@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 29 मार्च 2012

ओलों से सर की बचत के लिए हम बालों के मोहताज नहीं

कोई सर मुड़ा कर नाई की दुकान से निकला ही हो और आसमान से ओले गिरने लगे हों ऐसा छप्पन साल की जिन्दगी में न  तो सुना और न ही अखबार में पढ़ा। इस से पहले किसी किताब में भी इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं देखा। लेकिन चूँकि मुहावरा है और चल निकला है तो चल निकला है। वैसे मेरे जैसे लोगों के लिए इस मुहावरे का कोई अर्थ नहीं है जिन के सर पर या तो बाल पूरी तरह भूतकाल की वस्तु हो कर रह गए हैं या फिर किनारों पर सिमट कर रह गए हैं। हमारे लिए तो ओले कभी भी पड़ें क्या फर्क पड़ता है? हम जानते हैं कि ओले पड़ने पर क्या करना है। शायद यही कारण है कि अब तक अनेक बार ओले पड़ते देखे हैं पर सिर को कभी नुकसान नहीं पहुँचा। लेकिन इस बार ओले काम कर गए हम तो हम, उस्ताद भी देखते रह गए।

हुआ यूँ कि तीन-चार बरस पहले हम ने वेब साइटस् चलाने वाले मित्र से वैसे ही शौकिया तौर पर पूछा था कि क्या तीसरा खंबा डाट कॉम डोमेन मिल सकता है? उन्हों ने मात्र बीस मिनट बाद ही बताया कि हमारे नाम से यह डोमेन ले लिया गया है। अब आगे की कोई गणित तो हमें आती नहीं थी। सो वह डोमेन पड़ा ही रहा। हम ब्लागस्पाट की सेवाओं का आनन्द लेते रहे। इस साल हमने ठान ही लिया कि अपने ब्लाग तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर ले जा कर वेबसाइट बना डालेंगे। फिर मित्र की और हमारी कवायद चली आखिर तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर स्थानान्तरित करने में कामयाबी मिल गई। हम ने भी जोर शोर से अपने ब्लागस्पॉट के ब्लाग तीसरा खंबा पर अपने ब्लाग की अंतिम पोस्ट की घोषणा कर दी और नए वर्ष की पहली तारीख 1 जनवरी 2012 को तीसरा खंबा अपने डोमेन की वेबसाइट में परिवर्तित हो गया। 


म अपना सिर मुंड़वा कर प्रसन्न थे। खूब जोर शोर से साइट आरंभ हो गई। पाठकों में भी निरंतर वृद्धि होती रही। बहुत सारी सुविधाएँ भी मिलीं। दो माह कैसे गुजरे, पता भी नहीं लगा। मार्च का आरंभ हुआ तो पता लगा रास्ते इतने आसान नहीं हैं। हम पर कभी रूमानियत सवार थी तो सोचते थे कहीं जाएँ न जाएँ एक बार सोवियत संघ के रूस जरूर हो कर आएंगे। वह मेरे अनेक प्रिय लेखकों टाल्सटॉय, चेखव, गोगोल, गोर्की, मायकोवस्की आदि का देश था। गंगा तो देखी थी पर वोल्गा और देखना चाहते थे। मास्को का वह विश्वविद्यालय देखना चाहते थे जहाँ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अध्यापन किया, विवाह किया और एक संतान भी उन्हें हुई। लेकिन रूमानियत में या तो आदमी रांझा, मजनूँ, भगत सिंह हो कर शहीद हो सकता है या फिर उस की  रूमानियत यथार्थ की शक्ल अख्तियार कर लेती है। हम रूमानियत से निकल कर अपने वतन के यथार्थ में उलझे रह गए। सोवियत संघ अपनी गलतियों का शिकार हो कर टूट गया। इस से यह सिद्ध हुआ कि काबुल भले ही घोडों के लिए प्रसिद्ध रहा हो लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ गधे नहीं होते। 

तो, फरवरी निकलते ही पता लगा कि केश-विहीन सिर पर  कठोर-कठोर शीतल-शीतल कंकड़ पड़ने लगे हैं। आसमान पर देखा तो वहाँ कोई बादल तक न था, सूरज तेज चमक रहा था। आखिर यह ओले आए कहाँ से। तीसरा खंबा न पाठकों से खुल रहा था और न ही हम से उस का एडमिन खुल रहा था। जब भी खोलना चाहते ब्राउजर किसी रूसी वेबसाइट के पते पर पहुँचा देता, तो कभी ब्राउजर रिपोर्टेड अटैक साइट का बोर्ड चिपका जाता। हम ने अपने वेब एडमिनिस्ट्रेटर को बताया तो पता लगा हमला हम पर ही नहीं हुआ है नासा पर भी हो रहा है। बताया कि वे हमले को विफल करने की तैयारी कर रहे हैं, बस कुछ समय लग सकता है। हम ने संतोष की साँस ली। हम ने सोचा चलो एक दो दिन इस काम से फुरसत मिली। 
दूसरे दिन तीसरा खंबा खुलने लगा। हम फिर प्रसन्न हो गए कि हमला विफल हो गया है। लेकिन तीसरे दिन फिर तीसरा खंबा रूस जाने लगा। अब तो धूप छाहँ का सिलसिला आरंभ हो गया। एक दिन हमला विफल होता। हम चैन की साँस लेते। तीसरा खंबा पर कोई न कोई माल अपलोड कर देते। लेकिन दूसरे दिन ही फिर वही हाल वेब साइट अपहृत पाई जाती। बताया गया कि जिस सर्वर से हमारी वेबसाइट संचालित हो रही है उस के सभी किराएदारों को यही परेशानी है। छत का एक छेद बंद किया जाता है। दूसरे दिन छत दूसरी जगह से टपकनी शुरू हो जाती है। वह मार्च का आरंभ था अब मार्च का अंत भी आ रहा है लेकिन छत है कि टपकना बंद ही नहीं हो रही है। हम ने शिकायत की तो पता लगा, घर बदलने की व्यवस्था की जा रही है। सप्ताह भर में घऱ बदल दिया जाएगा। हम ने भी सप्ताह भर चैन से बैठने की ठान ली है। देखते हैं, सप्ताह भर में क्या होता है? तीसरा खंबा की रूस यात्रा बंद होती है या नहीं?  होती है तो ठीक वर्ना, वर्ना क्या? जो हम से बन पड़ेगी करेंगे। पर तीसरा खंबा को रूस न जाने देंगे। मजबूत सी टोपी लाएंगे, सर पर पहनेंगे, पर ओलों को सर पर तबला न बजाने देंगे।

शनिवार, 24 मार्च 2012

भैस की अक्ल

ल जब दूध लेने गए, तो दूध निकलने में देर थी। मैं अपनी कार में बैठे इन्तजार करने लगा। पास में एक भैंस खूंटे से बंधी थी। वह खड़ी होना चाहती थी लेकिन उस के मुहँ से बंधी रस्सी इस तरह उस के सींग में फँस गई थी कि वह खड़ी होती तो जरा भी इधर उधर न खिसक सकती थी, जो उस के लिए बहुत कष्ट दायक स्थिति होती। वह लगातार प्रयास कर रही थी कि सींग में फँसी रस्सी निकल जाए। वह निकाल भी लेती लेकिन फिर से सींग में फँस जाती। आखिर वह खड़ी हुई और सिर झुकाए झुकाए रस्सी को निकालने का प्रयत्न किया। एक दो बार असफल हुई। मैं ने सोचा उस का वीडियो लिया जाए। मैं तैयार हुआ, भैंस ने कोशिश की और इस बार वह असफल नहीं हुई। उस ने सींग में से रस्सी को निकाल ही दिया। शायद वह वीडियो उतारने का ही इंतजार कर रही थी। शॉट पहली बार में ही ओ.के. हो गया।    




सही कहा है ... 

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, 
रसरी आवत जात हि सिल पर होत निसान

बुधवार, 21 मार्च 2012

धूल भरे दिन का सूर्यास्त

ल सुबह से ही आसमान में धूल के कण दिखाई देने लगे थे। सूरज की चमक कम थी। लेकिन जैसे जैसे दिन चढ़ता गया धूल बढ़ती गई। सांझ तक सारा आकाश धूल से ढका था। सूर्यास्त का यह दृश्य मैं ने एक ही स्थान से देखा। आप के लिए भी कुछ चित्र हैं -
सूर्यास्त से पहले

सूर्य एक बिंदु


पंछी लौट चले घर को

संध्या के माथे की बन्दी

विदाई की बेला

अलविदा!


अब रोशनी थोड़ी देर और

रात्रि विश्राम की तैयारी

रात हुई, बत्तियाँ जल उठीं
चित्रों को बड़ा कर के देखा जा सकता है

गुरुवार, 15 मार्च 2012

बंदर की रोटी बनाम होलोप्टीलिया इंटेग्रिफोलिया -एक औषधीय वृक्ष

पिछली पोस्ट में मैं ने एक वृक्ष और उस के कुछ भागों के चित्र पोस्ट किए थे। स्थानीय लोग इसे बन्दर की रोटी का पेड़ कहते हैं। टिप्पणियों से पता लगा कि कुछ क्षेत्रों में इसे बंदर पापड़ी या बंदर बाटी भी कहा जाता है। हरे रंग की जो संरचनाएँ जो चित्रों में  थीं वे वास्तव में इस वृक्ष के फल हैं। यह फल ऐसा है लगता है कि दो पत्तियों के बीच एक बीज को फँसा दिया गया हो। पिछली पोस्ट प्रकाशित करने तक मुझे इस वृक्ष के बारे में बस इतनी ही जानकारी थी। बाद में मैं ने भी इस के बारे में अंतर्जाल पर खोज की और पता लगा कि यह बहुत से औषधीय गुणों से संपन्न वृक्ष है और संपूर्ण भारत में पाया जाता है। 

   

मादा बन्दर (लंगूर) इस के फलों के इन पत्तियों जैसे छिलकों को हटा कर इस के बीच की मींगी को निकाल कर खाती हैं। .कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि मादा बंदर इस का सेवन गर्भ धारण के उपरान्त प्रसव के कुछ दिन बाद तक करती हैं। यह मींगी शरीर के इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है। हालांकि यह फल फरवरी मार्च अप्रेल में ही वृक्ष पर उपलब्ध रहता है। मैं ने भी इस के बीज की मींगी को खा कर देखा वह स्वादिष्ट लगती है। 

 विभिन्न प्रान्तों में इस के विभिन्न नाम हैं। गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इसे चरेल कहा जाता है। इस के अलावा इसे कान्जो, वाओला, कांजू, बन चिल्ला, चिलबिल, सिलबिल, धाम्ना, बेगाना, थावासी, रसबीज, कालाद्रि, निलावही (कन्नड़), आवल (मलायलम), वावली पापड़ा (मराठी), दौरंजा, टुरुंडा ( उड़िया), राजैन, खुलैन, अर्जन (पंजाबी),चिरबिल्व (संस्कृत) अया, अविल, काँची, वेलैया (तमिल), तथा थापासी, नेमाली, पेडानेविली (तेलगू) नामों से जाना जाता है।   इस का वानस्पतिक नाम होलोप्टीलिया इंटेग्रिफोलिया Holoptelea integrifolia है और अंग्रेजी में इसे इंडियन एल्म  Indian Elm नाम से जाना जाता है। यह वृक्ष अर्टीकेसी परिवार का सदस्य है। इस में जनवरी फरवरी माह में पुष्प खिलते हैं।  


स वृक्ष में औषधीय गुणों की कमी नहीं है।  इस पेड़ की छाल का उपयोग गठिया की चिकित्सा के लिए प्रभावी स्थान पर लेप कर के किया जाता है। इस की छाल का अन्दरूनी उपयोग आंतों के छालों की चिकित्सा के लिए किया जाता है। सूखी छाल गर्भवती महिलाओं के लिए ऑक्सीटॉकिक के रूप में गर्भाशय के संकुचन को प्रभावित करने के लिए किया जाता है जिस से प्रसव आसानी से हो सके। इस की पत्तियों के काढ़े का उपयोग वसा के चयापचय को विनियमित करने के लिए किया जाता है। पत्तियों को लहसुन के साथ पीस कर दाद, एक्जीमा आदि त्वचा रोगों में रोग स्थल पर लेप के लिए प्रयोग किया जाता है। पत्तियों को लहसुन और काली मिर्च के पीस कर गोलियाँ बनाई जाती हैं और एक गोली प्रतिदिन पीलिया के रोगी को चिकित्सा के लिए दी जाती है। लसिका ग्रन्थियों की सूजन में इस की छाल का लेप प्रयोग में लिया जाता है। छाल के लेप का उपयोग सामान्य बुखार में रोगी के माथे पर किया जाता है।  इस की छाल आँखों के लिए एण्टीइन्फ्लेमेटरी एजेंट के रूप में काम आती है। सफेद दाग के रोग में इस का लेप दागों पर किया जाता है।

पिछली पोस्ट के बाद तक मैं इस वृक्ष के बारे में कुछ नहीं जानता था। लेकिन खोज करने पर इतनी जानकारी प्राप्त हुई। यदि हम अपने आसपास की वनस्पतियों के बारे में इस तरह जानकारी करें तो हिन्दी अंतर्जाल पर बहुत जानकारी एकत्र कर सकते हैं।


सोमवार, 12 मार्च 2012

बन्दर की रोटियाँ देने वाला यह वृक्ष कौन सा है?

मित्रों!
विगत साढ़े तीन माह से अनवरत अनियमित था। लेकिन इस बार तो एक लंबा विराम ही लग गया। एक बार जब खिलाड़ी कुछ दिन के लिए मैदान से बाहर होता है तो उस का पुनर्प्रवेश आसान नहीं होता। मेरे साथ भी यही हो रहा है। सप्ताह भर से सोच रहा हूँ कि कहाँ से आरंभ करूँ।  कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। कल अचानक तीसरा खंबा पर 1000 पोस्टें पूरी हो गयी। यह कैसे हो गया। इतना कैसे लिख गया। मुझे स्वयं पर आज आश्चर्य हो रहा है। लेकिन यह सब ब्लागिरी का ही प्रताप है जिस ने मुझ से इतना काम करवा लिया। वाकई ब्लागरी में बहुत ताकत है। अनवरत पर आज अपनी अनुपस्थिति इस पोस्ट के साथ तोड़ रहा हूँ।  लिखने को अनेक विषय हैं लेकिन आज बात कुछ हट कर।


वृक्ष
 कोटा  कलेक्ट्रेट परिसर में एक वृक्ष है।  इस के नजदीक की चाय आदि की दुकानें हैं उन्हीं में से एक पर हम अक्सर कॉफी पीने आते हैं। गर्मी में उस की घनी शीतल छाया में बैठ कर कॉफी सुड़कने का आनंद ही कुछ और है।  मैं लोगों से हर बार इस वृक्ष का नाम पूछता हूँ.  लेकिन मैं आज तक इस वृक्ष का नाम नहीं जान सका। जिन से भी पूछा उन्हों ने आड़े तिरछे नाम बताए। मैं जानना चाहता हूँ कि इस वृक्ष का नाम क्या है? यदि पता लग सके तो इस वृक्ष का वानस्पतिक विज्ञानी नाम भी जानना चाहता हूँ। इस वृक्ष का ऋतुचक्र वार्षिक है। वर्ष भर यह हरे पत्तों से भरा रहता है। लेकिन जनवरी में इस के पत्ते झड़ने लगते हैं और यकायक केवल नंगी शाखाएँ दिखाई देने लगती हैं। लेकिन कुछ ही दिनों में पुनः यह हरा हो उठता है। इस बार इस पर पत्तों जैसी हरी संरचनाएँ उग आती हैं जैसे दो पत्तियों को जोड़ कर उन के बीच पराठे की तरह मसाला भर दिया हो। मई माह तक इन की हरियाली बनी रहती है। फिर यह सूखने लगती हैं और जून में बड़े आकार के कोमल पत्ते निकल आते हैं जो पकते हुए गहरे हरे हो जाते हैं और जनवरी तक बने रहते हैं। अनेक व्यक्तियों इसे बन्दर की रोटी का पेड़ बताया। ऊपर का चित्र उसी वृक्ष का है। मैं कभी कभी इस पेड़ की शाखा पर ट्री हाउस बनवा कर उस में मनपसंद किताबों के साथ छुट्टियाँ बिताने की कल्पना करता हूँ।  शाखाओं के चित्र नीचे हैं। क्या आप बताएंगे इस वृक्ष का नाम क्या है? इस का वानस्पतिक नाम क्या है? परिवार और जाति बता सकें तो और भी बेहतर।

शाखाएँ

शाखा

शाखाग्र

बंदर की रोटियाँ

प के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

शाह ईरान द्वारा वृक्षारोपण का मुहूर्त

रान के बादशाह का किस्सा जिसे फ्रेंक्विस बर्नियर ने अपनी किताब में जगह दी, मैं अपने वायदे के मुताबिक कल आप के पेश-ए-नजर नहीं कर सका था। लेकिन आज कोई बाधा नहीं है। तो देर किस बात की? शुरू करते हैं ....

रान के प्रसिद्ध बादशाह शाह अब्बास ने कहीं अपने महल मेंबगीचा लगाने की आज्ञा दी थी और इस काम के लिए एक दिन भी नियत कर चुका था। बादशाही बागवान भी मेवे के कुछ वृक्षों के लिए एक उचित स्थान चुन चुका था। परन्तु बादशाही ज्योतिषी ने नाक-भौं चढ़ा कर कह दिया कि यदि सायत निकाले बिना वृक्ष लगा दिए जाएंगे तो कदापि नहीं फूलेंगे-फलेंगे। बादशाह शाह अब्बास ने नजूमी की बात मान कर सायत निकालने को कहा तोउस ने पाँसा आदि डाला और अपनी पुस्तक के पृष्ठ उलट-पलट कर हिसाब लगाया और कहा कि नक्षत्रों के अमुक अमुक स्थानों में होने के कारण जान पड़ता है कि दूसरी घड़ी के बीतने के पहले ही वृक्ष लगा दिए जाएँ।

बादशाही बागवान जो नजूमियों तथा ज्योतिषियों से कुछ पूछना व्यर्थ समझता था इस समय उपस्थित नहीं था। अतः इस के बिना ही कि उस के आने की प्रतीक्षा की जाए, गड्ढे खुदवाए गए और बादशाह ने अपने हाथों से वृक्षों को स्थान स्थान में लगा दिया।  ताकि पूर्व स्मृति की रीति पर कहा जाए कि ये वृक्ष स्वयं शाह अब्बास ने अपने हाथों लगाए थे। इधर बागवान जो अपने समय पर तीसरे पहर आया तो वृक्षों को लगा हुआ पा कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। और यह विचार कर के कि वे उस क्रम से नहीं लगाए गए हैं जैसे उस ने विचारा था, जिस से उसे उन के पोषण में सुभीता रहता। उस ने सभी पौधों को उखाड़ कर उन की जगह मिट्टी डाल कर रख दिया। रात भर वृक्ष इसी तरह रखे रहे। 


ज्योतिषी से किसी ने जा कर यह बात कह दी। इस का परिणाम यह हुआ कि वह बादशाह के पास जा कर बागवान की इस कार्यवाही के लिए बुरा-भला कहने लगा। अपराधी बागवान को उसी समय बुलाया गया। बादशाह ने उस से अत्य़न्त क्रोध के साथ उस से कहा - "तू ने यह क्या हरकत की कि जिन दरख्तों को हम ने नेक सायत निकलवा कर अपने हाथ से लगाया था उन को ही उखाड़ डाला। अब क्या उम्मीद है कि इस बाग का कोई दरख्त फल लाएगा, क्यों कि जो नेक सायत थी वह तो गुजर गई और फिर नहीं आ सकती।"


बागवान एक स्पष्टवादी गँवार मुसलमान था। नजूमी की ओर तिरछी दृष्टि डाल कर बोला -"अरे! कमबख्त बदशकुनी,जरा ख्याल तो कर कि यही तेरा नजूम है कि जो दरख्त तेरे कहने से दोपहर को लगाए गए थे वे शाम से पहले ही उखड़ गए?" शाह अब्बास आकस्मिक रूप से मजेदार बात सुन कर एकदम हँस पड़ा। और ज्योतिषी की तऱफ पीठ कर के वहाँ से चला गया।

कुंडली मिलान

ल की पोस्ट में मैं ने वायदा किया था कि आज ईरान के बादशाह के साथ घटी घटना जिस का वर्णन फ्रेंक्विस बर्नियर ने अपनी किताब में किया है आप को बताउंगा। लेकिन कल की पोस्ट पर नीरज रोहिल्ला की बहुत सच्ची टिप्पणी आई है जो फिर से पेशे नज़र है-

दिनेशजी,
इस पोस्ट को लिखने के लिये बहुत आभार।
जब हम बच्चे थे तो अक्सर ही पुरानी पीढी के लोगों से सुनने को मिल जाया करता था कि हमारी तो जनमपत्री है ही नहीं या फ़िर बिना पत्री मिलाये ही विवाह हो गया। मेरे माता पिता का विवाह बिना जन्मपत्री मिलाये हुआ जिसका ताना आज भी दोनो एक दूसरे को मौके-बेमौके देते रहते हैं कि अगर पहले पत्री मिला ली होती तो दोनो बच जाते, वैसे पत्री उनकी आज तक नहीं बनी है।

लेकिन आज के दौर में विवाह के दौरान इस जन्मपत्री और कुंडली साफ़्टवेयर ने आतंक मचा रखा है। लडका/लडकी देख लिया, परिवार की पूरी खबर है, सब कुछ बढिया है लेकिन अरे ये क्या पत्री नहीं मिल रही है। कौन समझाये कि पहले जब विवाह सम्बन्ध मात्र किसी समबन्धी की सलाह पर बन जाते थे तो शायद पत्री का मिलान मन को संतोष देता होगा लेकिन...खैर जाने दीजिये...

इसके अलावा संगीताजी ने भी पहले फ़लित ज्योतिष के बारे में कई भ्रमों को दूर किया और कहा कि गत्यात्मक ज्योतिष अधिक वैज्ञानिक है। भाई, ग्रहों की गणना तो पहले भी गति के आधार पर होती चली आ रही है, उसमें नया क्या है? लेकिन हां, उससे पहले शायद गत्यात्मक ज्योतिष के आधार पर किसी ने शेयर बाजार, क्रिकेट मैच की पहली और दूसरी ईनिंग और सरकारों की भविष्यवाणी शायद ही इतने वैज्ञानिक तरीके से की हो। संगीताजी: असहमति के लिये पहले से ही माफ़ी मांग लेता हूँ, इसे व्यक्तिगत द्वेष कतई न समझा जाये।   

ब इस टिप्पणी के बाद मैं एक और ही किस्सा आप के सामने रख रहा हूँ -

न दिनों मैं अपनी बेटी के लिए जीवन साथी की खोज में हूँ। मुझे पता लगा कि मेरी ही बिरादरी के परिचित व्यक्ति के बारे में मुझे पता लगा कि उस का पुत्र है जो मेरी पुत्री का जीवन साथी हो सकता है। मैं ने उसे टेलीफोन किया। उस ने तुरंत जन्म की तारीख, स्थान और समय चाहा, मैं ने उसे बता दिया। चार मिनट बाद ही उस का फोन आ गया कि कुंडली नहीं मिली। नाड़ी दोष है और ब्राह्मणों में तो इस दोष के कारण विवाह हो ही नहीं सकता। मैं ने उसे त्वरित जवाब के लिए धन्यवाद दिया। उस ने यह भी बताया कि वह छह सौ कुंडलियाँ मिला चुका है लेकिन एक भी नहीं मिली।  

मैंने उस से पूछा कि हमारी बिरादरी में  तीस साल पहले तक कुल साढ़े चार सौ परिवार थे। जिन में से  कम से कम आधे जन्मपत्रिका बनाने , देखने और कुंडलियाँ मिलाने का व्यवसाय ही किया करते थे। वे बिरादरी के बाहर और स्वगोत्रीय विवाह नहीं किया करते थे। इस का अर्थ है कि उन्हें साढ़े चार सौ परिवारों में से स्वगोत्रीय परिवारों को त्याग देने पर लगभग तीन सौ परिवारों  में ही अपने पुत्र या पुत्री के लिए जीवनसाथी तलाशना होता था। फिर उन की जन्म कुंडलियाँ कैसे मिलती थीं? 


ह निरुत्तर था। लेकिन मैं ने उसे  बताया कि वे जन्म कुंडलियाँ नहीं देखते थे। वे परिवार और उन के सदस्यों को देखते थे और विवाह कर देते थे। मैं ने कल बताया था कि मेरे दादाजी, नानाजी, पिताजी, मामाजी, चाचा जी, मौसाजी आदि ज्योतिष का काम करते थे। लेकिन इन में से किसी का भी विवाह जन्मकुंडली मिला कर नहीं हुआ था और सभी विवाह सफल विवाह थे।  जन्म कुंडलियाँ मिलाने का जो फैशन आज कल  ज़नून की तरह चल निकला हैष उस से किसी का भला नहीं हो रहा है, अपितु  विवाह संबंधों में अड़चनें ही पैदा हो रही हैं। अभी लोगों के हाथ में कम्प्यूटर नए नए आए हैं और जन्म पत्रिका और कुंडली मिलाने के  असल और पायरेटेड सोफ्टवेयर मुफ्त में उपलब्ध हैं। अब जो काम पहले नजूमी और ज्योतिषी किया करते थे वे खुद करने लगे हैं। लेकिन जब अड़चनें बहुत बढ़ने लगेंगी और  खूब नाप-तौल कर कुंडली मिलाने के बाद भी विवाह असफल होने लगेंगे तब यह फैशन जल्दी ही तिरोहित होने वाला है। इस लिए लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। जन्मकुंडलियाँ बनाना और मिलाना बंद कर देना चाहिए। पैदाइश की तारीख और स्थान तक तो ठीक है लेकिन समय तुरंत ही विस्मृत कर देना चाहिए।  
ईरान के बादशाह का किस्सा फिर कल पर ...