@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 15 जून 2011

'हाँ' या 'ना' ... ? ... ? ... ?

जनता! 
ओ, जनता!!
तुम तो जानती ही हो, ये जनतंत्र है। हम हर पाँच बरस में तुम्हारे पास आते हैं। तुम्हारे लिए पलक पाँवड़े बिछाते हैं। घर-घर जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं, पाँव पड़ते हैं। किसी को दो रुपए किलो चावल दिलाते हैं। किसी को बिजली मुफ्त में। फिर भी कसर रह जाती है तो दारू की थैलियाँ बँटवाते हैं। कहीं कहीं तो नोट तक बाँट देते हैं। फिर वोट पड़ता है तो चुनाव आयोग की सारी पाबन्दियों के बाद भी तुम्हारे घर मोटर कार, जीप वगैरा भेज कर वोट के लिए ढो कर लाते हैं। घर से तुम्हें उठाने से ले कर वापस पहुँचाने तक का नाश्ते पानी का सारा जिम्मा उठाते हैं। भला ऐसा किसी और तंत्र में हो सकता था? इसी को जनतंत्र कहते हैं। इस से बड़ा और भला कोई जनतंत्र हो सकता है?
तुम तो अच्छी तरह जानती ही हो कि हम तुम्हारी चिरौरी करने के लिए क्या क्या नहीं करते? कुछ गलत लोग हैं जो तुम्हें बरगलाते हैं। वे किसी भी तरह तुम्हें चैन से नहीं जीने देना चाहते। हम जानते हैं कि तुम हमें ही चाहती हो। इस लिए वे तुम्हें वोट भी नहीं देने देना चाहते। इसी लिए जहाँ जहाँ वे ऐसा करने की नीयत रखते हैं, वहाँ वहाँ हम वोट की पेटी ले कर भाग निकलते थे और जहाँ जहाँ तुम ठप्पा मारना चाहती थी वहाँ तुम्हारी तरफ से हम ही ठप्पा मार कर पेटी वापस कर देते थे। कई जगह तो हम उन्हें वोट के तबेले तक पहुँचने ही नहीं देते। वे पहुँच जाते तो तुम्हें परेशान करते। हम ने तुम्हारी परेशानी दूर करने के लिए  क्या क्या इंतजाम नहीं किए? अब तुम्हें क्या बताना? तुम तो खुद ही सब जानती हो। 

ब देखो ना! ये लोग कितने बेहया हैं? तुमने हमें जिताया, जीतने वाले कम पड़े तो हमने कुछ और लोगों को पटाया। पर राज बनाया। हमने तुमसे वादा किया था कि पूरे पाँच साल टिकेंगे। तुमने रोशनी मांगी थी हम ने परमाणु समझौता कर के एटमी बिजली के कारखाने बनाने के लिए अपनी और देश की नाक कटवा कर भी समझौता किया। आखिर क्यों न करते? हमने रोशनी का वायदा जो किया था। वो बाईँ बाजू वाले बहुत पीछे पड़े। उन्हों ने तमाम घोड़े खोल लिए, दाएँ बाजू वालों से मिल गए, हमारे खिलाफ वोट दिया। लेकिन क्या हुआ? हम ने फिर भी अपने लिए वोट कबाड़ ही लिए। हमें कुछ भी करना पड़ा। पर तुम से किया वायदा निभाया। इस से बढ़िया और कौन हो सकता है? जो हर हाल में वायदा निभाए। 

ये कुछ नए लोग उग आए हैं। हमने बड़ी मुश्किल से तो एक महात्मा से निजात पायी थी। ये एक सफेद कुर्ता-धोती पहने एक और न जाने कहाँ से पैदा हो गया? तुम्हें बरगलाने को। बाप-बेटा वकील उन के साथ लग गए। एक पुलिस अधिकारिणी और कुछ और लोग साथ लग लिए। अब ये आठ दस लोग कर क्या सकते हैं। भूख हड़ताल कर के तुम्हें बरगलाना चाहते हैं। पहली बार तुम समझ नहीं पायी थी इन की हरकतें। वो इंटरनेट और मीडिया के चकमे में आ कर उन्हें महात्मा की टोली समझ कर उन के साथ लग गई थी।  हमें मजबूरी में मानना पड़ा कि जैसा वे कहते हैं वैसा कानून बनवा देंगे। देखो हमने वायदा निभाया, उन के साथ बैठकें करीं कि ना करीं। नहीं तो ऐसा कोई करता है। कोई तु्म्हारा चुना हुआ, कभी तु्म्हारे अलावा किसी के सामने घुटने टेकता है? हमने भी नहीं टेके। हम टिका देते तो अपमान होता, वह भी तुम्हारा। हम उसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। तुम चक्कर में मत आना इन के। ये तुम्हें कहीं का नहीं रखेंगे। हम ने भी कह दिया है कि हम तुम्हारे द्वारा चुनी हुई संसद और उस के द्वारा चुने हुए परधान मंत्री को और अदालतों के हाकमों को इस से अलग रखेंगे। अब हमने कह दिया तो कह दिया। अब झुकेंगे तो तुम्हारा अपमान हो जाएगा। तुमने हमें चुन कर जो भेजा है। हम ये कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?

क वो, केसरिया लंगोटी-अंगोछा पहने कसरतें सिखाता सिखाता तुम्हें सिखाने निकल गया। जैसे पहले के जमाने में जवानी बरकरार रखने की दवाएँ सड़क किनारे मजमा लगा कर बेचा करते थे। ऐसे मजमा लगाया। कुछ लोग उस के दवा ऐजेंट क्या बन गए कि सोचने लगा देश की हालत बदल देगा। आखिर हमारे होते वह ऐसा कैसे कर लेता। हमने क्या निपटाया उसे। दुनिया को मजबूत बनाने की नसीहत देने वाला बहुत कमजोर निकला। पहले तो इधर उधर से खबरें भेज कर उसे डराया, चिट्ठी लिखाई, तुम्हें बताई तो डर गया। जरा सी पुलिस देखी कि डर कर मंच से कूद कर भागा। कैसे भेस बदला? अब क्या बताएँ अपने मुख से बताते शर्म आती है। तुम्हें तो सब पता ही है। तुम ने तो सब लाइव देखा ही है। अब देखो आठ दिन में ही टें बोल गया। अस्पताल से छूटा तो लगता था बरसों से बीमार है। देखा हमने जोगी का जोग निकाल दिया। 

ब उस का जोग निकाला है, तो इस का भी निकाल देंगे। पहले तो हम समझते थे जोगी का हाल देख महात्मा मैदान छोड़ भागेगा। उस ने नाटक तो किया, पर भागा नहीं। फिर डट गया। पर डटने से क्या होता है? हम कोई ऐसे ही तो उस की बात नही मान लेंगे? हम भी उसे तपाएंगे। उसे माननी पड़ेगी हमारी बातें। हम ने उस की दुकान पर तलाशी लेने भेज दिया है अपनी टीम को। वैसे तो हमारे कानून ऐसे हैं कि कोई उन की कमी पूरी कर ही नहीं सकता। हम चाहें तो हर किसी को फँसा लें। लेकिन वहाँ अगर कुछ न भी मिला तो हमारी टीम वाले क्या कम हैं कुछ तो हेराफेरी कर के कुछ न कुछ तो निकाल ही देंगे। 

ये भी कोई बात हुई कि प्रधानमंत्री को भी दायरे में लाओ। हम ले भी आएँ। पर जिसे तुमने ही दायरे से बाहर कर दिया हो, उसे दायरे में कैसे ले आएँ। मान ली बात  कि सारी जमात को ट्रेन में टिकट ले कर सफर करना चाहिए।  पर कम से कम एक तो बिना टिकट होना ही चाहिए। ये क्या ट्रेन चलाने वाले ड्राइवर को भी टिकट लेना पड़ेगा क्या? हम ने उन से कह दिया है, या तो हमारी बात माननी पड़ेगी नहीं तो हम तुम्हारे-हमारे दोनो के फोटो मंत्रालय को भेज देंगे। मंत्रालय खुद फैसला कर लेगा। मंत्रालय में कोई और थोड़े ही बैठा है? वहाँ भी हम ही तो हैं। वह तो वैसा ही करेगा जैसा हम चाहेंगे। तो जनता देख लो। ये लोग तु्म्हारे नाम पर तुम्हारी पग़ड़ी उछालना चाहते हैं। पर हम ऐसा नहीं होने देंगे। पक्का वादा है तुमसे, हम मरते मर जाएंगे पर ऐसा नहीं होने देंगे। हम डरते हैं तो तुमसे ही डरते हैं, वो भी पाँच बरस में एक बार। अब बार बार डरना पड़े तो जनतंत्र कैसे चला पाएँगे? ये समझते ही नहीं पाँच बरस से पहले ही हमें वापस बुलाने का अधिकार चाहते हैं। पर ऐसा हम कैसे होने दे सकते हैं। हम तो पाँच बरस में एक बार तुम्हें कष्ट देते हैं वही बहुत है। हमारा बस चले तो जीते जी तुम्हें कष्ट दें ही नहीं। एक बार पूछ लिया वही क्या बहुत नहीं है, जीवन भर के लिए? अच्छा तो अब चलते हैं। फिर मिलेंगे। तुम तो तान खूँटी सोओ, आराम करो। ऐसे वैसों की सुनने की जरूरत ही नहीं है। 


(अब तुम्हें कैसे बताऊँ कि हमारी जान निकली जा रही है, कि ये सफेद टोपी वाला बुड्ढा ये न कह दे कि मतभेद के मुद्दों पर जनता से 'हाँ' या 'ना' में चुनाव [रेफरेंडम] करा लिया जाए)

शिवराम की कविता ... जब 'मैं' मरता है

शिवराम केवल सखा न थे। वे मेरे जैसे बहुत से लोगों के पथ प्रदर्शक, दिग्दर्शक भी थे। जब भी कोई ऐसा लमहा आता है, जब मन उद्विग्न होता है, कहीं असमंजस होता है। तब मैं उन की रचनाएँ पढ़ता हूँ। मुझे वहाँ राह दिखाई देती है। असमंजस का अंधेरा छँट जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ने उन की एक किताब उठाई और कविताएँ पढ़ने लगा। देखिए कैसे उन्हों ने अहम् के मरने को अभिव्यक्त किया है - 



'कविता'
जब 'मैं' मरता है*
  • शिवराम

हमें मारेंगी
हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएँ

पहले वे छीनेंगी
हमसे हमारे सब
फिर हम से 
हमें ही छीन लेंगी

बचेंगे सिर्फ मैं, मैं और मैं
'मैं' चाहे कितना ही अनोखा हो
कुल मिला कर होता है एक गुब्बारा
जैसे-जैसे फूलता जाता है
तनता जाता है
एक अवस्था में पहुँच कर 
फूट जाता है

रबर की चिंदियों की तरह
बिखर जाएंगे एक दिन
जो न उगती हैं न विकसती हैं
मिट्टी में मिल जाती हैं 
धीरे-धीरे

बच्चे रोते हैं
जब फूटता है उन का गुब्बारा
जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना


*शिवराम के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' से

शनिवार, 11 जून 2011

अब तो अंगोछा मेरा है

दालतों में अपने काम निपटा कर अपनी बैठक पर पहुँचा तो वहाँ एक जवान आदमी मेरे सहायक से बात कर रहा था। पैंट शर्ट पहनी हुई थी उस ने लेकिन गले में एक केसरिया रंग का गमछा डाल रखा था। वह सहायक से बात करने के बीच में कभी कभी उस से अपना पसीना पोंछ लेता था। केसरिया रंग के गमछे से पसीना पोंछना मुझे अजीब सा लगा। उधर बाहर सड़क पर पिछले चार दिनों से एक टेंट में बाबा रामदेव के अनुयायियों ने धरना लगा रखा है। वहाँ की दिनचर्या नियमित हो चली है। रात को तो इस टेंट में केवल तीन-चार लोग रह जाते हैं। उन का यहाँ रहना जरूरी भी है। वर्ना टेंट में जो कुछ मूल्यवान सामग्री मौजूद है उस की रक्षा कैसे हो? सुबह नौ बजे से लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। दस बजे तक वे दस पन्द्रह हो जाते हैं। फिर टेंट में ही यज्ञ आरंभ हो जाता है। लाउडस्पीकर से मंत्रपाठ की आवाज गूंजने लगती है। इस आवाज से दर्शक आकर्षित होने लगते हैं। सड़क के एक ओर अदालतें हैं और दूसरी ओर कलेक्ट्री, दिन भर लोगों की आवाजाही बनी रहती है। टेंट में आठ-दस कूलर लगे हैं इस लिए गर्मी से बचने को न्यायार्थी भी वहाँ जा बैठते हैं।  इस से दिन भर वहाँ बीस से पचास तक दर्शक  बने रहते हैं।
कोई आधे घंटे में यज्ञ संपूर्ण हो जाता है। इसे उन्हों ने सद्बुद्धि यज्ञ का नाम दिया है। यह किस की सद्बुद्धि के लिए है, यजमान की या किसी और की, यह स्पष्ट नहीं है। हाँ आज अखबार में यह खबर अवश्य है -"बाबा रामदेव व आचार्य बालकृष्ण के स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ सद्बुद्धि यज्ञ" यहाँ अखबार की मंशा का भी पता नहीं लग रहा है। खैर जिसे भी जरूरत हो उसे सद्बुद्धि आ जाए तो ठीक ही है। यज्ञ संपूर्ण होते ही कुछ लोगों के ललाट पर तिलक लगा कर मालाएँ पहना कर मंच पर बैठा दिया जाता है। ये लोग क्रमिक अनशन पर बैठते हैं। शाम को पांच बजे उन का अनशन समाप्त हो जाता है। लोग बिछड़ने लगते हैं। छह बजे तक वही चार-पाँच लोग टेंट में रह जाते हैं। दिन में कोई न कोई भाषण करता रहता है। इस से बहुत लोगों की भाषण-कब्ज को सकून मिलता है। भाषण दे कर टेंट से बाहर आते ही उन का मुखमंडल खिल उठता है और वे पूरे दिन प्रसन्न रहते हैं और अगले दिन सुबह अखबार में अपना नाम और चित्र तलाशते दिखाई देते हैं।   

सुबह दस बजे की चाय पी कर हम लौट रहे थे तो टेंट पर निगाह पड़ी। रात को तेज हवा, आंधी के साथ आधे घंटे बरसात हुई थी। कल तक तना हुआ टेंट आज सब तरफ से झूल रहा था। लगता है यदि किसी ने उसे ठीक से हिला दिया तो गिर पड़ेगा। सुबह का यज्ञ संपन्न हो चुका था। शाम तक के लिए लोग अनशन पर बिठा दिए गए थे। किसी तेजस्वी वक्ता का भाषण चल रहा था। किसी ने टेंट को तानने की कोशिश नहीं की थी, टेंट सप्लायर की प्रतीक्षा में। तभी एकनिष्ठता से संघ और भाजपा के समर्थक हमारे चाय मित्र ने हवा में सवाल उछाल दिया -आखिर ये नाटक कब तक चलता रहेगा?  मैं ने मजाक में कहा था -शायद नागपुर से फरमान जारी होने तक। उस ने मेरे इस जवाब पर त्यौरियाँ नहीं चढ़ाई, बल्कि कहा कि बात तो सही है। वह शायद संघ के पुराने अनुयायियों के स्थान पर नए-नए लोगों को इस तरह के आयोजनों में तरजीह पाने से चिंतित था।

मैं ने सहायक से बात कर रहे उस के मुवक्किल से पूछा -ये केसरिया अंगोछा किस का है, बजरंग दल या शिवसेना का?  वह हँस पड़ा, बोला- अब तो ये मेरा है, और पसीना पोंछने के काम आता है। मैं ने फिर सवाल किया -कोई और रंग का नहीं मिला? उस का कहना था कि उस के पैसे लगते, यह तो ऐसे ही एक जलूस में शामिल होने के पहले पहचान के तौर पर गले में लटकाए रखने के लिए आयोजकों ने दिया था। जलसे के बाद वापस लिया नहीं। अब इस का उपयोग पसीना पोंछने के लिए होता है? उस के उत्तर पर मुझ से भी मुस्काए बिना नहीं रहा गया। मैं ने इतना ही कहा कि ये केसरिया अंगोछा भ्रम पैदा करता है, पता ही नहीं लगता कि कौन सी सेना है, बजरंगी या बालासाहबी। अब तो संकट और बढ़ने वाला है बाबा ने सेना बनाने की ठान ली है, वहाँ भी ये ही अंगोछे नजर आने वाले हैं।

शुक्रवार, 10 जून 2011

उत्तमार्ध को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ!!!

३६ वर्ष का साथ कम नहीं होता, आपसी समझ विकसित करने के लिए। लेकिन पता नहीं क्यों? जैसे जैसे समय गुजरता जाता है, वैसे वैसे मतभेद के मुद्दे बदलते रहते हैं। साथ का ये ३६वाँ वर्ष तो बिलकुल वैसा ही था जैसे इन अंकों की शक्ल है। मतभेदों की चरम सीमा थी वह। शायद इन अंकों का ही प्रताप रहा हो। पर आपसी समझ भी ऐसी कि मतभेदों के बावजूद साथ गहरा होता गया।  जैसे ही अंक बदल कर ३७ हुआ कि मतभेद न्यूनतम स्तर पर आ गए। हालांकि अब ऐसा भी नहीं कि बरतन खड़कते न हों और आवाजें न होती हों। वे होती हैं, लेकिन शायद उतना होना यह सबूत पैदा करने के लिए भी जरूरी है कि हमारे बीच पति-पत्नी का वैधानिक रिश्ता कायम है।

मैं अपने बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे ऐसी जीवनसाथी मिली। न पहले की कोई जान पहचान, न देखा-दाखी। बस एक दूसरे के परिजनों ने तय किया और हमें बांध दिया गया, ऐसी मजबूत डोर से जो जीवन भर साथ निभाएगी। वह आज का वक्त होता तो ये बांधा जाना कानून की निगाह में अपराध होता। मैं बीस का भी नहीं और शोभा, सत्रह की हुई ही थी। पर तब यह सब अपराध नहीं था। मेरी तो बी.एससी. की परीक्षा हुई थी, एक प्रायोगिक परीक्षा शेष भी थी। समझता था, कि यह जल्दी सही नहीं, उसे टालने का अपनी बिसात भर प्रयत्न भी किया था, लेकिन तब कहाँ चल सकती थी, न चली। इतना संकोच था कि अपने सहपाठियों तक को बताया नहीं, बुलाया भी नहीं। केवल घनिष्ट मित्र ही साथ थे। बारात जैसे ट्रेन से वापस उतरी तो एक दम उस से अलग बुक स्टॉल पर जा खड़ा हुआ, पत्रिकाएँ देखने लगा। एक सहपाठी ने ट्रेन से उतरते देख पूछ भी लिया -कहाँ से आ रहे हो? मैं ने तपाक से उत्तर दिया था -बारात में गया था। उस ने घूंघट में दुल्हन को उतरते देखा तो फिर पूछा ये दुल्हन उसी बारात की दिखती है शायद। मैं ने उत्तर में हाँ कहा। सहपाठी जल्दी में था, सरक लिया और मुझे साँस में साँस आई। उस कॉलेज का अंतिम वर्ष था, उस से कई महिनों बाद मुलाकात हुई तो कहने लगा -शादी के मामले में भी हमें उल्लू बना दिया। 

दुल्हन का घूंघट मुझे कभी नहीं भाया। सप्ताह भर बाद ही जब हम बैलगाड़ी की सवारी करते हुए गाँव जा रहे थे, साथ में अम्मा भी थी, शोभा घूंघट लिए बैठी थी। मैं ने माँ से सवाल किया। जब मैं इस के साथ अकेला होता हूँ तो यह घूंघट में नहीं होती जब तुम्हारे साथ होती है तब भी नहीं। लेकिन जब हम दोनों सामने होते हैं तो घूंघट डाल लेती है और बोलती भी नहीं, क्यों? इस का कोई जवाब अम्मां के पास नहीं था। कम से कम अम्मां के सामने तो घूंघट से निजात मिली। परिवार में बाद में आने वाली बहुओं के लिए आसानी हो गई।

शादी के बाद शुरु हुआ प्रेम पनपने का सिलसिला। मैं कानून की पढ़ाई के लिए अक्सर शहर के बाहर रहता और शोभा वर्ष में कम से कम आधे समय अपने मायके में। मोबाइल तो मोबाइल टेलीफोन तक की सुविधा नहीं थी। बस डाक विभाग का सहारा था। हर सप्ताह कम से कम एक पत्र का आदान प्रदान अनिवार्य था। यूँ तीन-चार भी हुए कई सप्ताहों में। यूँ ही प्रेम गहराता गया और ऐसा रंग चढ़ा की कहा जा सकता है, चढ़े न दूजो रंग। कानून की पढ़ाई पूरी हुई। एक वर्ष बाद ही वकालत के लिए गृह नगर छो़ड़ कर तब के जिला मुख्यालय आ गया। वकालत में स्थापित होने के संघर्ष का दौर। आमदनी में खर्च चलाने की विवशता। फिर बच्चे हुए, घर में चहल पहल ह गई, रहने के मकान भी बना। बच्चे बड़े हुए तो अध्ययन के लिए बाहर चले गए। अध्ययन पूरा हुआ तो रोजगार ने उन्हें घर न टिकने दिया। एक उत्तर में तो दूसरे को दक्षिण जाना पड़ा। वे आते हैं तो बरसात की बदली की तरह। हमारे जीवन में कुछ नमी बढ़ा जाते हैं और चल देते हैं। साथ फिर हम दोनों ही रह जाते हैं। इस बीच कोई समय ऐसा नहीं था जब  बावजूद तमाम मतभेदों के हम दोनों मुसीबत और उल्लास के मौके पर साथ नहीं रहे हों। हमारे बीच मतभेद अब भी हैं, उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर न सुलझाए जा सकेंगे, लेकिन साथ तब भी बना रहेगा। शायद यही सहअस्तित्व का सब से अनुपम उदाहरण है।  अब तो लगता ही नहीं हैं कि हम दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। लगता है दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिल कर ही एक हैं।    

प सोच रहे होंगे कि आज ऐसा क्या है जो मैं अपनी उत्तमार्ध शोभा का उल्लेख इस तरह कर रहा हूँ? ... तो बता ही देता हूँ। आज उस का जन्मदिन है। उसे जन्म दिन की बधाई और असंख्य शुभकामनाएँ!!! हमारा साथ ऐसा ही बना रहे।

बुधवार, 8 जून 2011

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

कुमार शिव
नवरत पर आप ने कुमार शिव की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। उन के गीतों, ग़ज़लों और कविताओं में रूमानियत का रंग सदैव दिखाई देता है। सही बात तो यह है कि बिना रूमानियत के कोई नया काम संभव ही नहीं। यहाँ तक कि रूमानियत से भरी रचनाओं को अनेक अर्थों के साथ समझा जा सकता है। भक्ति काल का सारा काव्य रूमानियत से भरा पड़ा है। निर्गुणपंथी कबीर की रचनाओं में  हमेशा रूमानियत देखी जा सकती है। यह रूमानियत ही है जो उन्हें परिवर्तनकामी बनाती है। कुमार शिव की ऐसी ही एक ग़ज़ल यहाँ प्रस्तुत है ...


सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

  •  कुमार शिव

आँसुओं का हिसाब भेजा है
उस ने ख़त का जवाब भेजा है

जिस को मैं जागते हुए देखूँ

उस ने कैसा ये ख़्वाब भेजा है

 
तीरगी दिल की हो गई रोशन
ख़त नहीं आफ़ताब भेजा है

खुशबुओं के सफेद कागज पर

हुस्न को बेनक़ाब भेजा है

होठ चस्पा किए हैं हर्फों पर

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है।












नुमाइशों का मौसम

तीन जून को मुझे अनपेक्षित भाग-दौड़ करनी पड़ी थी। इसलिए चार जून की सुबह मेरे लिए थकान भरी थी, मैं ने अपनी वकालत वाली डायरी पर सुबह ही नजर डाली, चार जून के पन्ने पर कोई मुकदमा दर्ज नहीं था। मेरा अदालत जाने का मन भी नहीं था। मैं उस दिन आराम से तैयार हुआ था। यह वही दिन था जब रामलीला मैदान दिल्ली में बाबा रामदेव अपने हजारों समर्थकों के साथ अनशन आरम्भ करने वाले थे। घोषणा यह भी थी कि देश भर में सभी स्थानों पर उन के समर्थक अनशन करेंगे। कोटा में भी कलेक्ट्री के बाहर सड़क के किनारे अनशन करने वाले थे। दोपहर होने के करीब अपने दफ्तर में आ कर काम करने बैठा तो मन हुआ कि अदालत जा कर मित्रों के साथ कॉफी पी जाए और बाबा का मजमा भी देख लिया जाए। दुबारा डायरी देखी तो पता लगा कि आज तो प्रताप जयन्ती है और अवकाश है। मेरा मन फिर वापस हो गया। मैं छह तारीख को सुबह ही अदालत पहुँचा।   यहाँ कोटा में स्टेशन जाने वाली सड़क के एक और कलेक्ट्री है और दूसरी ओर अदालतें। कुछ अदालतें कलेक्ट्री बिल्डिंग में भी हैं। हम वकीलों को दिन में कई बार इस सड़क को पार करना होता है। कलेक्ट्री की बाउंड्री से लगी हुई सड़क किनारे का स्थान अनेक वर्षों से प्रदर्शनकारियों और धरना आदि देने वालों के लिए आरक्षित सा हो चुका है और वहाँ सप्ताह में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब कोई न कोई शामियाना न तना हो। ये  शामियाने रोज अदालत जाने वाले लोगों के लिए इतने आम हो चुके हैं कि उन पर उड़ती हुई सी निगाह पड़ जाए तो पड़ जाए वर्ना हम लोगों को दूसरे दिन के अखबार से ही पता लगता है कि किस ने धरना दिया था। 

ह जून की सुबह नौ बजे मैं अदालत पहुँचा तो अपना काम देखा, जरूरी काम आधे घंटे में निपटा लिया। पौने दस बजे नियमित चाय पर चला गया। वहाँ से लौटा और शेष काम के लिए कलेक्ट्री बिल्डिंग की और चला तो निहायत खूबसूरती से सजाए गए शामियाने पर बरबस निगाह पड़ गयी। शामियाने में वे सभी चित्र सजाए हुए थे जो अक्सर संघ और संघ परिवार वाले अपने जलसों और कार्यालयों में सजाए रहते हैं। अंदर देखा तो कुछ योग प्रेमियों के अलावा वही संघ परिवार के घिसे-पिटे चेहरे नजर आए। शामियाने के चारों और आठ दस बड़े आकार के कूलर लगे थे और इतनी हवा फैंक रहे थे कि उन से निकली हवा के सिवा दूसरी हवा शामियाने में प्रवेश न कर सके। एक और मंच सजा हुआ था। नीचे बैठने को गद्दे लगे थे जिन पर सफेद चादरें बिछी थीं। शामियाने के बाहर एक कोने पर शीतल पेय जल की बड़ी बड़ी वैसी ही बोतलें रखी थीं जैसी अक्सर आज कल मध्य और उच्च मध्यवर्गीय विवाहों के भोज स्थल पर रखी होती हैं। पास ही डिस्पोजेबुल गिलास रखे थे। यदि किसी को चार गिलास पानी पीना हो तो आराम से चार डिस्पोजेबुल गिलासों का उपयोग कर सकता था। मैं सोच रहा था कि कलेक्ट्री और अदालत परिसर में तपती रोहिणी की भीषण गर्मी का दिन बिताने के लिए इस से उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता है। 
शामियाने के अंदर जोर-शोर से भाषण चल रहे थे। सरकार और कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसा जा रहा था। वक्ताओं का अंदाज वही पुराना भाजपा ब्रांड था। मुझे उस में कोई नयापन नजर न आया। भाषणों में न भ्रष्टाचार मिटाने की बात थी और न तथाकथित व्यवस्था परिवर्तन की। बस कांग्रेस सरकार को विदा करने की बात पर जोर दिया जा रहा था। मैं अपने काम पर चल दिया। दोपहर बाद जब काम निपट गया और मित्र गण आपस में बैठे तो चर्चा यह भी रही कि आज घर चलने के स्थान पर शामियाने की ठंडक का आनन्द लिया जाए। पर बहुमत की राय यह थी कि इन उबाऊ और आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले भाषणों को कौन झेलेगा? हम टीन के तपते चद्दरों के नीचे बैठ कर गर्म कॉफी के कुछ घूँट हलक के  नीचे उतारते हुए आधे घंटे बतियाते रहे और फिर घर लौट आए। 

सात जून की सुबह जब मैं घर से निकला तब तक बाबा सरकार को पिछले चार दिनों के करम के लिए माफ कर चुके थे। उन का कहना था "प्रधानमंत्री ने उन घटनाओं को दुर्भाग्यपूर्ण माना है जिस से पता लगता है कि उन्हों ने अपना पाप स्वीकार कर लिया है। जब उन्हों ने अपना पाप स्वीकार कर लिया तो हम ने उन का पाप माफ कर दिया।" शायद बाबा अब भी केन्द्र सरकार से कुछ बेहतर समझौता करने का मार्ग बना रहे थे। मैं ने अदालत जाते ही सब को बताया कि बाबा का ताजा स्टेंड क्या है। इस दिन उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश नगर में थे और तमाम जजों की क्लास लगाए बैठे थे कि कैसे मामलों को समझौते के माध्यम से निपटा कर न्यायालयों के बोझे को कम किया जाए? सारी अदालतें खाली थीं। आवश्यक काम तक लंबित हो रहे थे। उन का सहयोग करने के लिए अभिभाषक परिषद ने साढ़े नौ बजे से काम स्थगित करने की घोषणा कर दी थी। हालांकि उस का कारण ये बताया गया था कि आज वकील बाबा के समर्थन में धरने को आबाद करेंगे। मेरा शामियाने के नजदीक से निकलना हुआ तो एक वकील महोदय अपने बैठे गले से जोरदार भाषण दे रहे थे। लगता था जैसे इस बार केंद्र सरकार से कांग्रेस को बाहर कर देने के बाद ही उन का गला दुरुस्त होगा।  

धर एक जलूस आया और ठीक कलेक्ट्री के गेट पर एक पुतला जला कर चला गया। जिस में कुछ फटाखे चले और पूरी कलेक्ट्री और अदालत परिसरों में मौजूद लोगों को अपने अपने स्थान पर ही पता लग गया कि किसी का पुतला जलाया गया है। कोई घंटे भर में चार-पाँच अलग-अलग संगठनों ने एक-एक पुतला जला दिया। इतनी ही बार पटाखे चले। उस खूबसूरत शामियाने के नजदीक ही कुछ और शामियाने भी तने थे। मकसद एक ही था। पर अलग शामियाने की जरूरत इसलिए महसूस की गई होगी कि लोग यह न समझ ले हर नुमायश में लगने वाली वे पुरानी दुकानें अब बंद हो चुकी है।  कुछ दुकानों के बारे में तो लोगों की इसी तरह की बन चुकी धारणा चकनाचूर हो गई थी और लगने लगा था कि नुमाइशों का मौसम फिर से आरंभ हो गया है।

मंगलवार, 7 जून 2011

सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा?

जमा अच्छा लगाया गया था। हर काम लाजवाब था। बड़ा मैदान बुक था, योग शिक्षा के लिए। वहीं अनशन होना था। वायु मार्ग से बाबा राजधानी पहुँचे। सत्ता के चार-चार नवरत्नों ने अगवानी की। बहुत मनाया। पर कसर रह गई। पाँच सितारा में फिर मनौवल चली। क्या बात हुई? क्या सहमति बनी किसी को नहीं बताया। बताया तो सिर्फ इतना कि अनशन होगा। अनशन हुआ तो दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर फोन घनघनाते रहे। शाम को जय हो गई। सत्ता ने ज्यादातर मांगे मान ली हैं। शामियाना उल्लास से भर गया। तब सत्ता ने बताया कि जय तो कल ही हो गई थी। बाबा ने दोपहर तक अनशन और दो दिन तप करने का वायदा किया था। वायदा नहीं निभाया। लिखित चिट्ठी पढ़ दी गई। बाबा बैक फुट पर आ गए। संफाई पर सफाई देते रहे। कहते रहे -सत्ता ने उन के साथ धोखा किया। बाबा के सिर मुंढाते ही ओले पड़े। बाबा ने जनता का विश्वास खोया। बाबा ने को राजनीति का पहला सबक मिला। सत्ता के विश्वास से जनता का विश्वास बड़ा है। उसे जीतने की जल्दी में अनशन पर डट गए। जनता का  विश्वास तो जा ही चुका था। अब सत्ता का विश्वास भी गया।

नता जब विश्वास करती है तो आँख मूंद कर करती है। लेकिन जब उस का विश्वास टूटता है तो फिर से वापस वह विश्वास करे। यह आसान नहीं है। जनता का विश्वास हटते ही, सत्ता ने अपनी नंगई दिखाई। आधी रात के बाद हमला हुआ। पुलिस बाबा तक पहुँचे उस से पहले ही बाबा जनता के बीच कूद पड़े। पर देर हो चुकी थी। जनता भी घिरी पड़ी थी। कितना ही प्रयास किया। कपड़े बदले, वेष बदले पर पकड़े गए और सत्ता ने उन्हें उसी बदले वेष में राजधानी के बाहर कर दिया। सरकार के इस बेवकूफी और बर्बर तरीके की आलोचना आरंभ हो गई। जो जो सरकार से खार खाए बैठा था। वही उस के खिलाफ बोलने लगा। बाबा समझे उनको समर्थन है। वे राजधानी के अंदर नहीं तो परकोटे के बाहर बैठने चले। पर जिस ने जनता का विश्वास खोया, जिस ने सत्ता का विश्वास खोया। उसे कोई कैसे पनाह दे? सो बाबा वापस अपने घर लौटा दिए गए। अब वे वापस विश्वास जीतने बैठे हैं। लेकिन दुबारा विश्वास जीत पाएंगे या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा। यह सब से बड़ा योग है जिसे बाबा को अभी सीखना शेष है। 

रकार सिर्फ अपने आकाओं की सगी होती है। लेकिन आका तभी तक उसे पालते हैं जब तक वह जनता को भ्रम में रख पाती है। जनता के विश्वास को झटका देते ही सरकार ने बाबा पर हमला बोला। वह भी इस बेवकूफी के साथ कि बाबा के साथ-साथ जनता भी चपेट में आई। सरकार कहती है कि बाबा ने वादा तोड़ा। योगकक्षा के लिए अनुमति ले कर अनशन किया। अनुमति रद्द कर दी। उन्हें हटाना जरूरी था। हम मान सकते हैं कि उन्हें हटाना जरूरी था। लेकिन वहाँ इकट्ठे लोगों का क्या कसूर था? या तो वे योग कक्षा में आए थे, या फिर अनशन पर बैठने, या फिर दिन भर की पगार कमाने। उन पर लाठी की जरूरत क्या थी। उस के पास  दिल्ली और केंद्रीय सत्ता की ताकत थी। पाँच हजार जवानों ने मैदान को घेरा था। अंदर निहत्थे लोग थे, बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे। क्या जरूरत थी उन्हें जबरन वहाँ से हटाने की? आप के पास माइक भी जरूर रहे होंगे। आप के पास निकट ही सैंकड़ों बसें भी खड़ी थीं। उन्हें भी लगाया जा सकता था। घेरने के बाद यह घोषणा भी की जा सकती थी कि रामलीला मैदान का जमाव अवैध घोषित कर दिया गया है। वहाँ आयोजन की अनुमति रद्द कर दी गई है। सब वहाँ से हट जाएँ। सरकार ने उन्हें वापस उन के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी है। जो स्टेशन जाना चाहे स्टेशन तक पहुँचाया जाएगा। जो बस स्टेंड जाना चाहे उसे बस स्टेंड पहुँचाया जाएगा। जब तक लोगों के घर जाने का साधन न हो जाए तब तक उन के ठहरने खाने की व्यवस्था कर दी गई है। घिरे हुए लोगों को समय देते कुछ सोचने का। निहत्थे बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे क्या कर लेते? 

र सरकार ने जनतंत्र का पाठ सीखा ही कहाँ है? तिरेसठ सालों में भी अंग्रेजों की विरासत ही ढोई जा रही है। उन्हीं का मार्ग नजर आता है। सरकार को जनता चार बरस तक कहाँ दिखाई देती है? वह तो सिर्फ चुनाव के साल में नजर आती है। सरकार को सिर्फ बाबा दिखाई दिए। उन को हवाई जहाज में बिठा कर उन के घर पहुँचाया। जनता दिखाई देती तो उसे पहुँचाते। सरकार सोचती है कि जनता में दिमाग नहीं होता। वह कभी सोचती नहीं। लेकिन वह सोचती भी है और जब वक्त आता है तो कर भी गुजरती है। जनता तो उस के पीछे जाएगी जो उस की बात करेगा और जो विश्वसनीय होगा। वह धोखा खाएगी तो फिर नया तलाश लेगी। लेकिन वह सोचेगी भी और करेगी भी। कोई विश्वास के काबिल न मिला तो अपने अंदर से पैदा कर लेगी। जब वह अपने अंदर से अपना नेता पैदा कर लेगी तब? सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा? देर भले ही हो, पर किसी दिन यह जरूर होगा।