@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 9 मई 2011

बुरा नहीं प्रकाशन का व्यवसाय

मैं लॉबी से लौटा तो मुझे अपने बैग की चिंता हुई, कहीं कोई उसे न ले उड़े। लेकिन बैग हॉल में यथा स्थान मिल गया  वहीं मुझे सिरफिरा जी मिल गए, अपने फोटो खींचने के यंत्रों को संभाल रहे थे। मैं भोजन के लिए बाहर गैलरी में आ गया। स्थान बहुत संकुचित था और लोग अपेक्षाकृत अधिक। भोजन के लिए पंक्ति बहुत लंबी थी। मैं पंक्ति के हलका होने तक बाहर आ गया। तब तक सिरफिरा बाहर आ गए थे। उन्हों ने मेरे बैग की जिम्मेदारी संभाल ली। मैं ने देखा मोहिन्द्र कुमार भी पंक्ति के कुछ छोटा होने की प्रतीक्षा में थे। सिरफिरा मुझ से आग्रह कर रहे थे कि मैं आज वापस न लौट कर उन के घर चलूँ। वे मुझे अगले दिन स्टेशन या बस जहाँ भी संभव होता छोड़ने को तैयार थे। एक बार तो मुझे भी लालच हुआ कि रुक जाऊँ। लेकिन फिर लालच पर नियंत्रण कर उन्हें कहा कि मैं अगली बार आउंगा तो  उन के घर ही रुकूंगा। फिर वे उन की व्यक्तिगत और ब्लागरी की समस्याओं पर बात करने लगे। 
परिकल्पना सम्मान ग्रहण करते आयोजक  अविनाश वाचस्पति
स बीच कुछ और ब्लागरों से बात चीत होती रही। कोई पौन घंटे बाद जब भोजन के लिए पंक्ति कम हुई तो मैं ने अपना भोजन लिया। भोजन के प्रायोजक डायमंड बुक्स वाले प्रकाशक थे। भोजन में दाल बहुत स्वादिष्ट बनी थी। मुझ से नहीं रहा गया। मैं अंदर भोजनशाला में गया और पूछा कि दाल किसने बनाई है। तब वहाँ बैठे कारीगरों ने बताया कि सब ने मिल कर बनाई है। फिर बताया कि इस ने उसे चढ़ाया, इस ने छोंका आदि आदि। मुझे लगा कि यदि सब का समरस योगदान हो तो भोजन स्वादिष्ट बनता है। आम तौर पर कोई मेहमान इस तरह प्रशंसा करने भोजनशाला में नहीं जाता। अपनी प्रशंसा सुन उन्हें प्रसन्नता हुई। मुझे इस के प्रतिफल में वहाँ ताजा निकलती गर्म-गर्म पूरियाँ मिलीं। भोजन के दौरान सिरफिरा मेरे साथ बने रहे। जैसे ही भोजन से निवृत्त हुआ मोहिन्द्र कुमार जी ने इशारा किया कि अब चलना चाहिए। मैं अपना बैग लेने के लिए सिरफिरा की तरफ बढ़ा। उन्हों ने बैग न छोड़ा, वे मुझे कार तक छोड़ने आए। कुछ ही देर में कार फरीदाबाद की ओर दौड़ रही थी। मोहिन्द्र जी ने मुझे मथुरा रोड़ पर सैक्टर-28 जाने वाले रास्ते के मोड़ पर छोड़ा, वहाँ से मैं शेयर ऑटो पकड़ कर गुडइयर के सामने उतरा। यहाँ कोई वाहन उपलब्ध न था। अब मेरा गंतव्य केवल एक किलोमीटर था। मैं पैदल चल दिया। बिटिया के घर पहुँचने पर घड़ी देखी तो तारीख बदल रही थी। 

गली सुबह शाहनवाज से बात हुई तो पता लगा कि खुशदीप ने ब्लागरी छोड़ने की घोषणा कर दी है। मैं ने तुरंत बिटिया के लैपटॉप पर उन का ब्लाग देखा। बात सही थी। पर मैं जानता था कि यह भावुकता में लिया गया निर्णय है। मैं सोचने लगा कि कैसे खुशदीप को जल्दी से जल्दी ब्लागरी के मैदान में लाया जाए। अगले दो दिन इसी योजना पर काम भी किया और अंततः खुशदीप फिर से ब्लागरी के मंच पर हमारे साथ हैं। हम ने दोपहर बाद कोटा के लिए ट्रेन पकड़ी और रात को साढ़े आठ बजे हम कोटा में अपने घर थे। घर धूल से भरा हुआ  था। चल पाना कठिन हो रहा था। जैसे तैसे हम ने स्नान किया। पत्नी ने बताया कि जरूरी में किचन का कुछ सामान लाना पड़ेगा। हम तुरंत कार ले कर बाजार दौड़े। सब दुकानें बन्द थीं। फिर याद आया कि आज तो बन्द ही होनी थी, रविवार जो था। फिर मुझे एक दुकान याद आई जो इस समय खुली हो सकती थी। सौभाग्य से वह खुली मिल गई। हम सामान ले कर घर लौटे। भोजनादि से निवृत्त हुए तो फिर तारीख बदल रही थी। घर की सफाई का काम अगले दिन के लिए छोड़ दिया गया। 

रविन्द्र प्रभात
स यात्रा ने मुझे बहुत कुछ दिया। सब से पहले तो पत्नी को दो दिन अपनी बेटी के साथ उस के घर रहने को मिले।  मेरी शाहनवाज, खुशदीप और सतीश सक्सेना जैसे आत्मीय मित्रों से भेंट हुई और आत्मीयता में कुछ वृद्धि हुई। बहुत से ब्लागरों से साक्षात हुआ। एक समारोह में शिरकत हुई। इस तरह के समारोह आयोजन के अपने अनुभव में कुछ वृद्धि हुई। बहुत कुछ सीखने को मिला। ब्लागरी पर अब तक एक बेहतरीन पुस्तक को देखा जो केवल एक दो लोगों के नहीं, बहुत से ब्लागरों के सामुहिक प्रयास का परिणाम था, ठीक डायमंड बुक्स के प्रकाशक के प्रायोजित भोजन में बनी दाल की तरह। बुरा यह हुआ कि इस पुस्तक को मैं स्वयं खरीद कर न ला सका। अब उस के लिए प्रतीक्षा कर रहा हूँ। इस पुस्तक के आगमन ने ब्लागरों में अपनी पुस्तक के प्रकाशन की क्षुधा को जाग्रत किया। अनेक ने वहीं प्रकाशकों से सम्पर्क भी किया। लेकिन वे तब सहम गए जब उन से कहा गया कि सौ पृष्ठ की पुस्तक के प्रकाशन के लिए स्वयं लेखक को कम से कम 20-22 हजार रुपयों का निवेश करना पड़ेगा। मुझे लगा कि इस तरह का लेखक होने से अधिक प्रकाशक होना फायदेमंद धन्धा हो सकता है। हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा आए। खुद लेखक के निवेश से पुस्तक प्रकाशित करो, उसे कोई लाभ हो न हो, प्रकाशक का धंधा तो चल निकलेगा। हो सकता है यह विचार कुछ और लोगों के मस्तिष्क में भी कौंध रहा हो। यदि ऐसा हुआ तो शीघ्र ही दो चार ब्लागर साल के अंत तक लेखक होते होते प्रकाशक होते दिखाई देंने लगेंगे। यदि ऐसा हुआ तो यह भी आयोजन की अतिरिक्त उपलब्धि होगी। मैं ने अनुमान लगाया कि यदि मैं इस तरह का प्रकाशक बनने की कोशिश करूँ तो कितना लाभ हो सकता है। कुछ गणनाएँ करने पर पाया कि इस में जुगाड़ लगाने और पटाने की कला में माहिर होना जरूरी है। मैं ने पाया कि अपने लिए वकालत ही ठीक है। हाँ सौ के करीब ब्लागर  सहमत हो जाएँ तो आपसी सहयोग से एक सहकारी प्रकाशन अवश्य खड़ा किया जा सकता है।  

शनिवार, 7 मई 2011

मुख्य अतिथि के असम्मान से उखड़ा मूड खुशदीप का

ब्लागरों का सम्मान समाप्त होने को था तभी शाहनवाज हॉल में आए। कहने लगे कि खुशदीप भाई तो चले गए। मुझे यह अजीब लगा। उन्हों ने बताया कि दूसरे सत्र में दूसरे सत्र में "न्यू मीडिया की भूमिका" विषय पर होने वाली संगोष्ठी के मुख्य अतिथि पुण्य प्रसून वाजपेयी आए, लेकिन आयोजकों में से कोई भी बाहर उन्हें रिसीव करने वाला न था। उन्हें बाहर ही पता लग गया कि अभी पहला कार्यक्रम समाप्त होने में ही एक-डेढ़ घटा लगेगा। वे बहुत देर तक बाहर लड़कों से बातें करते रहे और फिर वापस चले गए।  रविन्द्र प्रभात के आग्रह पर खुशदीप ने ही पुण्य प्रसून से दूसरे सत्र के मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता के रूप में समारोह में आने के लिए स्वीकृति प्राप्त की थी। मुझे लगा कि पुण्य प्रसून वाजपेयी का मन उपेक्षा से खट्टा हो गया और वे चले गए। यह स्वाभाविक भी था। यदि किसी व्यक्ति या संस्था के आग्रह पर मैं अपने किसी वरिष्ठ वकील को मुख्य अतिथि बनने को तैयार करूँ और वहाँ पहुँचने पर उसे कोई रिसीव करने वाला ही न मिले तो मैं तो अपने वरिष्ठ को मुहँ दिखाने के लायक भी नहीं रहूंगा। यही स्थिति खुशदीप के साथ थी। एक मुख्य अतिथि के लिए पौने दो घंटे प्रतीक्षा की जाए, इंतजार में असूचीबद्ध भाषण के कार्यक्रम चलते रहें। उसी कार्यक्रम के दूसरे मुख्य अतिथि को रिसीव करने वाला भी कोई न हो तो यह अव्यवस्था की चरम सीमा है। 
मैं सोचता था कैमरा मुझे नहीं पकड़ पाएगा,
पर पकड़ ही लिया राजीव तनेजा जी ने
योजनकर्ताओं से पहली गलती कार्यक्रम के निर्माण में हो चुकी थी। उन्हों ने समय का बिलकुल ध्यान नहीं रखा था। किसी भी कार्यक्रम के निर्माण में इस बात का ध्यान रखना सब से महत्वपूर्ण है कि तय की गई कार्य सूची को निपटाने में कितना समय लगेगा। उसी के अनुरूप कार्यक्रम को समय आवंटित करना चाहिए। यदि समय कम हो तो कार्यसूची संक्षिप्त कर देनी चाहिए। यदि कार्यसूची कह रही है कि कार्यक्रम दो घंटे का समय लेगा तो उस कार्यक्रम के लिए ढाई घंटे का समय आवंटित करना चाहिए। जिस से समय पर कार्यक्रम आरंभ होने पर भी वक्तागण कुछ अधिक समय ले लें तो आगे का कार्यक्रम अव्यवस्थित न हो। दो सत्रों के बीच कम से कम एक घंटे का अंतराल अवश्य रखना चाहिए। यदि कार्यक्रम कोई सेमीनार आदि हो और अगले सत्रों में मंचासीन लोग वही हों, जो पहले सत्र में भी उपस्थित थे तो बीच में आधे घंटे के अंतराल से काम चलाया जा सकता है। यदि किसी सत्र में कोई वीआईपी आने वाला हो तो अगले सत्र के पहले दो घंटे का अंतराल भी कम पड़ जाता है। क्यों कि अधिकांश वीआईपी समय से कभी नहीं पहुँचते। वे देरी कर के आते हैं। शायद इस में यह मानसिकता भी काम करती है कि लोग किसी भी कार्यक्रम में आधा-एक घंटा देरी से पहुँचते हैं और वीआईपी पहले पहुँच जाए तो खाली हॉल देख कर उसे निराशा न हो। यहाँ कार्यक्रम ही पौने दो घंटे बाद तब आरंभ हुआ था जब अगला सत्र आरंभ होने में केवल पौन घंटा शेष रह गया था। ऐसे में अगले सत्र में आने वाले अतिथियों को रिसीव करने के लिए आयोजकों में से एक व्यक्ति को बाहर रहना चाहिए था। देरी होने पर अगले सत्र के अतिथियों को यह सूचना भी देनी चाहिए थी कि अगले सत्र का आरंभ अब देरी से होगा अथवा उसे स्थगित कर दिया गया है। 
अपनी ही पुस्तक का विमोचन करते मुख्यमंत्री निशंक
दूसरा सत्र न्यू-मिडिया पर आधारित था जिस में शायद आयोजनकर्ता संस्थान की कोई रुचि नहीं थी। उस में रविन्द्र प्रभात की रुचि अवश्य थी, लेकिन वे खुद तो इतनी सारी जिम्मेदारियों के तले दबे हुए थे कि इन सब बातों का ध्यान स्वाभाविक रूप से उन्हें नहीं रहता। रविन्द्र प्रभात जी की एक गलती ये भी थी कि उन्हों ने अपने सामर्थ्य से अधिक दायित्व ले लिए थे, जिन्हें निभाना संभव ही नहीं था। अविनाश जी के पास तो इतने सारे काम थे कि सोचने तक की फुरसत नहीं थी। दोनों सज्जनों की स्थिति बेटी के ब्याह में बेटी के पिता से भी बुरी थी। आजकल तो बेटी का ब्याह करने वाला पिता भी सारे कार्यक्रम को पहले ही सूचीबद्ध कर उन की जिम्मेदारी विश्वसनीय व्यक्तियों को दे देता है, उस के बाद भी कुछ कुशल और विश्वसनीय लोगों को बिना कोई काम बताए इस बात के लिए नियुक्त करता है कि कहीं कोई काम आ पड़े तो वे उसे संभाल लें। बेटी का पिता बारात आने के पहले सज सँवर कर सूट पहन कर खाली हाथ रहता है। मेरी अविनाश जी से बात नहीं हुई। लेकिन मुझे लगता है कि दूसरे सत्र की कोई जिम्मेदारी उन के पास नहीं थी। दूसरा सत्र रविन्द्र प्रभात की मानसिक उपज थी और वे सोच बैठे थे कि उस के लिए क्या करना है? सब कुछ जमा-जमाया तो रहेगा ही बस आरंभ कर के एक व्याख्यान और अध्यक्षीय भाषण ही तो कराना है। यहीं वे चूक गए। 
मोहिन्द्र कुमार खुशदीप के साथ
दूसरे सत्र के मुख्य अतिथि का वापस लौट जाना आयोजकों के लिए अच्छा ही साबित हुआ। मुख्य अतिथि आ भी जाते तो उन्हें वैसे ही वापस लौटना पड़ता, क्यों कि उस के लिए समय शेष ही नहीं था। यदि दूसरा सत्र किसी तरह चला भी लिया जाता तो उसे औपचारिक तौर पर निपटाना पड़ता। उस का एक असर यह भी होता कि तीसरे सत्र में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित जो नाटक होना था उस से लोग वंचित हो जाते। आयोजकों को जब खबर लगी कि पुण्यप्रसून वापस लौट गए हैं तो उन्हों ने मंच से घोषणा कर दी कि समय अधिक हो जाने के कारण दूसरा सत्र भी इसी सत्र में समाहित किया जाता है। दूसरे सत्र में जो कुछ होना था वह सारा कार्यसूची से गायब हो गया। सत्र इतना लंबा चल चुका था कि लोग खुद ही बाहर जाने लगे थे, बाहर आरंभ हो चुका जलपान उन्हें हॉल से बाहर आने के लिए प्रेरित करने को पर्याप्त से कुछ अधिक ही था। पहले सत्र के समापन के साथ ही घोषणा हो गई कि केवल पंद्रह मिनट में ही नाटक आरंभ हो जाएगा। 

नाटक अत्यन्त धीमी गति से आरंभ हुआ तो कुछ अजीब सा लगा। आजकल नाटक की विधा में आरंभ धूमधड़ाके से करने की परंपरा है। नाटक की विषय वस्तु वैसी न हो तब भी सूत्रधार या किसी गीत का इस के लिए उपयोग कर लिया जाता है। लेकिन जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता गया, दर्शकों की रुचि बढ़ती गई। नाटक समापन तक प्रत्येक दर्शक को प्रभावित कर चुका था। इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने प्रस्तुत किया  था। नाटक गुरूदेव की कहानी 'लावणी' का नाट्य रूपान्तरण था। कहानी तो मजबूत थी ही,  उस का स्क्रिप्ट भी बहुत श्रम से तैयार किया गया था। विशेष रूप से वर्तमान का अभिनय करते करते पात्रों से अचानक अतीत के दृश्यों को प्रस्तुत करवाने की तकनीक ने मुझे बहुत प्रभावित किया। यह तकनीक पहली बार देखने को मिली। सभी पात्रों ने अपनी भूमिका को संजीदगी के साथ निभाया। जिस तरह कार्यक्रम के आरंभ में पावर पाइंट प्रस्तुति ने प्रभावित किया था, अंत में इस नाटक ने सब को उस से भी अधिक प्रभावित किया। कार्यक्रम के उपसंहार के रूप मे केवल भोजन शेष रह गया था। इस बीच शाहनवाज को अपना स्वास्थ्य कुछ खराब प्रतीत हुआ तो वे निकल लिए। भोजन का समय ही वह समय था जब मैं कुछ और लोगों से मिल लेना चाहता था। लेकिन मुझे मोहिद्र कुमार जी के साथ निकलना था। लेकिन मुझे लगा कि वे भी कोई जल्दी में नहीं हैं। मुझे विमोचित पुस्तकें खरीदने का स्मरण हुआ मैं तेजी से लॉबी की और भागा जहाँ उन का विक्रय हो रहा था। लेकिन वहाँ कुछ नहीं था। विक्रय में लगे लोग अपना तामझाम समेट चुके थे। 

शुक्रवार, 6 मई 2011

अग्रवाल जी की भाव विह्वलता और साढू़ भाई का प्रेम

भाव विह्वल
डॉ.गिरिजाशरण अग्रवाल 
पॉवर पाइंट प्रस्तुति के बाद जैसे ही सब अतिथि मंचासीन हुए, सब से पहले हिन्दी साहित्य निकेतन के सचिव डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल बोलने खड़े हुए। आयोजन के मुख्य यजमान होने के कारण यह उन का अधिकार था कि वे अतिथियों का स्वागत कर उन का आभार प्रकट करें। लेकिन बेटी द्वारा प्रस्तुत पॉवर पाइंट प्रस्तुति ने उन्हें अत्यन्त भावविह्वल कर दिया था। वे उसी से आरंभ हुए, उन के स्वर से लग रहा था कि आत्मजा ने उन्हें जो  सम्मान दिया था उस के स्नेह से उत्पन्न आह्लाद उन्हें रुला देगा, जिसे वे जबरन रोके हुए थे। उन्हों ने बताया कि इस प्रस्तुति के विनिर्माण को दोनों बेटियों ने उन से छुपाया और उन के सो जाने के बाद रात-रात भर जाग कर उसे तैयार किया। निस्संदेह यह प्रस्तुति उन के जीवन की अद्भुत घटना थी जिसे वे शायद जीवन भर विस्मृत न कर सकेंगे। अपनी भावविह्वलता को नियंत्रित कर लेने के उपरांत उन्हों ने सभी अतिथियों का स्वागत किया और हिंदी साहित्य निकेतन की स्थापना से ले कर आज तक किए गए स्वयं के अथक प्रयत्नों के साथ मित्रों के सहयोग का स्मरण भी किया। उन्होंने कार्यक्रम के अध्यक्ष अशोक चक्रधर को अपना छोटा भाई बताते हुए उन के योगदान की चर्चा की। उन्हों ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री 'निशंक' की उपस्थिति में यह भी कहा कि निकेतन का विकास बिना किसी सरकारी सहायता के वे कर पाए हैं। उन के स्वर में सहायता न मिल पाने का दर्द अधिक था।

गिरिराज शरण जी के इस वक्तव्य के उपरांत धड़ाधड़ एक के बाद एक पुस्तकों और पत्रिकाओं के विमोचन हुए। बंडलों का खोला जाना, फिर सभी अतिथियों के पास एक-एक प्रति का पहुँचना और फिर सभी के द्वारा एक-एक प्रति को दर्शकाभिमुख कर प्रदर्शित कर चित्र खिंचवाना, आज कल विमोचन की सामान्य प्रक्रिया हो चली है, जो निभाई गई। मौके की नोईयत को देखते हुए यह काम इतनी त्वरित गति से हुआ कि कभी-कभी कोई अतिथि विमोचित पुस्तक/पत्रिका का अंतिम कवर पृष्ठ भी दर्शकाभिमुख कर देता और पड़ौसी अतिथि उसे ठोसा देकर उस का ध्यान आकर्षित करता और उस की आमुख दर्शकाभिमुख करवाता। इस समूह विमोचन में मुख्यमंत्री निशंक ने एक अपनी ही पुस्तक का विमोचन भी किया। जिस के बारे में गिरिराज जी ने बताया कि मंच से उस के विमोचन की घोषणा होने तक भी उन्हें यह पता नहीं लगने दिया गया था कि वे अपनी ही पुस्तक का विमोचन करने जा रहे हैं।
ब्लागिरी पर पुस्तक का विमोचन
स के उपरांत 64 ब्लागरों का सम्मान आरंभ हो गया। अब मंच संचालन का दायित्व एक बार पुनः रविन्द्र प्रभात ने अपने हाथों में ले लिया था। ऐसा दृष्य था जैसे किसी स्कूली प्रतियोगिता का समापन समारोह हो और प्रतियोगी बालक-बालिकाओं को पुरस्कार वितरित किए जा रहे हों। ब्लागरों में भी पुरस्कार प्राप्त करने का उत्साह बालकों जैसा ही था, वे भी पूरी तरह आह्लादित थे। रविन्द्र जी एक नाम पुकारते, फिर वह दर्शकों में से निकल कर मंच तक पहुँचता, अपना पुरस्कार लेता, तब तक अगले ब्लागर का नाम लिया जा रहा होता। कुछ ही देर बाद दर्शक यह पता करने में असमर्थ हो गए कि जो ब्लागर सम्मान ग्रहण कर रहा है, वह कौन है। दर्शकों की चौथाई संख्या तो पुरस्कृत व्यक्तियों की ही थी। इस बीच दर्शकों के बीच हलचल बढ़ गई और शोर भी। हर पुरस्कार पर कम या अधिक करतल ध्वनि गूंज उठती। समय सात से ऊपर हो चुका था। पुरस्कार वितरण, ग्रहण, दर्शन और व्यवस्था में सब इतने मशगूल थे कि आमंत्रण पत्र में वर्णित दूसरा सत्र और उस के अतिथि सभी से विस्मृत हो गए।

मुझे मंच पर एक लंबा सा दाढ़ी वाला नौजवान दिखा जो एक कैमरा स्टेंड पर अपना कैमरा टिकाए चित्र ले रहा था। । मैं पहली बार उसे देख रहा था, फिर भी तुरंत ही पहचान गया।  मैं ने पास बैठे शाहनवाज को उसे दिखा कर पूछा -इसे पहचान रहे हो? वे कुछ देर विस्मय से उस नौजवान को देखते रहे, फिर कहा -कहीं यह सिरफिरा तो नहीं? मैं ने बताया वही है, यह भी कहा कि इस से समारोह के बाद मिलेंगे। हम फिर पुरस्कार समारोह के दर्शन में व्यस्त हो गए। कुछ ही देर में मैं ने देखा कि शाहनवाज पास की सीट से गायब हैं। तभी मैं ने रतनसिंह शेखावत को हॉल से बाहर जाते देखा। वे फरीदाबाद में रहते हैं और मेरी सोच थी कि समारोह की समाप्ति के बाद मैं उन के वाहन पर लिफ्ट ले कर निकल लूंगा। शोभा वहीं बेटी के घर टिकी हुई थी। हमें अगले दिन वापस भी आना था। मैं भी तुरंत उन के पीछे बाहर की ओर लपका। बाहर निकल कर देखा तो बहुत लोग लॉबी में आपस में मिलने और विमोचित पुस्तकें खरीदने की जुगाड़ में थे। रतनसिंह जी उसी भीड़ में खो गए थे। कुछ ही देर में मैं ने उन्हें तलाश लिया। मैं उन से पहली बार प्रत्यक्ष हो रहा था।
रतनसिंह शेखावत
हले भी दो बार अवसर था जब हम मिल सकते थे। लेकिन जब मैं फरीदाबाद में होता तो वे व्यस्त होते। हम नहीं मिल सके। वे मेरे लिए एक महत्वपूर्ण ब्लागर हैं, इस मायने में कि वे अपने ब्लाग के माध्यम से राजस्थान के इतिहास की अनेक अलिखित कथाओं को सामने ले कर आए हैं। मेरी भी इस काम में रुचि रही है। हम मिले तो कुछ औपचारिक बातों के बाद वे एक कहानी बताने लगे कि कैसे शेखावतों का एक हिस्सा राजस्थान से गायब हो गया था और कैसे उन के वंशज अब उत्तर प्रदेश में मिल गए। मेरे पूछने पर उन्हों ने बताया कि वे बाइक से आए हैं। मैं ने उन्हें बताया कि मैं तो उन से लिफ्ट ले कर फरीदाबाद लौटने की सोचता रहा। उन्हों ने ही मुझे सुझाया कि मोहिन्द्र कुमार जी जाएँगे मैं उन के साथ निकल लूँ। उन से परिचय भी कराया। मैं ने मोहिन्द्र जी से कहा तो वे मुझे वापसी में फरीदाबाद सेक्टर 28 तक लिफ्ट देने को तैयार हो गए। मेरा रात्रि को ही फरीदाबाद लौटना तय हो गया था। यह अच्छा ही हुआ कि यह रमेश कुमार जैन सिरफिरा से मिलने के पहले ही तय हो गया। पहले उन से मिल लिया होता तो शायद वे मुझे अपने घर ले जा चुके होते। मैंने वहाँ आस पास निगाह दौड़ाई तो शाहनवाज दिखाई न दिए। पुस्तक काउंटर पर पुस्तकों को घेर कर लोग खड़े थे। मुझे वहाँ तक खुद के पहुँचने की संभावना क्षीण नजर आई तो मैं वापस हॉल में चला गया। पुरस्कार वितरण अंतिम  दौर में था। इस बीच मेरी मुलाकात निर्मला कपिला जी से हो गई। जैसा चित्र में वे दिखाई देती हैं उस से अधिक सुंदर और ममताशील थीं। मैं सोचता रहा कि यदि मेरी कोई बड़ी बहिन होती तो ऐसी ही होतीं। मैं उन की कहानियों का मुरीद हूँ। ऐसी सच्ची कहानियाँ मुझे कहीं नहीं मिलीं। वे पात्रों के चरित्र चित्रण में जरा कंजूस हैं और बीच की बहुत सी घटनाओं का अनुमान पाठकों पर छोड़ देती हैं। वे अपनी कहानी को सीधे मुख्य पात्रों के माध्यम से ही कहती हैं, यदि वे कंजूसी और पाठकों के अनुमान का सहारा न लें और कुछ सहायक पात्रों का उपयोग करने लगें तो उन की बहुत सी कहानियाँ हैं जो उपन्यास बनने को तैयार बैठी हैं। यह उन की किस्सागोई की विलक्षणता है कि वे एक उपन्यास की विषय वस्तु आप को एक कहानी में दे देती हैं। हो सकता है कि वे भविष्य का साहित्य रच रही हों। जब उपन्यास के लिए पाठक के पास वक्त ही नहीं होगा और वे एक छोटी सी कहानी में सारी विषय वस्तु को जानना चाहेंगे।
निर्मला कपिला जी, सम्मान ग्रहण करते हुए
पिला जी के साथ उन के पति भी थे। उन का स्वभाव लगा बहुत ही सरल प्रतीत हुआ। कहते हैं कि किसी पुरुष की सफलता में किसी स्त्री का हाथ अवश्य होता है। उन से मिल कर मुझे लगा कि कपिला जी के इतनी अच्छी कथाकार होने और एक नौजवान विद्यार्थी की तरह इस आयु में ग़ज़लों पर अभ्यास कर के उस में सफलता हासिल कर प्रसन्नता प्राप्त करने में निर्मला जी का बखूबी साथ दिया है। उन की सफलता के एक स्तंभ वे ही हैं। वे दोनों हॉल में मेरे समीप ही बैठ गए। हम बतियाने लगे। इस बीच सम्मान समारोह पूरा हो कर मंचासीन लोगों के वक्तव्य आरंभ हो चुके थे। किस ने क्या कहा इस का ब्यौरा उस दिन जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति, उस के आधार पर बने समाचारों और ब्लागरों व कुछ पत्रकारों द्वारा समाचार पत्रों और वेबसाइटों पर प्रस्तुत विवरणों में आप लोग पढ़ चुके होंगे। अतिरिक्त रूप से मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि मुख्यमंत्री ने अपने भाषण का सारा जोर इस बात में लगा दिया कि उन्हों ने उत्तराखंड को विकास दिया है, गंगा को साफ किया है और पर्यटकों को सुविधाएँ प्रदान की हैं। वे हर किसी को उत्तराखंड यात्रा पर बुलाने का न्यौता दे रहे थे। उन्हों ने अग्रवाल जी की बहुत प्रशंसा की कि उन्हों ने असुविधाओं के बीच प्रकाशन संस्थान स्थापित कर उत्तराखंड के लेखकों को एक मंच प्रदान कर हिन्दी के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्हों ने अग्रवाल जी को किसी तरह की सुविधा उपलब्ध कराने या सहायता प्रदान करने का कोई आश्वासन तक नहीं दिया। अभी अभी विवादों के घेरे में आये निशंक फिर से किसी नए विवाद को जन्म नहीं देना चाहते थे।  उधर चक्रधर जी ने अपनी लच्छेदार शैली में बोलते हुए कहा कि वे अग्रवाल जी के भाई नहीं हो कर साढू़ भाई हैं। शायद भाई से अधिक प्रेम साढ़ू भाई में होता है, वहाँ आपसी प्रेम के साथ-साथ पत्नियों का प्रेम भी तो जुड़ जाता है। 

गुरुवार, 5 मई 2011

परिकल्पना सम्मान : लोकसंघर्ष के जनसंघर्ष से साहित्य निकेतन की उत्तर आधुनिकता तक

मुख्यमंत्री 'निशंक' की प्रतीक्षा में समारोह पौने दो घंटे देरी से चल रहा है। जैसे ही यह बात मैं ने नजदीक बैठे शाहनवाज को कही, उन्हों ने चिंता से कहा। आगे के कार्यक्रमों का पता नहीं क्या होगा। अभी अभी हिन्दी साहित्य निकेतन की 50 वर्ष की विकास यात्रा का पावर पाइंट देखा था। मेरी आँखों के सामने परिकल्पना  सम्मान की विकास यात्रा गुजरने लगी ... इस सम्मान 2010 की घोषणा 9 जुलाई 2010 को परिकल्पना ब्लाग पर तथा 10 जुलाई 2010 को लोकसंघर्ष ब्लाग पर आई पोस्टों पर हुई थी। तब यह लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान था और श्रेष्ठ सृजनकारों से रूबरू कराने हेतु ब्लाग पोस्टों की एक श्रंखला मात्र थी। लोकसंघर्ष जनसंघर्ष को समर्पित एक वामपंथी पत्रिका और ब्लाग है। इस से लगा था कि इस सम्मान की आधारशिला सामाजिक यथार्थ और संघर्षशील जनता की संस्कृति के इर्द-गिर्द रहेगी। फिर 12 जुलाई 2010 से परिकल्पना और ब्लोगोत्सव-२०१० ब्लागों पर प्रतिदिन एक ब्लागर को पुरस्कार घोषित होने लगा और इन ब्लागों पर एक सम्मान पत्र प्रकाशित किया जाता। यह ब्लागजगत की आभासी दुनिया में ब्लागरों का आभासी सम्मान था। ब्लागर इस सम्मान से रोमांचित और प्रसन्न भी थे। यह सिलसिला करीब दो माह वर्ष के श्रेष्ठ ब्लागर का सम्मान घोषित होने तक चलता रहा।  इस के कुछ दिन बाद ब्लाग विश्लेषण की श्रंखला आरंभ हो गई जो काफी लोकप्रिय हुई। फिर अचानक 9 मार्च 2011 को परिकल्पना पर ही घोषणा हुई कि "हिन्‍दी ब्‍लॉगरों, प्रेमियों, साहित्‍यकारों : 30 अप्रैल 2011 को दिल्‍ली के हिन्‍दी भवन में मिल रहे हैं। इस घोषणा में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि हिन्दी साहित्य निकेतन 50 वर्षों की अपनी विकास-यात्रा और गतिविधियों को आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए 30 अप्रैल २०११ दिन शनिवार को दिल्ली के हिंदी भवन में एक दिवसीय भव्य आयोजन कर रहा है।"


हाँ यह भी कहा गया था कि "इस अवसर पर देश और विदेश में रहने वाले लगभग 400 ब्लॉगरों का सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, जिसमें परिकल्‍पना समूह के तत्‍वावधान में इतिहास में पहली बार आयोजित ब्लॉगोत्‍सव 2010 के अंतर्गत चयनित 51 ब्लॉगरों का ‘सारस्‍वत सम्मान’ भी किया जाएगा। इस अवसर पर लगभग 400 पृष्ठों की पुस्तक ( हिंदी ब्लॉगिंग : अभिव्यक्ति की नई क्रान्ति), हिंदी साहित्य निकेतन की द्विमासिक पत्रिका ‘शोध दिशा’ का विशेष अंक ( इसमें ब्लॉगोत्सव -२०१० में प्रकाशित सभी प्रमुख रचनाओं को शामिल किया गया है) मेरा (रविन्द्र प्रभात का) उपन्यास (ताकि बचा रहे गणतंत्र ), रश्मि प्रभा के संपादन में प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका (वटवृक्ष ) के प्रवेशांक के साथ-साथ और कई महत्वपूर्ण किताबों का लोकार्पण होना है ! इस कार्यक्रम में विमर्श,परिचर्चाएँ एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आकर्षण का केंद्र होंगे। पूरे कार्यक्रम का जीवंत प्रसारण इंटरनेट के माध्यम से पूरे विश्व में किया जाएगा।" कार्यक्रम का समय शनिवार 30 अप्रैल 2011, दोपहर 3 बजे से रात्रि‍ 8.30 बजे तक घोषित किया गया था उस के उपरान्त रात्रि‍ 8 .30 बजे भोजन होना था।

जितनी बड़ी घोषणाएँ की गई थीं उस के हिसाब से समस्त कार्यक्रम के लिए डेढ़ दिनों में चार सत्र वांछित थे। इन कार्यक्रमों को इस से कम समय देना उन के साथ अन्याय होता। लेकिन जैसी हमारी आदत है हम दो सवारी के लिए बनी बाइक पर पत्नी और तीन और कभी कभी चार बच्चों को सवारी करा सकते हैं, लाइन की बस का कंडक्टर सवारियों को बस में उसी तरह ठूँस सकता है जैसे आटा चक्की वाला आटे को लकड़ी के डंडे से ठोक-ठोक कर ठूँसता है, यह महसूस हो गया था कि कार्यक्रम साढ़े पाँच घंटे के समय में जबरन ठूँसा जाएगा। तब किस के साथ न्याय होगा और किस के साथ अन्याय? यह अनुमान करना दुष्कर था। तब यह भी पता नहीं था कि कार्यक्रम के मुख्य, विशिष्ठ अतिथि, अध्यक्ष आदि कौन हो सकते हैं। लेकिन इतना जरूर अनुमान हो चला था कि उस दिन चार सौ नहीं तो कम से कम सौ-डेढ़ सौ ब्लागर देश के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली में अवश्य एकत्र होंगे। मैं ने डायरी मैनेज की और एक दिन पहले शुक्रवार 29 अप्रेल को कोई काम नहीं रखा। मुझे पूरे तीन दिन मिल रहे थे। मेरा दिल्ली आने का मन बन चुका था, लेकिन मैं इसे पूरी तरह व्यक्तिगत यात्रा बनाना चाहता था और मैं ने किसी को भी सूचित नहीं किया कि मैं दिल्ली पहुँच रहा हूँ। बाद में लोकसंघर्ष पत्रिका/ब्लाग के रणधीर सिंह की एक पोस्ट हमारीवाणी ई-पत्रिका प्रकाशित हुई जिस में इसी कार्यक्रम की घोषणा की और उसी के साथ एक निमंत्रण पत्र भी प्रकाशित किया गया जो ब्लागरों को ई-मेल से भी प्रेषित किया गया। इस निमंत्रण पत्र में सूचित किया गया था कि कार्यक्रम 30 अप्रेल को 4.00 बजे आरंभ होगा तथा 6.00 बजे समाप्त होगा। चाय के बाद दूसरा सत्र 6.30 पर आरंभ होगा जिस में  हिन्दी साहित्य निकेतन की विकास यात्रा, पुस्तकों का लोकार्पण तथा हिन्दी ब्लागरों का सारस्वत सम्मान किया जाएगा इस कार्यक्रम का उद्घाटन उत्तराखंड के मुख्य मंत्री निशंक व अध्यक्षता अशोक चक्रधर करेंगे, रामदरश मिश्र व अशोक बजाज मुख्य और विशिष्ठ अतिथि होंगे तथा प्रेम जनमेजय और विश्वबंधु गुप्ता का सानिध्य रहेगा।  दूसरे सत्र में "न्यू मीडिया की भूमिका" विषय पर संगोष्ठी होनी थी जिस की अध्यक्षता प्रभाकर श्रोत्रीय को करनी थी, मुख्य अतिथि पुण्य प्रसून वाजपेयी व विशिष्ठ अतिथि उदयप्रकाश घोषित किए गए थे तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ, अजीत अंजुम व देवेंद्र देवेश का सानिध्य रहना  था। इस घोषणा के साथ ही सम्मान समारोह की आगे की रूपरेखा में सुमन जी की भूमिका समाप्त प्रायः हो गई थी। एक तरह से यह परिकल्पना सम्मान को उत्तर-आधुनिकता प्रदान करने के लिए सुमन जी का नाइस प्रमाणपत्र था।  इस के साथ ही लोकसंघर्ष का नाम भी समारोह के हर दृश्य से गायब हो चुका था। सम्मान प्रकल्प जनसंघर्ष से आरंभ हो कर उत्तर-आधुनिक युग में प्रवेश कर चुका था।  

दीपिका गोयल
चित्र सौजन्य: पद्म सिंह
मारोह के आरंभ के पूर्व जो अघोषित कार्यक्रम चल रहा था उस का संयोजन रविन्द्र प्रभात के कुशल हाथों में था। लेकिन जैसे ही निशंक जी के द्वार तक पहुँचने की सूचना आयोजकों को प्राप्त हुई कार्यक्रम का संचालन रविन्द्र प्रभात जी के हाथों से हिन्दी साहित्य निकेतन के सचिव की पुत्री दीपिका गोयल के सिद्ध हाथों में चला गया।  मंच के नीचे हॉल में ही उद्घाटन कर्ता व अन्य अतिथियों का स्वागत किया गया और उन्हें मंच के स्थान पर दर्शकों की पहली पंक्ति में बैठने को कहा गया। इस का कारण हिन्दी साहित्य निकेतन की 50 वर्षों की विकास यात्रा पर दीपिका गोयल की पॉवर पाइंट प्रेजेण्टेशन की प्रस्तुति रही जिसे उन की मधुर आवाज में रिकार्ड किया गया था। हॉल की बत्तियाँ बुझा दी गई और प्रेजेण्टेशन आरंभ हुआ। यह चित्रमय और काव्यमय प्रस्तुति अद्भुत थी। निस्सन्देह इस पर कड़ा श्रम किया गया था जिस का काव्य संयोजन स्पष्टतः अशोक चक्रधर का था, हालाँकि इस का श्रेय गीतिका गोयल ने प्राप्त किया।  पावर पाइंट प्रस्तुति ने सभी को प्रभावित किया। इस के बाद जब बत्तियाँ पुनः रोशन हुई तो छह बज कर कुछ मिनट हो रहे थे। पहले कार्यक्रम का समय समाप्त हो कर चाय का समय था लेकिन कार्यक्रम तो अब आरंभ हो रहा था। उद्घाटनकर्ता व अन्य अतिथिगण मंच पर जा कर अपना स्थान ग्रहण कर रहे थे। 

मंगलवार, 3 मई 2011

शाहनवाज के घर से हिन्दी भवन तक

शाहनवाज के घर पहुँचे तो आधी रात होने में एक घंटा भी शेष न था। तुरंत ही एक सुंदर स्त्री पानी ले कर हाजिर थी। शाहनवाज ने तआर्रुफ़ कराया -ये आप की बहू है। मैं ने उन्हें अभिवादन किया। फरीदाबाद से चलने के पहले ही बता चुका था कि मैं भोजन कर के चला हूँ, फिर भी उन्हों ने भोजन के लिए पूछा। मैं ने उन्हें कहा -सिर्फ कॉफी पीना चाहता हूँ। हम बातों में लगे ही थे कि कॉफी के साथ बहुत सारा नाश्ता आ गया। खुशदीप भाई और सतीश सक्सेना जी से बात हुई। सुबह हम सब का मिलना तय हुआ। देर रात तक शाहनवाज मुझे हमारीवाणी के तकनीकी पहलू बताते रहे। 

सुबह नींद खुली तो लगा कि अभी पाँच बजे होंगे। घड़ी देखी तो पौने आठ बजने वाले थे। कमरे में रोशनी का प्रवेश कम होने से ऐसा लग रहा था। मैं तुरंत उठ बैठा। कुछ ही देर में शाहनवाज आ भी आ गए, और उन के पीछे-पीछे कॉफी भी। हम फिर बातों में मशगूल हो गए। उधर खबर लगी कि टीम छत्तीसगढ़ (टीसी) दिल्ली पहुँच चुकी है और पहाड़गंज के किसी होटल में प्रातःकर्म निपटा रही है। इस बीच शाहनवाज की प्यारी सी, छोटी छोटी दो बेटियों से मुलाकात हुई। वे नींद से उठ कर आयी थीं और सीधे शाहनवाज से चिपक गई थीं। उन्हें सुबह के नाश्ते में पिता से स्नेह चाहिए था, जो उन्हें भरपूर मिला। स्नान और नाश्ते से निवृत्त होते-होते साढ़े दस बज गए। हम ने खुशदीप जी के यहाँ जाना तय किया, लेकिन रवाना होने के पहले उन से बात कर लेना उचित समझा। बात की तो पता लगा कि सतीश भाई उनके यहाँ हैं और वे इधर ही आ रहे हैं। कुछ ही देर में दोनों हमारे बीच थे। वे कचौड़ियाँ और मिठाई साथ लाए थे। हम ने हमारीवाणी के संबंध में चर्चा आरंभ कर दी। इस चर्चा में हम ने हमारीवाणी संकलक और हमारीवाणी ई-पत्रिका के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण निर्णय लिए। फिर फोटो सेशन हुआ। चारों के चित्र लेने के लिए बहूजी को कैमरा सौंपा गया। हमारी योजना अजय. झा के यहाँ जाने की थी। उन के पिता को उन से बिछड़े पखवाड़ा भी नहीं हुआ था। हम उन से अब तक नहीं मिल सके थे। इसी कारण शाम के कार्यक्रम में भी उन के आने की कोई संभावना नहीं थी। लेकिन देरी हो चुकी थी कि वे कई दिन के अवकाश के बाद पहली बार अपनी ड्यूटी पर जा चुके थे। हम ने उन के कार्यस्थल पर मिलना उचित नहीं समझा।
हमारीवाणी टीम के सदस्य शाहनवाज के घर
चित्र  सौजन्य : सतीश सक्सेना
फिर पाबला जी से बात हुई, टीसी अभी होटल में जमी थी। हम तुरंत ही उन के होटल के लिए रवाना हो गए।  वहाँ पहुँचे तो सब के सब लॉबी में ही मिले। सुनीता शानू भी वहाँ थीं सब को अपने यहाँ ले जाने को आई थीं। सतीश जी को अपने किसी निजि समारोह में शिरकत के लिए जाना था लेकिन शानू जी के आग्रह के सामने वे पिघल गए और उन्हों ने जिस गाड़ी में टीसी सवार थी उस के पीछे अपनी कार लगा दी। कोई आधे घंटे में हम वहाँ पहुँचे और पूरे सवा घंटे आतिथ्य का आनन्द लिया। सतीश भाई को फिर अपने निजि समारोह की याद आई, खुशदीप जी को भी स्मरण हुआ कि कुछ ब्लागर उन के घर पहुँचने वाले हैं। हम तुरंत वहाँ से चले। लेकिन बीच में हिन्दी भवन रुकने का लोभ संवरण न कर सके। वहाँ पहुँच कर अविनाश वाचस्पति को फोन किया। तो उन्हों ने पीछे से आ कर हमें चौंका दिया। कुछ ही देर में रविन्द्र प्रभात भी वहीं मिल गए। दोनों से बात हुई। वे तैयारियों में जुटे थे। हम अविनाश जी के साथ पीछे कार तक गए। हिन्दी साहित्य निकेतन के गिरजाशरण अग्रवाल भी वहीं थे और कार से पुस्तकें व मोमेण्टो उतरवा रहे थे। उन्हें व्यस्त देख हमें लगा कि हम उन के काम में मदद करने के स्थान पर व्यवधान बन सकते हैं। हम ने उन से काम भी पूछा, लेकिन अविनाश जी का कहना था कि आप लोग समय पर पहुँच जाएँ इतना ही पर्याप्त है। वहाँ से चले तो ढाई बज चुके थे और हमें जा कर वापस भी लौटना था। इसलिए बिना समय व्यर्थ किए हम वहाँ से चल दिए। मुझे और शाहनवाज को छोड़ सतीश भाई और खुशदीप चल दिए। मेरे पास कोई काम न था। शाहनवाज को कुछ जरूरी घरेलू काम निपटाने थे। मैं ने तनिक विश्राम करना उचित समझा। मैं सो कर उठा तो पौने चार बज रहे थे। शाहनवाज  चिंतित हो रहे थे कि अब समय पर नहीं पहुँच सकेंगे तो अविनाश जी को अच्छा नहीं लगेगा। हम तुरंत ही तैयार हो कर बाइक से ही हिन्दी भवन रवाना हो गए।

म पहुँचे तो पाँच बज चुके थे। सारे रास्ते शाहनवाज चिंतित थे कि देरी से आने के कारण अविनाश जी की नाराजगी झेलनी पड़ेगी। मैं उन्हें सान्त्वना देता रहा कि समारोह अभी आरंभ ही न हुआ होगा। हिन्दी भवन के बाहर बहुत लोग खड़े थे। पता चला अभी समारोह आरंभ नहीं हुआ है। शाहनवाज को  तसल्ली हुई।  ऊपर हॉल के बाहर की लॉबी में पहुँचे। तो वहाँ वे सभी पुस्तकें जिन का विमोचन होना था टेबलों पर सजी थीं। हमने उन्हें खरीदना चाहा तो बताया गया कि विमोचन के पहले बिक्री नहीं की जाएगी। हम ने कुछ दूसरी पुस्तकें देखीं। इस बीच ब्लागरों से मिलना आरंभ हो गया। मेरी कठिनाई थी कि मैं कम लोगों को पहचान पा रहा था, लेकिन अधिकांश ब्लागर मुझे सहज ही पहचान रहे थे। शायद मेरी सपाट खोपड़ी उन के लिए अच्छा पहचान चिन्ह बन गई थी। वहाँ बहुत लोगों से मिलना हुआ। मैं सब के नाम बताने लगूंगा तो कुछ का छूटना स्वाभाविक है। फिर जिन के नाम छूट जाएंगे मैं उन का दोषी हो जाउंगा। इस लिए मैं कुछ एक ब्लागरों का ही यहाँ उल्लेख करूंगा। हम लॉबी छोड़ कर हॉल में पहुँचे। वहाँ करीब ढाई सौ दर्शक बैठ सकते थे। लगभग चौथाई हॉल में लोग बैठे थे। देरी होने के कारण रविन्द्र प्रभात कुछ ब्लागरों के भाषण करवा रहे थे। हम ने निगाह दौड़ाई तो अनेक परिचित ब्लागर वहाँ दिखाई दिए। उन में से अनेक को पहचानने में शाहनवाज ने मेरी मदद की। मैं वहाँ बैठने के स्थान पर बाहर लॉबी में जाना चाहता था, जिस से अधिक से अधिक ब्लागरों से भेंट कर सकूँ। लेकिन तभी रविन्द्र प्रभात जी ने मंच से घोषणा की कि कुछ देर में दिनेशराय द्विवेदी ब्लागरी के कानूनी पहलुओं पर संक्षिप्त जानकारी देंगे।  इस घोषणा से मैं बंध गया। पहले से कुछ तय नहीं था। इसलिए सोचने लगा कि क्या बोलूंगा? 
समारोह के दौरान हिन्दी भवन का लगभग पूरा हॉल, कितना खचाखच भरा है? 
चित्र  सौजन्य : पद्म सिंह
मैं बोलने से बहुत घबड़ाता हूँ। जब भी बोलता हूँ, मुझे समय सीमा का ज्ञान नहीं रहता, और श्रोताओ को भी। संचालक समय बीतता देख कुड़कुड़ाता रहता है। अक्सर ही संचालक की पर्ची मुझ तक पहुँचती है कि जरा संक्षिप्त करो। छात्र जीवन में पहली बार जब मुझे जबरन अपनी इच्छा के विपरीत मुझे बोलना पड़ा था तो पाँच मिनट की सीमा तय थी। लेकिन मैं बोलता रहा, श्रोता तालियाँ बजाते रहे।  मैं मंच से उतरा तो पता लगा मैं पूरे सवा घंटे बोल चुका हूँ। यहाँ स्थिति कुछ विचित्र थी। वास्तव में  विशेष अतिथि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की प्रतीक्षा हो रही थी, वे कभी भी वहाँ पहुँच सकते थे। उन के पहुँचने पर बोलने वाले को तुरंत ही मंच से विदा होना पड़ता। तब वक्ता की स्थिति बहुत असहज हो जाती। ऐसा लगता जैसे किसी को पूरा खाने के पहले ही खाने की टेबल से उठा दिया गया हो। मैं ने तय किया कि मैं एक या दो मिनट में अपना संदेश पूरा कर दूंगा। 

जैसे ही मंच से बोलने वाले वक्ता ने अपना वक्तव्य पूरा किया, मुझे बुलाया गया। मैं ने मंच पर पहुँच कर इतना ही बोला कि "समाज में बोलने और लिखने के कानून हैं। यदि उन को हम तोड़ते हैं तो अपराध होता है, जिस के लिए सजा हो सकती है, दीवानी दायित्व भी आ सकता है। वे सभी कानून ब्लागरी पर भी लागू होते हैं, कोई अलग से कानून नहीं है। इसलिए ब्लागरों को चाहिए कि वे सभी सावधानियाँ जो समाज में उन्हें बरतनी चाहिए ब्लागरी में भी बरतें।" मैं दो मिनट से कम समय में ही मंच से उतर आया था। मेरे बाद फिर किसी को मंच पर बोलने के लिए बुला लिया गया। तभी बोलने वाले को बीच में हटा कर सूचना दी गई कि विशेष अतिथि आ चुके हैं और हमारे स्वागत के पहले मीडिया वाले उन का बाहर स्वागत कर रहे हैं। मुझे तसल्ली हुई कि मैं समय रहते मंच से उतर लिया। वरना......।  मैं ने अपना मोबाइल निकाल कर समय देखा तो पौने छह से ऊपर समय हो चुका था। समारोह पौने दो घंटे पीछे चल रहा था। 

बेरोजगार मक्खन ढक्कन कोटा में

सुबह पत्नी ने समय पर जगाया तो था, पर रात देर से सोने के कारण उठ नहीं पाया नींद फिर लग गई। फिर नींद खुली तो कॉलबेल बज रही थी। पत्नी ने आ कर बताया कि एक अधेड़ पुरुष और स्त्री और एक नौजवान खड़ा है। मैं समझा कोई नया मुवक्किल है। उसे कहा कि उन्हें ऑफिस में बिठाओ। मैं अपनी शक्ल दुरुस्त करने को बाथरूम में घुस गया। दस मिनट बाद बदन पर कुर्ता डाल कर ऑफिस में घुसा तीनों हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। मैं ने उन्हें कहा -वकील तो फीस ले कर काम करता है, हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं। वे तीनों फिर भी खड़े रहे। मैं अपनी कुर्सी पर बैठा तो भी खड़े रह गए। 

मैं ने पूछा -कहाँ से आए हो? कैसे आए हो? क्या काम है? तो अधेड़ पुरुष बोलने लगा।

-साहब! आप ने पहचाना नहीं? हम सीधे नोएडा से आ रहे हैं। मक्खन हूँ और ये मक्खनी और ये ढक्कन। कई महिनों से खुशदीप जी के यहाँ काम करते थे। उनको पता नहीं क्या हुआ। शनिवार को रात को घर लौटे तो गला एकदम खराब था। आते ही बोले -भई मक्खन-ढक्कन अपने यहाँ से तुम्हारा दाना-पानी उठ गया। हमारा स्लॉग ओवर बंद हो गया। एक महिने की एडवांस तनखा ले जाओ और काम ढूंढ लो। हम रात को कहाँ जाते तो रात उन के बरामदे में काटी। शायद सुबह तक साहब का मूड़ कुछ ठीक हो जाए। पर सुबह भी साहब का वही आलम था। गला इतना खराब था कि उन से बोले ही नहीं जा रहा था। हमें इशारे में समझाया कि हमें जाना ही पड़ेगा।

मैं मक्खन परिवार को देख एकदम सकते में आ गया। मैं ने पढ़ा तो था कि खुशदीप जी ने ब्लागरी को अलविदा कह दिया है। पर ये अंदाज नहीं था कि वे स्लॉग ओवर भी बंद कर देंगे। मैं ने मक्खन से पूछा- फिर तुम ने क्या किया? 

-साहब! हम ने साहब का नमक खाया है। हम तो उन की हालत देख कर कुछ कहने के भी नहीं थे। उन से महिने की एडवांस तनखा भी नहीं ली और चल दिए। हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पहुँचे तो वहाँ जो ट्रेन खड़ी थी, उस में बैठ गए। टिकट तो था नहीं। टीटी ने पकड़ लिया और कोटा तक ले आया। हम ने टीटी को दास्तान सुनाई तो उसे हम पर रहम आ गया। बोला यहाँ किसी को जानते हो। हम ने आप का नाम बताया। तो वह आप को जानता था। उस ने कहा कि अभी रात है स्टेशन पर गुजार लो मैं द्विवेदी जी का पता दे देता हूँ। सुबह उन के यहाँ चले जाना। सुबह उजाला होते ही स्टेशन से चल दिए। पूछते-पूछते आप के घर आ गए हैं। 

मैं सकते में था, मुझे समझ ही नहीं आ रहा था इन तीनों का क्या करूँ? फिर उन से ही पूछा -मुझ से क्या चाहते हो? मक्खन फिर कहने लगा।

-अब साहब का मूड तो लगता है हफ्ते-दो हफ्ते ठीक नहीं होगा। तब तक हम चाहते हैं कि आप यहाँ ही काम दिला दें,अपने यहाँ ही रख लें। जब उन का मूड ठीक हो जाएगा तो वे स्लाग ओवर जरूर चालू करेंगे। हम उन के पास वापस लौट जाएंगे। 

अब मैं क्या करता? अंदर जा कर पत्नी को सारी दास्तान सुनाई। तो वह कहने लगी -बेचारे इतनी दूर से आए हैं। उन्हें चाय की भी नहीं पूछी। मैं उन्हें चाय देती हूँ। तब तक आप सोच लीजिए क्या करना है। मैं क्या सोचता? मुझे तो तैयार हो कर अदालत जाना था। मैं तैयार होने में जुट गया। घंटे भर बाद ऑफिस घुसा तो मक्खन-मक्खनी और ढक्कन चाय पी चुके थे। मैं ने उन से कहा -तुम यहीं रुको। मैं दोपहर बाद अदालत से लौटूंगा तब तुम्हारे बारे में सोचेंगे। 

अदालत में फुरसत हुई तो ध्यान फिर मक्खन परिवार की ओर घूम गया। खुशदीप जी को फोन लगा कर बताया कि मक्खन-मक्खनी और ढक्कन इधर मेरे यहाँ पहुँच गए हैं, चिंता न करना। आप का गला ठीक हो जाए तो इन्हें वापस भेज दूंगा जिस से स्लॉग ओवर फिर आरंभ हो सके। खुशदीप बोल तो रहे थे पर गले से आवाज कम ही निकल रही थी, जैसे-तैसे बताया कि वे एंटीबायोटिक खा रहे हैं। मुझे तो एंटीबायोटिक के नाम से झुरझुरी छूट गई। मैं ने बताया कि मुझे तो इन से डर लगता है और मैं तो ऐसा मौका आने पर सतीश सक्सेना जी की होमियोपैथी की मीठी गोलियों से काम चला लेता हूँ। आप एंटीबायोटिक के बजाए सक्सेना जी को ट्राई क्यों नहीं करते? खुशदीप कहने लगे -शाम को चैनल की नौकरी भी करनी है। अब की बार तो एंटीबायोटिक खा ली हैं। सक्सेना जी को अगली बार ट्राई करूंगा। फोन कट गया। मैं असमंजस का असमंजस में रहा। सोचने लगा मक्खन-ढक्कन को अपने यहाँ ही रख लूँ। पर फिर ख्याल आया कि कहीं इन को रखने से खुशदीप नाराज न हो जाए। मुझे उपाय सूझ गया। 

ऑफिस से लौटते ही तीनों को कह दिया कि मैं तुम्हें काम दे भी सकता हूँ और दिलवा भी सकता हूँ। लेकिन खुशदीप जी से  नो-ऑब्जेक्शन लाना पड़ेगा। बेचारा मक्खन सुन कर सकते में आ गया। कहने लगा मेरे पास तो दिल्ली जा कर नो-ऑब्जेक्शन लाने का पैसा भी नहीं है। 

मैं ने उसे कहा -मैं तीनों का टिकिट कटा देता हूँ। कल सुबह की गाड़ी से दिल्ली चले जाना। हो सकता है तब तक खुशदीप जी स्लॉग ओवर चालू कर ही दें तो तुम्हारी पुरानी नौकरी ही बरकरार हो जाएगी, वापस न आना पड़ेगा और यदि कुछ दिन और लगें तो यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं शाहनवाज को फोन करता देता हूँ। तुम उन से मिल लेना वे स्लॉग ओवर शुरू होने तक तुम्हारा इंतजाम कर देंगे। तीनों इस पर राजी हो गए हैं। पत्नी ने उन्हें खाना परोस दिया है। तीनों बहुत तसल्ली से भोजन कर रहे हैं। अब ये कल तक मेरे मेहमान हैं। शाहनवाज को फोन किया तो वे छूटते ही बोले -वे तो गुड़गाँव शिफ्ट हो रहे हैं। फिर भी उन्हों ने मुझे तसल्ली दी कि वैसे तो स्लाग ओवर कल-परसों तक शुरू हो जाएगा। मक्खन-ढक्कन को परेशानी नहीं होगी। नहीं भी शुरू हुआ तो शुरू होने तक वह दोनों को सतीश सक्सेना जी के यहाँ काम दिला देंगे। अब मैं भी निश्चिंत हूँ कि आज रात की ही तो बात है सुबह जल्दी ही तीनों को गाड़ी में बिठा दूंगा। 

सतीश सक्सेना जी को फोन नहीं किया है। यदि वे भी कहीं टूर पर जा रहे होंगे तो फिर मक्खन-ढक्कन का क्या करूंगा। कल सुबह उन्हें गाड़ी से रवाना होने के बाद ही उन्हें फोन करूंगा। 

सोमवार, 2 मई 2011

मेट्रो में फौरी आशिक की धुलाई!

रिकल्पना पर 9 मार्च2011 को घोषणा की गई थी कि हिन्‍दी ब्‍लॉगरों, प्रेमियों, साहित्‍यकारों : 30 अप्रैल 2011 को दिल्‍ली के हिन्‍दी भवन में मिल रहे हैं। इसे पढ़ने पर मन को लगा था कि सौ से अधिक ब्लागर तो दिल्ली में एक स्थान पर अवश्य एकत्र हो जाएंगे। मन ने मुझ से कहा कि तुझे इस दिन दिल्ली में होना चाहिए,  सभी ब्लागरों से मिलने का अवसर मिल सकेगा। पर वकील का पेशा ऐसा है कि कुछ भी इतने दिन पहले निश्चित नहीं किया जा सकता। कोटा से दिल्ली जाना कठिन नहीं। एक दिन पूर्व भी यदि आरक्षण कराया जाए तो कोटा जनशताब्दी में स्थान मिल जाता है। सुबह 6 बजे कोटा से चले तो दोपहर साढ़े बारह बजे ह.निजामुद्दीन उतार देती है। बेटी पास ही फरीदाबाद में रहती है तो उस से मिलने के लालच ने भी इस अवसर पर उपस्थित होने के लिए प्रेरक का काम किया।  इस बीच अविनाश वाचस्पति और रविन्द्र प्रभात की पुस्तक तथा रविन्द्र प्रभात के उपन्यास की एडवांस बुकिंग के प्रयास आरंभ हो गए। नुक्कड़ पर सभी ब्लागरों को दिल्ली पहुँचने के लिए खुला निमंत्रण प्रकाशित करता रहा। यह निमंत्रण ई-मेल से भी ब्लागरों को भेजा गया। एक सप्ताह पहले डायरी ने बताया कि मैं 29 अप्रेल से 1 मई तक का समय अपने व्यवसाय से निकाल सकता हूँ। मैं ने 28 अप्रेल की मध्यरात्रि को कोटा से ह. निजामुद्दीन पहुँचने वाली ट्रेन में जाने की और 1 मई को दोपहर निजामुद्दीन से कोटा के लिए आने वाली शताब्दी एक्सप्रेस की टिकटें अपने और अपनी पत्नी शोभा के लिए बुक करवा ली।   

म 29 अप्रेल की सुबह फरीदाबाद बेटी के यहाँ पहुँचे, कुछ आराम किया। कुछ लोगों से मिले-जुले। इस बीच टीम हमारीवाणी के सदस्यों से फोन पर संपर्क हुआ। मैं ने तय किया कि मुझे रात्रि को ही दिल्ली पहुँच जाना चाहिए। मैं शाम का भोजन कर रात्रि आठ बजे फरीदाबाद से रवाना हुआ। एक घंटे के ऑटोरिक्षा के सफर के बाद मैं बदरपुर सीमा पर था। शाहनवाज के घर जाने के लिए मेट्रो का प्रीत विहार के लिए टोकन लिया। सेंट्रल सेक्रेट्रिएट से गाड़ी बदल कर राजीव चौक पहुँचा। यहाँ एक ही प्लेटफॉर्म से दो तरह की गाड़ियाँ थीं। एक आनन्द विहार जाने वाली, दूसरी  सिटी सेंटर नोएडा के लिए। मुझे आनन्द विहार वाली गाड़ी पकड़नी थी। प्लेटफॉर्म का सूचक बता रहा था कि आनन्द विहार वाली गा़ड़ी पहले आ रही है। गाड़ी आती दिखाई दी। उस पर आनन्द विहार लिखा देख मैं उस में चढ़ गया और चैन की सांस ली कि अब और गाड़ी नहीं बदलनी। शाहनवाज को फोन किया तो वे प्रीतविहार स्टेशन के लिए अपने घर से रवाना हो गए। गाड़ी एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो चली ही नहीं। गाड़ी का सूचक देरी के लिए खेद व्यक्त करने लगा। मुझे चिन्ता हुई कि शाहनवाज को स्टेशन पहुँच कर मेरी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। कुछ देर बाद गाड़ी चली तो यमुना बेंक आ कर गाड़ी फिर रुक गई और बहुत देर तक रुकी रही। कारण क्या था यह भी पता नहीं चल रहा था। फिर खेद व्यक्त किया जाने लगा। इस बीच शाहनवाज का फोन आ गया। वे स्टेशन पहुँच गए थे। मैं ने उन्हें स्थिति बताई। 

कुछ देर बाद यमुना बेंक से गाड़ी चली तो कुछ दूर चल कर रुक गई। यहाँ सूचना दी गई कि आनन्द विहार की ओर यात्रा करने वाले गाड़ी बदलने के लिए उतर जाएँ। मैं हैरान हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो आनन्द विहार वाली गाड़ी में ही बैठा था। जब मैं गाड़ी में सवार हुआ शायद गाड़ी पर गलती से आनन्द विहार डिस्प्ले हो रहा था। खैर मैं जल्दी से उतरा और गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ इंतजार के बाद गाड़ी आई तो उस में सवार हुआ। यहाँ गाड़ी में भीड़ थी मैं हैंडल पकड़ कर खड़ा हो गया। गाड़ी कुछ देर चली ही थी कि मेरे दाईं ओर से एक नौजवान चिल्लाया -कौन सा स्टेशन आने वाला है? इतनी जोर से बोलना मुझे असभ्यता लगी।  मैं ने चौंक कर उस की ओर देखा। तो वह डिब्बे के पीछे से निकल कर दरवाजे के पास आ रहा था। किसी ने उसे बताया कि लक्ष्मीनगर आने वाला है तो वह बीच में ही रुक गया। लक्ष्मीनगर स्टेशन पर सवारियाँ उतरी-चढ़ीं और गाड़ी आगे बढ़ गई। जोर से बोलने वाला युवक दरवाजे के पास आ कर खड़ा हो गया। जैसे ही स्टेशन आया और गाड़ी रुकने के लिए धीमी हुई वह युवक फिर चिल्लाया -कौन है वह बहन का भाई सामने आए! किसी ने उत्तर न दिया। उस ने वही वाक्य फिर दोहराया। मेरी बायीं और से कोई साठ वर्ष के एक सरदार जी ने ऊँची आवाज में कहा -मैं हूँ बहनों का भाई! 

गाड़ी रुकी, दरवाजा खुला तो वह युवक दरवाजे को बंद होने से रोक कर खड़ा हो गया। अब गाड़ी चल नहीं सकती थी। सिस्टम ही कुछ ऐसा था कि दरवाजे बंद हों तो गाड़ी चले। अब युवक चिल्ला रहा था जो भी बहनों के भाई हों सब आ जाएँ। देखते हैं कौन टिकता है। अब तक स्पष्ट हो गया था कि वह युवक शराब के नशे में है। गाड़ी रुक जाने से यात्री परेशान हो रहे थे। कुछ ने उस युवक को नीचे उतरने को कहा तो वह अकड़ गया -गाड़ी तो फैसला होने पर चलेगी। कुछ अन्य युवक जो उस के परिचित लगे उसे गाड़ी से उतारने का प्रयास करने लगे लेकिन वह युवक दरवाजे को रोके खड़ा रहा। इतने में गाड़ी में यात्री एक युवक गुस्सा गया, उस ने उस युवक को जबरन नीचे उतारा तो उस ने उस युवक को पकड़ कर प्लेटफार्म पर ही रोकना चाहा। फिर क्या था। गाड़ी से तीन चार पैसेंजर नीचे उतरे और शराबी युवक की धुलाई कर दी। फिर उसे घसीट कर गाड़ी में ले आए। वे चाहते थे कि गाड़ी चल पड़े तो उस युवक को धुलाई करते हुए आगे ले जाया जाए और फिर उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाए। लेकिन शराबी युवक के साथ वालों ने उसे खींच कर फिर से प्लेटफार्म पर उतार लिया। गाड़ी के दरवाजे बंद होने लगे तो एक यात्री युवक ने अन्य को इशारा किया तो यात्री सभी ट्रेन पर आ चढ़े। दरवाजा बंद हुआ और गाड़ी चल पड़ी। 

ब सरदार जी युवकों से नाराज हो रहे थे -जवान पट्ठे एक शराबी को गाड़ी में नहीं खींच पाए। उसे तो आगे ले जा कर ऐसा सबक सिखाना था कि इलाके के सब गुंडों को सबक मिल जाए। कुछ यात्री सरदार जी का गुस्सा शांत करने में जुट गए। कुछ उन युवकों को शाबासी देने लगे जिन ने उस शराबी युवक की धुलाई की थी। कहते हैं, दिल्ली मेट्रो में सुरक्षा जबर्दस्त है, लेकिन इतनी देर में कोई भी सुरक्षाकर्मी वहाँ दिखाई न दिया। रहा भी होगा तो उस ने इस घटना में कोई हस्तक्षेप न किया। हाँ इस घटना को देख कर अच्छा लगा कि दिल्ली मेट्रो के यात्रियों में सहभागिता और स्वसुरक्षा की भावना विकसित होने लगी है। सही भी है सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा जागरूक जनता ही कर सकती है, गुंडों से भी और भ्रष्टों से भी।  कुछ देर में गाड़ी प्रीत विहार स्टेशन पर थी। मैं वहीं उतर गया। स्टेशन के बाहर शाहनवाज मिल गए। यकायक मैं पहचान न सका। अब तक उन का क्लीन शेव चित्र देखा था। यहाँ वे खूबसूरत दाढ़ी में थे। वे मुझे अपनी बाइक पर बिठा कर अपने घर ले चले।