@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।

इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने  से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे।  इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?

हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।

अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।

किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।

19 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

दिनेश जी,आप का लेख ओर पिछले लेख बहुत ही अच्छे लगे, कुछ विचार मे अपने भी रख्ता हु, जब हम किसी व्यक्ति को भगवे वस्त्र मे देखते हे तो मन मे श्रध्दा जागती हे उस के प्रति,चाहे वो हम से उम्र मे छोटा ही क्यो ना हो, ओर बाद मे जब हमे पता चलता हे कि यह तो हम से भी गया गुजरा हे तो क्रोध आता हे उस पर, फ़िर खुद पर, ओर फ़िर सभी पर से विश्वास खतम हो जाता हे,ओर सभी एक ही बात करते हे, जिस पर वो खुद कभी भी अमल नही करते,ओर यह लोग त्याग की बाते करते हे, जितने बाबा लोग टी वी पर आते हे, क्या यह सब पहुचे हुये हे,क्या इन के आश्राम मे जाने वाले सभी लोगो को शान्ति हे? मेरा तो यही कहना हे भगवान की पुजा के बदले उस का कहना माने, उस के कहे अनुसार कर्म करे तो ना इन साधु सन्तो की जरुरत हे,ना ही पुजा पाथ करने की, मेरी बातो से किसी को भी ठेस पहुचे तो माफ़ी चाहता हु,

अजित वडनेरकर ने कहा…

सुंदर रही यह श्रंखला। विषय तो पुरातन है , हर युग में जीवंत रहा है। आस्था अनास्था का प्रश्न हमेशा ही उठता रहा है । समाज ने इसी के बीच से राह बनाई है ।

Neeraj Rohilla ने कहा…

दिनेशजी,
आपने वन आश्रम की यात्रा के माध्यम से जो प्रश्न उठाये हैं, ठीक उसी प्रकार के प्रश्न कई बार मेरे मन में आये और लिखते लिखते रह गया ।

मेरा घर मथुरा में है और मेरे घर से १०० मीटर दूर एक मंदिर है । उस मंदिर को पिछले २० वर्षों से देख रहा हूँ, वहाँ पर होने वाले कुछ परिवर्तन देखिये ।

पहले सावन के सोमवारों पर कुछ नहीं होता था । भक्त मंदिर जाते थे और घर आ जाते थे । अब बाकायदा हजारों रूपये खर्च होकर बर्फ़ और रूई की झांकियाँ सजती हैं । मोहल्ले के युवक अपनी इच्छा से स्कूटर मोटरसाईकिलों वालों से २० और कार वालों से ५० रूपये लगभग जबरन वसूलते हैं । कालोनी के हर घर से १०० से लेकर ५०० तक जितना पैसा मिल जाये लिया जाता है । सरकारी बिजली को चुरा कर चमकीले बल्बों की झालर और लाऊडस्पीकर के माध्यम से तेज आवाज में शिवजी के भजन (हर प्रकार के) सुबह से शाम तक चलाये जाते हैं ।

लगभग यही काम नवरात्रि के समय भी होता है जिसमें एक जोरदार देवी जागरण भी करवाया जाता है ।

अब अगर आप सोच रहे हों कि इस सबसे मंदिर में भक्तों का आना कम हुआ हो तो गलत है । भक्तों की संख्या और मंदिर की समृद्धि दिन दूनी बढ रही है ।

सोमवार को लडकियों के मंदिर में ज्यादा जाने से सडक पर अन्य यातायात भी अपने आप बढ जाता है । मेरे घर वालों ने मुझे ताना दिया कि ये दुष्ट तो मंदिर भी नहीं जाता और सचिन (काल्पनिक नाम) कैसी सेवा कर रहा है मंदिर में । ये वही सचिन है जिसको मैने मंदिर में सेवा के बहाने लडकियों से हरकत करते देखा और फ़िर उत्सव के २ दिन बाद बचे हुये Unaccounted पैसों से पार्टी करते देखा ।

मोहल्ले/कालोनी के अन्य लोगों से बातचीत की तो उनके विचार थे । पहले ये मंदिर सुनसान रहता था अब देखो कितनी रौनक हो जाती है । जी हाँ सही सुना आपने धर्म के नाम पर "रौनक" बढ रही है । भक्ति के स्थान पर अंधश्रद्धा बढ रही है ।

यही क्यों, मथुरा में कहीं भी नजर उठाकर देख लीजिये, अनेकों जगह भागवतकथा होती दिख जायेगी । सुनने वाले भी उन स्थानों पर जाते हैं जहाँ कथा के साथ साथ बढिया म्यूजिक के साथ भजन गाये जाते हैं और कथा में श्री कृष्ण के जन्म वाले दिन बढिया रंगारंग प्रोग्राम होता है । फ़िर वही बात सामने आती है, आज धर्म एक पैकेज सा बन गया है । केवल श्रद्धा से बात नहीं बनेगी, साथ में फ़ीलगुड भी होना चाहिये ।

और अगर तुम आशाराम बापू को मानते हो तो मैं कैसे पीछे रह जाऊँ मैं बाबा रामदेव का चेला बन जाऊँगा । समस्या है कि बहुत जल्दी इन गुरुओं के इर्द गिर्द एक कोटरी से बन जाती है, उसके बाद उनके नाम पर जो कुछ हो उसपर गुरुओं का नियन्त्रण बहुत कम रह जाता है ।

यहाँ ह्यूस्टन में हमारे स्कूल में एक बार एक गुरूजी आये थे जो दक्षिण में कहीं वेदिक शोध संस्थान में थे । उनसे कुछ बातचीत करने का मौका मिला और मन को बडी शान्ति मिली । हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्ति के अनेकों साधन हैं । "सेवा" का मार्ग, "ज्ञान" का मार्ग और भक्ति का मार्ग । उन्होने बताया कि ये तीनों मार्ग अपने में सम्पूर्ण हैं लेकिन फ़िर भी भक्ति के मार्ग को इसमें श्रेष्ठ माना गया है (क्यों, इस पर फ़िर कभी लिखेंगे) । लेकिन इस श्रेष्ठता के लिये कठिन अनुशासन की भी आवश्यकता है ।

आज के धर्म गुरु अपने भक्तों को इसमें से किस मार्ग पर चलने को कह रहे हैं ये सोचने की बात है । "ज्ञान" के मार्ग पर चलने वाले कितने गुरु हैं । कितने गुरु हैं जो भारतीय दर्शन की अनेकों शाखाओं "द्वैत", "अद्वैत", "सांख्य", "योग" आदि पर ध्यान दे रहे हैं । किसी भी प्रकार के अध्ययन के लिये घोर साधना की आवश्यकता होती है । चाहे वो डाक्टरी की पढाई हो या ईश वंदना । ऐसे ही हमारे घर की दादी मां अपने पूजा वाले आले के सामने पूरे विश्वास से हाथ जोड कर किसी अनिष्ट को टालने के प्रार्थना नहीं कर लेती । उनकी पूरी उम्र की साधना लगी है इस भक्ति में, और अनेकों उपवासों, कर्मकाण्ड और सच्चे मन की भावना से ईश्वर में इतना विश्वास पैदा हुआ है । शायद इसीलिये किसी ने भक्ति के मार्ग को श्रेष्ठ बताया हो ।

कुल मिलाकर लब्बोलुआब यही है कि भीड जुडती रहेगी अगर आप सीधे शब्दों में प्रवचन देंगे । लेकिन भीड को एक धार्मिक और सामाजिक चेतना में परिवर्तित करने के लिये चिंतन की ओर प्रेरित करना आवश्यक है । मुझे लगता है कि ऐसी चेतना के दीप अभी भारत में असंख्य जगह जल रहे होंगे और अगर कोई व्यवस्था जन्मेगी तो वहीं से जन्मेगी ।

अन्त में भावनाओं के प्रवाह में इतना कुछ कह गया, क्षमा करें । आप चाहें तो टिप्पणी को माडरेट करके छोटी कर सकते हैं ।

vipinkizindagi ने कहा…

lambe lambe comments ke sath sath aapki post bahut achchi hai,

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

नीरज जी, यह टिप्पणी टिप्पणी नहीं, अपितु पूरी पोस्ट है और पाठक को सोचने को बाध्य कर रही है। ऐसा लगता है कि जो विषय अनायास ही इस वन यात्रा से छिड़ गया है वह इस विषय पर एक सामूहिक ब्लाग की आवश्यकता प्रतिपादित करता लग रहा है। आप का क्या विचार है? और अन्य पाठकों का क्या विचार है?

निशिकान्त ने कहा…

दिनेश जी, आपके द्वारा लिखा लेख बहुत अच्छा लगा। किसी भी घटना को यथा वत लिख देना बहुत ही कठिन होता हैं। पढने में उस जगह पहुच जाता हैं।
इस तरह के आश्रमों में ज्यादा तर जगह अन्धविश्वास ही दिखायी देता हैं। लोग अपने स्वार्थ पूर्ती के लिये आश्रम में लोगो के विश्वास को इस्तेमाल करते हैं।

कुश ने कहा…

आपकी आश्रम श्रंखला पढ़ते हुए भी कई तरह के विचार उत्पन्न हुए थे.. अच्छा लगा आपने उन्हे मंच दिया.. दरअसल व्‍यावसायीकरण के दौर में कुछ भी अछूता नही रहा है.. जहा भगवान के भजन या आरती कैसेट से बजाई जाए तो फिर आप और हम क्या अपेक्षा करेंगे.. यदि आश्रम वैसा ही रहे तो लोग भी कम आएँगे.. क्योंकि बाज़ार सब कुछ यहा मासिक किश्त में देना शुरू कर दिया है.. क्रेडिट कार्ड और लोन ने लोगो को विलासिता पूर्ण रहना सीखा दिया है. मैं स्वयं भी इस से अछूता नही हू.. इसलिए अश्रमो में भी जाते समय लोग अपनी सुविधा का ख्याल रखते है..

और जहा पर ये सब नही है वाहा मानसिक शांति तो है.. पर इक्का दुक्का लोग जाते है.. आपने ही अपनी एक पोस्ट में ज़िक्र किया था जोधपुर में कायलना झील के पास बने मंदिर का.. मैं वाहा अक्सर जया करता था और एक असीम शांति मिलती थी.. परंतु सुविधाए अब वाहा भी पाँव पसार रही है.. और बढ़ा भी हम ही दे रहे है..

Anita kumar ने कहा…

अच्छा विषय है, ऐसा लगता है कि बहुत से लोग बहुत कुछ कहना चाह्ते हैं इस विषय पर , सामुहिक ब्लोग बनाना अच्छा रहेगा।

Ila's world, in and out ने कहा…

सामूहिक ब्लौग का विचार बहुत ही अच्छा है.आप इसका शुभारंभ करें तो इस व्यापक विषय पर सभी अपने अपने विचार यहां रख पाएंगे.नीरज जी की टिप्पणी सारगर्भित है.

admin ने कहा…

इस श्रंखला के बहाने आपके व्यक्तित्व का एक अन्य पहलू उजागर हुआ है।

बालकिशन ने कहा…

अच्छा विषय है, ऐसा लगता है कि बहुत से लोग बहुत कुछ कहना चाह्ते हैं इस विषय पर , सामुहिक ब्लोग बनाना अच्छा रहेगा।
मैं सहमत हूँ आपसे.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।
मेरा भी यही सोचना है। आत्मविश्वास बढ़ाने में यह विधा कारगर रही है।
अपने को अभिव्यक्त करना - अपने जोश और अपने भय को भी, यह इस विधा में अच्छी तरह हो जाता है। अब देखें न, नीरज रोहिल्ला अपना क्या-क्या अभिव्यक्त कर गये।
बुत अच्छी पोस्ट।

विष्णु बैरागी ने कहा…

मुझ पर आत्‍म ष्‍लाघा का आरोप लगने का खतरा उठा कर अपनी बात कह रहा हूं ।
नीरजजी ने जो कुछ लिख है वह हर नगर के हर मोहल्‍ले की कहानी है । मेरा मोहल्‍ला भी वैसा ही है । लेकिन मैं ऐसे आयोजनों में न तो भागीदारी करता हूं, न आर्थिक योगदान देता हूं और न ही ऐसे आयोजनों को प्रोत्‍साहित करता हूं । अपने परिचय क्षेत्र में मैं 'एबला' (एब वाला) के रूप में जाना जाता हूं । मेरा परिवार भी मेरी इन बातों मे हर बार साथ नहीं देता । मेरी पत्‍नी मुझसे छुपा कर बच्‍चों को चन्‍दा देती है ।
लेकिन मजे की बात यह है कि मोहल्‍ले के प्रत्‍येक घर का मुखिया मुझसे सहमत है । कहता है - आप ठीक कहते हो लेकिन क्‍या करें, समाज में उठना-बैठना पडता है । मैं पूछता हूं - आप लोगों ने क्‍या मुझे मोहल्‍ले से बाहर निकाल रखा है । जवाब में सब खिसियानी हंसी हंसते हैं । मेरे इस व्‍यवहार के कारण मेरे मोहल्‍ले का प्रत्‍येक आयोजन 'बच्‍चों का आयोजन' ही बना हुआ है और आज तक भव्‍य स्‍वरूप हासिल नहीं कर पाया है । लाउडस्‍पीकर रात में 10 बजे बन्‍द हो जाता है । मेरी हरकतों से खुश तो सब हैं लेकिन साथ में कोई नहीं आता ।
मुझ अकेले के कारण मोहल्‍ले में शोर-गुल नहीं होता, फूहडता नहीं आती और इसी कारण आयोजन कुछ सीमा तक, अपने मकसद से आगे नहीं जा पाते ।
मेरा कहना यही है कि हर काम की शुरुआत हमें खुद से करनी पडेगी, बुरा बनना पडेगा, लोगों की नाराजी मोल लेनी पडेगी लेकिन यह सब होते हुए भी लोग आपको सराहेंगे क्‍यों कि वे सब जानते हैं कि आप ठीक काम कर रहा हैं ।
मेरे शहर में भी 'सन्‍तों-महात्‍माओं' के भव्‍य आयोजन होते हैं लेकिन मैं किसी में नहीं जाता हूं । दो सन्‍तों के अनुयायियों ने बार-बार आग्रह किया । मैं दोनों सन्‍तों के पास गया और विनयपूर्वक कहा कि मैं उनके ऐसे आयोजनों से बिलकुल ही सहमत नहीं हूं क्‍यों कि उनके आयोजन समाज को 'ठहरे हुए पानी' में बदल रहे हैं । इनमें से एक तो 'महामण्‍डलेश्‍वर की उपाधि से विभूषित हैं ।
मुझे इस बात का आत्‍म सन्‍तोष है कि मेरे ऐसे अटपटे आचरण के बाद भी मुझे न तो कोई अधार्मिक मानता है, न नास्तिक और न ही हिन्‍दू विरोधी ।
मुझे लगता है कि हम 'प्रतीक्षारत समाज' के रूप में रहना पसन्‍द करते हैं और इस स्थिति से असहमत-असन्‍तुष्‍ट भी रहते हैं ।
हम अपने आप से सच बोलें और तदनुसार आचरण कर लें तो मुझे लगता है कि संकट समाप्‍त हो सकता है ।

Arvind Mishra ने कहा…

सामूहिक ब्लॉग का मैं भी अनुमोदन करता हूँ !

मीनाक्षी ने कहा…

द्विवेदीजी, आज दुबारा एक साथ सभी कड़ियाँ पढ़ीं. चित्रात्मक वर्णन ने चित्रों की कमी पूरी कर दी... आपकी आजकी पोस्ट के शीर्षक ने आशा जगा दी कि हमारे अनियमित जीवन को नियमित होने की दिशा कभी तो मिलेगी...

cartoonist ABHISHEK ने कहा…

बहुत ही भरोसे की बात लिखी है आपने कि
'व्यवस्था ,अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है....'
मैं सहमत हूँ आपसे.

Neeraj Rohilla ने कहा…

वाह, इस पोस्ट पर विष्णु बैरागी एवं अन्य लोगों की टिप्पणियाँ पढकर लगा है कि बडी सार्थक शुरुआत हुयी है । इस विषय पर एक सामूहिक ब्लाग का मैं भी समर्थन करता हूँ । सामूहिक विमर्श से इस चर्चा को आगे बढाया जाये ।

डॉ .अनुराग ने कहा…

शुरू से ही आर्य समाजी परिवार से हूँ ,पिता हमेशा मोहल्ले के लोगो के बुरे बनते थे ...विष्णु जी जैसे ...कॉलेज में भी किसी की भावनायो को आहत नही करना चाहता था इसलिए कई जगह कई बार साथ गया हूँ ..शिरडी दोस्त के साथ कौतुहल वश गया ..व्यापार देखकर निराश हुआ .....आरती का टाइम .....खास लोगो को तवाज्जो....केरल बंगलौर ,मसूर कही भी जायो हर जगह व्यापार.... एक बार wife ने किसी मजार पर जाने की जिद पकड़ी ,मेरठ में ही है..मै अन्दर नही गया ,बाहर ही रहा ,मजार के पीर या जो भी उसे कहते है .उसने मजदूर के दो छोटे बच्चो को जिस तरह भगाया मुझे गहरी वित्रशना हो गई .मुझे दुःख हुआ की क्यों मै वहां आया ..मुझे बढ़ावा नही देने चाहिए था ....मै सिर्फ़ भावनात्मक पहलू देख रहा था ......मैंने ढेरो लोगो को चाहे वो साधू संत सन्यासी बने फिरते है .....ऐसे ऐसे रोगों में देखा है ...जो एक अच्छे चरित्र वाले इंसान में नही हो सकते .....दरअसल धर्म भी अब एक व्यवसाय है...ओर हर धर्म में इसके व्यापारी ......कही तो पहल करनी होगी ....बुरा तो बनना होगा....

Abhishek Ojha ने कहा…

इतने बड़ी-बड़ी टिपण्णीयों और बड़े-बड़े विचारों में मैं क्या कह सकता हूँ. हाँ धर्म में रूचि रही है... और मंदिरों में भी. भले ही स्थापत्य कला में या इस बात में की कैसे ये कला और विद्या के साथ-साथ ताकत के भी केन्द्र थे... इत्यादि में ही रूचि ज्यादा हो. हो तो मैं भी अनुराग जी की तरह ही गया हूँ... पर ग्रंथों को पढने में कभी पीछे नहीं रहता और बैग में गीता की पुस्तक जरूर पड़ी हुई साथ में दुनिया घूमते रहती है. ढेरों किताबें पढ़ी है... पर लिस्ट अभी भी बहुत लम्बी है... अभी कुछ कहने लायक नहीं समझता अपने आपको.
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इधर बहुत दिनों से ब्लॉग पर नहीं आ पा रहा हूँ, इसका मतलब ये मत समझ लीजियेगा की आपके पोस्ट नहीं पढ़ रहा :-). रीडर में पोस्ट बढ़ते जा रहे हैं. पर एक-एक करके पढूंगा. अभी अनियमितता थोड़े दिन और रहेगी... आजकल न्यूयार्क में जमावडा है और डब्बा (लैपटॉप) भारत में ही रह गया... जब तक नया नहीं ले लेता ये हालत ही रहनी है.