@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 4 सितंबर 2010

एक पड़ाव यह भी.......

ज उम्र का वही पड़ाव है जिस पर आ कर पिता जी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए थे। सेवानिवृत्ति के अगले दिन से ही सेवानिवृत्ति की आयु तीन वर्ष बढ़ा दी गई थी। पर उन्हें कोई अफसोस नहीं था। वे प्रसन्न  थे कि उन्हें नौकरी से छुटकारा मिल गया है। जितनी उन्हें पेंशन मिली थी और जितना उन्हें ग्रेच्यूटी और भविष्यनिधि से मिली राशि के उपयोग से वे आय कर सकते थे वह उन के वेतन से कुछ ही कम थी। इस में भी नौकरी के स्थान पर किराए के मकान और आने जाने आदि में जो खर्च होता था वह बच गया था। कुल मिला कर उन की आय उतनी ही थी और नौकरी से पीछा छूटा था। वे बहुत प्रसन्न थे। उन पर तीन बेटों को योग्य बनाने और उन के विवाह की जिम्मेदारियाँ शेष थी। वे घर लौटे, लेकिन तब तक मैं घर छो़ड़ चुका था। कोटा आ कर वकालत करने लगा था। उन को घर पर मेरी अनुपस्थिति अवश्य अखरी थी। घर लौट कर उन्हों ने अपने स्वभाव के अनुसार चर्या आरंभ कर दी। सुबह उठना अंधेरे ही स्नानादि से निवृत्त हो मंदिर जा कर छोटे भाई की मदद करना। लौट कर आते कुछ पढ़ने लगते। फिर दस बजे मंदिर जा कर कथा पढ़ना। फिर भोजन और विश्राम। शाम को घूमने निकलना और अपने मित्रों के साथ उठना बैठना शाम घर लौट कर बच्चों की पढ़ाई का ख्याल करना। नगर में अधिकांश वयस्क उन के शिष्य थे। उन्हें पता लगा कि गुरुजी सेवा निवृत्त हो कर घर आ गए हैं तो अपनी बेटियों को ट्यूशन पढ़ाने का आग्रह करने लगे। जल्दी ही सुबह की कथा के पहले और बाद दो कक्षाएँ लड़कियों की लगने लगीं। घर में बेटियों की रौनक होने लगी। शाम के समय उन के पास लोग सलाह के लिए आने लगे। वे यह सब जीवन पर्यंत करते रहे। जिस रात उन्हों ने विदा ली उस से अगली सुबह पढ़ने आई बेटियों को वहीं आ कर पता लगा कि वे विदा ले चुके हैं। 
मेरे पास अपने पेशे से निवृत्ति का अवसर नहीं है। कहते हैं वकील की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वह युवा होता जाता है। पचपन का हो कर मैं अपने को बचपन में लौटा महसूस कर रहा हूँ। जिस के सामने पहाड़ जैसी दुनिया खड़ी होती है, ढेर सारी चुनौतियाँ होती हैं। वह उन से जूझने की तैयारी कर रहा होता है। मेरे लिए अभी अपनी सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों से जूझना शेष है। लगता है अभी जीवन आरंभ ही हुआ है। ठान बैठा हूँ कि जितनी क्षमता होगी काम करता रहूंगा बिना प्रतिफल की आशा के जैसा अब तक किया है। इस विश्वास के साथ कि ऐसे में कभी बचपना हो जाए तो इस पचपन पार को मित्रगण अवश्य क्षमा कर देंगे।
मित्रों के संदेश आरंभ हो चुके हैं। पाबला जी, उन के सुपुत्र गुरुप्रीत फुनिया चुके हैं, हाशमी साहब का बधाई ई-पत्र मिला है, और बहुत दिनों बाद अनिता जी के मेल में सिर्फ बधाई! लगता है कुछ नाराज हैं वे। अब दीदी से मैं तो नाराज हो नहीं सकता, और संदेश आ रहे हैं। मैं बहुत खुश हूँ, वैसा ही जैसा पचास बरस पहले कैमरे वाले चाचा चम्पाराम जी के इस अवसर पर आ कर एक फोटो अपने कैमरे में कैद कर लेने पर खुश होता था। सभी मित्रों को जो बधाई दे चुके हैं, धन्यवाद और उन्हें भी जो देने वाले हैं, अग्रिम धन्यवाद!!!

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

जन्माष्टमी दो दिन क्यों? जानें, चंद्रकलाएँ , तिथि, दिनमान और रात्रिमान .........

ल यह तलाशते हुए कि जन्माष्टमी आखिर दो क्यों? हम चांद्रमासों को जानने लगे थे। हम ने जितने भी चांद्र मासों को जाना उन सब का कोई न कोई वैज्ञानिक आधार था। लेकिन आम लोगों के लिए तो इन सब तरह के चांद्रमासों को जानना आसान नहीं है। वे तो चंद्रमा को पूर्ण होता हुआ, फिर उसे घटता और गायब होता हुआ और फिर नये चंद्रमा को देखते हैं। सदियों से चंद्र-कलाओं से  ही वे अपने रोजमर्रा के कामों और आध्यात्मिक जीवन को जोड़ते आए हैं। चंद्र और उस की कलाएँ आम जनजीवन से अभिन्न रूप से जुड़ी हैं। यही कारण है कि साइनोडिक या संयुति मास ही दुनिया भर में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस मास की अवधि 29.53059 दिनों की है। इसी कारण से इसे पूर्ण संख्या में तीस दिनों का मान लिया गया है। लेकिन एक मास तीस दिनों का होने पर अगला मास ही उन्तीस दिनों का हो जाता है। भारतीय पद्धति में इसी कारण चंद्रमा की तीस कलाओं की कल्पना की गई है। ये तीस कलाएँ चंद्रमा के दृष्य आकार को प्रकट करती हैं। चंद्रमा की कक्षा दीर्घवृत्ताकार होने से एक एक कला की अवधि में भिन्नता होती है। इस का कारण कभी चंद्रमा पृथ्वी से दूर होना और कभी पास होना है। प्रत्येक कला के आरंभ और समाप्त होने की अवधि को एक तिथि माना है। नीचे के चित्र में चंद्रमा की 29 कलाएँ देखी जा सकती हैं। इस में से तीसवीं कला गायब है यह वह कला है जिसे हम अमावस्या कहते हैं और इस दिन चंद्रमा दिखाई नहीं देता है।5
ये कलाएँ अमावस्या के बाद की प्रतिपदा से आरंभ हो कर अमावस तक की हैं। यदि हम देखें तो शुक्ल प्रतिपदा और कृष्ण चतुर्दशी की कलाएँ एक समान हैं। इस तरह चौदह कलाएँ एक जैसी हैं और दो कलाएँ पूर्णिमा और अमावस की मिला कर कुल सोलह कलाएँ हैं। यहीं से सोलह कलाएँ जानने वाले को संपूर्ण व्यक्ति माना जाने लगा है। खैर, एक कला में चंद्रमा जितनी देर रहता है वह एक तिथि हुई। अब यह कला दिवस के किसी भी भाग से आरंभ हो सकती है। इस कारण से किस दिन कौन सी तिथि कही जाए यह समस्या है। लेकिन इस समस्या का समाधान किया गया। दिवस का अर्थ है एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक का समय। इस तरह दिवस सूर्योदय से आरंभ होता है। इसे हमने 60 घटी या 24 घंटों में बांटा है। फिर घटी को पल और विपलों में तथा घंटों को मिनट और सैकंडों में बांटा है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को दिनमान कहा गया है और सूर्यास्त से सूर्योदय तक के समय को रात्रिमान। इसी तरह एक कला के आरंभ से अगली कला के आरंभ तक के समय को तिथिमान कहा गया है। तिथि के संबंध में समाधान यह किया गया है कि सूर्योदय के समय जो भी तिथि होगी वही पूरे दिवस की अर्थात अगले सूर्योदय तक की तिथि मानी जाएगी। इस तरह हो सकता है कोई तिथि सूर्योदय के ठीक दो मिनट बाद समाप्त हो जाए और अगली तिथि आरंभ हो जाए लेकिन अगले सू्योदय तक वही तिथि मानी जाएगी। इस तरह जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में होगा उस दिन वही तिथि मानी जाएगी। जैसे कल का सूर्योदय सप्तमी तिथि में हुआ था तो आज के सूर्योदय के पूर्व तक सप्तमी तिथि मानी गई, आज का सूर्योदय अष्टमी तिथि में उदय हुआ है तो कल सुबह के सूर्योदय के पहले तक अष्टमी तिथि ही मानी जाएगी।
तिथियों के मामले में एक बात और देखने को मिलती है। साइनोडिक या संयुति चांद्रमास 29.53059 दिनों का ही होता है। जब कि कलाएँ और तिथियाँ तीस हो जाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि किसी माह में तीस तिथियों में सूर्योदय हो सकते हैं और बारह चांद्रमासों में कुल 354.36708 दिन होंगे। जब कि तिथियां 360 हो जाएंगी। इस तरह वर्ष में कम से कम पाँच तिथियाँ तो ऐसी होंगी ही जिन में सूर्योदय नहीं होंगे। यह संख्या बढ़ भी सकती है। क्यों कि कभी तिथिमान 24 घंटों से अधिक का भी हो जाता है और दो सूर्योदय एक ही तिथि में हो सकते हैं। तब एक वर्ष में जितनी बार एक तिथि में दो सूर्योदय होंगे। उतनी ही तिथियों में और सूर्योदय नहीं हो सकेंगे। लेकिन यह माना गया है कि जिस तिथि में सूर्योदय होगा अगले सूर्योदय तक वही तिथि मानी जाएगी। इस कारण से जिन लगातार दो दिनों के सूर्योदय एक ही तिथि में हो रहे हैं उन दो दिनों को एक ही तिथि मानी जाएगी। इस तरह किसी मास में दो दिनों तक एक ही तिथि रहेगी। हम इसी कारण से दो दो दिनों तक एक ही तिथि मानते हैं। दो एकादशी और दो चतुर्दशी हो जाती हैं। जिन तिथियों में कोई सूर्योदय नहीं होता है उसे क्षय तिथि माना जाता है। अर्थात वह तिथि उस माह किसी भी दिन को आवंटित नहीं होगी।
तिथियों, कलाओं आदि का यह प्रकरण तो हम आगे भी चला सकते हैं। आज हम जन्माष्टमी की बात करें। कृष्ण के लिए प्राचीन पुस्तकों में उल्लेख हुआ है कि उन का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अर्धरात्रि को हुआ था। अब हमारी मान्यता के अनुसार यह हो सकता है कि उस दिन अष्टमी सुबह सूर्योदय के उपरांत केवल 30 पल अर्थात आधी घटी ही रही हो। फिर भी उस दिन को अष्टमी ही कहा गया होगा और जब कृष्ण का जन्म हुआ तब नवमी तिथि चल रही होगी। इस मामले में कुछ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि कृष्ण जन्म के समय कौन सी तिथि चल रही थी। इस कारण से हम कृष्ण जन्माष्टमी मनाते समय उस दिन ही मनाएंगे जिस दिन का सूर्योदय अष्टमी तिथि में हुआ हो न कि सप्तमी तिथि में जब कि अर्धरात्रि को अष्टमी आ गई हो। लेकिन यह विवरण भी मिलता है कि कृष्ण जन्म के समय रोहिणी नक्षत्र चल रहा था। इस कारण से कुछ संप्रदाय यह मानते हैं कि जिस दिन अर्ध रात्रि को रोहिणी नक्षत्र पड़ रहा हो और अष्टमी तिथि भी आरंभ हो चुकी हो उस दिन कृष्ण जन्माष्टमी मनाना चाहिए। इस तरह नक्षत्र और तिथिमान में जन्म समय आ जाने पर जन्माष्टमी मनाने की बात करने वाले संप्रदायों को मानने वालों की संख्या अत्यल्प है। यही कारण है कि कल जन्माष्टमी मनाने वालों की संख्या कम रही और सारा देश आज ही कृष्ण जन्माष्टमी मना रहा है।
ल की पोस्ट पर अभिषेक ओझा की टिप्पणी में कहा गया कि हम कब जन्माष्टमी मनाएँ? तो मुझे भी सोचना पड़ गया, वे आजकल संयुक्त राज्य में है। तब मैं ने उन्हें उत्तर दिया कि आप के यहाँ जब 1 सितंबर का सूर्योदय हुआ तो अष्टमी तिथि आरंभ हो चुकी थी इस कारण से आप को तो जन्माष्टमी 1 सितंबर में ही मनानी चाहिए। सौभाग्य यह कि 1 सितंबर की अर्धरात्रि तक यूएस में अष्टमी बनी रही। तो वहाँ एक सितंबर में ही जन्माष्टमी मनाना उचित था। कनाडा से समीर भाई ने भी यही समाचार दिया है कि उन्हों ने एक सितंबर में ही जन्माष्टमी मना ली है। इस से एक निष्कर्ष और यह भी निकला कि किस दिन कौन सी तिथि होनी चाहिए यह पृथ्वी पर हर देशांतर पर अलग अलग तय होगा।

जय कन्हैया लाल की!          जय नंद किशोर की!!            जय जसोदा नंदन की!!!

बुधवार, 1 सितंबर 2010

जन्माष्टमी आज या कल ? //// कितनी तरह के चांद्रमास ?

कुछ लोग आज कृष्ण जन्माष्टमी मना रहे हैं। कुछ लोग कल मनाएंगे। इस विविधता को ले कर कई लोगों के मन में हिन्दू परंपराओं को ले कर प्रश्न खड़े होते हैं, कि आखिर हम एक बड़े पर्व को मनाने के लिए भी क्यों नहीं एकमत हो सकते? पर यह प्रश्न इतना आसान नहीं है। वैसे तो इस्लाम के अनेक फिरके हैं। वहाँ भी ईद मनाने को ले कर विवाद खड़े होते रहे हैं। दाऊदी समुदाय कलेंडर के हिसाब से ईद मनाता है लेकिन अन्य फिरके चांद देख कर ही ईद का निश्चय करते हैं। चांद यदि माह के 29वें दिन दिखाई दे गया तो माह 29 दिन का हुआ अन्यथा वह 30 दिन का तो होगा ही। यदि रमजान के 29वें दिन चांद दिखाई दे गया तो अगले दिन ईद हो जाती है। वरना उस से अगले दिन तो होगी ही। यही कारण है कि अगले दिन चांद देखने की उत्सुकता भी वहीं समाप्त हो जाती है। कुछ पक्के ईमान वाले लोगों की गवाही पर काजी जी या इमाम ईद की घोषणा कर देते हैं। ............
भारतीय परंपरा के त्योहारों का मामला कुछ अलग है। जहाँ तक भारतीय तिथियोंका प्रश्न है वे चंद्रमा की कलाओं से निर्धारित होती हैं। प्रथम पक्ष की 15 तिथियाँ और द्वितीय पक्ष की 15 तिथियाँ। लेकिन चंद्रमा का एक माह अर्थात एक चांद्रमास कितने ही प्रकार के हो सकते हैं। 
1. नोडल-मास या ड्रेकोनियन-मास -हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य की और चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। इस तरह दोनों की अपनी कक्षाएँ हैं लेकिन इन कक्षाओं की स्थिति में लगभग 15 डिग्री का अंतर है और चंद्रमा की कक्षा दो स्थानों पर पृथ्वी की कक्षा को काटती है इन्हें अंग्रेजी में नोड कहते हैं। एक नोड से यात्रा आरंभ कर उसी नोड पर पुनः पहुँचने में लगने वाले समंय को हम एक चांद्र मास कह सकते हैं। यह चांद्रमास नोडल-मास या ड्रेकोनियन-मास कहलाता है।  यह 27.21222 दिनों का होता है। 
2. ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय मास - हम जानते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस के घूमने की एक दिशा है। साथ ही वह सूर्य के भी वर्ष में एक चक्कर लगाती है। हमें आकाशीय पृष्ठभूमि में सूर्य वर्ष में पृथ्वी का एक चक्कर लगाता हुआ जान पड़ता है। इस तरह वर्ष भर में जिस वृत्त में सूर्य पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ दिखाई देता है उसे हम क्रांतिवृत्त कहते हैं। पूरे वर्ष में दो बार ऐसा होता है कि जब पृथ्वी की विषुवत रेखा से हो कर यह क्रांतिवत्त गुजरता है। इन्हीं बिन्दुओं को हम विषुव कहते हैं। तथा मार्च माह में पड़ने वाले विषुव बिन्दु को ही पाश्चात्य ज्योतिष में मेष राशि का प्रस्थान बिंदु माना है। इस तरह क्रांतिवृत्त के किसी भी बिंदु से वापस उसी बिंदु तक चंद्रमा की एक यात्रा में लगा समय ट्रॉपिकल या उष्णकटिबंधीय मास कहलाता है। यह 27.3215 दिनों का होता है।  
3. साइडरियल या नाक्षत्र मास - खगोल में हम ग्रहों और उपग्रहों की गतियों की गणना के लिए नक्षत्रों को स्थिर मानते हैं। वस्तुतः ये तारे होते हैं। किसी एक तारे से उसी तारे तक की चंद्रमा की एक यात्रा में लगने वाले समय को हम साइडरियल या नाक्षत्र मास कहते हैं। यह 27.32166 दिनों का होता है।
4. एनोमेलिस्टिक या सामीप्य मास - हम जानते हैं की चंद्रमा की पृथ्वी के गिर्द चक्कर लगाने की कक्षा लगभग वृत्तीय है लेकिन पूरी तरह से नहीं। वह भी दीर्घवृत्तीय ही है। इस का नतीजा यह होता है कि चंद्रमा कभी पृथ्वी के निकटतम होता है और कभी अधिकतम दूरी पर होता है। इस कक्षा के उस बिंदु से जिस पर चंद्रमा पृथ्वी के सब से निकट होता है वापस उसी बिंदु तक लौटने की चंद्रमा की एक यात्रा में व्यतीत समय को हम एनोमेलिस्टिक मास कहते हैं। हम इसे सामीप्य मास भी कह सकते हैं। यह 27.55455 दिनों का होता है। 
5. साइनोडिक या संयुति मास - हम ने अब तक जितने भी चांद्रमास देखे हैं उन की अवधि लगभग 27.2 से 27.5 दिन के बीच की है। लेकिन हम यहाँ जिस महिने को व्यवहार में लाते हैं वह चांद्रमास तो इस से दो दिन अधिक का और लगभग 30 दिनों का होता है। जब भी हम महीना शब्द का उपयोग करते हैं तो उसे 30 दिनों का ही समझते हैं। इस का कारण है कि हम चंद्रमा को उस के पूर्ण होने और गायब हो जाने से जानते हैं। चंद्रमा जिस बिंदु पर पूर्ण दिखाई पड़ता है वह बिंदु वह है जब पृथ्वी चंद्रमा और सूर्य एक रेखा पर आ जाते हैं और पृथ्वी दोनों के बीच होती है। इसे ही हम पूर्णिमा कहते हैं। लेकिन एक रेखा पर तो वे अमावस्या को भी आते हैं, लेकिन तब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के मध्य होता है। इसी बिंदु को हम नवचंद्र  बिंदु भी कहते हैं। नवचंद्र बिन्दु से नवचंद्र बिन्दु तक की चंद्रमा की यात्रा में लगने वाला समय साइनोडिक या संयुति मास कहलाता है। यह 29.53059 दिनों का होता है। 
न पाँच तरह के चांद्रमासों के अलावा और भी कितने ही तरह के महिने हैं। जैसे सौर मास और कलेंडर मास आदि आदि। यह लम्बी कहानी है। अब आप ही देखिए न मैं बात करने चला था जन्माष्टमी की कि वह दो दिन क्यों मनाई जा रही है। लेकिन बीच में ही यह चांद्रमास गाथा आरंभ हो गई। चलो आज अब इतना ही समय है। जन्माष्टमी की बात कल करें आखिर कल भी जन्माष्टमी है और फिर परसों हम कृष्ण जन्मोत्सव भी तो मनाएँगे। अभी तो हम जय बोल देते हैं। जय बोलो नन्द लाला, नन्द किशोर की। (एक बात बता दूँ, इन दो नामों में बाद वाला  नाम मेरी वल्दियत भी है)

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

बाबू का मिथ और प्रेम की भाषा

बाबूलाल जांगीड की पान की दुकान घर से अदालत के रास्ते में मिडवे है। रोज सुबह वहाँ रुकना, पान खाना और दिन के लिए बंधवाना। इस बीच वहाँ कुछ और लोगों से बात होती है। वहीं एक और बाबू मिलता है। बाबू में दो व्यक्तित्व हैं। जब भी वह फालतू दिखाई देता है तो फुटपाथ पर खड़ा अनजान लोगों को गालियाँ देता हुआ कोसता रहता है। तब लगता है उस का क्रोध दुनिया भर में प्रलय ला देगा। सब को जला देगा। यह दुनिया जल कर भस्म हो जाएगी। फिर ! फिर एक नई दुनिया का निर्माण होगा। उस का यह गालीगलौच वाला प्रवचन अनवरत चलता रहता है। किसी की हिम्मत नहीं कि उसे उस बीच में टोक दे। जब अति होने लगती है तो बाबूलाल जांगीड़ दुकान से उठता है और बाबू को एक मिनट में ठिकाने ले आता है। इस के लिए उसे डाँटना पड़ता है। यह बाबू का एक व्यक्तित्व है।  
बाबू का दूसरा व्यक्तित्व है, वह प्लम्बर का काम करता है। पान की दुकान उस के मिलने की जगह है। जिसे भी उस से काम लेना होता है इसी पान की दुकान पर तलाशता है। बाबू मौके पर जा कर निरीक्षण करता है। जरूरत का सामान बताता है। जरूरत का सामान आ जाने पर नल आदि की मरम्मत कर वापस लौट आता है। उस का घर कोई पाँच किलोमीटर है। रोज सुबह वह घऱ से पैदल ही निकलता है और काम निपटने के बाद पैदल ही घर लौटता है। लेकिन पान की दुकान पर पहुँचने के बाद पैदल चलने का कोटा खत्म। फिर उसे काम के लिए आप को ही ले जाना होगा। वापसी पर सवारी के पैसे देने होंगे। कई बार मैं पहुँचता हूँ तो वह प्रवचन मोड में होता है। मैं जैसे ही उसे आवाज देता हूँ बाबूलाल! वह मुड़ कर देखता है और तुरंत मुस्कुरा देता है। इसी के साथ उस का प्रवचन मोड समाप्त हो जाता है। 
दो दिन पहले भी ऐसा ही हुआ। वह प्रवचन मोड में था। मैं ने आवाज दी तो तुरंत मेरी ओर देखा और मुस्कुरा दिया। फिर उस ने मटके से पानी निकाल कर पिया और मेरे पास आ खड़ा हुआ। पान की दुकान पर उस का राज्य है, उस ने हाथ बढ़ा कर तम्बाकू हथेली में लिया वहीं ट्यूब से चूना ले कर दूर खड़ा हो कर हथेली पर घिसने लगा। तम्बाकू उस ने बहुत सारा लिया था। जांगीड़ कहने लगा अभी बीस मिनट पहले इस ने जर्दा खाया है और फिर ले लिया है। पता नहीं कैसे पचाता है? मैं ने तुरंत प्रतिक्रिया की -क्या फर्क पड़ता है? जर्दा ज्यादा खाने से यही तो होगा दस बरस पहले मर जाएगा। मरने के डर से क्यों जर्दा खाना छोड़ा जाए। मरने के बाद या तो नर्क में जाना होगा या फिर स्वर्ग में दोनों ही जगह जर्दा मिलने से रहा। इस लिए कोटा यहीं पूरा कर ले तो ठीक है। मैं ने यह बात जोर से कही थी जिस से बाबू सुन ले। जांगीड़ समझ रहा था कि वह भड़क जाएगा। लेकिन वह नहीं भड़का पर मेरी बात का उत्तर देने लगा।
रने से क्या डरना भाई साहब! ये तो सब चलता रहेगा। जो भी मरेगा कंकड़ पत्थर बन जाएगा। पता नहीं कब तक ऐसे ही लुढ़कता रहेगा। फिर जब उस का वक्त आएगा फिर जीव बन जाएगा। अब वो कुछ भी बन सकता है। मछली, या पंछी या फिर जानवर या फिर इंसान। इंसान बड़ी मुश्किल से बनता है। अब मैं कोई जुल्म तो नहीं करता? जर्दा ही तो खाता हूँ। किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं। यहाँ तो एक से एक बढ़ कर जुल्मी पड़े हैं। चाहते हैं दुनिया भर का माल खुद ही भर लें, कैसे भी? चोरी से, डकैती से, हक मार कर, दूसरे का गला काट कर। पर उस से क्या सब मर जाएंगे एक दिन। सब कंकड़ पत्थर हो जाएंगे। फिर उन पर घन चलेंगे। गरम-गरम डामर के साथ उन को चिपका दिया जाएगा। फिर रोड़ रोलर चलेगा उन पर। जब धरती से चिपक जाएंगे तो लोग उन सब को पैरों से रोंदेंगे। सब यहीँ है। क्या जरूरत है भोले शंकर को नर्क बनाने की। वो तो ये लोग खुद ही अपने लिए बना कर रखे हैं। 
जांगीड़ की पान की दुकान और पास खड़ा बाबू
स की इस बात में कहीं भी प्रवचन नहीं था। कोई गाली-गलौच नहीं थी। उस की अपनी सोच थी जिसे उसे किसी ने सिखाया नहीं था और न ही उस ने कहीँ इसे पढ़ा था। उस के खुद के अनुभव ने एक मिथ का सृजन कर दिया था। जिसे वह स्वयं सच मानने लगा था। मैं ने उसे पूछा -फिर भोले शंकर की क्या भूमिका है? उस की क्या भूमिका होगी? वह सिर्फ देखता है और आनंद लेता है। उसे थोड़े ही कुछ करने की जरूरत है।
जांगीड़ मुझे कहता है -भाई साहब, यह आप को बहुत मानता है। आप के आवाज देते ही इस का फितूर भाग जाता है और ज्ञान की बातें करने लगता है। मैं ने कहा -उस का राज है। वह सिर्फ प्रेम चाहता है। ऐसा प्रेम जिस में न उसे कोई चाह है और न मुझे कोई चाह। बस जब भी एक दूसरे को दिखाई दे जाते हैं दोनों के अंदर प्रेम उपजने लगता है। शायद वह प्रेम की इस भाषा को समझता भी है।

रविवार, 29 अगस्त 2010

"कुण्ठा और क्रोपाटकिन" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का पंचदश सर्ग


यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  चौदह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का पंचदश सर्ग "कुंठा और क्रोपाटकिन" प्रस्तुत है ................
* यादवचंद्र *

पंचदश सर्ग
कुंठा और क्रोपाटकिन

साम्य - शांति औ प्रगति, मनुज
जीवन में खोज रहा है
तुम कहते हो-"साम्य ?  असम्भव
ऐसा हुआ कहाँ है
और साम्य के रहते जग में
शान्ति, प्रगति है सपना
वाहियात का मनका ले कर
भ्रमित बुद्धि का जपना
बाइबिल, वेद, कुरान शांति का
स्रष्टा है, गायक है
जब तक मन की शांति नहीं है
समता मन का भ्रम है

शान्ति और साधना अलौकिक
भावों की संज्ञा है
अरे, परिग्रह--लोभी मन का
कलुष नहीं तो क्या है
साम्य वहाँ है जहाँ न्याय है
औ संन्तोष सदन है
जब होता संतोष पास तो
रंक राव के सम है

भौतिक रूप सदा छलता है
प्रज्ञा को औ मन को
स्थित-प्रज्ञ मान लोष्टवत
चलता भौतिक धन को

समता किस की ?  भौतिक सुख की ?
माया है, छलना है
अपने हाथों आग जला कर
उस में खुद जलना है" 
#############################

सच है, अमर बेलि, परजीवी
मिट्टी को क्या जाने
ठेकेदार  भला मरघट का 
जीवन क्या पहचाने

जीवन नहीं समादृत है
आकाश वृत्ति, जप, तप से
शान्ति, प्रगति है जन्म न लेती
कब्रों से, मरघट से

संघर्षों से जो घबड़ाते
शान्ति मांगते जीवन मन की
एक व्यक्ति की शान्ति सरल है
किन्तु कठिन जन-जन की

जब न सुलझता प्रश्न देखते
दुर्बल जन घबड़ाते
भाग खड़े होते जंगल में
या कंकड़ सुलगाते

ऐसे लोग भला जीवन की
गुत्थी खोल सकेंगे ?
जिनसे जग निर्मित है, उन 
तत्वों को तौल सकेंगे

दे कर परहित स्वर्ग, स्वयं हित
रौरव मोल सकेंगे ?
जिन तन से पैदा हैं, उन के 
हित ये बोल सकेंगे

कि ज्ञान और विज्ञान ढूंढता
कारण हरदम फल का
मेधावी हल सदा ढूंढता
जीवन में पल पल का

ध्यान वस्तु से अलग हटा कर
किस का ध्यान धरोगे ?
भाव तत्व से अलग हटा कर
बोलो, कहाँ धरोगे ?

बात अलौकिकता की करने
वाला भी लौकिक है
हीत न्याय में हम-तुम दोनों
चप्पू औ नाविक है
अपरा--परा ब्रह्म की बातें मूरख-रूढ़-शून्य का रोना
व्यक्ति-शास्त्र के शब्द-शब्द पर अब बेकार समय है खोना

2
देती है आवाज जवानी
वीरो, आँखें खोलो ?
होती है कुर्बान जवानी
क्रान्ति अमर हो - बोलो !
उठो, मौत के परकालो,
शेरो-दीवानों, जागो !
बढ़ो, ध्वंस, विस्फोट, प्रलय
अल्हड़ मस्तानो, जागो ?

प्रीत निभाना भूल गई है जुल्मी की सन्तान
इधर बराबर रहे चूमते मौत मजूर-किसान
किन्तु निशा का अन्त कहाँ
हड्डी की जला मशाल !
मादक हाय, बसन्त कहाँ
जाँबाजो ठोको ताल !
आग लगा दो पानी में पत्थर पर दूब जमा दो
परवानो ! इजहार मुहब्बत का तुम आज बयाँ दो
ऋतुपति का सिंहासन दौड़ो, छीन स्वर्ग से ला दो
हँसिये और हथौड़े से तुम दुनिया नई बसा दो
फोड़ो इन्कलाब के गोले
उठ कर दो आवाज
धधक रहे अंगारे जग में
आज करेंगे राज
आज रूढ़ियाँ टूट जायँ
हो जाएँ वे बर्बाद
ताकत है हम में, फिर इस को
कर लेंगे आबाद
बहली गाएँ पोस-पोस कर पण्डित जी सकते हैं
पर, मिहनतकश हम तो उस का दूध न पी सकते हैं

तेरे श्रम को चुरा-चुरा कर वे लाख बनाते आए
नई सभ्यता के उस ने मन लायक महल उठाए

तेरता हुआ मजार किसी के
महलों का आधार
तेरा प्यार हुआ कातिल के
लड़कों का खिलवाड़
तेरा हुआ दुआर, गाँव के 
बाबू का दरबार
तेरा हुआ बथान अभागे
सरकारी घुड़सार
फिर भी खुद को छलता है तू
कह कर बारंबार--
देते कर इसलिए कि हम हैं
जग के पालनहार  ?

दूर-दूर हो कायर दर्शन   गणित क्लीव, बेकार
उन की जीत हुई है रण में   और तुम्हारी हार
स्वार्थ, ऐक्य, पुरुषार्थ वर्ग का   देता उस को जीत
प्रतिद्वन्द्वी निरुपाय वहाँ तब   गाता ऐसे गीत

साधनहीन सदा सपनों से   मन बहलाता है
धर्म, भाग्य, परलोक रचाकर   दुख बिसराता है
निर्बल के बल राम-नाम   सिद्धान्त बताता है
भूल जाय वह कैसे खुद को   सोच न पाता है
जाता छोड़ भाग तब दुनिया   राख रमाता है
या भट्टी के दरवाजे पर    शोर मचाता है
हार जीत के पहलू
उठो, बढ़ो, संग्राम करो
लड़कर लो बदला दुश्मन से
बन्द मिलों का काम करो
सोना हो, ब्रेगन की गोली पर जाकर आराम करो
या प्रतिद्वन्द्वी पूँजीपतियों का तुम काम तमाम करो
क्रान्ति करो, विद्रोह करो
विद्रोही को सरदार  !
बढ़ो किसानो लेकर बर्छे
करो जमीं पर मार !
उठो, खान के मजदूरो
हड़ताल करो हड़ताल !
 छीन न पाओ अगर उन्हें तो 
बनो ध्वंस विकराल !
छीन दूसरों की जो सत्ता अपना पैर जमाता
 मार उसे वापस ले लेना हक क्या पाप कहाता
कौन पेट से जनमा ले कर धरती, अम्बर, सागर
हाँ, वह होता सुखी श्रमिक है फल श्रम का पा-पा कर
फिर यह कैसा मत्स्य न्याय रे, मिहनतवान दुखी क्यों ?
नालायक बेटे धनियों के बोलो, पुष्ट सुखी क्यों ?
या तो वे डाकू है कोई, या कि चोर के जाये ?
नीच लेखकों या कवियों ने क्यों उन के गुण गाये ?
निश्चय होंगे वे हराम के माल बँटाने वाले
चाँदी को टुकड़ों पर कुत्ते, कलम चलाने वाले
तो गद्दारों की गद्दारी का उत्तर शूली है
शोषक के पापों की दरिया उमड़ी-फूली है
जाग, जाग और तरुण किशोरी, बाल-वृद्ध-जवान !
खोलो सीना, बांधो कफनी, ले लो लाल निशान !
आओ खूँ से रंग कर अपने झंडे लाल बनाएँ
मिहनतकश की दुनिया होगी, आओ कसमें खाएँ

शनिवार, 28 अगस्त 2010

सत्तू की परेशानी कम न हुई, उसे उपभोक्ता अदालत जाना पड़ा, जहाँ उसे राहत मिली लेकिन बहुत कम

आप ने अब तक पढ़ा......
27 सितंबर 2004 को अचानक सत्तू के मोबाइल फोन पर लगातार फोन आने लगे जो सब के सब सचिन तेंदुलकर के लिए थे। यह परेशानी उस के मोबाइल सेवा प्रदाता एयरटेल द्वारा जारी एक विज्ञापन के कारण था। जिस से लोग यह समझ बैठे थे कि विज्ञापन में दिया गया टेलीफोन नं. सचिन का है, जब कि वह सत्तू का है। सत्तू परेशान हो गया। वह किसी को फोन नहीं कर सकता था, जो उसे फोन करना चाहते थे उन्हें उस का फोन हमेशा एंगेज मिल रहा था। उस ने एयरटेल को शिकायत की लेकिन सुनवाई नहीं हुई। उस ने एक कानूनी नोटिस भी कंपनी को दिलाया। पढ़िए आगे क्या हुआ .......
त्तू की ओर से मैं ने जो नोटिस दिया था उस की कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया कंपनी की ओर से नहीं हुई। सत्तू को कोई राहत दी जाती या उस से कोई बात की जाती उस के स्थान पर वही विज्ञापन दिसंबर में फिर से अखबारों में प्रकाशित कराया गया। उस के बहुत खूबसूरत बड़े पोस्टर जगह जगह लगाए गए बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर यह विज्ञापन चस्पा किया गया। जिस का नतीजा फिर यह हुआ की सत्तू के पास फिर से सचिन तेंदुलकर को पूछने वाले फोन आने लगे। वह फिर उसी तरह की परेशानी में आ गया जैसी उसे 27 सितंबर के बाद लगभग एक माह तक रही थी।
स बीच सत्तू के प्री-पेड खाते में धन कम हो गया था और वैधता की अवधि समाप्त होने को थी। उस ने 9 अक्टूबर 2004 को कैश कार्ड का नवीनीकरण कराया।  मोबाइल फोन पर यह संदेश आ रहा था कि उस की वैधता की अवधि 8 अक्टूबर 2005 है। लेकिन 17 जनवरी 2005 को उस के मोबाइल पर फोन आना जाना बंद हो गए और 'सिम कार्ड कनेक्शन फेल्ड' संदेश आने लगा। सत्तू ने तुरन्त ही एयरटेल के स्थानीय सेवा केंद्र से संपर्क किया तो उसे बताया गया कि उस के सिम कार्ड की वैधता तो 8 नवम्बर 2004 को ही समाप्त हो चुकी थी, 17 जनवरी तक फोन कंपनी की गलती से चालू रहा। इस के बाद भी 60 दिनों तक रिचार्ज नहीं कराए जाने के कारण सिम कनेक्शन फेल्ड हुआ है। हालांकि सेवा केन्द्र से मिले इस उत्तर ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिए थे कि 60 दिन भी 7 जनवरी को ही समाप्त हो चुके थे 17 जनवरी तक सिम कैसे चालू रहा? इस से पहले जब 8 नवम्बर 2004 को वैधता समाप्त हुई थी तब क्यों नहीं कनेक्शन एक तरफा नहीं किया गया? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर था कि यह सब जानबूझ कर कंपनी द्वारा किया गया था। खैर! सत्तू ने अपने कैश कार्ड पर छपी शर्तों को पढ़ा तो पता लगा कि कैश कार्ड की वैधता की अवधि में उसे पुनः चार्ज कर के अवधि बढ़ाई जा सकती है। नहीं करा सकने पर उस की कुछ सेवाएँ हटा ली जाती हैं लेकिन उपभोक्ता वैधता समाप्ति के 60 दिनों में उसे रिचार्ज करवा कर वैधता को पुनर्स्थापित करवा सकता है। इस के बाद  सिम कार्ड कनेक्शन फेल हो जाने पर भी 30 दिन की अवधि में उपभोक्ता सिम कार्ड एक्टीवेशन शुल्क जमा करवा कर अपने नंबर को चालू करवा सकता है। 
कंपनी के अनुसार उस की वैधता 8 नवम्बर को समाप्त हुई थी तो वह 7 जनवरी तक वैधता को पुनर्स्थापित करवा सकता था। और 6 फरवरी तक वह रिएक्टीवेशन शुल्क जमा करवा कर अपने नंबर को फिर से चालू करवा सकता था। उस ने दिनांक 22 जनवरी 2005 को सिम एक्टीवेशन शुल्क रुपए 113/- जमा करवाया और रसीद प्राप्त कर ली। स्थानीय सेवा केंद्र उस के नंबर को नए सिम कार्ड पर स्थापित करने के लिए प्रयत्न करने लगा। लेकिन लाख प्रयत्नों के बाद भी वह सत्तू का नंबर चालू नहीं करा सका और सेवा केंद्र ने हाथ खड़े कर दिए। कहा कि उस का पुराना नंबर चालू नहीं किया जा सकता। कंपनी एवज में नया नंबर देने को तैयार है साथ ही उसे एक वर्ष तक सिम कार्ड की सारी सेवाएँ निशुल्क यानी मुफ्त प्रदान की जाएंगी। लेकिन सत्तू को पुराने नंबर की एवज में यह सब मंजूर नहीं था। उस ने मुझे आ कर कहा -अंकल जी, अब तो मुकदमा करना ही पड़ेगा। हम ने मुकदमा तैयार कर 4 फरवरी 2005 को जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष मंच के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जिस में  असुविधाओँ और व्यवसाय की हानि के लिए पाँच लाख रुपए, बिना अनुमति सत्तू का टेलीफोन नंबर विज्ञापन के लिए उपयोग करने हेतु दस लाख रुपए, शारीरिक व मानसिक संताप के लिए दो लाख रुपए तथा परिवाद का खर्चा रुपए पाँच हजार कुल रुपए 17 लाख 5 हजार की मांग की गई।

पभोक्ता मंच में मुकदमे में तमाम साक्ष्य प्रस्तुत कर देने के उपरांत 24 जनवरी 2006 को मुकदमा बहस के लिए निश्चित हो गया। लेकिन मंच में कभी अध्यक्ष और कभी सदस्य न होने के कारण और कभी अन्य कारणों से बहस न हो सकी। अंत में 11 अगस्त 2010 को बहस संपन्न हुई। जहाँ सत्तू की और से उक्त सभी तथ्य मंच के सामने रखे गए। जब कि कंपनी की तरफ से केवल यह कहा गया कि इन के सिम की वैधता की अवधि समाप्त हो जाने के कारण इन का कनेक्शन शर्तों के मुताबिक समाप्त किया गया है। इस एक पंक्ति के अलावा कंपनी के वकील ने कोई बहस नहीं की। फैसला क्या होना था यह उसी दिन तय हो गया। निर्णय के लिए 23 अगस्त की तारीख निश्चित कर दी गई। 
23 अगस्त 2010 को उपभोक्ता मंच द्वारा दिए गए अपने निर्णय में मंच ने कंपनी को सत्तू के नंबर का अवैध रूप से उपयोग करने का,  सत्तू के लिए परेशानियाँ खड़ी करने का और सेवा में त्रुटि करने का दोषी माना। राहत यह दी कि कंपनी सत्तू का पुराना नम्बर 9829137100 बहाल करे, इस नंबर को बहाल करने में बाधा हो तो कोई नया नंबर दे कर सभी सेवाएँ नियमित करे, और सत्तू को व्यवसाय की क्षति के लिए 10,000/- रुपए असुविधा के लिए 10,000/- रुपए और परिवाद खर्चा रुपए 2000/- कुल बाईस हजार रुपए अदा करे। सत्तू इस फैसले से प्रसन्न नहीं है। उस का कहना है कि उसे बहुत कम क्षतिपूर्ति दिलाई गई है। वह आगे राज्य उपभोक्ता प्रतितोष आयोग के समक्ष इस निर्णय के विरुद्ध अपील प्रस्तुत करना चाहता है।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

सत्तू उर्फ सत्यप्रकाश गुप्ता, एयरटेल की मोबाइल सेवा और सचिन तेंदुलकर का नंबर

त्तू उर्फ सत्यप्रकाश गुप्ता मेरे एक मित्र का पुत्र है। वह एक नौजवान प्रोफेशनल है, भारतीय जीवन बीमा निगम व डाक बचत योजनाओं के लिए अभिकर्ता तथा सम्पत्ति और वित्तीय सलाहकार के रूप में का काम करता है। उस के बहुत से सेवार्थी हैं जिन्हें वह अपनी सेवाएँ प्रदान करता है। उस की आय में वृद्धि सेवाओं पर टिकी है। वह जितना अधिक काम करेगा उतनी ही उस की आय में वृद्धि होगी। अपने सेवार्थियों से उस का संपर्क उस के मोबाइल फोन पर निर्भर है। सेवार्थी उस से उस के मोबाइल फोन पर संपर्क करते हैं, अपनी जरूरतें बताते हैं और वह दौड़ पड़ता है उन की जरूरतों को पूरी करने के लिए। यदि उस का फोन एक दिन के लिए भी बंद हो जाए तो उस के सेवार्थी परेशान हो उठते हैं। इस लिए वह हमेशा अपने सिम-कार्ड को सक्षम रखता है। जिस से उस के किसी सेवार्थी को परेशानी न हो। वर्ष 2004 में उस के पास ओएसिस ब्रांड की मोबाइल फोन सेवाएँ थीं। इन सेवाओँ को हेक्साकोम इंडिया लिमिटेड ने खरीद लिया और ओएसिस ब्रांड की सेवाएँ एयरटेल के नाम से काम करने लगीं।
सितम्बर 2004 की 27 तारीख की सुबह अचानक सत्तू के मोबाइल फोन की घंटी बजी, उस पर कोई अपरिचित व्यक्ति बोल रहा था - हाय! कैसे हो, 37वीं सेंचुरी के लिए कोंग्रेचुलेशन्स। सत्तू को कुछ समझ नहीं आया, उस ने फोन काट दिया। तुरंत ही दूसरा फोन तैयार था। इस बार कोई लड़की बोल रही थी।  हाय! लवी! मुझे पहले ही पता था इस बार तुम जरूर सेंचुरी बना लोगे .....यह फोन भी उस ने काट दिया। इस के बाद कोई अंग्रेजी पेल रहा था... फोन फिर काटना पड़ा। उसे काटा तो फिर घंटी तैयार थी, और उस के बाद एक और। सत्यप्रकाश को क्रिकेट में अधिक रुचि नहीं थी लेकिन सचिन तेंदुलकर का नाम उस ने न सुना हो ऐसा भी नहीं था। आठ दस फोन काल्स के बाद उसे समझ आ गया था कि ये सब फोन भारत के चहेते क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर के लिए आ रहे हैं। वह कुछ फोन करना चाहता था। पर वह फोन लगाता और इच्छित नंबर पर फोन जुड़ता उस के पहले ही घंटी फिर बजा जाती। वह परेशान हो गया। उस ने अपने फोन को बंद कर दिया।  तभी हॉकर अखबार दे कर गया उस ने उसे देखा तो आखिरी पन्ने पर आधे पन्ने का एक विज्ञापन मौजूद था। 

चित्र पर क्लिक कर के इसे बड़ा कर के देखें
स विज्ञापन को देख उसे सारा माजरा समझ आ गया। इस विज्ञापन में जो नंबर छापा गया था, वह सत्तू के मोबाइल फोन नंबर था। सचिन तेंदुलकर ने मार्च 2004 में 37वाँ एक दिवसीय शतक बनाया था और एयरटेल वालों ने उस के मोबाइल नं. के पिछले पाँच नंबरों में थर्टीसेवन हंड्रेड होने से तुक मिला कर इस का उपयोग किया था। उसे बड़ा बुरा लगा। एयरटेल के कर्ता-धर्ताओं ने उन का उपभोक्ता होते हुए भी उस से इस मामले में कुछ नहीं पूछा था, न ही इस की सूचना दी थी कि उस  के मोबाइल नं. का उपयोग किया जा रहा है। उन्हें इस से होने वाली परेशानी से उन्हें कोई मतलब नहीं था। इधर सचिन तेंदुलकर के लिए फोन करने वालों की घंटियाँ लगातार बज रही थीं। यह सिलसिला 10 अक्टूबर तक लगातार चलता रहा। उस के बाद कुछ कम हो गया। अब उस के कुछ सेवार्थियों के फोन के लिए जगह मिलने लगी थी और वे आने लगे थे और वह भी कुछ टेलीफोन कर सकता था। इस परेशानी से बचने के लिए उस ने दिन में कुछ घंटों तक फोन को बंद रखना भी शुरू कर दिया था। लेकिन यह वह लगातार नहीं कर सकता था। उस के व्यवसाय के लिए यह ठीक भी नही था कि उस के  सेवार्थियों  को लिए यह ठीक भी नहीं था कि उन्हें उस का टेलीफोन बंद मिले इस से तो अच्छा था कि वह उन्हें व्यस्त मिले।
स परेशानी से सत्तू ने एयरटेल के कार्यालय में सूचित किया किंतु उन्हों ने उस की कोई मदद नहीं की। आखिर वह मेरे पास पहुँचा। मैने उसे एयरटेल मोबाइल सेवा की कंपनी हेक्साकॉम इंडिया लि. को कानूनी नोटिस भेजने का सुझाव दिया। आखिर हम ने 26अक्टूबर 2004 को कंपनी को एक नोटिस प्रेषित कर शिकायत की और असुविधा के लिए मुआवजा देने की मांग की और यह भी चेतावनी दी कि भविष्य में किसी भी विज्ञापन में सत्तू के मोबाइल नं. का उपयोग न किया जाए।

(लगातार ... आगे की कहानी अगली पोस्ट में ...... )