@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जिस दिन देश के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में किसी न किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार का समाचार प्रकाशित न होता हो। घरों, कार्यस्थलों, विद्यालयों, रेलों, बसों, मनोरंजन स्थलों और मार्गों पर कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे लिंगभेद के कारण उत्पीड़न का शिकार न होती हों। स्त्रियाँ आम तौर पर इस उत्पीड़न को सहती हैं और अक्सर दरकिनार करती हैं। लोग कह सकते हैं कि वे उस का प्रतिकार क्यों नहीं करतीं? लेकिन कब तक वे प्रतिकार करें? कोई दिन तो ऐसा नहीं जब उन्हें यह सब न सहना पड़ता हो। वे बाजार के लिए निकलती हैं, दफ्तरों, स्कूलों आदि को आती-जाती हैं तो उन्हें मार्ग में नाना प्रकार की फब्तियों, छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर ये लोग समूह में तेजी से आते हैं और निकल जाते हैं। फिर पुरुषों की भीड़ से भरे स्थानों पर वे स्वयं को अकेली और असहाय महसूस करती हैं। उन्हें इन मार्गों पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वे सहती चली जाती हैं। जब वे शिकायत करती हैं तो सब से पहली मुसीबत उन्हीं पर टूट पड़ती है। उन का पुरुष प्रधान परिवार उन के घर से बाहर निकलने को प्रतिबंधित करने को उतारू हो जाता है। जिस से समाज में वे जो अपना स्थान बनाना चाहती हैं उस में बाधा उत्पन्न होती है। उन की पढ़ाई छुड़ा दी जा सकती है, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है। यदि वे मौके पर उत्पीड़न का प्रतिकार करें तो उन्हें उस से अधिक का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि अभी हाल में गौहाटी में हुआ।

नीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?

भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?

त्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संपत्ति या स्वतंत्र मनुष्य?

गुआहाटी में लड़कों के समूह द्वारा लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उस के कपड़े फाड़ देने का प्रयास करने की घटना, फौजियों द्वारा जंगल में एक लड़की के साथ छेड़खानी का प्रयत्न, लखनऊ में पुलिस दरोगा द्वारा मुकदमे में फँसाने का भय दिखा कर महिला के साथ संबंध बनाने की कोशिश, बेगूँसराय में मंदिर में दलित महिला के साथ सार्वजनिक मारपीट यही नहीं इस के अलावा घरों में खुद परिजनों द्वारा महिलाओं और बच्चियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपराधों की अनेक घटनाएँ लगातार मीडिया में आती रही हैं। मीडिया में आने वाली इन घटनाओं की संख्या हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति का नमूना भर हैं। इस तरह की सभी घटनाएँ रिपोर्ट होने लगें तो पुलिस थानों के पास इन से निपटने का काम ही इतना हो जाए कि वे अन्य कोई काम ही न कर सकें। स्थिति वास्तव में भयावह है।

ड़बड़ी हमारे समाज में है, हमारी व्यवस्था और राजनीति में है। अधिकांश लोग परम्परा और रिवाजों के बहाने स्त्रियों को समानता का अधिकार देने के हिमायती नहीं हैं। वे स्त्रियों को मनुष्य नहीं अपनी संपत्ति समझते हैं। बेटी उन के लिए पराया धन है जिस से वे जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहते हैं, तो बहू परिवार की बिना वेतन की मजदूर और बेटे के लिए उपभोग की वस्तु है। दीगर महिलाएँ उन के लिए ऐसी संपत्ति हैं जिन्हें अरक्षित अवस्था में देख कर इस्तेमाल किया जा सकता है वहीं अपने घर की महिलाओं के प्रति उन में जबर्दस्त असुरक्षा का भाव है जो उन्हें बंद दीवारों के पीछे रखने को बाध्य करता है। लेकिन आजादी के बाद जिस संविधान को हम ने अपनाया और जो देश का सर्वोपरि कानून है वह स्त्रियों को समानता प्रदत्त करता है। समाज की वास्तविक स्थितियों और कानून के बीच भारी अंतर है। समाज का एक हिस्सा आज भी स्त्रियों को संपत्ति बनाए रखना चाहता है तो एक हिस्सा ऐसा भी है जो उन की समानता का पक्षधर ही नहीं है अपितु व्यवहार में समानता प्रदान भी करता है।

कानून और समाज के बीच भेद को समाप्त करने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो यह कि संविधान और कानून को समाज के उस हिस्से के अनुरूप बना दिया जाए जो महिलाओं को मनुष्य नहीं संपत्ति मान कर चलता है। दूसरा यह कि समाज को संविधान की भावना के अनुसार ऐसी स्थिति में लाया जाए जहाँ स्त्रियों और पुरुषों के समान अधिकार हों दोनों एक स्वतंत्र मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत कर सकें। बीच का कोई उपाय नहीं है। पहला उपाय असंभव है। स्वतंत्र मनुष्य की तरह जी रही स्त्रियों को फिर से संपत्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। हमें समाज को ही उस स्थिति तक विकसित करना होगा जिस में स्त्रियाँ स्वतंत्र मनुष्य की भाँति जी सकें। इस बड़े परिवर्तन के लिए समाज को एक बड़ी क्रांति से गुजरना होगा। लेकिन यह कैसे हो सकेगा? उस परिवर्तन के लिए वर्तमान में कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं? कौन सी शक्तियाँ इस परिवर्तन के विरुद्ध काम कर रही हैं। हमारी राज्य व्यवस्था और राजनीति की उस में क्या भूमिका है? और क्या होनी चाहिए? इसे जाँचना होगा और भविष्य के लिए मार्ग तय करना होगा।

रविवार, 15 जुलाई 2012

विवशता को कब तक जिएंगे श्रमजीवी?

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि सभी देशों में भविष्य निधि के लिए कानून होना चाहिए जिस से औद्योगिक कर्मचारियों के भविष्य के लिए कुछ निधि जमा हो जो उन की अच्छी बुरी स्थिति में काम आए। सेवानिवृत्ति की आयु के उपरान्त उन्हें पेंशन मिलती रहे। भारत में इस के लिए कर्मचारी भविष्य निधि योजना कानून और भविष्य निधि तथा पेंशन योजना लागू है। कानून में प्रावधान है कि यह योजना किन किन नियोजनों में लागू होगी। इस योजना के अंतर्गत वेतन की 12 प्रतिशत राशि कर्मचारी के वेतन से प्रतिमाह नियोजक द्वारा काटी जाती है और काटी गई राशि के बराबर राशि नियोजक को उस में मिला कर योजना में जमा करानी पड़ती है। औद्योगिक कर्मचारियों के लिए भविष्य निधि और योजना से मिलने वाली पेंशन बहुत बड़ा संबल है।


मारे नियोजक इसे कभी ईमानदारी से लागू नहीं करते। उन्हें लगता है कि उन पर कर्मचारियों के वेतन की 12 प्रतिशत राशि का बोझ और डाल दिया गया है। लेकिन यह तो सभी उद्योगपतियों को उन का उद्योग आरंभ होने के पूर्व ही जानकारी होती है और होनी चाहिए कि उन्हें कर्मचारी को वेतन के अतिरिक्त क्या क्या देना होगा। फिर भी नियोजकों की सदैव यह मंशा होती है कि वे कर्मचारियों को देय वेतन और अन्य सुविधाओं में जितनी कटौती कर सकते हैं कर लें। आखिर कर्मचारियों के श्रम से ही तो कच्चे माल का मूल्य बढ़ता है और उस बढ़े हुए मूल्य में से जितना नियोजक बचा लेता है वही तो उस का मुनाफा है। इस फेर में अनेक उद्योग तो ऐसे हो गए हैं जिन में कभी न्यूनतम वेतन तक कर्मचारियों को नहीं दिया जाता। यहाँ तक कि कर्मचारियों से साधारण मजदूरी की दर से ओवरटाइम कार्य कराया जाता है।

 
वे लोग जो संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानून बनाते हैं वास्तव में उन पर यह जिम्मेदारी भी होनी चाहिए कि वे उन कानूनों की पालना भी करवाएँ। लेकिन यह तो बहुत दूर की बात है। वे स्वयं उन कानूनों की पालना नहीं करना चाहते। कल मेरे नगर में एक गैस ऐजेंसी की संपत्ति इसीलिये कुर्क कर ली गई कि उस ने अपने संस्थान में भविष्य निधि योजना को लागू नहीं किया। भविष्य निधि योजना द्वारा उन्हें योजना के लागू होने की सूचना देने के बाद भी उन्होंने कर्मचारियों का भविष्य निधि अंशदान योजना में जमा नहीं कराया। उसे वसूल करने के लिए योजना को ऐजेंसी की संपत्ति कुर्क करनी पड़ी। इस ऐजेंसी पर भविष्यनिधि योजना 2007 में ही लागू हो चुकी थी। लेकिन ऐजेंसी घरों पर सिलेंडर जा कर लगाने वाले कर्मचारियों को अपना मान ही नहीं रही थी और इसी आधार पर विरोध कर रही थी। ऐजेंसी मालिकों ने इस के लिए अधिकारियों पर राजनैतिक दबाव भी डाला। पूर्व अधिकारी डर कर कार्यवाही रोकते भी रहे। लेकिन नए नौजवान भविष्य निधि आयुक्त ने आखिर कुर्की कर ली। कुर्की के बाद ऐजेंसी ने कुछ लाख रुपए नकद जमा कराए तथा शेष का चैक दिया। तब जा कर कुर्की को समाप्त किया गया। यदि यह किसी सामान्य नियोजक के साथ होता तो एक सामान्य बात होती। पर यह उस ऐजेंसी के साथ हुआ जिस के स्वामी भाजपा के एक पूर्व सांसद और मंत्री के परिवार के सदस्य हैं और यह ऐजेंसी उन्हें अपने पालक के सांसद और मंत्री होने के कारण ही मिली थी। जिस देश के कानून बनाने वाले ही उस का पालन न करें। वहाँ कानून को विवश श्रमजीवी जनता के सिवा कौन मानेगा? और वह भी कब तक इस विवशता को जिएगी?

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

श्रमिक कर्मचारी आखिर कब तक चुप रह सकेंगे?


किसी भी अर्थ व्यवस्था में पुराने उद्योगों का बन्द होना और नए उद्योगों की स्थापना एक सतत प्रक्रिया है।  कोई भी उद्योग ऐसा नहीं जो हमेशा चलता रह सके।  समय के साथ साथ हर उद्योग की प्रोद्योगिकी पुरानी होती जाती है।  उस से प्रतियोगिता करने वाली नयी प्रोद्योगिकी आती रहती है।  पुराने उद्योग नए उद्योगों से प्रतियागिता नहीं कर पाते।  समय समय पर पुराने उद्योगों में नई प्रोद्योगिकी का प्रयोग कर उनकी उम्र बढ़ाई जा सकती है।  लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब उद्योग में नयी प्रोद्योगिकी का प्रयोग संभव नहीं रह जाता है।  तब उसे बन्द करना पड़ता है।  समय के साथ कुछ उत्पादनों का सामाजिक उपयोग लगभग समाप्त प्रायः हो जाता है।  एक समय था जब देश के पिक्चर ट्यूब उद्योग श्वेत-श्याम पिक्चर ट्यूबें बनाया करते थे।  लेकिन धीरे धीरे इन का उपयोग लगभग समाप्त हो गया।  उन का स्थान रंगीन पिक्चर ट्यूबों ने ले लिया।  श्वेत श्याम पिक्चर ट्यूबें बनाने के कारखानों ने अपनी प्रोद्योगिकी में परिवर्तन किया और रंगीन पिक्चर ट्यूबें बनाना आरंभ कर दिया।  लेकिन प्रोद्योगिकी लगातार विकसित होती है।  पिक्चर ट्यूब का स्थान एलसीडी, एलईडी, और अब प्लाज्मा डिस्प्ले ले रहे हैं।  जल्दी ही वह समय आएगा जब भारी भरकम पिक्चर ट्यूबें इतिहास का हिस्सा हो कर संग्रहालयों मे सिमट जाएंगी।  इस तरह पिक्चर ट्यूबें बनाने वाले वर्तमान उद्योग भी गायब हो लेंगे।


श्वेत-श्याम से रंगीन पिक्चर ट्यूब, फिर एलसीडी, एलईडी और अब प्लाज्मा डिस्प्ले सभी को अच्छा लगता है।  हर कोई चाहता है कि वह नई से नई तकनीक का उपयोग करे।  लेकिन जब पुरानी प्रोद्योगिकी वाले कारखाने बंद होते हैं तो वे समाज में बड़ी हलचल उत्पन्न करते हैं।  इन कारखानों में काम करने वाले कर्मचारियों की नौकरियाँ चली जाती हैं।  उन्हें नये नियोजन तलाशने पड़ते हैं।  इन में से अनेक लोग ऐसे होते हैं जो 45-50 की उम्र में पहुँच चुके होते हैं और उन के लिए नया नियोजन तलाश करना दुष्कर और अक्सर असंभव काम होता है।  जीवन के मध्यकाल में जब लोगों को अपने जीवन के सब से महत्वपूर्ण दायित्व पूरे करने होते हैं तभी यह उद्योग बंदी उन्हें जबरन सेवानिवृत्त लोगों की श्रेणी में खड़ा कर देती है।   बच्चों का अध्ययन चल रहा होता है,  संतानें विवाह योग्य हो चुकी होती हैं, वृद्ध माता-पिता का दायित्व उन पर होता है।  हर कोई समझ सकता है कि इस आयु में नौकरी जाने का अर्थ क्या होता है?  परिवार के एक व्यक्ति की नौकरी जाती है लेकिन पूरा परिवार असहाय हो कर खड़ा हो जाता है।


ब कारखाने बंद होते हैं तो इन कर्मचारियों की छँटनी की जाती है।  छँटनी के लिए कानून बना है कि किस तरह छँटनी की जाएगी।  कर्मचारियों को छँटनी किए जाने के साथ ही उन्हें नोटिस या नोटिस वेतन दिया जाएगा, उन्हें उद्योग में उन के सेवाकाल के आधार पर छँटनी का मुआवजा और पाँच वर्ष का सेवा काल पूर्ण कर लेने वाले कर्मचारियों को ग्रेच्यूटी दी जाएगी।  लेकिन अक्सर ऐसे समय में अधिकांश उद्योग छँटनी होने वाले कर्मचारियों को यह नाम मात्र की सहायता राशि देने से भी इन्कार कर देते हैं।  वे किसी न किसी प्रकार कर्मचारियों को इन कानूनी अधिकारों से वंचित कर अपनी पूँजी बचाने के फेर में रहते हैं।   सभी कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की है।  जब भी छँटनी के समय कर्मचारियों और उद्योग के बीच विवाद उत्पन्न होता है तो श्रमिक श्रम विभाग की शरण प्राप्त करते हैं।  हमारे श्रम विभाग इतने कमजोर हैं कि वे कर्मचारियों को छँटनी के समय उन के कानूनी अधिकार दिलाने में अक्षम साबित होते हैं।  


कुछ वर्ष पूर्व जब देश में आर्थिक सुधार लागू किए गए थे तब यह समस्या भी सामने आई थी कि पुराने उद्योगों के नवीनीकरण और उन का बंदीकरण करने में उद्योगपतियों को श्रमिक प्रतिरोध की  समस्या का सामना करना पड़ता है और उस के लिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिस से यह समस्या उत्पन्न न हो।  इस के लिए सरकार का यह प्रस्ताव सामने आया था कि छँटनी के समय सेवाकाल के प्रत्येक वर्ष के लिए 15 दिन के वेतन के बराबर मिलने वाली मुआवजे की राशि को बढ़ा कर  45 दिन कर दिया जाए।  इस से कर्मचारियों के बीच छँटनी की स्वीकार्यता बढ़ जाएगी।  किन्तु सरकार का यह प्रस्ताव उद्योगपतियों को स्वीकार्य न हुआ और ठंडे बस्ते में चला गया।


पिछले दिनों एक मामला सामने आया जिस में उद्योग के प्रबंधन ने श्रमिकों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि या तो वे स्थानान्तरित हो कर नोएडा चले जाएँ या फिर वे छँटनी को स्वीकार करें।  कर्मचारी अल्पवेतनभोगी थे और उद्योग एक छोटे नगर में स्थापित था जहाँ आवास और अन्य जीवनोपयोगी सुविधाएँ सस्ती हैं।  राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थित नोएडा में उन्हीं सुविधाओं के लिए उन्हें दुगनी कीमत अदा करनी होती।  श्रमिकों ने प्रबंधन को प्रस्ताव दिया कि उन का वेतन उसी अनुपात में बढ़ा दिया जाए तो वे स्थानान्तरण स्वीकार कर लेंगे।  लेकिन प्रबंधन एक रुपया भी वेतन बढ़ाने को तैयार न था।  एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में स्थानान्तरण बिना श्रमिकों की अनुमति के किया नहीं जा सकता था।  प्रबंधन ने श्रमिकों को छँटनी का नोटिस दे दिया।  प्रबंधन श्रमिकों को नोटिस वेतन और ग्रेच्यूटी तो देने को तो तैयार था लेकिन मुआवजा देने से उसने हाथ खड़े कर दिए।  मामला श्रम विभाग के पास पहुँचा।  श्रम विभाग ने नियोजक को समझाया कि कानून के मुताबिक उसे श्रमिकों को मुआवजा और ग्रेच्यूटी दोनों ही देने पड़ेंगे।  प्रबंधन  किसी तरह तैयार न हुआ।  


श्रमिकों ने श्रम विभाग को यह भी प्रस्ताव दिया कि उन्हें नोटिस वेतन और मुआवजा दिला दिया जाए, वे ग्रेच्यूटी के लिए न्यायालय चले जाएंगे।  लेकिन इस के लिए नियोजक तैयार न था। वह चाहता था कि श्रमिक छँटनी के मुआवजे का अधिकार छोड़ दें तभी उन्हें अन्य लाभ भी दिए जाएँ अन्यथा वे सारे लाभों केलिए लड़ें।  तब श्रम विभाग श्रमिकों को ही समझाने लगा कि उन्हें नोटिस वेतन और ग्रेच्यूटी ले लेनी चाहिए।  वर्ना  उद्योगपति तो राज्य ही छोड़ कर चला जाएगा तो उन्हें इस से भी हाथ धोना पड़ेगा।  श्रम विभाग मामले को श्रम न्यायालय को प्रेषित करने की सिफारिश राज्य सरकार से करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता और यह तो सर्वविदित ही है कि श्रम विभाग में बीस वर्ष पुराने मुकदमे अभी भी लंबित चल रहे हैं।  श्रमिक इस के लिए तैयार न हुए।  छँटनी का यह मामला न्यायालय को संप्रेषित करने के लिए श्रम विभाग द्वारा राज्य सरकार को संप्रेषित कर दिया गया।  अब श्रमिकों को एक रुपया भी मिल सकेगा या नहीं यह कोई नहीं जानता।


स तरह के मामलों में राज्य सरकार चाहे तो त्वरित कार्यवाही कर के श्रमिकों को उन के कानूनी अधिकार दिला सकती है।  वह पर्याप्त संख्या में श्रम न्यायालयों की स्थापना कर के ऐसे विवादों का निपटारा छह माह से एक वर्ष की अवधि में होना सुनिश्चित कर सकती है।  तब तक वह नियोजक की संपत्ति को कुर्क रख सकती है जिस से श्रमिकों को उन का धन मिलना सुनिश्चित हो सके।  लेकिन राज्य और केन्द्र सरकारें इस मामले में असहाय श्रमिकों के स्थान पर कानून की पालना न करने की इच्छा रखने वाले नियोजकों के साथ ही खड़ी नजर आती हैं।  निश्चित रूप से इस का मुख्य कारण है कि 1980 के बाद से देश में श्रमिक आंदोलन और श्रम संगठन कमजोर होते गए हैं।  लेकिन समाज में मेहनत करने वालों की इस तरह की लगातार उपेक्षा श्रमिक आंदोलन और श्रमसंगठनों को एक बार फिर से उठ खड़े होने के लिए वातावरण प्रदान कर रही है।  आखिर कब तक वे चुप रह सकेंगे?

शुक्रवार, 29 जून 2012

अभियान का आखिरी दिन

र्किट हाउस तिराहे से अदालत की ओर मुड़ना था पर वहाँ सिपाही लगे थे और सब को सीधे निकलने का इशारा कर रहे थे।  सिपाहियों के पीछे सर्किट हाउस के गेट से कुछ आगे सड़क के बीचों बीच शामियाना तना हुआ था और रास्ता बन्द था।  अब अदालत पहुँचने के लिए मुझे दो किलोमीटर का चक्कर लगाना था।  मैं ने सोचा, आज क्या है?  फिर सुबह अखबार में पढ़ी खबर का ध्यान आया कि आज विपक्ष के महंगाई विरोधी आंदोलन का अन्तिम दिन है और पूरे देश में गिरफ्तारियाँ दी जा रही हैं। खैर, मैं घूम कर अदालत चौराहे पहुँचा। आज किस्मत अच्छी थी, मुझे पार्किंग में जगह खाली मिल गई। चौराहे का नक्शा बदला हुआ था। राजभवन और अदालत की ओर जाने वाले रास्तों पर बेरीकेड लगे थे।  दोनों ही रास्तों पर आज पार्किंग नहीं करने दी गई थी और आवागमन बंद था। केवल शहर की ओर से आने वाला रास्ता खुला था। गिरफ्तारी वालों के जलूस उधर से आ कर मंच के सामने एकत्र हो सकते थे, आ जाने के बाद खिसकने का कोई रास्ता नहीं था।  सब तरफ पुलिस जवान तैनात थे जिन में डंडा वालों से ले कर बंदूक वाले तक थे।  एण्टीरॉयट वाहन पोजीशन लिए खड़े थे।  रोज पार्क होने वाले वाहन न होने से अदालत वाली सड़क और दिनों की अपेक्षा चौगुनी चौड़ी लग रही थी। अस्पताल वाली सड़क पर गिरफ्तार करने के बाद लोगों को ले जाने के लिए बीसियों खाली बसें पंक्तिबद्ध खड़ी थीं।

रीब बारह बजे, मंच से उद्घोषणाएँ आरंभ हो गईं, ... मंच के दाईं तरफ का स्थान पत्रकारों के लिए है, कार्यकर्ता उन पर न बैठें ... बाईं तरफ सब के लिए शीतल जल की व्यवस्था है ... आदि आदि। मैं मंच की और झाँका तो मंच पर उद्घोषक के साथ दो-एक लोग थे, मंच के सामने आठ-दस लोग खड़े थे बाकी दो सौ मीटर तक लोगों के बैठने के लिए बिछाए गए फर्श खाली थे। इंतजाम देख कर मुझे लग रहा था जैसे दशहरे पर रावणवध का आयोजन किया जा रहा हो।

क बजे के लगभग ढोलों के बजने की आवाजें आने लगीं।  शायद जलूस निकट आ चुका था। तो मौके पर तैनात पुलिस वाले सतर्क हो कर बेरीकेडस् के पास एकत्र होने लगे। तभी एक अफसर ने आ कर डंडा और बंदूक वालों को एकत्र कर उन्हें कुछ निर्देश दिए।  पुलिसवालों ने पोजीशन ले ली।  मेरे दिमाग में चित्र बनने लगे ... अभी महंगाई के कारण गुस्से से भरे लोग आएंगे और बेरीकेडस् तोड़ कर कलेक्ट्री की ओर जाने की कोशिश करेंगे, पुलिस वाले रोकेंगे, वे जबरन उधर जाने की जिद करेंगे, पुलिस वाले लाठियाँ तानेंगे, तभी कोई पुलिस पर पत्थर फैंकेंगा। पुलिस वाले गुस्से में लाठियाँ चलाने लगेंगे। कुछ भगदड़ होगी, लेकिन लोग भागेंगे नहीं, फिर डट जाएंगे। तब एण्टीरॉयट वाहन से पानी की बौछारें छोड़ी जाएंगी। सारे रास्ते पानी फैलेगा। लोग भागने लगेंगे, कुछ वहीं फिसल कर गिर पडेंगे। गिरे हुए लोगों को अधिक लाठियाँ खानी पड़ेंगी, नेता और उन के कुछ चमचे फिर भी अड़े रहेंगे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा ...

लूस निकट आ गया। मंच से नारे लगने लगे। मैं अदालत की सीमा में एक टेबल पर खड़ा हो देखने लगा। कुछ लोग ढोल बजा रहे थे, कुछ नाचते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे थे। लगा अभी बेरीकेड को टक्कर मारेंगे और वह गिर पड़ेगा। पर ऐसा कुछ न हुआ। जलूस चौराहे पर बने सर्कल से मंच की ओर मुड़ गया। लोग मंच के आगे जा कर बैठने लगे। ये सब देहात वाले थे। कुछ देर बाद नगर वालों का जलूस भी आ पहुँचा। वह भी देहात वालों की नकल करता हुआ मंच की तरफ मुड़ गया। मंच के सामने कम लोग बैठे। ज्यादातर ने पानी के इंतजाम के आसपास भीड़ लगा दी। मंच से फिर निर्देश दिए जाने लगे, पत्रकारों का स्थान खाली रखना है, वहाँ केवल पत्रकार ही बैठें; पानी एक-एक कर लें, भीड़ न लगाएँ, आदि आदि। पन्द्रह मिनट बाद सभा जमी, मंच से भाषण होने लगे।  केन्द्र और राज्य की सरकारों को कोसा जाने लगा। जनता की दुर्दशा का बखान होने लगा। पौन घंटे में सब नेता निपट लिए। फिर घोषणा हुई कि सब अनुशासन पूर्वक गिरफ्तारी देंगे, किसी तरह की वायलेंस नहीं करेंगे। लोग खड़े हो गए, पुलिस भी सतर्क हो गई। लोग सीधे गिरफ्तारी के बाद बैठाए जाने वाली बसों की ओर दौड़ पड़े। कुछ बस में चढ़े, कुछ बसों में जगह खाली होने पर भी उन की छतों पर चढ़ गए। छत का आनंद अलग होता है। बसें चल पड़ीं। बसों में पुलिस एक भी नहीं थी जिस की लोगों को एक फर्लांग आगे जा कर लोगों को सुध आई।  लोगों ने बस रुकवा दी और उतर कर वापस लौट लिए। फिर पुलिस ने उन्हें दूसरी बसों में बैठाया गया। इस बार डंडे वाली पुलिस दो-दो जवान भी हर एक बस में चढ़े।  बहुत से लोग ऐसे भी थे जो किसी बस में नहीं चढ़े वे पैदल ही खिसक लिए। पुलिस ने उन्हें खिसकने दिया। बीसेक मिनट में चौराहा खाली हो गया। केवल पुलिस वाले रह गए। किसी अफसर ने इशारा किया तो मजदूर आ गए और बेरिकेडस् हटाने लगे।


गले दिन अखबारों में आंदोलन के चित्र छपे, चित्र ऐसे थे कि दो तीन सौ आदमी भी हजारों नजर आएँ। यह भी छपा था कि लोगों को पास के स्टेडियम के पास ले जा कर छोड़ दिया गया। गिरफ्तार होने वाले आँकड़ों पर बहस छिड़ी थी। पुलिस ने गिरफ्तार लोगों की संख्या 300 बताई जब कि नेता कह रहे थे 1873 लोग गिरफ्तार हुए, बसें कम पड़ गईं। नेता जी का बयान छपा था- महंगाई मौजूदा सरकार की गलत नीतियों के कारण बढ़ रही है। आमजन के लिए जीवन यापन चुनौती बन गया है।  हमारा महंगाई विरोधी अभियान का आज अंतिम दिन था। अभियान भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन विपक्ष सरकार की गलत नीतियों का विरोध करता रहेगा।

रविवार, 24 जून 2012

किसान और आम जनता की क्रय शक्ति की किसे चिंता है?


किसी भी विकासशील देश का लक्ष्य होना चाहिए कि वह जितनी जल्दी हो सके विकसित हो, उस की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो। लेकिन साथ ही यह प्रश्न भी है कि यह विकास किस के लिए हो? किसी भी देश की जनता के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य व चिकित्सा तथा शिक्षा प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। विकास की मंजिलें चढ़ने के साथ साथ यह देखना भी आवश्यक है कि इन सब की स्थितियाँ देश में कैसी हैं? वे भी विकास की ओर जा रही हैं या नहीं? और विकास की ओर जा रही हैं तो फिर उन के विकास की दिशा क्या है?

भोजन की देश में हालत यह है कि हम अनाज प्रचुर मात्रा में उत्पन्न कर रहे हैं।  जब जब भी अनाज की फसल कट कर मंडियों में आती है तो मंडियों को जाने वाले मार्ग जाम हो जाते हैं।  किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए कई कई दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है।  इस के बाद भी जिस भाव पर उन की फसलें बिकतीं हैं वे किसानों के लिए लाभकारी मूल्य नहीं हैं।  अनाज की बिक्री की प्रतीक्षा के बीच ही बरसात आ कर उन की उपज को खराब कर जाती है।  सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर अनाज की खरीद करती है। लेकिन अनाज खरीदने वाले अफसर अनाज की खरीद पर रिश्वत मांगते हैं।  मंडी के मूल्य और सरकारी खरीद मूल्य में इतना अंतर है कि मध्यम व्यापारी किसानों की जरूरत का लाभ उठा कर उन से औने-पौने दामों पर अनाज खरीद कर उसे ही अफसरों को रिश्वत दे कर सरकारी खरीद केंद्र पर विक्रय कर देते हैं।  दूसरी और किसान अपने अनाज को बेचने के लिए अपने ट्रेक्टर लाइन में खड़ा कर दिनों इंतजार करता रहता है।  उसे कभी सुनने को मिलता है कि बारदाना नहीं है आने पर तुलाई होगी, तो कभी कोई अन्य बहाना सुनने को मिल जाता है।  एक किसान कई दिन तक ट्रेक्टर ले कर सरकारी खरीद में अनाज को बेचने के लिए खड़ा रहा।  उस ने रिश्वत दे कर भी अपना माल बेचने की जुगाड़ लगाने की कोशिश की लेकिन अनाज बेचने के पहले उस के पास रिश्वत देने को धन कहाँ?  तो वह हिसाब भी न बना।  आसमान पर मंडराते बादलों ने उस की हिम्मत को तोड़ दिया और वह सस्ते में अपना माल व्यापारी को बेच कर गाँव रवाना हुआ।  उसे क्या मिला?  बीज, खाद, सिंचाई, पेस्टीसाइड और मजदूरी का खर्च निकालने के बाद इतना भी नहीं कि जो श्रम उस ने उस फसल की बुआई करने से ले कर उसे बेचने तक किया वह न्यूनतम मजदूरी के स्तर तक पहुँच जाए।

सल बेच कर किसान घर लौटा है। अब अगली फसल की तैयारी है। बुआई के साथ ही खाद चाहिए, पेस्टीसाइड्स चाहिए।  लेकिन जब वह खाद खरीदने पहुँचता है तो पता लगता है उस के मूल्य में प्रति बैग 100 से 150 रुपए तक  की वृद्धि हो चुकी है।  उसे अपनी जमीन परती नहीं रखनी।  उसे फसल बोनी है तो खाद और बीज तो खरीदने होंगे।  वह मूल्य दे कर खरीदना चाहता है लेकिन तभी सरकारी फरमान आ जाता है कि खाद पर्याप्त मात्रा में नहीं है इस कारण किसानों को सीमित मात्रा में मिलेगा।

किसान को खेती के लिए खाद, बीज, बिजली, डीजल और आवश्यकता पड़ने पर मजदूर की जरूरत होती है।   इन सब के मूल्यों में प्रत्येक वर्ष वृद्धि हो रही है, खेती का खर्च हर साल बढ़ता जा रहा है लेकिन उस की उपज? जब वह उसे बेचने के लिए निकलता है तो उस के दाम उसे पूरे नहीं मिलते।   नतीजा साफ है, किसानों की क्रय क्षमता घट रही है। पैसा खाद, बीज पेस्टीसाइडस् बनाने वाली कंपनियों और रिश्वतखोर अफसरों की जेब में जा रहा है।

देश की 65-70 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है जिस की आय में वृद्धि होने के स्थान पर वह घट रही है।  उस की खरीद क्षमता घट रही है।  वह रोजमर्रा की जरूरतों भोजन, वस्त्र, चिकित्सा और स्वास्थ्य तथा शिक्षा पर उतना खर्च नहीं कर पा रहा है जितना उसे खर्च करना चाहिए। उस से हमारे उन उद्योगों का विकास भी अवरुद्ध हो रहा है जो किसानों की खरीद पर निर्भर है।  उन का बाजार सिकुड़ रहा है।

देश की सरकार आर्थिक संकट के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को बाजार की सिकुड़न के लिए जिम्मेदार बता कर किनारा करती नजर आती है।   देश के काबिल अर्थ मंत्री को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। लेकिन इस बात की चिंता किसी राजनैतिक दल को नहीं है कि देश की इस 65-70 प्रतिशत आबादी की क्रय क्षमता को किस तरह बनाए ही नहीं रखा जाए, अपितु उसे विकसित कैसे किया जाए।   देश के उद्योंगों का विकास और देश की अर्थ व्यवस्था इसी आबादी की खरीद क्षमता पर निर्भर करती है।   कोई राजनैतिक दल इस समय इस के लिए चिंतित दिखाई नहीं देता।   इस समय राजनैतिक दलों को केवल एक चिंता है कि क्या तिकड़म की जाए कि जनता के वोट मिल जाएँ और किसी तरह सत्ता में अपनी अच्छी हिस्सेदारी तय की जा सके।

शुक्रवार, 22 जून 2012

कचरा दरोगा सप्लाई ठेका

लोग कहते हैं। देश कचरे से परेशान है। जिधर जाओ कचरा दिखाई देता है। कोई स्थान इस से अछूता नहीं है। मियाँ जी बेड रूम में लेटे लेटे टीवी देख रहे हैं, अचानक जेब से पाउच निकाला, गुटखा खाया और पाउच वहीं फर्श पर सरका दिया। बीवी नाराज हो तो हो, उस से क्या फर्क पड़ता है? आखिर कचरा उठाना उस की ड्यूटी है। उधर बीवी कौन कम है? वह घर बुहारती है और कचरा सड़क पर। न डाले तो नगर निगम का सफाई वाला क्या करे? अक्सर नगर निगम के पास सफाई वाले कम पड़ते हैं। निगम नगर की बस्तियों के हिसाब से सफाई वाले रखने की योजना बनाता है। फिर भर्ती शुरू होती है, भर्ती पर मुकदमा होता है, स्टे आ जाता है। अब स्टे हटे तो भर्ती हो। स्टे हटता है, भर्ती होती है। जब तक नई भर्ती सफाई करने पहुँचती है, नगर में बस्तियाँ बढ़ जाती हैं। नगर निगम का क्या कसूर?

र्ती होने वालों में से अनेक निगम के अफसरों के घर काम पर हैं। वे वहाँ न हों तो काम अफसर जी करें या उन की बीवी जी, फिर अफसरी कौन करे। अफसरानी जी करें तो अफसरजी को अफसरजी कौन कहे। कुछ नेताओं के घरों पर काम पर हैं। अब नगर की सफाई हो तो कैसे? पर नगर निगम नागरिकों की चिन्ता करता है। ठेके पर कर्मचारी लगाता है। इस से ठेकेदार को रोजगार मिलता है और अफसरों को नजराना। आठ की जगह चार से कर्मचारी लगते हैं, चार से पार्षदों का खर्चा निकलता है। जो चार लगते हैं वे आधे दिन काम करते हैं और आधी तनखा पाते हैं। आधी तनखा से ठेकेदार का खर्च चलता है और सरकार को सेवाकर मिलता है। ठेका तो न्यूनतम वेतन की दर पर होता है। देखा¡ कचरा न हो तो इतने लोग क्या करें?  क्या कमाएँ और क्या खाएँ?

चरा न हो तो कचरे में काम की चीजें बीनने वाले क्या करें?  वे सुबह बोरे ले कर निकलते हैं, कचरे से काम की चीजें बीनते हैं। इस से चीजें बेकार नहीं जाती। देश की अर्थव्यवस्था को सहारा मिलता है, मजबूती बनी रहती है, वह ग्रीस की तरह नहीं होती। सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। कचरा बीनने वालों को प्रोत्साहन देने के लिए कुछ करना चाहिए। पद्म विभूषण और पद्म श्री के  अवार्डों में एक कैटेगरी कचरा सैक्टर की भी होनी चाहिए। आखिर कचरा बीनना खेलों से कम महत्वपूर्ण तो नहीं? उस के लिए भारत रत्न भी  होना चाहिए।  उस में कुछ मुश्किल हो तो कम से कम राज्यसभा की सदस्यता तो अवश्य दी जा सकती है। आखिर वह खेलों की अपेक्षा कम सामाजिक नहीं।

धर राजनीति में कचरे के बिना काम नहीं चलता, वहाँ भी कचरा करने वाले कम नहीं। नए राष्ट्रपति के लिए मीडिया वालों ने बहुत नाम उछाले, इतने कि कचरा हो गया। यूपीए वाले कचरा साफ कर के एक नाम पर सहमति बनाने चले तो दीदी को पसंद नहीं आया। वे दिल्ली गईं और एयरपोर्ट से सीधे मुलायम के घर पहुँच कर बोली -आओ भाई कचरा करें। मुलायम को तजवीज पसंद आई।  दोनों ज्वाइंट प्रेस कान्फ्रेंस कर के बोले -हम मिल कर कचरा करेंगे। यूपीए में खलबली मच गई। मुलायम को संदेश गया -हम को जीतना नहीं आता तो क्या, कचरा करना तो आता है, यूपी में कर देंगे।  मुलायम क्या करते? उन्हों ने दीदी के प्लान का कचरा कर दिया।  

धर मुम्बई नगर निगम ने वर्ली सी-फेस को खूबसूरत बनाया। लोग टहलने जाने लगे। सीनियर हिन्दी ब्लागर घुघूती जी भी जाने लगीं। वे खुश थीं, वहाँ कचरा नहीं।  दूसरे लोगों को पता लगा तो भीड़ होने लगी।  फेरी वाले आ गए, उन के साथ कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक/पेपर कप, गिलास, चम्मचें व भु्ट्टे भी आए। वर्ली सी फेस की सड़क विशुद्ध भारतीय सड़क हो गई।   वे फिजूल दुखी हैं। भारतीय सड़क के भारतीय होने पर कैसा दुःख?  वे बता रही हैं कि अमरीका में नोट हाथ से छिटक कर सड़क पर गिर जाए तो जुर्माना होता है। यहाँ भी कचरा करने पर जुर्माना होना चाहिए। वे भूल गईं, भारत में जुर्माने को जुर्माना करने वाला तक नहीं गाँठता, कचरा करने वाला क्या गाँठेगा? पुलिस में दरोगा वैसे ही कम हैं। अब कचरा दरोगा कहाँ से लाए जाएँ? मैं ने सुझाव दिया है कि चीन के बेयरफुट डाक्टर की तरह यहाँ बेयरवेतन कचरा दरोगा भर्ती करने चाहिए जिन्हें वेतन की जगह जुर्माने का परसेन्टेज मिले। सौदा कतई घाटे का नहीं रहेगा। सरकार चाहे तो टोल-टेक्स के ठेके की तरह वेस्ट-फाइन ठेका भी कर सकती है। उस में एक और फायदा है। अफसर-नेताओं की पूर्ति भी  होती रहेगी और पार्टी को चुनाव के लिए चंदा भी कम न पड़ेगा। नेताजी फख़्र से कह सकेंगे कि वर्ली सी फेस हांगकांग से कम नहीं।