परिवर्तन जगत का नियम है। यदि परिवर्तन न हो, तो समय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। समय है, अर्थात परिवर्तन है। परिवर्तन की अपनी दिशा भी होती है। या तो वह पीछे की ओर होता है, या वह आगे की ओर। परिवर्तन में शक्ति या ऊर्जा लगती है। परिवर्तन जगत का नियम है लेकिन फिर भी हम जगत को वैसा ही बनाए रखना चाहते हैं, जैसा कि वह है तो परिवर्तन को रोकने के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होगी।
जब भी हम कोई काम करते हैं तो उस से परिवर्तन होना निश्चित है। वह वांछित या अवांछित हो सकता है, लेकिन होता है। जब किसी वांछित परिवर्तन के लिए हम अपनी ऊर्जा का प्रयोग करते हैं तो ऊर्जा का उपयोग उस दिशा में होना चाहिए जिस दिशा में हम परिवर्तन चाहते हैं। लेकिन हमारी पद्धति के कारण हमारी इच्छा के विपरीत बहुत सारी ऊर्जा विपरीत दिशा में लग कर नष्ट हो जाती है। यह ऊर्जा हमारी इच्छानुसार काम तो आती ही नहीं अपितु वह इच्छित परिणाम प्राप्ति में बाधा और बन जाती है। इसी ऊर्जा को जो हमारी इच्छित परिणामों में बाधा बनती है और उसे ही मैं नकारात्मक ऊर्जा समझता हूँ।
हम अपनी ऊर्जा का सायास या अनचाहे, यह नकारात्मक उपयोग करते चलते हैं और जीवन में बहुत सी ऊर्जा नष्ट कर बैठते हैं। इस से वांछित परिणाम तो मिलते नहीं, उन के मिलने में देरी होती है। माध्यमिक कक्षाओं तक सभी ने विज्ञान पढ़ा है। जब हम बल और गति पढ़ रहे थे। तब एक बात पढ़ाई गई थी कि किसी भी वस्तु को धक्का देने में अधिक ऊर्जा लगती है बनिस्पत उस वस्तु को खींचने में। यह नकारात्मक ऊर्जा का एक अच्छा उदाहरण है।
क्यों रथ में घोड़े आगे होते हैं? क्यों रेल का इंजन आगे की ओर होता है? दोनों भार को खींचते हैं। जरा इस पर विचार करें तो पाएंगे कि यदि इंजन पीछे होता और डब्बों को धकिया रहा होता तो इच्छित परिणाम के लिए हमारा ऊर्जा व्यय दुगना होता, और घोड़े रथ के पीछे जोत दिए जाते तो वे कभी रथ को धकिया ही नहीं पाते। होता यह है कि जब हम किसी वस्तु को धक्का देते हैं तो उस वस्तु पर लगाया गया बल दो भागों में बंट जाता है। एक भाग उस वस्तु को जिस दिशा में हटाया जा रहा है उस दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में। बल का यह दूसरा हिस्सा जो गुरुत्वार्षण की दिशा में लगता है वह वस्तु को पृथ्वी की और दबाता है। वह नष्ट तो होता ही है साथ ही वस्तु को हटाने में बाधा भी पैदा करता है, क्यों कि यह पृथ्वी के केन्द्र की दिशा में लगता है। जो ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण की दिशा में यहाँ लगती है उसे हम नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं। क्यों कि यह नष्ट होते होते भी इच्छित परिणाम के विपरीत काम भी करती है।
इस के विपरीत जब हम उसी वस्तु को इच्छित दिशा में हटाने के लिए खींचते हैं। तो भी बल दो हिस्सों में विभाजित हो जाता है। एक खींचने की दिशा में और दूसरा गुरुत्वाकर्षण के विपरीत। यहाँ पहला हिस्सा तो पहले की तरह इच्छित दिशा में काम करता ही है, दूसरा भाग जो पृथ्वी के केन्द्र की दिशा से विपरीत लगता है वह वस्तु को भूमि से ऊपर उठाता है। इस तरह पहले जो ऊर्जा नष्ट हो कर बाधा पैदा कर रही थी, वह अब काम आती है और वस्तु को इच्छित दिशा की ओर ले जाने में सहजता उत्पन्न करती है।
हमारे कहे गए और लिखे गए शब्दों के साथ भी यही होता है। यदि वे इच्छित दिशा में परिवर्तन को रोकने में इस्तेमाल हो जाते हैं।
मैं ने अपने प्रिय एक साथी चिट्ठाकार के लिए एक टिप्पणी की थी। कि उन में बहुत ऊर्जा है, लेकिन वे नकारात्मक ऊर्जा को साथ लिए चलते हैं और परिणाम शून्य हो जाता है। तब साथी चिट्ठाकार ने जानने के लिए प्रश्न किया कि नकारात्मक ऊर्जा से मेरा क्या तात्पर्य है? मेरा नकारात्मक ऊर्जा से वही तात्पर्य था, जो इस आलेख में स्पष्ट किया है।
शनिवार, 3 जनवरी 2009
शुक्रवार, 2 जनवरी 2009
विराम चिन्हों पर फिर से एक विचार
अनवरत के आलेख अर्धविराम (;), अल्पविराम (,), प्रश्नवाचक चिन्ह(?) और संबोधन चिन्ह (!) कैसे लगाएँ? पर अनेक टिप्पणियाँ हुई। एक अन्य ब्लाग पर एक आलेख में इस पर एक स्नेहासिक्त छेड़ छाड़ भी पढ़ने को मिली। वहाँ जो बात लपेट कर कही गई थी, उस पर मैं उतने ही आदर के साथ टिपिया कर आ गया हूँ।
बैरागी जी, इस मामले को यहीं न छोड़ने के लिए आदेश दिया था। इसलिए फिर से एक संक्षिप्त बात यहाँ कर रहा हूँ।
मैं ने उस आलेख में जो भी कुछ लिखा था, वह न तो व्याकरण से संबंध रखता था और न ही भाषा से। उस का संबंध विराम चिन्हों से भी नहीं था। सभी भाषा को अपने हिसाब से सीखते हैं और अपने हिसाब से लिखते हैं। जो भी लिखता है उस का संबंध अपने लिखे से होता है। लेखक का लेखन एक तरह से लेखक के व्यक्तित्व के एक पक्ष को सामने लाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आजादी है कि वह किस तरह से स्वयं को और अपने विचारों को प्रकट करना चाहता है। मेरे आलेख का आशय कतई यह नहीं था कि मैं किसी की अपनी आजादी में दखल देना चाहता हूँ, या किसी की गलती की ओर उस का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
मेरा उस आलेख का मंतव्य मात्र इतना ही था कि विराम चिन्ह इस तरह लगें कि पूर्ण विराम वाक्य के अंत में इस तरह लगे कि उस का एक अभिन्न भाग बना रहे। उस से अगले वाक्य का भाग न लगे। विशेष रुप से ऐसा तो कभी न हो कि वाक्य एक पंक्ति में समाप्त हो जाए और पूर्ण विराम अगली पंक्ति के आरंभ में लगा हो और अगला वाक्य वहाँ से आरंभ हो रहा हो।
कंप्यूटर पर आरंभ में जब मैं टाइपिस्ट से टाइप कराने लगा तभी यह समस्या सामने आई थी और तब हम ने उस का हल यही खोज निकाला था कि वाक्य के अंतिम शब्द और पूर्ण विराम के बीच कोई रिक्ती (स्पेस) न छोड़ी जाए। हमने देखा कि बिना कोई स्पेस छोडे़ पूर्ण विराम लगाने के उपरांत एक रिक्ति (स्पेस) छोड़ कर अगला वाक्य प्रारंभ करने पर भी पूर्ण विराम बीच में मध्यस्थ की भांति खड़ा नजर आता है। तो हमने पूर्ण विराम के उपरांत दो रिक्तियाँ (डबल स्पेस) छोड़ना आरंभ कर दिया। इस से टाइपिंग की सुंदरता बढ़ गई और अपरूपता समाप्त हो गई।
बाद में जब मैं ने कम्प्यूटर लिया और खुद टाइपिंग की जरूरत पड़ी तो मैं बाजार से टाइपिंग सिखाने वाली पुस्तक खरीद कर लाया, जो मनोज प्रकाशन मंदिर, 31/8, जागृति विहार, मेरठ द्वारा प्रकाशित है। इस पुस्तक के टंकण गति प्राप्त करने के नियमों में पहला नियम यही है कि, "प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी तथा अंग्रेजी टंकण में पूर्ण विराम, प्रश्नवाचक चिन्ह, विस्मय बोधक चिन्ह को शब्द के तुरंत बाद लगा कर दो स्पेस छोड़ना चाहिए, अन्यथा आधी गलती मानी जाएगी।"
मैं ने उक्त नियम का पालन किया, और कर रहा हूँ। इस से सुन्दरता बढ़ी है और गति भी। इस पुस्तक में और भी नियम दिए हैं. वे कभी बाद में, आज इतना ही बहुत है। हाँ बेंगाणी जी ने कहा है कि वे पूर्ण विराम के स्थान पर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले बिंदु का प्रयोग करते हैं। वह भी सही है क्यों कि कोई चालीस वर्ष पहले यह तय हुआ था कि विराम चिन्ह और अंक अंग्रेजी वाले ही प्रयोग किये जाएँ जिस से सभी भाषाओं में एक रूपता बनी रहे। इस बहुत से प्रकाशनों ने अपनाया। करीब चालीस वर्ष से तो टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशनों में सभी में इन का प्रयोग होता चला आ रहा है। मुझे देवनागरी लिखते समय जिस में सभी अक्षर समान लंबाई के होते हैं पूर्ण विराम के स्थान बिंदु लगाना सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं लगा और मैं ने छोड़ दी गई खड़ी पाई को फिर से अपना लिया। कम से कम वह बिना मात्रा के अक्षर के बराबर तो होती है। बिंदु तो नीचे की तरफ वाहन के टायर के नीचे लगाए गए ओट के पत्थर की तरह लगता है। यह मेरी स्वयं की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही है। हालांकि मैं भी मानता हूँ कि बेंगाणी जी का सुझाव अधिक उत्तम है। यदि देवनागरी लिखने वाले अधिकांश लेखक बिंदु को पूर्ण विराम की खड़ी पाई के स्थान पर अपना लें तो लिखने पढ़ने वालों की सौंदर्यदृष्टि भी बदलेगी और बिंदु भी सुंदर लगने लगेगा।
बैरागी जी, इस मामले को यहीं न छोड़ने के लिए आदेश दिया था। इसलिए फिर से एक संक्षिप्त बात यहाँ कर रहा हूँ।
मैं ने उस आलेख में जो भी कुछ लिखा था, वह न तो व्याकरण से संबंध रखता था और न ही भाषा से। उस का संबंध विराम चिन्हों से भी नहीं था। सभी भाषा को अपने हिसाब से सीखते हैं और अपने हिसाब से लिखते हैं। जो भी लिखता है उस का संबंध अपने लिखे से होता है। लेखक का लेखन एक तरह से लेखक के व्यक्तित्व के एक पक्ष को सामने लाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आजादी है कि वह किस तरह से स्वयं को और अपने विचारों को प्रकट करना चाहता है। मेरे आलेख का आशय कतई यह नहीं था कि मैं किसी की अपनी आजादी में दखल देना चाहता हूँ, या किसी की गलती की ओर उस का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
मेरा उस आलेख का मंतव्य मात्र इतना ही था कि विराम चिन्ह इस तरह लगें कि पूर्ण विराम वाक्य के अंत में इस तरह लगे कि उस का एक अभिन्न भाग बना रहे। उस से अगले वाक्य का भाग न लगे। विशेष रुप से ऐसा तो कभी न हो कि वाक्य एक पंक्ति में समाप्त हो जाए और पूर्ण विराम अगली पंक्ति के आरंभ में लगा हो और अगला वाक्य वहाँ से आरंभ हो रहा हो।
कंप्यूटर पर आरंभ में जब मैं टाइपिस्ट से टाइप कराने लगा तभी यह समस्या सामने आई थी और तब हम ने उस का हल यही खोज निकाला था कि वाक्य के अंतिम शब्द और पूर्ण विराम के बीच कोई रिक्ती (स्पेस) न छोड़ी जाए। हमने देखा कि बिना कोई स्पेस छोडे़ पूर्ण विराम लगाने के उपरांत एक रिक्ति (स्पेस) छोड़ कर अगला वाक्य प्रारंभ करने पर भी पूर्ण विराम बीच में मध्यस्थ की भांति खड़ा नजर आता है। तो हमने पूर्ण विराम के उपरांत दो रिक्तियाँ (डबल स्पेस) छोड़ना आरंभ कर दिया। इस से टाइपिंग की सुंदरता बढ़ गई और अपरूपता समाप्त हो गई।
बाद में जब मैं ने कम्प्यूटर लिया और खुद टाइपिंग की जरूरत पड़ी तो मैं बाजार से टाइपिंग सिखाने वाली पुस्तक खरीद कर लाया, जो मनोज प्रकाशन मंदिर, 31/8, जागृति विहार, मेरठ द्वारा प्रकाशित है। इस पुस्तक के टंकण गति प्राप्त करने के नियमों में पहला नियम यही है कि, "प्रत्येक विद्यार्थी को हिन्दी तथा अंग्रेजी टंकण में पूर्ण विराम, प्रश्नवाचक चिन्ह, विस्मय बोधक चिन्ह को शब्द के तुरंत बाद लगा कर दो स्पेस छोड़ना चाहिए, अन्यथा आधी गलती मानी जाएगी।"
मैं ने उक्त नियम का पालन किया, और कर रहा हूँ। इस से सुन्दरता बढ़ी है और गति भी। इस पुस्तक में और भी नियम दिए हैं. वे कभी बाद में, आज इतना ही बहुत है। हाँ बेंगाणी जी ने कहा है कि वे पूर्ण विराम के स्थान पर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले बिंदु का प्रयोग करते हैं। वह भी सही है क्यों कि कोई चालीस वर्ष पहले यह तय हुआ था कि विराम चिन्ह और अंक अंग्रेजी वाले ही प्रयोग किये जाएँ जिस से सभी भाषाओं में एक रूपता बनी रहे। इस बहुत से प्रकाशनों ने अपनाया। करीब चालीस वर्ष से तो टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशनों में सभी में इन का प्रयोग होता चला आ रहा है। मुझे देवनागरी लिखते समय जिस में सभी अक्षर समान लंबाई के होते हैं पूर्ण विराम के स्थान बिंदु लगाना सौंदर्य की दृष्टि से ठीक नहीं लगा और मैं ने छोड़ दी गई खड़ी पाई को फिर से अपना लिया। कम से कम वह बिना मात्रा के अक्षर के बराबर तो होती है। बिंदु तो नीचे की तरफ वाहन के टायर के नीचे लगाए गए ओट के पत्थर की तरह लगता है। यह मेरी स्वयं की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही है। हालांकि मैं भी मानता हूँ कि बेंगाणी जी का सुझाव अधिक उत्तम है। यदि देवनागरी लिखने वाले अधिकांश लेखक बिंदु को पूर्ण विराम की खड़ी पाई के स्थान पर अपना लें तो लिखने पढ़ने वालों की सौंदर्यदृष्टि भी बदलेगी और बिंदु भी सुंदर लगने लगेगा।
लेबल:
भाषा,
लिपि,
विराम चिन्ह,
Language,
Punctuation,
Script
बुधवार, 31 दिसंबर 2008
महेन्द्र 'नेह' की कविता के 'कल' के साथ, नए वर्ष की शुभ-कामनाएँ !
2008 के आखिरी दिन से ही नया साल आरंभ हो गया है। सुबह से ही शुभकामनाओं का सिलसिला शुरू हो चुका है! दिन भर जब जब भी समय मिला उन्हें पढ़ा और प्रत्युत्तर भी किया!।
कल महेन्द्र 'नेह' आए थे। मैं ने उन से पूछा कुछ है नए साल के लिए तो उन्हों ने एक बहुत ही सुंदर कविता भेज दी है। इस कविता के रसास्वादन के साथ नए वर्ष का स्वागत कीजिए.....
* * * * * * *
कल महेन्द्र 'नेह' आए थे। मैं ने उन से पूछा कुछ है नए साल के लिए तो उन्हों ने एक बहुत ही सुंदर कविता भेज दी है। इस कविता के रसास्वादन के साथ नए वर्ष का स्वागत कीजिए.....
कल
- महेन्द्र 'नेह'
कल,
भिनसारे में उठ कर
चिड़ियाओं की चहचहाहट सुनूंगा
उदास कलियों के खिलने की
संभावनाएँ तलाशूंगा
लम्बी छलांग लगाऊंगा और
जी भर कर तैरूंगा नदी में
तपती दोपहर में
रेत के धोरों पर चढ़ कर
बादल राग गाऊंगा।
कल,
चांदनी के अप्रतिम सौन्दर्य
के अन्दर छुपी उदासी और
बेबसी का सबब
जानने की कोशिश करूंगा
और उस की खिलखिलाहट के
जादू में डूब कर
जिन्दगी के नए नग्मे लिखूंगा।
कल,
सितार पर नई धुन बजाऊंगा।
अपने भूले बिसरे दोस्तों को
नींद से जगाऊंगा
और उन के साथ चुहल करते हुए
कहकहे लगाऊंगा।
कल,
मोहल्ले के सारे बच्चों को
सीटियाँ बजा कर
इकट्ठा करूंगा
उन के साथ शहर की गलियों में
खूब दौड़ लगाऊंगा
और आसमान को
सर पर उठाऊंगा।
कल,
अपनी तमाम पीड़ाओं के साथ
महारास रचाऊंगा
और अपने दुखड़ों की
बाहों में बाहें डाल कर
दीपक नृत्य करूंगा।
कल पत्नी के जूड़े में
फूल सजाऊंगा
और बच्चों के साथ
सच्चे दोस्तों की तरह
एक नए उल्लास के साथ
बतियाऊंगा।
कल अपनी बहन के सारे आँसू
पी जाऊंगा
उस के होठों से रूठी हुई
मुस्कान वापस लाऊंगा
पिता जी के
एनक की धूल
साफ कर के
अपनी आंखों पर लगाऊंगा
और माँ की गोद में
अपना सिर रख कर
गहरी
बहुत गहरी
नींद में सो जाऊंगा।
* * * * * * *
सभी को नव वर्ष की बहुत बहुत शुभ कामनाएँ !
मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
अर्धविराम (;), अल्पविराम (,), प्रश्नवाचक चिन्ह(?) और संबोधन चिन्ह (!) कैसे लगाएँ?
अंतर्जाल के पृष्ठों पर और आम तौर पर ब्लाग पर कभी कभी देखता हूँ कि आलेख का वाक्य समाप्त हो रहा है वहीँ पंक्ति भी समाप्त हो रही है। वहाँ अंत में पूर्णविराम (खड़ी पाई) (।) होना चाहिए। पर वह नदारद नजर आती है। जब अगली पंक्ति देखते हैं तो वहां वाक्य आरंभ होने के पहले यह खड़ी-पाई खड़ी पाई जाती है। जैसे हिन्दी में नियम यह हो गया हो कि वाक्य के अंत में नहीं अपितु प्रारंभ में पूर्णविराम की खड़ी-पाई (।) खड़ी करने के लिए कोई अध्यादेश पारित हो गया हो और नहीं लगाने पर दण्ड मिलने वाला हो। या ऐसा लगता है कि आलेख में कोई आतंकवादी घुस आने के कारण रेड ऐलर्ट जारी हो गया हो और बाजार के हर कोने में पुलिस वाले की तरह खड़ी पाई तैनात करनी जरूरी हो गई हो। जिस से भले ही सुरक्षा हो न हो, बाजार आने वालों को तसल्ली रहे कि हाँ, चौकसी बढ़ गई है।
अब सिपाहियों की ड्यूटी लग जाए और होम गार्ड घरों में दुबके रहें यह तो होना संभव नहीं है। आखिर नागरिक सुरक्षा उपाय तो करने पड़ेंगे। तो कभी कभी ये अल्प विराम (,) महाशय भी इसी तरह पंक्ति के अंत के बजाय अगली पंक्ति के आरंभ में गणपति की भाँति मुस्तैद खड़े नजर आते हैं। कुछ भी हो दृश्य भले ही उटपटांग हो लेकिन चौकसी पूरी दिखाई देती है।
यह होता अनजाने में है। वास्तव में हम ने कम्प्यूटर खरीद लिए हैं, लेकिन टंकण-कला किसी उस्ताद से नहीं सीखी। बस यहीं कसर रह गई। अगर हम टंकण कला किसी उस्ताद से सीखते या दस-बारह रुपए खर्च कर किसी टंकण कला के अभ्यास वाली किताब खरीद कर पढ़ लेते तो काम चल जाता यह ऊटपटांग दृश्य उपस्थित नहीं होता। चलिए किस नियम भंग के कारण ऐसा होता है? उसे बता ही दिया जाए।
नियम यह है कि जब वाक्य पूरा हो तो वाक्य के अंतिम शब्द के अंतिम अक्षर और पूर्ण (।) या अल्पविराम (,) के बीच कोई रिक्त-स्थान याने (स्पेस) नहीं छोड़ा जाए। अल्पविराम (,) लगाने के बाद एक रिक्त-स्थान (सिंगल स्पेस) और पूर्ण विराम (।) के बाद दो रिक्त-स्थान (डबल स्पेस) छोड़ें जाएँ।
अब यदि आप वाक्य समाप्ति के बाद और पूर्ण विराम (।) के पहले एक रिक्त-स्थान छोड़ देते हैं औरवहीं आप के पृष्ठ की चौड़ाई समाप्त हो जाती है तो पूर्ण विराम (।) दूसरी पंक्ति में सब से पहले खड़ा हो जाता है। यही हाल अल्पविराम (,) का होता है। यदि पृष्ट की चौड़ाई समाप्त भी न हो रही हो तो भी आप एक रिक्त-स्थान पूर्ण विराम (।) के पहले छोड़ते हैं और बाद में नहीं, या वहाँ भी एक ही रिक्त-स्थान छोड़ते हैं तो भी पूर्ण विराम (।) समाप्त हुए वाक्य के अंत में लगा हुआ दिखाई देने के स्थान पर शुरू होने वाले वाक्य के पहले दरबान की तरह खड़ा दिखाई देता है।
तो आप याद रखेंगे ना, कैसे लगाने हैं विराम चिन्ह?
अब सिपाहियों की ड्यूटी लग जाए और होम गार्ड घरों में दुबके रहें यह तो होना संभव नहीं है। आखिर नागरिक सुरक्षा उपाय तो करने पड़ेंगे। तो कभी कभी ये अल्प विराम (,) महाशय भी इसी तरह पंक्ति के अंत के बजाय अगली पंक्ति के आरंभ में गणपति की भाँति मुस्तैद खड़े नजर आते हैं। कुछ भी हो दृश्य भले ही उटपटांग हो लेकिन चौकसी पूरी दिखाई देती है।
यह होता अनजाने में है। वास्तव में हम ने कम्प्यूटर खरीद लिए हैं, लेकिन टंकण-कला किसी उस्ताद से नहीं सीखी। बस यहीं कसर रह गई। अगर हम टंकण कला किसी उस्ताद से सीखते या दस-बारह रुपए खर्च कर किसी टंकण कला के अभ्यास वाली किताब खरीद कर पढ़ लेते तो काम चल जाता यह ऊटपटांग दृश्य उपस्थित नहीं होता। चलिए किस नियम भंग के कारण ऐसा होता है? उसे बता ही दिया जाए।
नियम यह है कि जब वाक्य पूरा हो तो वाक्य के अंतिम शब्द के अंतिम अक्षर और पूर्ण (।) या अल्पविराम (,) के बीच कोई रिक्त-स्थान याने (स्पेस) नहीं छोड़ा जाए। अल्पविराम (,) लगाने के बाद एक रिक्त-स्थान (सिंगल स्पेस) और पूर्ण विराम (।) के बाद दो रिक्त-स्थान (डबल स्पेस) छोड़ें जाएँ।
अब यदि आप वाक्य समाप्ति के बाद और पूर्ण विराम (।) के पहले एक रिक्त-स्थान छोड़ देते हैं औरवहीं आप के पृष्ठ की चौड़ाई समाप्त हो जाती है तो पूर्ण विराम (।) दूसरी पंक्ति में सब से पहले खड़ा हो जाता है। यही हाल अल्पविराम (,) का होता है। यदि पृष्ट की चौड़ाई समाप्त भी न हो रही हो तो भी आप एक रिक्त-स्थान पूर्ण विराम (।) के पहले छोड़ते हैं और बाद में नहीं, या वहाँ भी एक ही रिक्त-स्थान छोड़ते हैं तो भी पूर्ण विराम (।) समाप्त हुए वाक्य के अंत में लगा हुआ दिखाई देने के स्थान पर शुरू होने वाले वाक्य के पहले दरबान की तरह खड़ा दिखाई देता है।
तो आप याद रखेंगे ना, कैसे लगाने हैं विराम चिन्ह?
- बिना कोई रिक्त-स्थान (स्पेस) छोड़े पूर्ण विराम (।), अर्धविराम (;), अल्पविराम (,), प्रश्नवाचक चिन्ह(?) और संबोधन चिन्ह (!) लगाएँ।
- अर्धविराम (;) व अल्पविराम के बाद एक रिक्त स्थान (सिंगल स्पेस) और पूर्ण विराम, प्रश्नवाचक चिन्ह तथा संबोधन चिन्ह (!) के बाद दो रिक्त स्थान (डबल स्पेस) अवश्य छोड़ें।
रोटियाँ ! ज्वार, बाजरा, मक्का और गेहूँ के आटे की रोटियाँ !
जी हाँ, जब से घर में रोटियाँ बनती देखीं, गेहूँ की ही देखी। बनाने में आसान और खाने में आसान, स्वादिष्ट भी। पर कभी कभी दादी ज्वार की रोटियाँ थेपती थी और तवे पर सेकने के बाद आग में सेकती थी। उस का स्वाद कुछ और ही हुआ करता था। हमारे इलाके में उस जमाने में मक्का का प्रचलन कम था। लेकिन मेरे ननिहाल में बहुत। मेरी माँ को मक्का की याद आती तो वह मक्का की बनाती। मक्का के ढोकले भी बनाती जिसे हम तिल्ली के तेल के साथ खाते। बाजरा हमारे यहाँ बिलकुल नहीं होता। लेकिन जिस तरह लोग बाजरे की रोटियों का उल्लेख करते हम सोचते रह जाते।
फिर कोटा आए तो हम शौक से हर साल मक्का की रोटियां सर्दी में खाने लगे। फिर ज्वार का भी साल में कुछ दिन उपयोग करने लगे। लेकिन इस साल हम तीनों ही अनाज खूब खा रहे हैं। इस का कारण तो नहीं बताऊंगा। लेकिन अपना अनुभव जरूर बताऊंगा।
जब से ये तीनों अनाज हम खाने लगे हैं। पेट में गैस बनना कम हो गयी है। कब्ज बिलकुल नहीं रहती। कारण पर विचार किया तो पाया कि। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों के आटा मोटा पिसता है और उस में चौकर की मात्रा अधिक रहती है। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों में संभवतः कैलोरी भी कम होती है जिस से आप का पेट खूब भर जाता है और शरीर में कैलोरी कम जाती है। यदि मक्का को छोड़ दें तो ज्वार और बाजरे के दाने छोटे होते हैं जिस से उन के छिलके का फाइबर भी खूब पेट में जा रहा है।
मुझे एक बात और याद आ रही है। एक शाम हम शहर के बाहर एक पिकनिक स्पॉट पर घूमने गए तो वहाँ नया ग्रिड स्टेशन बनाने का काम शुरू हो गया था और नींव की खुदाई के लिए मजदूर लगे थे। ये सभी झाबुआ (म.प्र.) से आए थे। शाम को पास में ही बनाई गई अपनी झौंपड़ियों के बाहर पत्थर के बनाये चूल्हों पर औरतें रोटियाँ सेंक रही थी। हम पास गए तो देखा। औरतें सफाई से खूबसूरत बड़ी-बड़ी मक्का की रोटियाँ थेप कर तवे पर डाल रही थीं। सिकाई भी ऐसी कि एक भी दाग न लगे और रोटी पूरी सिक जाए। मैं ने पास में टहल रहे एक मजदूर से बात की। उस ने बताया कि वे मक्का ही खाते हैं। उन्हें इसी की आदत है। हालांकि यहाँ मक्का का आटा गेहूँ से महंगा मिलता है। वह बताता है कि गेहूँ की रोटी एक दो दिन लगातार खाने पर उन्हें दस्त लग जाते हैं। जब कि मक्का सुपाच्य है।
मुझे लगता है कि शहरी जीवन में जिस तरीके से शारीरिक श्रम कम हुआ है और मोटा अनाज खाना छोड़ दिया गया है उस से भी पेट के रोगों में वृद्धि हुई है। यदि हम सप्ताह में एक-दो बार मोटे अनाजों की रोटियाँ खाने लगें तो शायद पेट के रोगों से अधिक बचे रहें। अब पूरी सलाह तो कोई चिकित्सक ही दे सकते हैं।
फिर कोटा आए तो हम शौक से हर साल मक्का की रोटियां सर्दी में खाने लगे। फिर ज्वार का भी साल में कुछ दिन उपयोग करने लगे। लेकिन इस साल हम तीनों ही अनाज खूब खा रहे हैं। इस का कारण तो नहीं बताऊंगा। लेकिन अपना अनुभव जरूर बताऊंगा।
जब से ये तीनों अनाज हम खाने लगे हैं। पेट में गैस बनना कम हो गयी है। कब्ज बिलकुल नहीं रहती। कारण पर विचार किया तो पाया कि। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों के आटा मोटा पिसता है और उस में चौकर की मात्रा अधिक रहती है। गेहूँ की अपेक्षा इन अनाजों में संभवतः कैलोरी भी कम होती है जिस से आप का पेट खूब भर जाता है और शरीर में कैलोरी कम जाती है। यदि मक्का को छोड़ दें तो ज्वार और बाजरे के दाने छोटे होते हैं जिस से उन के छिलके का फाइबर भी खूब पेट में जा रहा है।
मुझे एक बात और याद आ रही है। एक शाम हम शहर के बाहर एक पिकनिक स्पॉट पर घूमने गए तो वहाँ नया ग्रिड स्टेशन बनाने का काम शुरू हो गया था और नींव की खुदाई के लिए मजदूर लगे थे। ये सभी झाबुआ (म.प्र.) से आए थे। शाम को पास में ही बनाई गई अपनी झौंपड़ियों के बाहर पत्थर के बनाये चूल्हों पर औरतें रोटियाँ सेंक रही थी। हम पास गए तो देखा। औरतें सफाई से खूबसूरत बड़ी-बड़ी मक्का की रोटियाँ थेप कर तवे पर डाल रही थीं। सिकाई भी ऐसी कि एक भी दाग न लगे और रोटी पूरी सिक जाए। मैं ने पास में टहल रहे एक मजदूर से बात की। उस ने बताया कि वे मक्का ही खाते हैं। उन्हें इसी की आदत है। हालांकि यहाँ मक्का का आटा गेहूँ से महंगा मिलता है। वह बताता है कि गेहूँ की रोटी एक दो दिन लगातार खाने पर उन्हें दस्त लग जाते हैं। जब कि मक्का सुपाच्य है।
मुझे लगता है कि शहरी जीवन में जिस तरीके से शारीरिक श्रम कम हुआ है और मोटा अनाज खाना छोड़ दिया गया है उस से भी पेट के रोगों में वृद्धि हुई है। यदि हम सप्ताह में एक-दो बार मोटे अनाजों की रोटियाँ खाने लगें तो शायद पेट के रोगों से अधिक बचे रहें। अब पूरी सलाह तो कोई चिकित्सक ही दे सकते हैं।
रविवार, 28 दिसंबर 2008
पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने
उस दिन के आलेख को लोगों की उन के नजरिए के अनुरूप टिप्पणीयाँ मिलीं। लेकिन मैं तो उस घटना से यही समझा था कि समाज में लालच को नियंत्रित करने के लिए एक राजनैतिक शक्ति की आवश्यकता है। जिस से समाज में आवश्यकता और उत्पादन का संतुलन न गड़बाड़ाए। संभवतः मार्क्सवाद में इसे ही प्रोलेटेरियन की डिक्टेटरशिप कहा है।
जहाँ तक मार्क्सवाद और समाजवाद पर कुछ कहने की बात है। उतनी कूवत शायद अभी मुझ में नहीं। वहाँ हाथ धरने के पहले शायद बहुत अध्ययन की जरूरत है। अभी पूंजी को हाथ लगाया है। उस के संदर्भ ग्रंथों की सूची देख कर ही भय लगा। कैसे अकेले मार्क्स ने इतने ग्रन्थों को घोटा होगा? क्या उस की ताकत रही होगी? और उस ताकत के पैदा होने का जरिया क्या रहा होगा?
उस पोस्ट पर वरुण के अतिरिक्त अनूप शुक्ल, Ratan Singh Shekhawat, प्रवीण त्रिवेदी,Arvind Mishra, Anil Pusadkar, ताऊ रामपुरिया, प्रशांत प्रियदर्शी PD, डा. अमर कुमार, विष्णु बैरागी, Gyan Dutt Pandey, Alag sa, डॉ .अनुराग, राज भाटिय़ा और कार्तिकेय की प्यारी टिप्पणियाँ मिलीं। सभी का बहुत आभार।
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
आज के आम मनुष्य को अपनी रोटी कमाने से ले कर जीवन स्तर पर टिके रहने के लिए जिस कदर व्यस्त रहना पड़ रहा है उस में कई सवाल खड़े होते हैं। क्या मनुष्य ने इतना ही व्यस्त रहने के लिए इतनी प्रगति की थी? इन्हीं प्रश्नों से जूझता है, महेन्द्र 'नेह' का यह गीत ....
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
दौड़, भोर से
शुरू हो गई
हॉफ रहीं
बोझिल संध्याऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
तंत्र मंत्रों से तिलिस्मों से
बिंधा वातावरण
प्रश्न कर्ता मौन हैं
हर ओर
अंधा अनुकरण
वेगवती है
भ्रम की आँधी
कांप रहीं
अभिशप्त दिशाऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
सेठ, साधु, लम्पटों के
एक से परिधान
फर्क करना कठिन है
मिट गई है इस कदर पहचान
नग्न नृत्य
करती सच्चाई
नाच रहीं
अनुरक्त ऋचाऐं
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
दौड़, भोर से
शुरू हो गई
हॉफ रहीं
बोझिल संध्याऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
तंत्र मंत्रों से तिलिस्मों से
बिंधा वातावरण
प्रश्न कर्ता मौन हैं
हर ओर
अंधा अनुकरण
वेगवती है
भ्रम की आँधी
कांप रहीं
अभिशप्त दिशाऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
सेठ, साधु, लम्पटों के
एक से परिधान
फर्क करना कठिन है
मिट गई है इस कदर पहचान
नग्न नृत्य
करती सच्चाई
नाच रहीं
अनुरक्त ऋचाऐं
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
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