हे, पाठक!
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
14 टिप्पणियां:
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
गज़ब!!! अद्भुत!!
हे पार्थ, जब इतना उँचा लिखोगे तो हर बंदे का यह नैतिक दायित्व बन जाता है और उसे टिपियाना पड़ता है.
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
इन्तजार आगे!!
बहुत सुंदर लेखन .लगातार अगले क्रम को पढनें के इन्तजार में .
"जनतन्तर-कथा (6) : खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा।"
लेख का सुन्दर प्रस्तुतिकरण।
भाई दिनेशराय द्विवेदी जी बधायी स्वीकार करें।
लगता है सबकी पोलें खोल कर ही दम लोगे! दिनेशरायजी आपको सहस्रनमन्!
भारत में वसंत आने में अभी देर है.
बहुत ही सारगर्भित 'अलेगरी'।बधाई।
सुबह सुबह ही मूत्र्पानि का दर्शन करा दिया आपने !
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
बहुत ही बढिया कथा आयोजन है. कल फ़िर सुनने आयेंगे.
रामराम.
इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी के टाइप के जर्म्स मर जाते हैं
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ऐकैदम सही! पर समाजवादी-मसाजवादी रक्तबीज कालान्तर में इस कथा के प्रताप से पनपे। उनका विनाश तो भविष्य के गर्भ में है।
इस कथा और उस पर ज्ञानदत्त जी की टिप्पणी दोनों को नमन । धन्यवाद ।
बड़ी गूढ़ बात कह गये आज वकील साहब ....दिलचस्प !
जनतँत्र की जन जन तक पहुँचानेवाली कथा का सूत्रपात कर दिया आपने आज तो .
- लावण्या
यह किसी महागाथा की भूमिका है। बहुत महत्वपूर्ण आख्यान। कई क्षेपक इसमें जुड़ेंगे। मगर आप तो अपनी धारा में बहें।
उधर वर्तमान के नेपथ्य में भी कुछ खेल चल रहा है, उसकी छौंक भी बखूबी लगा रहे हैं....
आपके लेखन का यह स्वरूप भी बहुत अच्छा लगा। कथा चलती रहे वर्तमान पर पहुँचकर भी न रुके, कुछ झलकियाँ भविष्य की भी दिखा जाए।
घुघूती बासूती
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