समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह, न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।
समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)
इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।
भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।
इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।
19 टिप्पणियां:
बात से सहमति पर ऑंकड़े में कुछ सरलीकरण दिख रहा है। मानों sc/st/obc कोई मानोलिथिक ढॉंचा हों। इन वर्गों के सभी वर्गों में इस नाते का प्रचलन एकसा नहीं है। शीर्षक से आभास होता है मानो इतनी जनसं. के परिवार लिवइन संबंध के हों जबकि ऐसा निश्चित ही नहीं है।
@ मसिजीवी जी,
यह मैं ने कब कहा कि इन जाति समूहों में सभी रिश्ते लिव-इन-रिलेशन में हैं। लेकिन ये सभी जातियाँ इन रिश्तों को मान्यता प्रदान करती हैं। सामाजिक सहमति संपूर्ण समाज की उन्हे प्राप्त है। इस तरह भारतीय समाज का बहुमत इस रिश्ते को सामाजिक सहमति प्रदान करता है।
achha hai lekh parantu yah kab tay hoga ki kitne samay tak sath rahne se rishta shadi man liya jayega. dusari baat ek vyakti agar 4 auraton se liv in relationship men chala gaya to naya prastavit kanoon kya karega ? agar sab ko barabar ka darja milega to phir ek se jyada shadi ki hi chhot de deni chahiye.Kyon kya khayal hai. vaise jabardast confusion hai.
दिनेश जी,
ये सही नहीं है कि एससी, एसटी और ओवीसी में सौ प्रतिशत लिव-इन-रिलेशनशिप हो। रखैल तो हर वर्ग में है और क्षत्रिय इसमें सबसे आगे हैं, फिर लाला और फिर पंडित। लेकिन समूचे समाज में इसका प्रतिशत हमारे यहां बहुत अधिक नहीं है। जैसा आपने कानून के बारे में समझाया, उस दृष्टि से ये कानून एक हद तक स्त्री समाज को संबल ही प्रदान करेगा।
खैर, यह तो तय है कि ऐसे सम्बन्ध बढ़ते जा रहे हैं।
अर्जुन की आशंका कि वर्णशंकर उत्पन्न होंगे, का क्या होगा?
यह तो ठीक ही है ,इसमें बुराई क्या है ?
द्विवेदी जी लेख में कसावट नहीं है, आपने पाठकों के लिए कई कन्फ्यूजन छोड़ दिए हैं. रही बात बंधन, स्वतंत्रता और सामाजिक आजादी की तो यह आज का युवा वर्ग जो कर रहा है, उससे हम आप वाकिफ हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय का नार्थ कैम्पस इसका एक उदाहरण मात्र हैं.
देखें आगे क्या होता है -
"वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।"
आपकी इस बात में वजन है ! भले कोई खुल कर जिक्र करे या ना करे ! हाँ प्रतिशत इधर उधर हो सकता है ! अगर पारिवारिक न्याय और अपराधो की दृष्टी से देखा जाए तो बुराई नही दीखती ! अब रही नैतिक मूल्यों की बात तो वो सबके अपने २ होते हैं !
एक नैतिक बात एक के लिए अच्छी है वही दुसरे के लिए बुरी हो सकती है ! आपने बहस और समझाने के लिए बहुत सामयीक विषय उठाया ! धन्यवाद !
रखैल तो हर वर्ग में है
कोई औरत अगर पुरूष के साथ बिना शादी के रहती है तो
"रखैल" ,
" दुश्चरित्र " ,
"औरत ही औरत की दुश्मन "
पर उस पति के लिये कोई "नाम " नहीं जो विवाहित हो कर किसी दूसरी स्त्री के साथ दैहिक सम्बन्ध रखता हैं .
और उस पत्नी के लिये कोई "सामाजिक सजा " नहीं जो ये जानते हुए भी ऐसे पति के साथ रहती हैं जो किसी दूसरी स्त्री के साथ सहवास भी करता हैं .
हम justify किस बात को कर रहे हैं
इस बात को की सेक्स से पहले सात फेरे जरुरी हैं
या इस बात को की सेक्स के बाद सात फेरे हो ना हो रिश्ता स्वतः ही पति - पत्नी का बन गया .
शादी भारतीये समाज की रीढ़ होती थी पर लिव इन रिलेशनशिप भी हर जगह हैं और बहुतायत मे हैं .
नैतिकता सात फेरो से होती तो ये रिलेशनशिप नहीं बनते .
बहुत सख्ती से अगर ये कानून लागू होगा तो समाज का फायदा ही होगा क्युकी
पुरूष को आर्थिक रूप से उस स्त्री को भी सिक्योर करना होगा
समाज को मानना हो की उस स्त्री को जिसे वोह "गाली " मानता हैं उसका और पत्नी का दर्जा एक ही हैं
और पत्नियों को उस मिथ्या भ्रम से बाहर आना होगा की सात फेरो से वो समाज मे "ऊँचे स्थान" पर हैं और जिस स्त्री के साथ उनका पति सहवास करता हैं पर सात फेरे नहीं लेता वो " निकृष्ट " और " नीचे " स्थान पर हैं .
अब सहवास और साथ रहना पति पत्नी का रिश्ता कायम करने के लिये काफ़ी हैं , सात फेरो की जरुरत नहीं हैं .
बहुत सम्भव हैं की अगर ये कानून बन जाए और व्यापक रूप से प्रचारित हो तो लिव इन रिलेशनशिप कम हो जाए
@समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है।
द्विवेदी जी, यहाँ मैं आपसे सहमत नहीं हूँ. बिना सामाजिक दायित्व और कर्तव्य के मनुष्य मनुष्य नहीं रहता. अगर पश्चिमी समाजों से कुछ सीखना है तो कुछ अच्छा सीख्ना चाहिए. लिव-इन संबंधों के दुष्परिणामों से घबरा कर अब तो पश्चिमी समाज भी वैवाहिक संबंधों के महत्त्व को साझने लगे हैं.
आप चाहें तो मेरे विचारों को कुलीन समाज का विलाप मात्र समझ सकते हैं. बैसे एक बात कहूं , आप की भाषा कुछ उग्र हो गई है इस लेख में. कारण तो आप ही जानते होंगे.
ये समाजिक बंधन(शादी) और समाजिक आजादी (लिव इन रिलेशनशिप) के बीच की बात है और इसमें अभी जीत तो लिव इन रिलेशनशिप की हो रही है, लेकिन फिर भी कई कोण हैं जो कि समझना बहुत मुश्किल हैं।
महोदय, आपने कई किंतु-परंतु छोड़ दिए हैं। किसी जाति, धर्म या इलाका विशेष के लोग एक जैसी धारणा रखते हों, यह बात गले से नहीं उतरती। आपकी इस बात से सहमति हो सकती है कि लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता देने से एक बड़े वर्ग को कानूनी संर&ण मिल सकता है, लेकिन ....लिव-इन संबंधों के दुष्परिणामों से घबरा कर अब तो पश्चिमी समाज भी वैवाहिक संबंधों के महत्त्व को साझने लगे हैं.
sir bahut accha vayang
humara pacemaker bhi dehiye
regards
"इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र ही कहा जा सकता है"
विलाप करने वालों की दुखती रग आपने छू दी है.
हां, 65% का आंकडा (आपने टिप्पणी के जवाब में जो लिखा है उसके बावजूद) शायद कुछ अधिक है.
शहरी जनता (जो कि आपके पाठक हैं) उनके बीच यह आंकडा कितना हो सकता है इस पर आपने कुछ नहीं कहा है!!
-- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
आपने बेहद जल्दबाजी में लिखा की 65 % भारतीय परिवारों में ऐसे सम्बन्ध स्वीकार्य है . और ऐसे परिवारों को category के आधार पर वर्गीकृत भी कर दिया . जो कुछ गैरजिम्मेदार भी मालूम होता है .एक भी शोध या आंकडे इस बात को प्रमाणित नहीं करते .फ़िर इस तरह के सम्बन्ध जातिगत बन्धनों से परे होते हैं .सामाजिक पृष्ठभूमि एक कारक हो सकता है ,लेकिन आजकल इसे सुशिक्षित ,संपन्न और सवर्ण लोग भी अपना रहे हैं .
इन संबंधो के कारणों का विश्लेषण आवश्यक है ,क्योंकि प्रश्न केवल यौनिक स्वछंदता का नहीं अपितु आर्थिक ,सामाजिक और पारिवारिक पहलू भी प्रभावित होंगे .लिव इन आज़ादी तो देता है ,समस्याएं भी खड़ी करता है.प्रेम पर विश्वास कम होना और वादा-ऐ-वफ़ा न निभा सकने का भय भी एक कारण है.देखें क्या होता है.
'नातरा' एक ही जाति में होता है, पहली पत्नी की म़त्यु के बाद अथवा पहली पत्नी से विवाह विच्छेद के बाद होता है और उसे विवाह का दर्जा प्राप्त होता है । 'नातरा' आई स्त्री को पत्नी का दर्जा तो अवश्य मिलता है लेकिन उसे 'विवाहिता' का सम्मान नहीं मिलता । इसके विपरीत, 'नातरा' करने वाले पुरुष के प्रति समाज कें नजरिए में कोई अन्तर नहीं आता ।
आंकडों पर मैं नहीं जाता लेकिन यह सच है कि 'सहावासिता' प्रचुंरता से समाज में विद्यमान है और इसका चलन बढता जा रहा है । हमारा मौजूदा 'माइण्ड सेट' इसे स्वीकारने को तैयार नहीं है । हम आदर्श अनुप्रेरित समाज हैं -खुद भले ही राम न बन सकें लेकिन चाहते हैं कि राम हमारे बीच बराबर मौजूद रहें ।
SHASTREE JI NE SAHEE KAHA .SIRF KULEEN VARG KAVILAP HAI.BHARAT KEE 60 PRATISHAT ABAADEE KEE YAH MANYA SAMAJIKTA RAHEE HAI.BHOJ BHAAT SE SVIKRIT.KOYEE PAHAD NAHEEN TOOT PADA NAITIKTA KA !
समय समय की बात है !
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