@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा

बुधवार, 19 जनवरी 2011

भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा

गालियाँ दी जाती रही हैं, और दी जाती रहेंगी और चर्चा का विषय भी बनती रहेंगी। गालियाँ क्यों दी जाती हैं? इस पर खूब बातें हो चुकी हैं, लेकिन कभी कोई कायदे का शोध इस पर नहीं हुआ। शायद विश्वविद्यालयी छात्र का इस ओर ध्यान नहीं गया हो, ध्यान गया भी हो तो विश्वविद्यालय के किसी गाइड ने इस विषय पर शोध कराना और गाइड बनना पसंद नहीं किया  हो, और कोई गाइड बनने के लिए तैयार भी हो गया हो तो विश्वविद्यालय समिति ने इस विषय पर शोध को मंजूरी ही न दी हो। विश्वविद्यालय के बाहर भी किसी विद्वान ने इस विषय पर शोध करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है, अन्यथा कोई न कोई प्रामाणिक ग्रंथ इस विषय पर उपलब्ध होता और लिखने वालों को उस का हवाला देने की सुविधा मिलती। मुझे उन लोगों पर दया आती है जो इस विषय पर लिखने की जहमत उठाते हैं, बेचारों को कोई संदर्भ ही नहीं मिलता। 
ब्लाग जगत की उम्र अधिक नहीं, हिन्दी ब्लाग जगत की तो उस से भी कम है। लेकिन हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हम इस विषय पर हर साल एक-दो बार चर्चा अवश्य करते हैं। इस लिए यहाँ से संदर्भ उठाना आसान होता है। मुश्किल यह है कि हर चर्चा के अंत में गाली-गलौच को हर क्षेत्र में बुरा साबित कर दिया जाता है और चर्चा का अंत हो जाता है।  ब्लाग पर लिखे गए शब्द और वाक्य भले ही अभिलेख बन जाते हों पर हमारी स्मृति है कि धोखा दे ही जाती है। साल निकलते निकलते हम इस मुद्दे पर फिर से बात कर लेते हैं।  कुछ ब्लाग का कुछ हिन्दी फिल्मों का असर है कि मृणाल पाण्डे जैसी शीर्षस्थ लेखिकाओं को भास्कर जैसे 'सब से  आगे रहने वाले' अखबार के लिए आलेख लिखने का अवसर प्राप्त होता है। वे कह देती हैं, "नए यानी साइबर मीडिया में तो ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।" वे आगे फिर से कहती हैं, "पर मुंबइया फिल्मों तथा नेट ने एक नई हिंदी की रचना के लिए हिंदी पट्टी के आधी-अधूरी भाषाई समझ वालों को मानो एक विशाल श्यामपट्ट थमा दिया है।"
न्हें शायद पता नहीं कि यह हिन्दी ब्लाग जगत इतना संवेदनहीन भी नहीं है कि गालियों पर प्रतिक्रिया ही न करे, यहाँ तो गाली के हर प्रयोग पर आपत्ति मिल जाएगी। प्रिंट मीडिया में उन की जो स्थिति है, वे ब्लाग जगत में विचरण क्यों करने लगीं? वैसे भी अब प्रिंट मीडिया इतनी साख तो है ही कि वहाँ सुनी सुनाई बातें भी अधिकारिक ढंग से कही जा सकती हैं। फिर स्थापित लेखक लिखें तो कम से कम वे लोग तो विश्वास कर ही सकते हैं जो हिन्दी ब्लाग जगत से अनभिज्ञ हैं, यथा लेखक तथा पाठक। ब्लाग जगत का यह अदना सा सदस्य इस विषय पर शायद यह पोस्ट लिखने की जहमत न उठाता, यदि क्वचिदन्यतोअपि पर डा. अरविंद मिश्रा ने उस का उल्लेख न कर दिया होता।
न के इस कथन के पीछे क्या मन्तव्य है? यह तो  मैं नहीं जानता। पर कहीं यह अहसास अवश्य हो रहा है कि प्रिंट मीडिया में लिखने वालों को ब्लाग जगत के लेखन से कुछ न कुछ खतरे का आभास अवश्य होता होगा। कुछ तो सिहरन होती ही होगी। जब किसी को भय का आभास होता है तो प्राथमिक प्रतिक्रिया यही होती है कि वह उसे झुठलाने का प्रयास करता है। भय के आभास को मिथ्या ठहराने के प्रयास में वह भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा करता है। कहीं यही कारण तो नहीं था मृणाल जी के उस वक्तव्य के पीछे जिस में वे कहती हैं कि "ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।" यदि उन का मंतव्य यही था तो फिर उन का यह वक्तव्य निन्दा के योग्य है। वह ब्लाग जगत के बारे में उन के मिथ्या ज्ञान को ही अभिव्यक्त करता है।

18 टिप्‍पणियां:

shikha varshney ने कहा…

प्रिंट मीडिया में लिखने वालों को ब्लाग जगत के लेखन से कुछ न कुछ खतरे का आभास अवश्य होता होगा।.

शायद ऐसा ही है...

सुज्ञ ने कहा…

मृणाल पाण्डे द्वारा,जिस आशय और प्रयोजन से लिखा गया है, वह किसी भय से ही निर्थक ब्लॉग निन्दा का प्रयास है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

ऊपर वाले दोनों महानुभावों से सहमत..

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

idhar mai apsi bolchal me galiyan deta to khoob hu lekin likhne me????
na baba na.

Rahul Singh ने कहा…

'जिन खोजा तिन पाइयां' शायद वे ब्‍लॉग पर कुछ बेहतर न तलाश पाईं.

विष्णु बैरागी ने कहा…

वह लेख मैंने भी पढा है। पहली पंक्तियॉं पढते ही अनुभव हो जाता है कि मृणालजी ने हिन्‍दी ब्‍लॉग पढे बिना ही आलेख लिख दिया।

अपनार सन्‍देश मृणालजी को भी भेज रहा हूँ कि वे अपना ब्‍लॉग शुरु करें और अपनु अनुभव के आधार पर लिखें। अभी तो वे किनारे पर खडी, ब्‍लॉग को निहार रही हैं। बीच मझधार में आकर अनुभव करें।

Satish Saxena ने कहा…

इस विषय पर डॉ अरविन्द मिश्र ने "मुझे यह भी लगता है कि गलियाँ कभी कभार घोर हताशा ,दयनीयता और विकल्पहीनता के अवसर पर भी सूझती हैं " क्वचिदन्यतोअपि..........! पर विषद चर्चा की है ! क्रोध अभिव्यक्ति करने का और आसान तरीका क्या हो सकता है !

Satish Saxena ने कहा…


आपका नया प्रोफाइल फोटो बढ़िया लगा :-)
वैसे बदलाव का मामला क्या है
अचानक पर्सनालिटी चेंज ??
....बिटिया द्वारा पापा को स्मार्ट बनाने की चेष्टा ( मेरे केस में तो यही ..) या कुछ और :-) ??
?

Mithilesh dubey ने कहा…

वह ब्लाग जगत के बारे में उन के मिथ्या ज्ञान को ही अभिव्यक्त करता है। मैं भी यही कहता हूँ, शिखा जी ब बातों मे दम है ।

सञ्जय झा ने कहा…

apke post se samati....

जिन खोजा तिन पाइयां' शायद वे ब्‍लॉग पर कुछ बेहतर न तलाश पाईं.

uprokt comments se sahmati....

pranam.

satyendra ने कहा…

हो सकता है कि मृणाल जी गालियों वाले ब्लॉगों की ही नियमित पाठक हों और उन्हें वही पढ़ने में आनंद आता हो?

anshumala ने कहा…

नहीं मुझे लगता है कि मृणाल जी पूरी तरह गलत है वो भी उन्ही तरह के पोस्टो पर गई जैसे की मै जब ब्लॉग जगत में आई थी तब देखा था उस समय एक दो नहीं दसियों पोस्टो का यही हाल था गाली गलोजो और झगड़ो से भरा और वो भी कई कई दिनों तक यदि उस समय मै ब्लॉग जगत के अपने अनुभव के बारे में लिखती तो शायद कुछ ऐसा ही होता | एक लम्बा समय गुजरने के बाद ही मेरे अनुभव में परिवर्तन आया | वो भी समय गुजरेंगी तो समझ जाएँगी की इस दुनिया में भी हर तरह के लोग है |

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपनी बात कहने के लिये गालियों की आवश्यकता नहीं है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

स्थापित लेखक जब कुछ लिखते हैं तो लोग आसानी से उनके लिखे पर विश्वास कर लेते हैं ...सच्चाई जानने के लिए ब्लॉग जगत में विचरण करना ज़रूरी है ...

vandana gupta ने कहा…

मेरे ख्याल से तो बिना गालियो के भी सशक्त तरीके से अपनी बात सब तक पहुंचाई जा सकती है।

Arvind Mishra ने कहा…

लगता है इन्द्रासन डगमगाने लग ग्या है ---मेरी पोस्ट के लिंक के लिए आभार!
मैंने अभिषेक 'आर्जव' से अनुरोध किया है कि वे गालियों के भाषा शास्त्रीय विवेचन पर कुछ लिखेगें !

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

आप से सहमत हूँ.

उम्मतें ने कहा…

दो संभावनाएं बनती हैं ...

(१) एक तो ये कि उनका मंतव्य कुछ और है

(२) दूसरा ये कि शायद उन्होंने बेइरादा ही लिख डाला हो !

अब अगर पहली बात सही हो तो इसे भूल जाइए क्योंकि ब्लागों को निशाने पर रखकर नियोजित लेखन ब्लागों की सामर्थ्य और लेखिका के भय का अहसास कराता है :)

और अगर दूसरी बात सही है तो फिर यह दोहरी चिंता का कारण है ! किसी स्थापित नाम से ऐसी असावधानी /अबोधता हो जाए तो यह उसके ही नाम पर प्रश्न चिन्ह है या फिर ब्लागों की औकात नहीं हुई कि उन्हें कोई सीरियसली ले :)