मैंने गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक के समय को खेती से जुड़े लोक अनुष्ठानों का समय कहा था। जिस में गणपति पूजा, गौरी स्थापना और विसर्जन हो चुका है। कल राजस्थान में वीर तेजाजी और बाबा रामदेव के मेले हुए। आज डोल ग्यारस (जलझूलनी एकादशी) है। आज मेरे जन्म-नगर बाराँ में जो अब राजस्थान के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र का मध्यप्रदेश से सटा एक सीमावर्ती जिला मुख्यालय है, एक पखवाड़े का मेला शुरु हो चुका है। यूँ तो इस मेले का अनौपचारिक आरंभ एक दिन पहले तेजादशमी पर ही हो जाता है। दिन भर तेजाजी के मन्दिर पर पूजा के बाद मेले में दसियों जगह गांवों से आए लोग रात भर ढोलक और मंजीरों के साथ खुले हुए छाते उचकाते हुए वीर तेजाजी की लोक गाथा गाते रहते हैं। आज की सुबह होती है मेले के शुभारंभ से।
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मथुरा में जन्मे कृष्ण, उसी दिन नन्द के घर जन्मी कन्या, जिसे कंस ने मार डाला। कन्या के स्थान पर पर कृष्ण पहुँचे तो नन्द के घर आनंद हो गया। अठारह दिन बाद भाद्रपद शुक्ल एकादशी को माँ यशोदा कृष्ण को लिए पालकी में बैठ जलस्रोत पूजने निकली। इसी की स्मृति में इस दिन पूरे देश में समारोह मनाए जाते हैं। राजस्थान में इस दिन विमानों में ईश-प्रतिमाओं को नदी-तालाबों के किनारे ले जाकर जल पूजा की जाती है।
इस दिन बारां के सभी मंदिरों में विमान सजाए जाते हैं और देवमूर्तियों को इन में पधरा कर उन्हें एक जलूस के रूप में नगर के बाहर एक बड़े तालाब के किनारे ले जाया जाता है। सांझ पड़े वहाँ देवमूर्तियोँ की आरती उतारी जाती है और फिर विमान अपने अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। मेरे लिए इस दिन का बड़ा महत्व है। नगर के सब से बड़े एक दूसरे से लगभग सटे हुए दो मंदिरों में से एक भगवान सत्यनारायण के मंदिर में ही मैं ने होश संभाला, और बीस वर्ष की उम्र तक वही मेरे रहने का स्थान रहा। दादा जी इस मंदिर के पुजारी थे, हम उन के एक मात्र पौत्र। अभी दादा जी के छोटे भाई के पुत्र, मेरे चाचा वहाँ पुजारी हैं।
तेजा दशमी के दिन ही काठ का बना छह गुणा छह फुट का विमान बाहर निकाला जाता, उस की सफाई धुलाई होती और उसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता। यह वर्ष में सिर्फ एक दिन ही काम आता था। दूसरे दिन सुबह दस बजे से इसे सजाने का काम शुरू हो जाता। पहले यह काम पिताजी के जिम्मे था। 14-15 वर्ष का हो जाने पर यह मेरे जिम्मे आ गया, हालांकि मदद सभी करते थे। विमान के नौ दरवाजों के खंबे सफेद पन्नियाँ चिपका कर सजाए जाते। ऊपर नौ छतरियों पर चमकीले कपड़े की खोलियाँ जो गोटे से सजी होतीं चढ़ाई जातीं। हर छतरी पर ताम्बे के कलश जो सुनहरे रोगन से रंगे होते चढ़ाए जाते। विमान के अंदर चांदनी तानी जाती। विमान के पिछले हिस्से में जो थोड़ा ऊंचा था वहाँ एक सिंहासन सजाया जाता जिस पर भगवान की प्रतिमा को पधराना होता। आगे का हिस्सा पुजारियों के बैठने के लिए होता। विमान के सज जाने के बाद नीचे दो लम्बी बल्लियाँ बांधी जातीं जिन के सिरे विमान के दोनों ओर निकले रहते। हर सिरे पर तीन तीन कंधे लगते विमान उठाने को।
दोपहर बात करीब साढ़े तीन बजे भगवान का विग्रह लाकर विमान में पधराया जाता। आगे के भाग में एक और मेरे दादा जी या पिता जी बैठते, दूसरी ओर मैं बैठता। लोग जय बोलते और विमान को कंधों पर उठा लेते। विमान शोभायात्रा में शामिल हो जाता। सब से पीछे रहता भगवान श्री जी का विमान और उस से ठीक आगे हमारा भगवान सत्यनारायण का। इस शोभा यात्रा में नगर के कोई साठ से अधिक मंदिरों के विमान होते। तीन-चार विमानों के अलावा सब छोटे होते, जिन में पुजारी के बैठने का स्थान न होता। शोभा यात्रा में आगे घुड़सवार होते, उन के पीछे अखाड़े और फिर पीछे विमान। हर विमान के आगे एक बैंड होता, उन के पीछे भजन गाते लोग या विमान के आगे डांडिया करते हुए कीर्तन गाते लोग। सारे रास्ते लोग फल और प्रसाद भेंट करते जिन्हें हम विमान में एकत्र करते। अधिक हो जाने पर उन्हें कपडे की गाँठ बना कर नीचे चल रहे लोगों को थमा देते।
शाम करीब पौने सात बजे विमान तालाब पर पहुंचता। सब विमान तालाब की पाल पर बिठा दिए जाते। लोग फलों पर टूट पड़ते, और लगते उन्हें फेंकने तालाब में जहाँ पहले ही बहुत लोग केवल निक्करों में मौजूद होते और फलों को लूट लेते। फिर भगवान की आरती होती। जन्माष्टमी के दिन बनी पंजीरी में से एक घड़ा भर पंजीरी बिना भोग के सहेज कर रखी जाती थी। उसी पंजीरी का यहाँ भोग लगा कर प्रसाद वितरित किया जाता।
फिर होती वापसी। विमान पहले आते समय जो रेंगने की गति से चलता, अब तेजी से दौड़ने की गति से वापस मन्दिर लौटता। बीच में अनेक जगह विमान रोक कर लोग आरती करते और प्रसाद का भोग लगा कर लोगों को बांटते।
मेला पहले की तरह इस बार भी तालाब के किनारे के मैदान में ही लगा है और पूरे पन्द्रह दिन तक चलेगा। अगर मेले के एक दो दिन पहले बारिश हो कर खेतों में पानी भर जाए तो किसान फुरसत पा जाते हैं और मेला किसानों से भर उठता है।
15 टिप्पणियां:
बहुत अनोखा विवरण रहा ये !
अब कौन ले जाता है
भगवान सत्यनारायण का विमान ?
सत्यनारायण कथा का प्रचलन
ना जाने कितने वर्ष पहले हुआ होगा ?
- लावण्या
जीवंत चित्र है....द्रिवेदी जी....विवरण में रोचकता लाते है.....
ऐसा लगा जैसे अपनी आँखों से सारा द्रश्य देख लिया हो....सुन्दर चित्रण.
sundar chitran,rochak vivaran alekh ko chaar chand laga dete hai . khoobasoorat abhivyakti . abhaar.
चित्रो के साथ साथ विवरण बहुत अच्छा लगा.
धन्यवाद
बहुत रोचक .आपके लिखने का ढंग बाँध लेता है ..बहुत सी बातें पता चली है इस तरह के लेखन से
अभी शाम को घर पे बात हुई तो पता चला कि आज डोल ग्यारस थी।
विमान (ब्वाण) के साथ बचपन में नदी पर जाना, प्रसाद लेना, गुब्बारे खरीदन..सब याद है।
लोकोत्सवों की जीवंत प्रस्तुतियों से आप हिदी ब्लॉग जगत के एक रिक्त कोने को संमृद्ध कर रहे है द्विवेदी जी आप ! नमन !
इन लोक प्रचलत मेलों और उत्सवों का अपना ही महत्त्व है... झारखण्ड के कुछ इलाकों में आदिवासी साल भर की जरुरत के समान मेले में ही खरीद लेते हैं.
अखबार में कई बरसों से जलझूलनी एकादशी और डोलयात्रा की खबरें पढ़ता रहा हूं। कॉलोनी में तालाब नहीं होने के कारण ठाकुरजी को पाकॅ में ले जाकर विहार कराने का दृश्य भी देखा है, लेकिन आपने भूतकाल का जो जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है, मन गदगद हो गया। परंपराओं को बनाए रखने की हमारी कोशिश कायम रहनी चाहिए।
bara ki sair kara di aapne.jaankari badhane ke liye shukriya
आनंद आ गया विवरण पढ़कर. बचपन की बहुत सी यादें भी ताज़ा हुईं. धन्यवाद!
अद्भुत और जरूरी विवरण । लोकोत्सवों में ताकत छुपी है जो अपसंस्कृति के हमले का सामना कर सके ।
अच्छी जानकारी। मुझे इस पर्व के विषय में पहले मालूम न था।
और पहले यह अपेक्षा नहीं होती थी कि इण्टरनेट पर यह सब जानकारी मिला करेगी!
बहुत धन्यवाद (ईर्ष्या सहित; कि इतना बढ़िया लिखा आपने!) ।
बहुत ही जीवंत विवरण उतार दिया आपने , आभार!
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