हमारी बार (अभिभाषक परिषद) के चुनाव हर साल होते हैं। दस वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि कोई वरिष्ठ वकील जिस की एक वकील के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा भी रही हो बार का अध्यक्ष चुना जाता था और दस वर्ष के आस पास की वकालत का कोई नौजवान सचिव। बाकी कार्यकारिणी में वरिष्ठ और कनिष्ठ सभी लोगों का मेल रहता था। इस से बार की एक छवि बनती थी। इस का असर ये था कि बार का अध्यक्ष या सचिव होना न केवल गर्व और सम्मान की बात थी बल्कि उन्हें पूरे नगर में नहीं प्रांत भर में सम्मान मिलता था। यह भी मान्यता थी कि ऐसे लोग योग्य वकील होते हैं।
इस मान्यता का असर धीरे धीरे यह होने लगा कि संस्थागत विधिक सेवार्थी ऐसे लोगों को काम देने लगे। धीरे धीरे मान्यता हो गई कि जो वकील बार का अध्यक्ष या मंत्री चुना जाएगा उसे संस्थागत विधिक सेवार्थियों का काम मिलने लगेगा। यह काम वकीलों की प्रतिष्ठा में तो वृद्धि करता ही है। उन की आमदनी में भी गुणित वृद्धि लाता है। इस से अब वे वकील जो कि अपने काम, आय और प्रतिष्ठा में वृद्धि लाने की कामना रखते थे इन पदों की ओर ललचाई निगाहों से देखने लगे।
बीस वर्ष पूर्व इन पदों के लिए दो से अधिक प्रत्याशी होते ही नहीं थे। अब इन प्रत्याशियों की संख्या बढ़ने लगी। साथ साथ यह होड़ भी कि किसी भी तरह से चुनाव में विजय हासिल की जाए। इस के लिए चुनाव के पहले सब मतदाताओं से उन के घरों पर जा कर मिलना। वकीलों के भोज आमंत्रित करना, उन के चुनाव में मतदाता बने रहने के लिए आवश्यक वार्षिक शुल्क की अदायगी स्वयं के खर्चे पर कर देना आरंभ हो गया। धीरे धीरे होने यह लगा कि जो जितने अधिक वकीलों को भोज दे वह उतना ही लाभ लेने लगा। कुछ उम्मीदवार हर वर्ष ही चुनाव में उम्मीदवार होने लगे। हार गए तो अगली बार फिर उम्मीदवार हो गए। इस बार अध्यक्ष पद के लिए चार उम्मीदवार थे। उन में से दो ऐसे थे जो तीसरी बार अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे। इस के अलावा दो उम्मीदवार नए थे।
इन दो नए उम्मीदवारों में एक पुराने समाजवादी विचारों के मुस्लिम वकील थे। वे पूरे सिद्धान्तवादी और आज के जमाने का कोई भी चुनाव लड़ पाने में पूरी तरह अक्षम। एक और तो सामान्य धारणा यह कि जहाँ बार में मुस्लिम वकीलों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत हो वहाँ महत्वपूर्ण पद पर कोई मुस्लिम वकील जीत नहीं सकता, दूसरी ओर आज लोहिया के रंग के कठोर समाजवादी को कौन पसंद करे? हाँ मुलायम समाजवादी हो तो कोई संभावना भी बनती है। फिर भी वे खड़े हो गए। आम धारणा यह थी कि उन्हें कम से कम मुस्लिम वोट तो मिलेंगे ही। लेकिन यह धारणा पूरी तरह से असत्य सिद्ध हो गई। मुस्लिम वकीलों ने उन से कहा कि वे मतदान के पहले कम से कम मुस्लिम वकीलों को तो भोज दे ही दें। उन्हों ने इस के लिए सख्ती से इनकार कर दिया कि वे मतदान के पहले किसी मतदाता को चाय तक नहीं पिलाएँगे। नतीजा यह कि मुस्लिम मतदाताओं ने ही उन्हें ठुकरा दिया और वे कुछ मतों से चुनाव हार गए। यदि आधे मुस्लिम मतदाता भी उन्हें वोट दे देते तो शायद वे जीत जाते। बाद में कहने लगे, अच्छा ही हुआ कि वे हार गए, वरना उन्हें शायद साल भर कुछ काम ऐसे करने पड़ते जो उन की आत्मा गवारा नहीं करती।
संस्थागत विधिक सेवार्थी जो बार के अध्यक्ष और सचिव में एक अच्छा वकील देखने लगे थे और काम उन्हे देने लगे थे। कुछ बरसों से सोचने लगे हैं कि उन का यह दृष्टिकोण गलत है। अब वे बार के पदाधिकारियों को काम देने से कतराने लगे हैं और दूसरे वकीलों में अपने लिए अच्छा वकील तलाशने लगे हैं।
6 टिप्पणियां:
दिनेशराय जी अच्छा है कोई जीत किसी शर्तो से जीती जाये, ओर फ़िर अहसानो से दब कर गलत काम भी करने पडे उस से बेहतर है हार जाना, आप उस मुस्लिम वकील को हमारा सलाम कहे.
धन्यवाद
bahut acchi jaankaari....chaliye aaj pata chala baar association men kasie voting hota hai...
और अब शायद बार काउन्सिल के पद भी उतने सम्मान से नही देखे जाते होंगे .
आपके विवरण से पता चलता है कि जहाँ कहीं भी चुनाव हो रहे हैं वहाँ निष्पक्ष बन के जीतना कितना कठिन है
एक और नये विचार से मुलाकात हुई.
रामराम.
'उन' मुस्लिम वकील साहब को मेरी ओर से लाख-लाख बधाइयां और अभिनन्दन अर्पित कीजिएगा। वे चुनावी मतगणना में भले ही पराजित हो गए हों किन्तु उन्होंने 'अंधरे को परास्त करन की कोशिश्ा में एक विश्वासभरी किरण' का महत् कार्य किया है।
मैं ऐसी पराजय को बार-बार सलात करता हूं।
कृपया मेरी टिप्पणी की अन्तिम पंक्ति में 'सलात' को 'सलाम' पढा जाए।
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