चार दिनों से व्यस्तता के कारण अपने किसी चिट्ठे पर कुछ नहीं लिख पाया। कुछ ब्लाग पढ़े, कुछ पर टिप्पणियाँ की। लेकिन ऐसा लगा जैसे घर से दूर हूँ और केवल चिट्ठी-पत्री ही कर रहा हूँ। इन चार दिनों में चम्बल में बहुत पानी बह गया। इधर श्राद्ध पक्ष चल रहा है। आज के समय में कर्मकांडी श्राद्ध का महत्व कुछ भी न रह गया हो। लेकिन यह पक्ष हमेशा मुझे लुभाता रहा है। यही एक पक्ष है जब हम परंपरा से हमारे पूर्वजों को स्मरण करते हैं। पूर्वजों की यह परंपरा वैश्विक है। सभी संस्कृतियों में पूर्वजों को स्मरण करने के लिए कोई न कोई पर्व नियत हैं। आज चीजें बदल रही हैं। लोग स्मृति दिवस मनाने लगे हैं। लेकिन इन स्मृति दिवसों में जो होता है वह भी केवल पूर्वजों की ख्याति से वर्तमान में कुछ पा लेने की आकांक्षा अधिक रहती है। फिर श्राद्ध पक्ष में अपने पूर्वजों को स्मरण करने की परंपरा का ही क्यों न निर्वाह कर लिया जाए।
हमारे यहाँ परंपरा ऐसी रही है कि पूर्वजों में स्त्री पुरुष का कोई भेद नहीं है। परिवार की माताओं, पिताओं, अविवाहित पूर्वजों का समान रूप से स्मरण किया जाता है। जिस पूर्वज के दिवंगत होने की तिथि पता है। उसे उसी तिथि को स्मरण किया जाता है। जिस वैवाहिक स्थिति अर्थात् अविवाहित, विवाहित, विदुर या वैधव्य की अवस्था में पूर्वज का देहान्त हुआ था। उसी वैवाहिक स्थिति के किसी ब्राह्मण स्त्री या पुरुष को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता है। उसे ही अपना पूर्वज मान कर पूरे आदर और सम्मान के साथ भोजन कराया जाता है। गऊ, कौए और कुत्ते के लिए उन का भाग अर्पित किया जाता है। इस के उपरांत अपने परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ भोजन किया जाता है।
मुझे अथवा मेरे परिवार में किसी को भी यह स्मरण नहीं, लेकिन गोत्र के किसी पूर्वज के देहान्त के उपरांत उस की पत्नी ने भी कुछ ही घंटों में प्राण त्याग दिये और दोनों का अंतिम संस्कार एक साथ हुआ और उन्हें सती युगल की महत्ता प्राप्त हुई। उस दिन पूर्णिमा थी, परिणाम यह कि श्राद्ध पक्ष के प्रथम दिवस ही किसी युगल को भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता है। बाद में यह सिलसिला पूरे पखवाड़े चलता रहता है। जिन पूर्वजों की संस्कार तिथियाँ स्मरण हैं उन तिथियों को श्राद्ध किया जाता है। यह मान कर कि पूर्वजों की यह परंपरा अनंत है और हर तिथि किसी न किसी पूर्वज का संस्कार हुआ होगा, पूरे पखवाड़े प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन बनता है। गऊ, कौए और कुत्ते का भाग उन्हें देने के उपरांत एक व्यक्ति का भोजन किसी भी व्यक्ति को करा दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष के अंतिम दिन अमावस्या को भूले बिसरे पूर्वजों के नाम से श्राद्ध अवश्य किया जाता है। मेरी पत्नी पूरी परंपरावादी है, और चाहती है कि इन परंपराओं की जानकारी हमारी संतानों को भी रहे तथा वे भी इसे निभाएँ। इसलिए जितना उन्हों ने अपने वैवाहिक जीवन में देखा है उतना तो वे अवश्य करती हैं।
श्राद्ध पक्ष में मुझे भी अपने पूर्वजों को स्मरण करने का भरपूर अवसर प्राप्त होता है। मेरी इच्छा यह रहती है कि पूरे पक्ष में कम से कम एक दिन नगर में उपलब्ध परिवार के सभी सदस्य एकत्र हो कर एक साथ भोजन करें और कम से कम दो-चार घंटे साथ बिताएँ और मेरे मित्रगण भी उपस्थित रहें। इस से मुझे अपने पूर्वजों के सत्कर्मों को स्मरण करने, उन की स्मृतियाँ ताजा करने और उन के सद्गुणों को अपनी आगे की पीढ़ी तक पहुँचाने का अवसर प्राप्त होता है। मैं श्राद्धपक्ष के कर्मकांडीय और किसी धार्मिक महत्व में विश्वास नहीं करता। लेकिन यह महत्व अवश्य स्वीकारता हूँ कि आज हम जो कुछ भी हैं उस में हमारे पूर्वजों का महत्व कम नहीं है। वे न होते तो क्या हम होते? हमें उन्हें अवश्य ही स्मरण करना चाहिए। मुझे इस के लिए परंपरागत रूप से प्रतिवर्ष आने वाला श्राद्धपक्ष का यह पर्व सर्वथा उचित लगता है। इसे बिना बाध्यता के साथ, अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप अपने पूर्वजों के साथ पूरे सम्मान, आदर और पूरे उल्लास के साथ संपन्न करना चाहिए।
19 टिप्पणियां:
कोटा से दूर की अदालत कैसी लगी आपको ?
पूर्वजों को यादा करके जो भी किया जाता है, सर्वथा उचित है उन्हीं की बदौलत तो आज हम हैं !!
यह सामुहिक स्मरण की बात जमी। जैसा महत्व सामुहिक साधना का है, वैसा ही सामुहिक स्मरण का भी। ऐसा होना चाहिये।
आलेख अच्छा लगा। राग घिसा-पिटा है या नया-नया ई हम न बतायेंगे।
पूर्वजों के प्रति अपने फर्ज़ को हर इंसान को निभाना चाहिए...बहुत अच्छा विषय है...
आने वाले वक्त में यह होगा या नही कह नही सकते ..पर अभी तो यह चल ही रहा है ..अच्छा लगता है इस परम्परा को निभाना
sahi likha hai aapne. bhut badhiya lekh.
"लेकिन इन स्मृति दिवसों में जो होता है वह भी केवल पूर्वजों की ख्याति से वर्तमान में कुछ पा लेने की आकांक्षा अधिक रहती है।"
बहुत मार्के की बात कही आपने -यह चाह बहुतों की रहती है -इसका अहसास मुझे है .हम पूर्वजों की बदौलत ही जो कुछ हैं ,हैं !
उन्हें नमन !
अच्छा आलेख-इसे बिना बाध्यता के साथ, अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप अपने पूर्वजों के साथ पूरे सम्मान, आदर और पूरे उल्लास के साथ संपन्न करना चाहिए। -सत्य वचन!!
सही कहा आप ने पूर्वजों को याद करना बहुत जरूरी है। बहुत अच्छा लगा लेख
हम परम्परावादी समाज हैं और कोई कितना ही प्रगतिशील क्यों न हो जाए,अपनी जडों से दूर जाना नहीं चाहता । फिर, पुरुष भले ही तीस मार खां बन जाए, घरवाली के सामने अच्छे-अच्छे प्रगतिशील हनुमान चालीसा पढने लगते हैं ।
कोई इन्हें माने या न माने, परम्पराओं से परिचित होना सबको अच्छा लगता है ।
आप सचमुच में बडा काम कर रहे हैं ।
सर, हम जैसे युवाओं के लिए यह पोस्ट बहुत कुछ सिखाती है.. हमारी परम्पराओ के बारे में बताती है जिनसे हम ज्ञात नही हैं..
पितरॊं को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि और सादर नमन। आपके सामयिक आलेख का आभार।
पितृ देवतुल्य के समान है और
पितृ पक्ष में पितरो का श्रद्धाभाव
स्मरण करने पर पितरो का
आशीर्वाद मिलता है . बहुत
सुंदर आलेख आभार
पितरों का नाम देवताओं के साथ लिया जाता है...गया में पिंड दान की परम्परा भी है. अच्छी लगी आपकी पोस्ट.
मैं महेंद्र मिश्रा जी से सहमत हूँ !
मैं पितर पूजा कभी नहीं छोड़ता, न जाने क्यों इस पूजा के बाद बेहद शान्ति महसूस होती है ! लगता है कि अपने दिवंगत माता पिता के साथ बैठा हूँ, और उनका भरपूर स्नेह मिल रहा है और कह रहे हों कि उनका नालायक बेटा, एक दिन को ही सही, उनके प्रति समर्पित तो है !
आपका आभारी हूँ कि आप ने इस विषय पर लिखा !
पितृ पक्ष का बहुत सुंदर वर्णन. अच्छी परम्पराएं तो जारी रहनी ही चाहिए.
आलेख अच्छा लगा।
अद्भुत. यह परंपरा, लगता है, सभी धर्मों में है. दक्षिण में यह सामूहिक रूप से पखवाड़े में न सिमट कर,
वर्ष में एक बार मृत्यु के उसी माह, नक्षत्रानुसार मानाने की परंपरा है.
बहुत बढ़िया. जी पंडित जी. मै लगातार १७ वर्षो से लगार अपने माता पिता और पूर्वजो को जल दे रहा हूँ और विधिवत श्राद्ध कर रहा हूँ . कई लोगो ने मुझे सलाह दी की आप गया जी जाकर पिन्दान कर दे तो फ़िर आपको यह करी नही करना पड़ेगा पर मेरी आत्मा नही मानती है और इस कार्य को कर मुझे बड़ी आत्मिक शान्ति मिलती है और मुझे लगता है कि पितरो के आशीर्वाद से आज मै जो कुछ भी हूँ उनके कारण इस दुनिया में हूँ . मुझे भी आपकी तरह इस कार्य को कर असीम सुख शान्ति प्राप्त होती है . आभार .
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