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गुरुवार, 3 जून 2021

साइकिल


यूँ तो हम नगर में रहते थे। लेकिन नगर इतना बड़ा भी नहीं था कि आसानी पैदल नहीं नापा जा सके। नगर से बाहर जाने के लिए बसें और ट्रेन थी। नगर में सामान ढोने का काम हाथ ठेले करते थे। बाकी इन्सान अधिकतर पैदल ही चलते थे। कुछ लोग जिन्हें काम से शहर के बाहर ज्यादा जाना होता था उनके पास सायकिलें थीं। मोटर सायकिलें बहुत कम थीं। चौपाया वाहन तो इक्का-दुक्का ही थे। हाँ सरकारी जीपें बहुत थीं। पिताजी अध्यापक थे, अक्सर बाहर पोस्टिंग रहती थी। बाकी हम सब का काम पैदल चलने से हो जाता था। पर जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया सोचता जरूर था कि घर में एक साइकिल तो होनी चाहिए। आसपास के बच्चे किराए पर साइकिल ले आते और कैंची चलाते रहते। मेरा भी दिल तो करता था। पर सोचता साइकिल सीख भी लूंगा तो किस काम की, जब तक घर में न हो। बिना साइकिल के काम चलता रहा।

एक दिन पास के गाँव से जो चार किलोमीटर दूर था, किसी बिरादरी वाले के यहाँ से भोज का निमन्त्रण मिला। किसी न किसी का जाना जरूरी था। दादाजी जा नहीं सकते थे। घर में पुरुष मैं अकेला था। दादाजी ने आदेश दिया कि मैं चला जाऊँ। उन दिनों हमारे गाँव का लड़का गणपत गुप्ता पढ़ने के लिए हमारे साथ ही रहता था। मैंने दादाजी से कहा कि मैं गणपत को साथ ले जाऊँ, तो उन्होंने अनुमति दे दी।

भोज के लिए गाँव जाने के दो साधन थे। हम पैदल जा सकते थे, या फिर साइकिल से। साइकिल नहीं थी, पर किराए पर ली जा सकती थी। मुझे चलाना आता नहीं था। मैंने गणपत से पूछा, “तुम्हें चलाना आता है।”
उसने कहा, “आता है।”

मैं बहुत खुश था कि अब साइकिल किराए पर ले चलेंगे। गणपत चलाएगा, मैं कैरियर पर बैठ जाऊंगा। हम तीसरे पहर चार बजे करीब घर से निकले। नगर में आधा किलोमीटर चलने के बाद साइकिल की दुकान आई। हमने किराए पर एक साइकिल ले ली। साइकिल ले कर हम कुछ दूर पैदल चले। फिर मैंने गणपत से कहा, “तुम साइकिल चलाओ, थोड़ा धीरे रखना मैं उचक कर कैरियर पर बैठ जाउंगा।”

“मैं साइकिल तो चला लूंगा लेकिन मुझे पैडल से बैठना नहीं आता। कहीं ऊंची जगह होगी तो वहाँ पैर रख कर साइकिल पर चढ़ जाउंगा, तुम कैरियर पर बैठ जाना।” गणपत ने कहा।

“ठीक है”, मैंने कहा।
हम आधा किलोमीटर और चले। शहर खत्म हो गया। उसके बाद एक नाला आया। उसकी पुलिया पर पैर रख कर गणपत ने चालक की सीट संभाली। मुझे कहा तो मैं कैरियर पर बैठ गया।

“ठीक से बैठ गए?” गणपत ने मुझ से पूछा।

“हाँ, बैठ गया”.

“मैं पैडल मारूँ?”

“बिलकुल”, मैंने कहा।

गणपत ने पैडल मारा। साइकिल का हैंडल बायीं तरफ मुड़ा और पुलिया की मुँडेर खत्म होने के बाद सीधे नाले में। नीचे, साइकिल, ऊपर गणपत, उस पर मैं। एक दो बरसात हो चुकी थीं। नाले में मामली पानी था और खेतों से बहकर आई मुलायम मिट्टी। हमें चोट नहीं लगी। पर कपड़े उन पर मिट्टी पड़ गयी। हाथ पैर भी मिट्टी मे सन गए।

हम सोच रहे थे क्या करें? वापस जाने में बड़ी दिक्कत थी। शाम के खाने का क्या होगा? हमने आगे बढ़ना तय किया।

हम साइकिल लेकर पैदल चले। एक किलोमीटर बाद एक बावड़ी आई। उसमें हमने अपने कपड़ों से और शरीर से मिट्टी हटायी। फिर आगे चल पड़े। फिर उसी भोज में जाते कुछ परिचित मिले। उन्होंने कहा कि साइकिल होते हुए पैदल क्यों जा रहे हो? हमने अपनी दिक्कत बताई कि केवल गणपत को चलाना आता है लेकिन वह मुझे बिठा नहीं सकता। उनमें से एक ने मुझे अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा लिया। गणपत कहीं ऊँची जगह देख कर साइकिल पर चढ़ा और भोज वाले गाँव पहुँचे। वापसी में उन्हीं परिचित ने मुझे अपने घर के नजदीक छोड़ा। सुबह साइकिल दुकान वाले को जमा करा दी गयी। किराए सहित।
बाद में घर में साइकिल आई। उसके बाद के भी अनेक किस्से हैं। पर वे फिर कभी।

बुधवार, 26 मई 2021

रामायण में बुद्ध की उपस्थिति


बुद्ध पूर्णिमा पर मेरी एक फेसबुक पोस्ट पर यह प्रश्न उठा कि पहले बुद्ध आए कि राम। मेरी वह पोस्ट वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस से प्रकाशित संस्करण के एक श्लोक पर आधारित था, जिसमें बुद्ध का उल्लेख आया है। यह सभी जानते हैं कि बुद्ध एक वास्तविक ऐतिहासिक चरित्र हैं। राम का चरित्र भी प्राचीन है, वह वास्तविक है या काल्पनिक यह कोई नहीं जानता। लेकिन जिस तरह इस चरित्र के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं उससे लगता है कि इस चरित्र का सदियों में विकास हुआ है। मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता। केवल यह कहना चाहता हूँ कि वाल्मिकी रामायण बुद्ध के बाद की रचना है। यह ईसा पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी में रची गयी है। महाभारत की भी ऐसी ही स्थिति है। यहाँ मैं रामायण का वह प्रसंग और श्लोक चित्रों सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ।

जब भरत राम को वनवास से लौटाने के लिए चित्रकूट गए. उनके साथ दशरथ के एक मंत्री जाबालि भी भरत के साथ थे जिन्हें रामायण में ब्राह्मण शिरोमणि कहा है।(अयोध्याकाण्ड 108वाँ सर्ग) जब राम को सबने वापस अयोध्या लौटने के लिए अपने अपने मत के अनुसार समझाया। तब जाबालि ने भी अपने नास्तिक मत के अनुसार राम को समझाया। उसने कहा कि जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। पिता जीव के जन्म में निमित्त कारण मात्र होता है। वास्तव में ऋतुमति माता के द्वरा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही जीव का यहाँ जन्म होता है। जो मनुष्य अर्थ का त्याग करके धर्म को अंगीकार करते हैं मैं उनके लिए शोक करता हूँ अन्य के लिए नहीं। क्योंकि वे इस जगत में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोग कर मृत्यु के पश्चात नष्ट हो गए हैं। अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उन के देवता पितर हैं- श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है यही सोच कर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं किन्तु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है। भला मरा हुआ मनुष्य क्या खाएगा? यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में जाता हो तो परदेश में जाने वालों के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए उनके रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है। देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर द्वार छोड़ कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने दान की और लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए बनाए हैं। अतः आप अपने मन में निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष राज्य है उसे संभालिए और परोक्ष को छोड़ दीजिए।

राम इस नास्तिक मत पर बहुत कुपित होते हैं और जाबालि को बहुत बुरा भला कहते हैं। राम जाबालि के तर्कों का उत्तर तर्कों से नहीं देते बल्कि परम्परा का हवाला देते हैं और अन्त में कहते हैं कि “आपकी बुद्धि विषम मार्ग में स्थित है। आपने वेद विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वनार अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने अपना याजक (मंत्री) बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ। जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार बौद्ध (बुद्ध मतावलम्बी) भी दण्डनीय है। तथागत और नास्तिक को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इस कारण को नास्तिक को चोर की तरह ही (मृत्यु दण्ड से) दण्डित किया जाना चाहिए। (अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 श्लोक 34)

यह सब वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस संस्करण में है, अनुवाद भी उन्हीं का कराया हुआ है।

यहाँ दोनों अध्यायों के आरम्भिक पृष्ठों के चित्र तथा उस श्लोक का चित्र संलग्न है जिस में बुद्ध का उल्लेख है।








शनिवार, 17 अप्रैल 2021

मैंने नहीं, तुमने बुलाया है

मैंने नहीं, तुमने बुलाया है


मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
हाहाकार मचा है नगर भर में
एक के पीछे दूसरी, तीसरी
एम्बुलेंस दौड़ती हैं सड़कों पर
जश्न सारे अस्पतालों ने मनाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
ताले पड़े हैं विद्यालयों पर
नौनिहाल सब घरों में बन्द हैं
पसरा है सन्नाटा बाजारों में
कुनबा मुख-पट्टियों ने बढ़ाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
प्राण-वायु की तलाश में
भटकते वाहनों पर इन्सान हैं
फेफड़ों के वायुकोशों पर
डेरा विषाणुओं ने लगाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
सज रही हैं, चिताओं पर चिताएँ
लकड़ियाँ शमशान सबका अभाव है
अपने लिए तुमने अवसर भुनाने को
अतिथि नहीं, दुष्काल बुलाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है

- दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

राधा नाम पर विचार - रामधारी सिंह दिनकर

संस्कृति के चार अध्याय से ...

वैष्णवों के तीन प्रसिद्ध पुराण हरिवंश, विष्णुपुराण और भागवत हैं। लेकिन, उनमें से किसी में भी राधा नाम का उल्लेख नहीं है। भागवत में कथा आयी है कि कृष्ण ने सभी गोपियों को छोड़कर एक गोपी से अलग मुलाकात की। बस, भक्तगण इसे ले उडे, और उसी गोपी को राधा मानने लगे। पण्डितों का यह भी विचार है कि कृष्ण-चरित' के साथ बाल लीला की कथा पहले शुरु हुई, राधा तथा अन्य गोपियों के साथ उनकी प्रेम-लीला की कहानियाँ बहुत बाद में आयी हैं।

राधा का नाम कैसे चला, यह गहरे विवाद का विषय है। नारद-पाँच-रात्र संहिता में लिखा है कि एक ही भगवान पुरुष और स्त्री रूप में प्रकट होते हैं। संभव है, इस दार्शनिक कल्पना से ही बाद के कवियों ने, जैसे शिव के साथ पार्वती और विष्णु के साथ लक्ष्मी है, वैसे ही, कृष्ण के साथ एक जोडी मिलाने के लिए राधा की कल्पना कर ली हो।

लेकिन, यह राधा नाम आया कहाँ से? और फिर यह क्या हुआ कि बालक कृष्ण के साथ युवती राधा की अनमेल जोडी मिला दी गयी? भागवत सम्प्रदाय और माध्य संप्रदाय राधा को नहीं मानते हैं। असम में भी वैष्णवों के बीच राधा की पूजा का चलन नहीं है। पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी्* ने “मध्यकालीन धर्म-साधना" में यह भी लिखा है कि प्रेम-विलास और भक्ति-रत्नाकर के अनुसार "नित्यानन्द प्रभु की छोटी पत्नी जाह्नवी देवी जब वृन्दावन गयी, तो उन्हें यह देखकर बड़ा दुःख हुआ कि श्रीकृष्ण के साथ राधा नाम की मूर्ति की कहीं पूजा नहीं होती थी। घर लौटकर उन्होंने नयन भास्कर नामक कलाकार से राधा की मूर्तियाँ बनवायीं और उन्हें वृन्दावन भिजवाया। जीव गोस्वामी की आज्ञा से ये मूर्तियाँ श्रीकृष्ण के पार्श्व में रखी गयीं और तब से श्रीकृष्ण के साथ राधिका की भी पूजा होने लगी।"

दूसरी ओर, जो भी संप्रदाय भागवत के बाद वाले पुराणों को मानते हैं, वे राधा को भी स्वीकार करते हैं। इसलिए, यह बहुत संभव दीखता है कि आर्यों के वैष्णव धर्म में आर्य-आर्येंतर संस्कृतियों का मिलन कृष्ण की बाल-लीला और राधा से उनके प्रेम की कल्पना किन्हीं आर्येतर जाति से आयी हो। इस सम्बन्ध में एक मत यह है कि बाल-लीला की कल्पना आभीर-जाति के किसी बालदेवता से मिली है और राधा भी, सम्भवतः, दक्षिण के किसी आर्येतर समाज की कोई प्रेम की देवी रही होगी। कालक्रम में ये दोनों कथाएँ वासुदेव धर्म से आ मिली और धीरे-धीरे, बदल कर कृष्ण का वह रूप हो गया, जिसे हम आज देखते हैं। इस अनुमान को एक समर्थन तो इस बात से भी मिलना चाहिए कि राधावाद के प्रचारक निम्बार्क महाराज दक्षिण के ही थे और उत्तर भारत में फैलने के पहले कृष्ण-भक्ति के सिलसिले में राधा-भक्ति का भी प्रचार दक्षिण में ही हुआ, जिसके प्रचारक आलवार भक्त थे। दक्षिण की भगतिन ओन्दाल, जो मीरा से बहुत पहले हुई, अपने-आपको राधा मानती थी। इसके विपरीत, डॉ. फरकोहार यह कहते है कि "कोई आधार नहीं मिलने से अनुमान यही होता है कि राधा की कल्पना भागवत की खास गोपी को लेकर वृन्दावन में उठी और वहीं से वह सर्वत्र फैली है।"


* "विष्णु-पुराण में गोपियों के प्रेम की चर्चा है, पर भागवत पुराण में वह बहुत विस्तृत रूप में है। रास-पंचाध्यायी भागवत का सार कहा जाता है। इस पुराण में राधा का नाम नहीं आता। माया-सप्तशती में, पंचतंत्र में और ध्वन्यालोक में 'राधा' का नाम आया है, पर, कृष्ण की सर्वाधिक प्रिया गोपी के रूप में उनका नाम भागवतोत्तर साहित्य में ही अधिक है। ब्रह्मवैवर्त-पुराण में राधा प्रमुख गोपी है। रा०व० योगेशचन्द्र राय का अनुमान है कि ब्रह्मवैवर्त पुराण 17वीं शताब्दी में पश्चिम बंगाल में लिखा गया और उसके लेखक का गीतगोविन्द से परिचय था। पद्म-पुराण में वृन्दावन की नित्य-लीला की चर्चा है, राधा का नाम आता है, पर यह पुराण बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता और जिस अंश में राधा-कृष्ण के नित्यविहार की चर्चा है, वह तो निस्सन्देह परवर्ती है।"-हजारीप्रसाद द्विवेदी (मध्यकालीन धर्मसाधना)

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

संघर्षरत जनता ही सब नेताओं की जननी है

मारी बिल्डिंग में कुल 11 अपार्टमेंट हैं। पाँच साल पहले हम इसके एक अपार्टमेंट में रहने आए। अभी तक यहाँ कोई सोसायटी नहीं बनी है, हम आपसी सहयोग से काम चला रहे हैं। सोसायटी बनाने के लिए उसका एक विधान बनाना पड़ेगा। वकील होने के नाते दूसरे निवासियों ने यह काम मुझ पर छोड़ दिया है। पर यह काम इतना आसान भी नहीं। मैं कुछ दूसरी सोसायटियों के विधानों का अध्ययन कर चुका हूँ, पर मुझे लगता है कि सबकी विशेषताओं को लेकर एक नया विधान बना दिया जाए तब भी उसमें कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। पिछले एक बरस में मुझे प्रायोगिक रूप से यह समझ आया कि कुछ नए नियम उसमें जोड़े जाने जरूरी हैं, अन्यथा सोसायटी का प्रशासन दुष्कर होगा। मुझे अब भी कुछ कमी लग रही है। मुझे कुछ समय और चाहिए। मैं सोसायटी का विधान बना दूंगा। फिर वह आम सभा में प्रस्तुत होगा। वहाँ संशोधनों के साथ या उनके बिना वह पारित हो जाएगा। इस तरह सोसायटी का विधान बन जाएगा, लेकिन फिर भी उसमें हमेशा इस बात की गुंजाइश बनी रहेगी कि आवश्यकता के हिसाब से उसमें कुछ जोड़ा या घटाया जा सके। मैं सोचता हूँ कि यदि मुझे किसी देश का संविधान बनाने को मिल जाए तो पूर्णकालिक तौर पर इसी काम में जुट जाने पर भी दो-चार वर्ष का समय मेरे लिए कम पड़ जाएगा।


हमारे देश की संविधान सभा ने बाबा साहेब को भारत के संविधान का प्रारूप बनाने का काम सौंपा था। उन्होंने उस काम को बेहतरीन तरीके से पूरा किया। संविधान सभा ने संविधान पारित किया। देश के संविधान का प्रारूप बनाने का जो बड़ा काम उन्होंने किया वह अकेला उन्हें सदियों तक स्मरण रखने के लिए पर्याप्त है। 26 जनवरी 1950 को संविधान प्रभावी होने के बाद भी अनेक क़ानूनों का प्रारूप उन्होंने ही तैयार किया। लेकिन इन क़ानूनी कामों को करने के साथ-साथ वे आज़ादी के आन्दोलन के एक प्रमुख सेनानी भी थे। उनके लिए आज़ादी की लड़ाई केवल अँग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई नहीं थी अपितु देश की अछूत जातियों को अस्पृश्यता से मुक्त कराने और उन्हें देश के अन्य नागरिकों के समान जीवन प्रदान करने की लड़ाई भी थी। इसके लिए उन्होंने शोध का बड़ा काम किया, जो आज उनके लेखन में देखा जा सकता है। वे जानते थे कि संविधान में सभी नागरिकों को समानता का मूल अधिकार प्रदान कर देने और अस्पृश्यता विरोधी क़ानून बना देने मात्र से अछूत जातियों के लोगों को समानता के स्तर पर नहीं लाया जा सकता। इसके लिए उन्होंने कुछ समय के लिए इन जातियों और आदिवासी जन जातीय समूहों के लोगों को कुछ विशेष अधिकार और सुविधाएँ प्रदान करने के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा जिसे संविधान सभा ने मान लिया और यह दस वर्षों के लिए संविधान का अस्थायी भाग बन गया। भारतीय संसद इस अस्थायी प्रावधान को लगातार बढ़ाती रही और वह आज भी संविधान में विद्यमान है। आज नयी नयी जातियाँ भी जो न अछूत हैं और न ही आदिवासी आरक्षण की मांग कर रही हैं। हमारे देश की आजादी के बाद की राजनीति जो कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त से आरम्भ हुई थी, वाम राजनीति को छोड़ दें तो अब सीधे सीधे पूंजीपतियों के यहाँ बंधक रखी जा चुकी है, उसका केवल एक उद्देश्य रह गया है कि किसी तरह वोट प्राप्त कर सत्ता हथिया ली जाए और फिर पूंजीपतियों के हित साधे जाएँ। इस राजनीति ने वोट हासिल करने के अनेक दो-नम्बरी तरीके ईजाद कर लिए हैं।

बाबा साहब का योगदान इस देश को एक जनतांत्रिक संविधान प्रदान करने और अछूत जातियों की मुक्ति के लिए बहुत विशाल है। लेकिन हम प्रायोगिक रूप में देख सकते हैं कि यह संविधान और क़ानून न तो अछूत जातियों को देश की मुख्य धारा में विलीन कर सके और न ही देश के जनतन्त्र को अक्षुण्ण रखा जा सका। आज भी अछूत जातियों और जन जातीय समूहों को मुख्य धारा में आने का संघर्ष करना पड़ रहा है। आरक्षण ने उन्हीं के बीच दरार उत्पन्न कर दी है। जिन्हें आरम्भ में आरक्षण मिला उनकी एक क्रीमी लेयर बन गयी और अब आरक्षण के अधिकांश लाभों को वही निगल जाती है। जनतन्त्र पर पहला हमला इमर्जेंसी के अनुच्छेदों के ज़रीए हुआ और अब संसद में तरह तरह के कानून बना कर उसका गला घोंटा जा रहा है।

किसी भी देश के शोषित तबकों का संघर्ष एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को समर्पित नहीं हो सकता। एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में उस संघर्ष में बहुत कुछ जोड़ सकता है लेकिन फिर भी बहुत कुछ उससे छूट जाता है। परिस्थितियाँ लगातार बदलती हैं और नयी परिस्थितियों के लिए नयी नीतियों की तलाश करनी पड़ती है। आज अछूत जातियों, आदिवासी समूहों, देश की सभी जातियों के गरीबों और मेहनतकशों की मुक्ति के लिए तथा जनतन्त्र के संरक्षण और विकास के लिए हमें नए मार्ग तलाशने की जरूरत है। हमें बाबा साहब अम्बेडकर, नेहरू, गांधी, सुभाष, भगतसिंह द्वारा स्थापित राहों से अलग अपनी राह तलाशने की जरूरत है। इस जरूरत को देश की अछूत जातियों, आदिवासी समूहों, सभी जातियों के ग़रीबों, मेहनतकशों और ग़रीब अल्पसंख्यकों के एकजुट आन्दोलन से ही पूरा किया जा सकता है। बाबा साहेब, नेहरू, गांधी, सुभाष, भगतसिंह आदि हमारे नेता आज़ादी और मनुष्य मुक्ति के आन्दोलन की ही उपज थे। अब यह नया आन्दोलन ही हमें नए नेता भी देगा। संघर्षरत जनता से बड़ा कोई नेता नहीं। संघर्षरत जनता ही सब नेताओं की जननी है।

आज बाबा साहब की जयन्ती के दिन हमें यही संकल्प लेने की जरूरत है कि हम समानता और आज़ादी की इस लड़ाई को तब तक जारी रखेंगे जब तक कि एक देश द्वारा दूसरे देश का और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक व्यक्ति समूह द्वारा दूसरे व्यक्ति समूह का शोषण इस धरती से समाप्त न हो जाए।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समन्वय के बीज बोएँ

हुत दुःखी हूँ। मेरे गृह जिले बाराँ के एक नगर छबड़ा में दुकान के सामने वाहन खड़ा करने के विवाद ने अचानक हिंसक रूप ले लिया। किसी की जान जाने की कोई खबर नहीं है लेकिन नगर में समुदायों के बीच दरार स्पष्ट हो कर सामने आ गई है। जिस क्षेत्र में जो समुदाय बहुसंख्यक था उस क्षेत्र में दूसरे समुदाय की दुकानें जला दी गयीं। इस काम में कोई समुदाय पीछे नहीं रहा। किसी भी सभ्य समाज में इस तरह की सामुदायिक/ साम्प्रदायिक हिंसा का कोई स्थान नहीं हो सकता। यदि इस तरह की घटनाओं को हम पैमाना मान लें तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम अभी सभ्यता की सीढ़ी के बहुत निचले पायदान पर खड़े हैं।

इस घटना का जो विवरण सामने आ रहा है उससे प्रतीत होता है कि नगर के दोनों समुदायों में एक दूसरे के प्रति घृणा और अविश्वास का बारूद लगातार बोया जा रहा था। इसका मुख्य कारण साम्प्रदायिक राजनीति है। यूँ तो इस राजनीति के बीज एक सदी पहले से बोए जा रहे हैं। इसी राजनीति ने देश को दो टुकड़े कराए, इसी ने हमारे राष्ट्र-पिता बापू गांधी के प्राण हर लिए। बापू की इस हत्या को इस राजनीति ने गांधी-वध कहा। सीधे-सीधे गांधी को भारतीय पौराणिक खलनायक राक्षसों के नेताओं के समकक्ष रख दिया गया। इस राजनीति के लिए वे तमाम लोग जो साम्प्रदायिक नहीं हैं वे राक्षस हैं।

जब किसी देश का बहुसंख्यक वर्ग साम्प्रदायिक हो उठता है तो उसकी मार देर सबेर उस देश के तमाम अल्पसंख्यक समुदायों को सहनी पड़ती है और अल्पसंख्यकों को मध्य भी वही साम्प्रदायिकता घर करने लगती है। सभी सम्प्रदायों के मध्य अन्य सम्प्रदायों के विरुद्ध घृणा के बीज बोए जाते हैं। अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ और अन्य सम्प्रदायों को हीन प्रदर्शित किया जाता है। जब साम्प्रदायिकता राज्य पर काबिज होने की सफलता का सूत्र बन जाए तो यह और भी आसान हो जाता है। इस तरह के राजनेता समाज में लगातार साम्प्रदायिकता का बारूद बिछाते हैं। यह साम्प्रदायिकता बहुसंख्यकों को कहीं का नहीं छोड़ती, अपितु सर्वाधिक हानि वह बहुसंख्यकों ही पहुँचाती है।

छबड़ा की घटना का कारण दुकान के सामने वाहन खड़ा करने का झगड़ा नहीं है। वह तो केवल चिनगारी था। असल कारण तो समुदायों के मध्य बिछा दिया गया घृणा और साम्प्रदायिकता का वह बारूद है जो लगातार बिछाया जाता है। हमें इस से निपटना है तो हमें इस बारूद का बिछाया जाना रोकना होगा और जो बारूद बिछा दिया गया है उसे भी साफ करना होगा। इसके लिए समुदायों के मध्य समन्वय के समर्थक लोगों को एकजुट हो कर काम करना होगा। इस काम के लिए पहला कदम तो एकजुटता प्रदर्शित करते हुए साम्प्रदायिकता के विरुद्ध डट कर खड़ा होना है। लगातार लोगों को इस अभियान के साथ जोड़ना है। बाकी काम तो लोगों को लगातार समन्वय की भावना के बीज बो कर करना होगा।

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

भारतीय नव-वर्ष

भारतीय और हिन्दू नववर्ष की बधाइयाँ शुरू हो गयी हैं. सोशल मीडिया पर संस्कृति का गुणगान किया जा रहा है उस पर गर्व प्रकट किया जा रहा है। यूँ तो जब से मोदी जी केन्द्र में प्रधानमंत्री बने हैं शायद ही कोई क्षण बीतता हो जब सोशल मीडिया पर हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न होता हो। उनके समर्थकों को लगता है कि हिन्दू और भारतीय संस्कृति का गुणगान न किया गया तो शायद मोदी जी का आधार खिसक जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो उनका क्या होगा?

हिन्दू और भारतीय संस्कृति पर गर्व प्रकट करने और उसका गुणगान करने वालों में से अधिकांश तो जानते ही नहीं कि संस्कृति वास्तव में है क्या? संस्कृति का विषय बहुत गहरा और विस्तृत है। इस समय उस पर विचार करना विषय से भटकना होगा। इसलिए मैं इस आलेख को केवल नव-वर्ष तक सीमित रखना चाहूँगा।
दिनों से मास बनता है और प्राचीन काल में मास की गणना के लिए आसान तरीका यह था कि नए चांद से नए चांद के पहले वाले दिन तक एक माह होगा। यह अक्सर ही 30 दिन का होता है। यूँ नए चांद से नए चांद तक लगभग साढ़े उन्तीस दिन होते हैं। पर आधे दिन की गणना करना मुश्किल होता है। इस कारण मास को तीस दिन का मान लिया गया। बारह मास में कुल 354 दिन होते हैं। इस कारण वर्ष में कुछ माह तीस दिन के होंगे तो कुछ माह उन्तीस दिन के। यही कारण है कि रमजान का महीना कभी 29 दिन और कभी तीस दिनों का होता है। उनतीसवें दिन चांद देख पाने की लालसा सभी रोजेदारों को होती है। लेकिन यदि उस दिन चांद न दिखे तो तीसवें दिन तो उसे दिखना ही है इस कारण तीसवें दिन चांद देखने की लालसा समाप्त हो जाती है। सारी दुनिया में चांद्रमास और 12 चांन्द्रमासों का वर्ष माना जाना सबसे प्राचीन परंपरा है।
लेकिन जब से यह जानकारी हुई कि सूर्य आकाश मंडल में अपने परिभ्रमण मार्ग पर 365 दिन और 6 घंटों में पुनः अपने स्थान पर पहुँच जाता है तो इस अवधि को सौर वर्ष मान लिया गया। ऋतुओं की गणना इसी रीति से सही बैठती है। लेकिन लगभग 354 दिनों के चांद्र वर्ष और लगभग 365.25 दिनों के सौर वर्ष में दस दिनों का अन्तर है। चान्द्र वर्ष मानने वालों का साल हर बार दस दिन पहले आरंभ हो जाता है। इससे यह विसंगति पैदा होती हैं कि रमजान का मास सारी ऋतुओं में आ जाता है। यही कारण है कि इस्लामी नववर्ष हर ऋतु में आाता है और 36 वर्षों में वापस अपना पुराना स्थान प्राप्त कर लेता है।
लेकिन जो लोग महीनों को ऋतुओं के साथ जोड़ना चाहते थे उन्होंने इसका एक मार्ग खोज निकाला कि वे हर तीन वर्ष में एक चान्द्र मास वर्ष में जोड़ने लगे। इस तरह हर तीसरा वर्ष 13 चांद्रमासों का होने लगा। इस का निर्धारण करने का उन्होंने अपना तरीका निकाल लिया। आकाश मंडल में 360 डिग्री के सूर्य केस यात्रा मार्ग को उन्होंने 30-30 डिग्री के 12 भागों में विभाजित किया। हर भाग को उसमें उपस्थित तारों द्वारा बनी आकृति के आधार पर मेष, वृष आदि राशियों के नाम दिए गए। जब भी सूर्य अपने यात्रा मार्ग पर एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करता है तो उस घटना को संक्रांति कहा गया। संक्रांति का नाम जिस राशि में सूर्य प्रवेश कर रहा होता है उस राशि के नाम पर दिया गया। मकर संक्रांति से सभी परिचित हैं जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है उसे हम मकर संक्रांति कहते हैं। बारह राशियों को बारह संक्रांतियाँ होती हैं। इस तरह हर सौर वर्ष में बारह संक्रान्तियाँ और तीन वर्ष में 36 संक्रान्तियाँ होती हैं। लेकिन तीन वर्ष में चान्द्र मास 37 हो जाते हैं। तो हमने तय कर लिया कि जिस चांद्रमास में संक्रान्ति न पड़े उसे अतिरिक्त या अधिक मास मान लिया जाए। इस से चांद्र मास ऋतुओं का प्रतिनिधित्व करने लायक हो जाते हैं। हमने देखा कि वर्ष तो 365.25 दिन का ही होता है। फिर चौथाई दिन की गुत्थी शेष रह जाती है। ग्रीगोरियन कलेण्डर वालों ने हर चार वर्ष में एक दिन अतिरिक्त जोड़ कर चौथाई दिन की गुत्थी भी सुलझा ली गयी।

इस विवेचन के बाद हम समझ सकते हैं कि नव वर्ष मनाने का सब से सही तरीका यह होगा कि हर नया वर्ष 365.25 दिनों का हो। यह तभी हो सकता है जब हम चांद्र वर्ष को त्याग कर सौर वर्ष को अपना लें। भारतीय पद्धति से बारह राशियाँ मेष से आरम्भ हो कर मीन पर समाप्त हो जाती हैं। इस तरह नव वर्ष हमें उस दिन मनाना चाहिए जिस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता हो। भारत के पंजाब प्रान्त में इस दिन बैसाखी का पर्व मनाया जाता है। इस तरह बैसाखी पर्व भारतीय नव वर्ष का प्रतिनिधित्व करता है न कि चैत्र सुदी प्रतिपदा। यह संयोग नहीं है कि हमारे बंगाली भाई बैसाखी के बाद वाले दिन को अपने नववर्ष के रूप में मनाते हैं। इसे वे अपना नववर्ष अथवा पोइला बैशाख कहते हैं। मेष की संक्रान्ति से जुड़े त्यौहार संपूर्ण भारत में किसी न किसी रूप में मनाए जाते हैं। इस वर्ष 14 अप्रेल के इस दिन को जहाँ पंजाब और सिख समुदाय बैसाखी के रूप में मना रहा है तो वहीं तमिलनाडु इसे पुथण्डु के रूप में, केरल विशु के रूप में, आसाम इसे बोहाग बिहु के रूप में मना रहा है। तमाम हिन्दू इसे मेष संक्रान्ति के रूप में तो मनाते ही हैं। इस तरह यदि हम संस्कृति के रूप में भी देखें तो चैत्र सुदी प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला नववर्ष नहीं अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष भारतीय संस्कृति के अधिक निकट है। यह भी एक संयोग ही है कि बैसाखी के एक दिन पहले 13 अप्रैल को भारतीय चांद्र नववर्ष पड़ रहा है।
आजादी के उपरान्त भारत ने अपना नववर्ष वर्नल इक्विनोक्स वासंतिक विषुव के दिन 22/23 मार्च को वर्ष का पहला दिन मानते हुए एक सौर कलेंडर बनाया जिसे भारतीय राष्ट्रीय पंचांग कहा गया। यह राष्ट्रीय पंचांग सरकारी कैलेंडर के अतिरिक्त कहीं भी स्थान नहीं बना सका। क्यों कि यह किसी व्यापक रूप से मनाए जाने वाले भारतीय त्यौहार से संबंधित नहीं था। यदि बैसाखी के दिन या बैसाखी के दिन के बाद के दिन से आरंभ करते हुए हम राष्ट्रीय सौर कैलेंडर को चुनते तो इसे सब को जानने-मानने में बहुत आसानी होती और यह संपूर्ण भारत में आसानी से प्रचलन में आ सकता था। यदि हमारी संसद चाहे तो इस काम को अब भी कर सकती है। किसी भी त्रुटि को दूर करना हमेशा बुद्धिमानीपूर्ण कदम होता है जो चिरस्थायी हो जाता है। हम चाहें तो इस काम को अब भी कर सकते हैं। फिलहाल सभी मित्रों को बैसाखी, बोहाग बिहु, पोइला बैशाख, पुथण्डु और विशु के साथ साथ मेष संक्रान्ति की शुभकामनाएँ और बंगाली मानुषों को नववर्ष की शुभकामनाएँ जिसे वे अगले दिन मनाएंगे। चैत्र सुदी प्रतिपदा को नववर्ष मनाने वालों को भी बहुत बहुत शुभकामनाएँ। इस आशा के साथ कि वे समझें कि भारतीय संस्कृति का त्यौहार चैत्र सुदी प्रतिपदा वाला नववर्ष नहीं, अपितु बैसाखी से आरम्भ होने वाला नववर्ष है।