हे, पाठक!
सूत जी ने शीतल जल ग्रहण किया। कण्ठ में नमी पहुँची तो आगे बोले -सनत! तुम लाल फ्रॉक वाली बहनों के बारे में जानना चाहते थे कि ये अलग क्यों हैं? लेकिन पहले कुछ और बातें जान लो। पशु पालन के युग में लक्ष्मी गैयाएँ हुआ करती थीं। उन के पीछे युद्ध लड़े गए। फिर जब कृषि आरंभ हो गई और राजशाही का य़ुग आया तो लक्ष्मी ने भू-संपत्ति का रूप ले लिया। लेकिन जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में क्रान्ति ला दी तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है। उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं। जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया में शासन है। उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए। इस बाजार का बंटवारा दो दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है। लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है। तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है। पूँजी के साम्राज्य की विषद व्याख्या सब से पहले मरकस बाबा ने की। उन्हों ने बताया कि इस युग का सब से प्रधान वैषम्य यही है कि श्रमोत्पन्ना पर श्रमजीवियों का अधिकार नहीं है। जब तक यह वैषम्य हल नहीं होता तब तक समाज में अमानवीयता रहेगी, युद्ध रहेंगे, बैर रहेगा। इतिहास में हल हुए वैषम्यों का अध्ययन कर उन्हों ने वर्तमान वैषम्य को हल करने के मार्ग का अनुसंधान किया कि दुनिया के श्रमजीवी एक हो कर श्रमोत्पन्ना पर सामुहिक रुप से अधिकार कर लें। इसी अवस्था को उन्हों ने समाजवाद कहा। यह भी कहा कि इस अवस्था में श्रमजीवी श्रम के अनुपात में अपना-अपना भाग प्राप्त करते हुए उत्पादन के साधनों को इतना विकसित करें कि मामूली श्रम से प्रचुर उत्पादन होने लगे। तब ऐसी अवस्था का जन्म होगा जिस में लोग यथाशक्ति श्रम करेंगे और आवश्यकतानुसार उपभोग करने लगेंगे। ये लाल फ्रॉक वाली बहनें स्वयं को उन मरकस बाबा की ही अनुयायी कहती हैं। ये अन्य दलों से इसीलिए भिन्न हैं, क्यों कि ये उस वैषम्य को हल करने को प्रतिबद्ध होने की बात कहती हैं, जब कि अन्य दल इस वैषम्य को शाश्वत मानते हैं और पूँजी लक्ष्मी की सेवा में जुटे हैं।
हे, पाठक!
सूत जी इतना कह कर रुके। जल पात्र से दो घूँट जल और गटका। इसी बीच सनत फिर पूछ बैठा -गुरूवर! जब लाल फ्रॉक वाली सब बहनें इस वैषम्य को हल करने को प्रतिबद्ध हैं तो फिर इन के अलग अलग खेमे क्यों हैं? और आपस में मतभेद क्यों हैं?
सूत जी बोले -मरकस बाबा ने यह भी बताया था कि लक्ष्मी की इस नयी अवस्था के स्वरूप ने श्रमजीवियों को पुरानी भू-संपत्ति की प्रधानता की अवस्था की अपेक्षा नयी स्वतंत्रताएँ प्रदान की हैं। इसी नयी अवस्था ने किसानों को उन के अथाह मानव श्रम का लक्ष्मी के विस्तार के लिए उपयोग करने के लिए सामंतों की पराधीनता से मुक्ति दिलाई। उसी ने मनुष्यों को स्वतंत्रता की सौगात दी। जिस से मनुष्य किसी एक सामंत का बन्धुआ नहीं रहा। इसी अवस्था ने बाजार को जन्म दिया। जिस में उत्पादन साधनों के स्वामी अपने माल को कहीं भी किसी को भी विक्रय कर सकते थे और मुक्त श्रमजीवी भी कहीं भी किसी को भी अपने श्रम को बेच सकते थे। मुक्त बाजार और श्रमजीवियों की आवश्यकता ने सामंती शासनों को नष्ट करने का बीड़ा उठाया और दुनिया के एक बड़े भाग को उस से मुक्त करा दिया। आधुनिक जनतंत्र को जन्म दिया, वयस्क मताधिकार से शासन चुनने का अधिकार दिया। दुनिया के लोगों को एक नया सुखद अहसास हुआ। इस सुखद अहसास के चलते नए वैषम्य का वर्षों तक अहसास ही नहीं हुआ। मरकस बाबा ने कहा था कि जब य़ह अवस्था चरम विकास पर पहुँच कर पतन की ओर बढ़ने लगेगी, जब वैषम्य अत्यन्त तीव्र हो उठेगा तभी इसे हल करना संभव हो सकेगा, तब तक नयी अवस्था का आगमन दुष्कर होगा। लेकिन एक बार स्वर्ग द्वार दृष्टिगोचर हो जाने पर कौन रुकता है? यदि मृत्यु पश्चात स्वर्ग प्राप्ति सुनिश्चित हो जाए तो लोग तुरंत मृत्यु के वरण को तैयार रहने लगेंगे। तो नए नए विश्लेषण आने लगे, नए नए सिद्धान्त प्रतिपादित हुए, उन के अनुरूप ही कार्यनीतियाँ तय होने लगीं। इन्हीं ने मरकस बाबा के अनुयायियों में मतभिन्नता उत्पन्न की और विश्व में सैंकड़ों दल उत्पन्न हो गए। भारतवर्ष में ही इन की संख्या सौ से कम न होगी।
हे, पाठक!
सूत जी तनिक रुके तो सनत का अगला प्रश्न तैयार था। -इस तरह तो इन बहनों को श्रम जीवियों का विपुल समर्थन प्राप्त होना चाहिए था। विगत बाईस वर्षों से लग भी रहा था कि जहाँ ये पैर जमा लेती हैं, वह अंगद का पाँव हो जाता है। फिर यह क्या हुआ कि इन की संख्या इस बार आधी ही रह गई?
सूत जी बोले -सनत! लगता है आज मुझे सारी रात निद्रा नहीं लेने दोगे। मुझे सुबह नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान करना ही है। मैं तुम्हारे इस प्रश्न का तो उत्तर दे रहा हूँ। अब अगला प्रश्न मत करना। हाँ जिज्ञासाएँ उत्पन्न हों तो उन्हें स्वयँ अपने प्रयत्न से भी शान्त करने का प्रयास करना सीखो। फिर कभी भी तुम नैमिषारण्य आ सकते हो। वहाँ तुम्हारी जिज्ञासाओं को शान्त करने के साथ बहुत से मुनिगण भी इस का लाभ उठा सकेंगे।
-गुरूवर! जैसी आज्ञा। आप विश्राम करें मैं ने आप को आज बहुत सताया, उस के लिए क्षमा करें? सनत संकोच से बोला।
हे, पाठक!
सूत जी ने आज अंतिम रूप से बोलना आरंभ किया -सनत! इन लाल फ्रॉक वाली बहनों का मुख्य काम था श्रम जीवियों निकट बने रहना, उन में एकता स्थापित करना और उस का विस्तार करना। लेकिन एक अवसर प्राप्त होते ही वे संप्रदायवाद के विरोध के बहाने लक्ष्मी-साधकों के सहयोग में आ खड़ी हुईं। जिन श्रमजीवियों की एकता स्थापित की थी, श्रेष्ठ रोजगार के वैकल्पिक साधनों की व्यवस्था किए बिना उन के रोजगार के वर्तमान साधनों को छीनने के लिए तत्पर हो गईं और राज्य शक्ति का उपयोग किया। अंत में एक ऐसे बिंदु पर जिस का कोई स्पष्ट प्रभाव श्रमजीवी जनता पर नहीं पड़ रहा था, लक्ष्मी-साधकों का साथ छोड़ कर कथित संप्रदायवादियों के साथ खड़े हो गए। जब जनता के पास जाने का समय आया तो क्षुद्र लक्ष्मी-साधकों के साथ तीसरे मोर्चे का दिवा स्वप्न संजोने लगे। इन गतिविधियों ने श्रमजीवियों के बीच वर्षों में कमाई गई विश्वसनीयता को खंडित कर दिया।जब विश्वसनीयता खंडित होती है तो सात जन्म तक साथ निभाने का वचन लेने वाले पति-पत्नी भी एक दूसरे के नहीं रहते तो श्रमजीवी उन का साथ क्यों न छोड़ देते? यही उन के साथ हुआ। उन्हें जनता ने सही सबक सिखाया है। बल्कि यह सबक सिखाने में जनता ने बहुत देर कर दी। यह सबक तो उसी समय सिखाना चाहिए था जब ये बहनें विपथगामी हो गयी थीं।
सूत जी ने अंतिम वाक्य कहा तो सनत बोल पढ़ा। गुरुवर! अब आप विश्राम करें। आप ने उत्तर भी दे दिया और अनेक ज्वलंत प्रश्न मेरे मस्तिष्क में छोड़ दिए हैं। आप की आज्ञा से स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न करूंगा। पर लगता है मुझे शीघ्र ही नैमिषारण्य आना पड़ेगा, और आते रहना पड़ेगा।
हे, पाठक!
सूत जी प्रातः नैमिषारण्य के रवाना हो गए। सनत उन्हें रेलगाड़ी में बिठा कर आया। गाड़ी चल देने के उपरांत सनत सोच रहा था, नैमिषारण्य यात्रा शीघ्र ही करनी पड़ेगी। हो सकता है वहाँ बार बार जाना पड़े। सनत के लिए जनतन्तर कथा यहाँ समाप्त नहीं हुई थी, यह तो आरंभ था।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
15 टिप्पणियां:
यह तो जन्तन्तर अम्ह्काव्य का रूप लेता जा रहा है -चलिए सन्ततियां भी पद्धेंगीतो निहाल होंगीं की ब्लॉग युग के महाकाव्य ऐसे होते थे -कुछ तो इसके शिल्प विधान पर शोध भी करेंगीं !
लक्ष्मी साधकों का साथ छोड़ने के बाद तो बस यही बचा रहेगा कहने को:
हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
महालक्ष्मी श्रम से उत्पन्न नहीं होतीं, वे श्रम के लिये मानव को प्रेरित करती हैं। महालक्ष्मी को वह स्थान प्रिय नहीं, जहां सामंजस्य और सौन्दर्य नहीं।
सूत जी सठिया गये हैं!
@ ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey
महालक्ष्मी श्रम के लिये मानव को प्रेरित करती हैं। महालक्ष्मी को वह स्थान प्रिय नहीं, जहां सामंजस्य और सौन्दर्य नहीं।
आप के उक्त कथनों से सहमति है। लेकिन इस से नहीं कि वह श्रम से उत्पन्न नहीं होती।
यदि वह श्रमोत्पन्ना नहीं तो उसे प्राप्त करने को मनुष्य श्रम के लिए प्रेरित क्यों होता है?
आप अपनी बात के वैषम्य को हल करें।
मार्क्सवाद की इतनी सुंदर व्याख्या के लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। मरकस बाबा के साथ-साथ लेनिन बाबा और हमारे ही डा. रामविलास शर्मा जी की भी कुछ बातें सूत जी कह देते, तो अच्छा रहता।
खैर कल नैमिषारण्य में सूत जी अवश्य इन बातों की चर्चा करें। शायद गोमती किनारे जब सूत जी प्रवचन कर रहे होंगे, तो मुलायम-माया का भी कल्याण हो जाए! (यह मैं अमृतलाल नागर जी के हवाले कह रहा हूं, जिन्होंने अपने उपन्यास एकदा नैमिषारण्ये में कहा है कि नैमिषारण्य लखनऊ की गोमती नदी के किनारे था)।
इस सनक के मन में एक सवाल और उठ रहा है, जो स्वप्रयत्न से शांत नहीं हो रहा, कृपया सूत जी जवाब दें - रूस में साम्यवाद विफल क्यों हुआ, और चीन में वह सफल क्यों हुआ, और भारत में साम्यवादी क्रांति क्यों नहीं हुई?
सूत जी स्व-सुविधानुसार, शीतल नीर की चुस्कियां लेते-लेते विस्तार से उत्तर दें, ताकि उनके कंठ को अधिक कष्ट न हो!
भाई आप श्रम से कितनी बडी लक्षमी पैदा कर सकते हैं? वो तो बिना ताऊपने के नही आसकती. यह गारंटी है. भले धीरु भाई की हिस्ट्री देख लिजिये. जो कि महान ताऊ थे
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रामराम..
मरकस बाबा के सिद्धांतो की बड़ी अच्छी व्याख्या रही.
'सूत जी सठिया गये हैं!' हा हा हा !
महालक्ष्मी भी आज कल चकरा गई है , घबरा गई है, सभी उसे ही उल्लू बना रहे है, जब लक्षमी चकरा सकती है तो है सुत!! हमारी क्या ओकात है...
हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सूत जी के ज्ञान को प्रणाम .
हम तो महालक्ष्मी जी के
" त्रिपुर सुँदरी" स्वरुप को पूजते हैँ
जिसमेँ ललिता, दुर्गा , सरस्वती
तीनोँ का वास है
आपकी कथा तो अद्`भुत जा रही है जी !
-- लावण्या
बोलो सूत महाराज की जय। ज्ञान जी सूत महाराज के बहाने कथावाचक पर निशाना साध रहे हैं। आप उनके झांसे में मती अईयो।
आपका यह तरीका अच्छा लगा मुझे।
रहा सवाल लाल फ़्राक का तो गौर से देखिये अब बंगाली बहना का फ़्राक ला से ग़ुलाबी हो गया है।
रूस के पतन का सवाल कभी पीछा नही छोडेगा। मेरा मानना है कि रूस और चीन का समाजवाद युद्धकालीन परिस्थितियों की पैदाइश थ और उस काल में इसने अपने पूर्व की व्यव्स्था से बेहतर व्यवस्था दी। लेकिन सामान्य परिस्थितियों में राज्य मशीनरी पर ज़्यादा निर्भर होने और कामगारों का समुचित विकास कारखाना चला पाने वालों जैसा ना कर पाने के कारण उसी पार्थक्य का शिकार हुई जिसे मार्क्स ने पूंजीवाद की लाक्षणिकता बताया था।
मेरा मानना है नये समाजवाद का नारा होगा -- बिना काम के मिल्क़ियत नहीं और बिना मिल्क़ियत काम नहीं' और लक्ष्य होगा "शांति, समानता और समृद्धि "
बालसुब्रमण्यम said...
"रूस में साम्यवाद विफल क्यों हुआ, और चीन में वह सफल क्यों हुआ, और भारत में साम्यवादी क्रांति क्यों नहीं हुई?"
रूस में साम्यवाद था ही नहीं जो विफल हो जाता. समाजवाद और साम्यवाद को आपस में गडमड न करें. पूंजीवाद के बाद साम्यवाद से पहले का संक्रमण काल समाजवाद कहलाता है जो अपने पूर्ववर्ती पूँजीवाद की तरह दो वर्गों के विरोध से गतिशील होता है फर्क सिर्फ इतना है कि बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही के कारण पूंजीवाद में विरोधों के कारण पैदा हुई गतिकी श्रम और पूँजी में से पूँजी के प्रधान होने के कारण पूँजी अथवा बुर्जुआ पक्ष में हल होने से होती है जबकि समाजवाद में इसके विपरीत -
१. सर्वहारा वर्ग की तानाशाही
२. प्रधान श्रम
3. हल, श्रम अथवा सर्वहारा पक्ष में.
दोनों में दो विरोधी वर्गों की मौजूदगी लाजिमी है. और कब घटनावृत्त (phenomenon) कायापलट (metamorphosis) कर जाये.....ग्यारवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने चतावनी दी थी;
"History knows all sorts of metamorphoses" and that "the real and main danger" was that the party might degenerate along bourgeois lines but retain "communist flags inscribed with catchwords stuck all over the place".
"और चीन में वह सफल क्यों हुआ" क्या ? साम्यवाद ? ......
अशोक कुमार पाण्डेय said...
मेरा मानना है नये समाजवाद का नारा होगा -- बिना काम के मिल्क़ियत नहीं और बिना मिल्क़ियत काम नहीं' और लक्ष्य होगा "शांति, समानता और समृद्धि "
"समानता" शब्द गलतफहमी पैदा करता है और उनके (बुर्जुआओं के जो बिना काम के बराबर मिल्कियत चाहते हैं के पक्ष में है)
मार्क्स ने इसका खंडन Criticism of the Gotha Program में किया है.
बालसुब्रमण्यम said...
"रूस में साम्यवाद विफल क्यों हुआ, और चीन में वह सफल क्यों हुआ, और भारत में साम्यवादी क्रांति क्यों नहीं हुई?"
रूस में साम्यवाद था ही नहीं जो विफल हो जाता. समाजवाद और साम्यवाद को आपस में गडमड न करें. पूंजीवाद के बाद साम्यवाद से पहले का संक्रमण काल समाजवाद कहलाता है जो अपने पूर्ववर्ती पूँजीवाद की तरह दो वर्गों के विरोध से गतिशील होता है फर्क सिर्फ इतना है कि बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही के कारण पूंजीवाद में विरोधों के कारण पैदा हुई गतिकी श्रम और पूँजी में से पूँजी के प्रधान होने के कारण पूँजी अथवा बुर्जुआ पक्ष में हल होने से होती है जबकि समाजवाद में इसके विपरीत -
१. सर्वहारा वर्ग की तानाशाही
२. प्रधान श्रम
3. हल, श्रम अथवा सर्वहारा पक्ष में.
दोनों में दो विरोधी वर्गों की मौजूदगी लाजिमी है. और कब घटनावृत्त (phenomenon) कायापलट (metamorphosis) कर जाये.....ग्यारवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने चतावनी दी थी;
"History knows all sorts of metamorphoses" and that "the real and main danger" was that the party might degenerate along bourgeois lines but retain "communist flags inscribed with catchwords stuck all over the place".
"और चीन में वह सफल क्यों हुआ" क्या ? साम्यवाद ? ......
"भारत में साम्यवादी क्रांति क्यों नहीं हुई?" ईतिहास की गति यांत्रिक न होकर टेढी-मेढ़ी और कुटील होती है. मार्क्सवाद इस बात को स्वीकार करता है इसलिए इतिहास के विश्लेषण का मार्क्सवादी तरीका द्वंदात्मक भौतिकवादी है.
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