जनाएँ अब नहीं
- महेन्द्र 'नेह'
आसमानों
अर्चनाएँ, वंदनाएँ अब नहीं
जिन्दगी अपनी
किसी की मेहरबानी भर नहीं
मौत से बढ़ कर
कोई आतंक कोई डर नहीं
मेहरबानों याचनाएँ, दासताएँ अब नहीं
ये हवा पानी
जमीने ये हमारे ख़्वाब हैं
ये गणित कैसी
ये सब के सब तुम्हारे पास हैं
देवताओं
ताड़नाएँ, वर्जनाएँ अब नहीं
जन्म से पहले
लकीरें हाथ की तय हो गईँ
लकीरें हाथ की तय हो गईँ
इक सिरे से
न्याय की संभावना गुम हो गई
पीठिकाओं
न्यायिकाएँ, संहिताएँ अब नहीं।
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इस वृक्ष का नाम 'अब नहीं' (not now) है।
13 टिप्पणियां:
"ये हवा पानी जमीने ये हमारे ख़्वाब हैं
ये गणित कैसी ये सब के सब तुम्हारे पास हैं
देवताओं ताड़नाएँ, वर्जनाएँ अब नहीं"
इन पंक्तियों का सात्विक दृढ़ भाव और तीव्रता आकर्षित करती है । महत्वपूर्ण पंक्तियाँ । धन्यवाद ।
जबरदस्त!! नेह जी को पढ़ कर हमेशा ही आनन्दित हो लेते हैं. आपका आभार!!
देवताओं
ताड़नाएँ, वर्जना
........
अच्छी लगी यह रचना.
सुन्दर रचना शुक्रिया !
जिन्दगी अपनी
किसी की मेहरबानी भर नहीं
मौत से बढ़ कर
कोई आतंक कोई डर नहीं
अच्छी प्रस्तुति।
बधाई!
अद्भुत गीत महेन्द्र नेह जी और आपको नमन. पूरे दिन के लिये बडी उर्जा प्राप्त हुई.
बहुत अच्छा लगा पढ़कर
बहुत सुन्दर गीत बहुत बहुत धन्यवाद नेह जी को बधाई आपके स्वास्थ्य के लिये शुभकामनायें
बहुत सुंदर रचना.
रामराम.
जुकाम तो हमें भी हुआ है पर लोगों ने उसे स्वाइन फ्लू होने का जो भ्रम फैलाया की मत पूछिए... टेस्ट और दवाइयाँ... खैर !
कविता बहुत पसंद आई। सहानुभूति से शायद जुकाम का प्रकोप कम हो, सो भेज रही हूँ।
घुघूती बासूती
एक लाईन रह गयी...
जन्म से पहले
लकीरें हाथ की तय हो गई
इक सिर से
न्याय की संभावना गुम हो गई
बहुत ही उम्दा गीत है....
ravikumarswarnkar
कसर पूरी कर दी गई है। त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
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