जब से दिल्ली हो के आए हैं, बस अपनी यात्रा कथा ही गाए जा रहे हैं। जो लोग सोचे हैं कि हम परिकल्पना सम्मान के बारे में लिख रहे हैं, वे गलत नहीं सोचे हैं। लिखते-लिखते कल तक हम भी यही सोचने लगे थे कि हम उसी के बारे में लिख रहे हैं। कल जब लिखने लगे थे तो सोचे थे कि ये किस्सा आज खतम ही किए देते हैं। पर बाम्भन हैं ना, तो जब भी बोलेंगे या लिखेंगे ऐसे कौने छोड़ जाएंगे जो न पढ़ने वाले का पीछा छोड़े न बोलने लिखने वाले का। पढ़ने वाले जो हैं वो पूँछ पकड़ के लटक जाते हैं। अब हमने क्या लिख दिया था ऐसा, कि पहली पहली टिप्पणी ही मिली कि सौ में पहला नाम तो हमारा लिख लेना। एक ने तो ये भी कह दिया कि एक सौ एकवाँ नाम मेरा भी लिख लेना। देखिए ना पहले-पहले कहने वाला तो अतिभावुकता में कह गया। लेकिन सब से बाद वाला बहुत होसियार निकला। भैय्या कह रहा है कि पहले सौ तो पूरा कर लो। बीच में जितने लोग आए उन सब की गिनती कर ली है। अभी तो दहाई का आँकड़ा भी पूरा नहीं बनता। अब ऐसे तो सहकारी चलने से रही। अब लगता है कि बाकी के अस्सी-बयासी का आँकड़ा जुटाने में काफी समय लगने वाला है। तब तक किया क्या जाए?
एक हमको गुरू कहने वाले रमेश कुमार जैन साहब हैं जो खुद को सिरफिरा कहे जाते हैं। वो तो पूरी की पूरी प्रकाशन फेक्ट्री खोले बैठे हैं। वो सब से पहले कहते हैं-
"आप जो-जो किताब नहीं खरीद पाए थें. मुझे उन किताबों की सूची भेजें. आपका नाचीज़ शिष्य डायमंड पाकेट बुक्स के साथ ही कई प्रकाशकों का बिक्री एजेंट है. आपनी सेवा करने का अवसर प्रदान करें. मुझे जो कमीशन प्राप्त होता है, उसी के माध्यम से आपको सबसे बेस्ट कोरियर सेवा से एक-दो दिन में किताबें पहुँचाने का मेरा पक्का और अटल वादा है"
सब से पहले तो सिरफिरा जी ने खुद को बेस्ट सेल्स मेन साबित कर के मुझे ही ग्राहक बनाने को काँटा डाल दिया है और उन किताबों की लिस्ट मांगी है जिन्हें मैं नहीं खरीद पाया था। अब उन्हें कैसे बताऊँ कि मैं बिना देखे किताब नहीं खरीदता? पहले देखता हूँ कि किताब खरीदने लायक है कि नहीं। फिर ये देखता हूँ कि उस किताब की कीमत मेरी जेब को फिट होती है कि नहीं। फिर ये सोचता हूँ कि जेब हलकी की जाए तो खरीद में कीमत वसूल होगी या नहीं। हम न तो हम सब किताबें देख पाए और न ही उन की कीमत। अब फैसला करें भी तो क्या करें? हाँ हम ने ये मन जरूर बना लिया था कि ब्लागिंग वाली किताब जिसे अविनाश जी और रविन्द्र प्रभात जी ने संपादित किया है उसे जरूर खरीदेंगे। उस के खरीदने की कुछ अतिरिक्त वजहें भी हैं। जैसे उस किताब को नहीं खरीदूंगा तो लोग समझेंगे मैं ब्लागर ही नहीं हूँ। हूँ भी तो चलताऊ किसम का। दूसरी वजह ये थी कि इस बात को कौन जानता कि मैं ने किताब नहीं खरीदी। लेकिन ये पोल खुल सकती है। कभी कोई मेरे घर आ जाए और उस किताब को देखने की ख्वाहिश रखे तो मैं उसे क्या दिखाऊँ। एक वजह और थी, वह ब्लागरों के सामुहिक श्रम का नतीजा है। इसलिए मैं उसे पढ़ना ही नहीं अपने पास रेफेरेंस बुक के बतौर रखना भी चाहता हूँ। दूसरी किताब जो रविन्द्र जी का उपन्यास है उसे इसलिए खरीदना चाहता हूँ कि कहीं रविन्द्र जी नाराज न हो जाएँ। पर इस इच्छा की तुलना में उस की कीमत कुछ ज्यादा है। मेरा मन हुआ कि इस का हार्डबाउंड के बजाय पैपरबैक होता तो मुझे इतना नहीं सोचना पड़ता। तुरन्त खरीद लेता। आखिर कीमत आधी से भी कम हो जाती और महंगी नहीं पड़ती।
अब ज्यादा क्या सोचना? ऑर्डर कर ही देता हूँ। सिरफिरा जी को मेल करता हूँ कि दोनों किताबें भिजवा दो और उन की कमीशन-उमीशन काट कर जो भी कीमत बनती है वह बता दो, जो उन के बैंक खाते में जमा करवा दूँ। वैसे मैं उन्हें मेल करना भूल जाऊँ तो वे इस पोस्ट को ही ऑर्डर मान कर मुझे किताबें भेज सकते हैं. कीमत के बारे में बताते ही उनके खाते में रुपए जमा करा दिए जाएंगे।
हम ने किताबें खरीदने का निर्णय भी ले लिया और उन को खरीद भी लिया। अब आगे की सोची जाए। अभी तो वो लफड़ा और शेष है जो हमारे इस बीज वाक्य से पैदा हुआ कि सहकारी प्रकाशन चलाया जाए। इस बारे में अब हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। हमारे पास सब कुछ करने वाले सिरफिरा जी जो हैं। वे कहते हैं-
"मैंने काफी समय पहले ही आपके ब्लॉग "तीसरा खम्बा" पर आपकी एक "क़ानूनी सलाह" पुस्तक प्रकाशित करने का प्रस्ताव रखा था. तब आपको कहा भी था कि-गुरु दक्षिणा(रोयल्टी) से वंचित नहीं करूँगा. तब किसी प्रकाशक को क्यों 20-22 हजार रूपये दिए जा रहे हैं. आज प्रकाशक लेखक का इसी प्रकार शोषण करता है. मेरे पास किताबों की बिक्री का अनुभव भी और मार्केटिंग को लेकर बहुत अच्छी योजना भी है. बस "रॉयल्टी" पर थोडा-सा क़ानूनी ज्ञान नहीं है. अगर आप उपरोक्त विषय पर एक पोस्ट प्रकाशित कर दें. तब रॉयल्टी को लेकर अपने प्रकाशन परिवार की रणनीति व नियम/शर्ते बनाने में आसानी हो जाये. आपके सौ के करीब ब्लागर सहमत हो जाएँ तो आपसी सहयोग से एक सहकारी प्रकाशन अवश्य खड़ा किया जा सकता है वाली बात पर 101 वें स्थान पर मुझे भी रख लें, क्योंकि 101 वां स्थान इसलिए मेरा ब्लॉग अभी "अजन्मा बच्चा" है. इसके साथ ही अगर सौ ब्लागर मुझे योग्य माने तब मैं प्रत्येक पुस्तक पर केवल दो रूपये का लाभ प्राप्त कर प्रकाशित करने का सहयोग करने को तैयार हूँ. जैसे- श्री खुशदीप सहगल की किताब "देशनामा" की 1000 प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं. तब मुझे लाभ के केवल दो हजार रूपये दे दिए जाएँ. इससे मेरी जानकारी का लाभ प्राप्त करके किताब बहुत सस्ती प्रकाशित की जा सकती हैं और पाठकों तक बहुत कम दामों में पहुंचाई जा सकती है. यदि किसी किताब की पांडुलिपि मेरे "प्रकाशन परिवार" के मापदंडों (समाज व देशहित और आमआदमी को जागरूक करने का उद्देश्य) को पूरा करती है और मेरे प्रकाशन परिवार द्वारा प्रकाशित किए जाने के लिए कोई ब्लागर सहमत हो जाता है. तो मैं लेखक को रॉयल्टी देने को भी तैयार हूँ.
मुझे और दूसरे ब्लागरों को अब कुछ करने की जरूरत ही नहीं है सिवाय इस के कि सौ का आँकड़ा पूरा कर लिया जाए। उन में से पाँच व्यक्तियों का एक निदेशक मंडल चुन दिया जाए जो इस बात को तय करे कि किस किताब को छापा जाना है और किस किताब को नहीं? कितनी किताबों का सैट एक साथ छापा जाए। उस की लागत क्या आएगी? और उस के लिए कितना धन चाहिए?
समस्या केवल ये है कि उन किताबों को छाप कर क्या किया जाएगा। सब से पहली दस प्रतियाँ तो लेखक को मुफ्त में दे दी जाएँ। फिर उस से पूछा जाए कि वह अपने करीबी लोगों को बाँटने के लिए कितनी किताबें खरीदने की मंशा रखता है? उतनी और उसे नकद बेच दी जाएँ। अब जितनी किताबें बचें उन के विक्रय के लिए खुद सिरफिरा जी से यह कांट्रेक्ट कर लिया जाए कि वे कितने कमीशन पर उन को बेच-बाच कर ठिकाने लगा सकते हैं। मुझे लगता है कि सिरफिरा जी इस के लिए तैयार हो जाएंगे। उन से यह कांट्रेक्ट हो जाएगा तो हम अपने शहर के बुक सेलर को भी कहेंगे कि वह भी किताबें उन से मंगा कर ही बेचे। इस तरह सिरफिरा जी का धंधा भी चमकेगा और लगे हाथ सहकारी की किताबें भी दूसरी किताबों के साथ बेचने में सिरफिरा जी को आसानी होगी। यदि सिरफिरा जी जल्दी से किताबें बेच डालें और रकम वापस आ जाए तो फिर दूसरा सैट जल्दी निकालने की सोची जा सकती है।
इस सारे हिसाब-किताब में मेरा अपना मंतव्य तो रखना ही भूल गया हूँ। मेरा मानना है कि सारी किताबों के केवल पैपरबैक ही छापे जाएँ। कवर पेज रंगीन और आकर्षक हो जिसे यदि रेलवे की व्हीलर की स्टाल पर रखा जाए तो भले ही ग्राहक खरीदे या न खरीदे, लेकिन एक बार हाथ से छू कर जरूर देखे। कुछ ब्लागर तो किसी रेलवे स्टाल पर अपनी पुस्तक देख कर ही अतिसंतुष्ट हो सकते हैं। इस में मेरा भी फायदा है वो ये कि कीमत कम होने से मैं उसे खरीद भी सकता हूँ और उस की कीमत देख कर अपनी पत्नी जी को उन की आँखें चौड़ी करने से बचा सकता हूँ।
अंत में सिरफिरा जी ने जो कहा वह बात जरूर दिल को लगने वाली है, लेकिन है बहुत जबर्दस्त। वे कहते हैं-
किताब केवल अलमारी में सजाकर नहीं रखी जानी चाहिए बल्कि आम आदमी तक उसको पहुंचना चाहिए. बोलो, इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? उन की ये बात बहुत सारे ब्लागरों को तीर सी चुभ कर उन्हें घायल कर सकती है। वे सोच सकते हैं कि " लो ये आया है कल का ब्लागर, जो अभी अजन्मा है, कह रहा है कि लिखना ऐसा चाहिए जिसे आम आदमी खरीद कर ले जाए। ये कौन होता है हमें सिखाने वाला? हम ब्लागर हैं, ब्लागर। बस कंप्यूटर चालू कर के बैठते हैं और की-बोर्ड पर उंगलियाँ चलने लगती हैं। जो टाइप कर देते हैं वही हमारा लेखन है। सोच समझ कर लिखा, तो क्या लिखा? खैर! आप कुछ भी सोचें मुझे तो सिरफिरा जी कह ही चुके हैं कि मेरी किताब वो छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी भी देंगे। तो मैं क्यों देर करूँ ? चलता हूँ अपनी पोस्टों को संभाल कर, उन का संपादन करने, उन की पाण्डुलिपि तैयार करने। उधर तीसरा खंबा पर रॉयल्टी के बाबत कानूनी जानकारी की पोस्ट भी लिखनी है। तब तक आप गिनते रहिए कि सहकारी की सौ की संख्या कब पूरी होती है। बस सौ हुए, और सहकारी शुरू।
रमेश कुमार जैन साहब किताब भी छापने को तैयार हैं और रॉयल्टी देने को भी। लेकिन मेरे संपादन में समय तो लगेगा और उधर सहकारी शुरू होने में भी। तो तब तक सिरफिरा जी फालतू बैठ कर क्या करेंगे? बहुत सारे ब्लागर बीस-बीस हजार दे कर किताब छपवाने को तैयार बैठे हैं। मेरी जैन साहब को सलाह है कि तब तक उन से कुछ कम-ज्यादा कर-करा कर किताब प्रकाशन का काम तुरन्त शुरू करें। उद्यमी ठाला नहीं बैठता। उन्हें भी नहीं बैठना चाहिए।